हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति कमोबेश कांग्रेस सरकार जैसी ही रही है। कांग्रेस की तरह बीजेपी भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रिटक पार्टी के साथ सत्ता सुख भोग रही है। इसके लिए बीजेपी ने पीडीपी को लिखित रूप में आश्वासन भी दिया है कि राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छे 370 को केंद्र की एनडीए सरकार जस का तस बनाए रखेगी यानी उससे कोई छोड़छाड़ नहीं किया जाएगा। ज़ाहिर है, अपने को घोर राष्ट्रवादी पार्टी मानने वाली बीजेपी ने फ़िलहाल कश्मीर में सत्ता सुख के लिए अपने सबसे अहम् एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अब बीजेपी कह रही है, जब भारतीय संसद में दो तिहाई बहुमत मिलेगा, इस मसले को तब देखेंगे।
दरअसल, लोकसभा में चुनाव प्रचार के दौरान जम्मू की रैली में मोदी ने ही धारा 370 पर कम से कम बहस करने की बात कही थी। उस समय राष्ट्रवाद के पैरोकार उम्मीद करने लगे थे कि सत्ता में आने के बाद मोदी इस एजेंडे पर काम करेंगे। मोदी ने शुरुआत भी अच्छी की थी। उधमपुर के लोकसभा सदस्य डॉ. जीतेंद्र सिंह को पीएमओ में राज्यमंत्री बना दिया था और डॉ. जीतेंद्र धारा 370 पर बहस की बात करने लगे थे, तब भी लगा थी कि मोदी परंपरा से हटकर कोई क़दम उठाएंगे, लेकिन दो साल बाद हालात एकदम अलग हैं। बहस तो दूर बीजेपी ने पीडीपी को लिखकर दे दिया है कि यह मसला जस का तस रहेगा। यही तो कांग्रेस करती आ रही है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इस बात पर अफ़सोस करते रहे कि बहुमत न होने के कारण धारा 370 को पर कोई फ़ैसला नहीं ले पा रहे हैं। कम से कम ऐसी शिकायत मोदी को नहीं है, क्योंकि उनके पास लोकसभा में 280 सीट का अच्छा बहुमत है। देश की जनता ने मोदी को बहुमत और एनडीए को 336 लोकसभा सदस्यों की शक्ति देकर यह संदेश दिया है कि भारत में सभी राज्यों को बराबर कर दीजिए। लिहाज़ा, मोदी के सत्ता में आते ही लोग धारा 370 को ख़त्म करने की चर्चा करने लगे थे।
यह सच है कि धारा 370 ख़त्म करने के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत यानी लोकसभा में 367 सीट और राज्यसभा में 164 सीट की ज़रूरत है। यह काम केंद्र नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास दो तिहाई बहुमत न तो लोकसभा में है न ही राज्यसभा में। लेकिन, चूंकि मोदी ने ख़ुद चुनाव प्रचार के दौरान धारा 370 के औचित्य पर सवाल उठाया था और उन्हें उसी मुद्दे पर जनादेश मिला था। लिहाज़ा, कम से कम सरकार को इस मुद्दे पर संसद में बहस की पहल तो करनी चाहिए थी। ताकि पूरा देश सुनता कि उनके क़ानून-निर्माता किसी राज्य विशेष को स्पेशल स्टैटस देने के बारे में क्या सोच रखते हैं।
अगर कश्मीर में मौजूदा हालात पर बात करें तो एनआईटी का विवाद थम गया है, पर आतंकी वारदात और सीमापार से घुसपैठ बढ़ रही हैं। धीरे-धीरे घाटी में आतंकवाद की फिर से वापसी होती नज़र आ रही है। हैरानी की बात है कि यह घोर राष्ट्रवादी कहे जाने वाले प्रधानमंत्री के रिजिम में हो रहा है। इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर समस्या और आतंकवाद तब तक यथावत रहेगा, जब तक कठोर फ़ैसला लेते हुए विशेष राज्य का दर्जा देने वाले धारा 370 ख़त्म नहीं कर दी जाती। वाक़ई अगर कश्मीर समस्या सदा के लिए हल करना है तो भारतीय संसद को ज़बरदस्ती इस धारा को स्क्रैप कर देना चाहिए।
कई लोग आशंकित रहते हैं कि इसे ख़त्म करने से बवाल हो सकता है। यह महज़ भ्रांति है, क्योंकि राज्य में जितने लोग इस धारा के समर्थक हैं, उससे ज़्यादा इसके विरोधी। इसलिए, अगर संसद इसे ख़त्म करने का प्रस्ताव पारित करती है, तो बहुत होगा, मुट्ठी भर लोग श्रीनगर की सड़कों पर निकलेंगे। इस तरह का विरोध तो यहां 26-27 साल से आए दिन हो रहा है। एक और विरोध प्रशासन झेल लेगा, जैसे 8 अगस्त 1953 को तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस करके जेल में डाल देने पर विरोध ज़रूर हुआ था परंतु वह धीरे-धीरे शांत हो गया। ठीक इसी तरह धारा 370 ख़त्म करने पर विरोध होगा, लेकिन धीरे-धीरे शांत हो जाएगा और कम से कम एक नासूर की स्थाई सर्जरी तो हो जाएगी।
कश्मीर का भूगोल ही ऐसा है कि वह स्वतंत्र देश के रूप में अपना अस्तित्व लंबे समय तक नहीं बनाए रख सकता। अगस्त 1947 में वह आज़ाद था, पर विभाजन के फ़ौरन बाद पाकिस्तान ने क़ब्ज़े के मकसद से कबीलाइयों के साथ हमला कर दिया और मुज़फ़्फ़राबाद व मीरपुर जैसे समृद्ध इलाकों पर क़ब्ज़ा कर लिया। कश्मीर पाकिस्तान से बचाने के लिए राजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली का रुख किया। 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय के समझौते का बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बना। मतलब, मान लीजिए, कश्मीर आज़ाद हो भी जाए, तो पाकिस्तान उसे आज़ाद नहीं रहने देगा। अगर पाकिस्तान से बच गया तो चीन घात लगाए बैठा है। जैसे तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया, वैसे ही कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेगा। यानी कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व फिज़िबल नहीं है।
यह तथ्य अलगाववादी और दूसरे नेता भली-भांति जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कश्मीर भारत से अलग नहीं हो सकता। लिहाज़ा, अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए आज़ादी का राग आलापते रहते हैं। देश के पैसे पर पल रहे ये लोग इतने भारत को अपना देश मानते ही नहीं और दुष्प्रचार करते रहते हैं। इनकी पूरी कवायद धारा 370 अक्षुण्ण रखने के लिए होती है। दरअसल, पिछले क़रीब सात दशक से सत्ता सुख भोगने वाले ये लोग इसे ख़त्म करना तो दूर इस पर चर्चा का भी विरोध करते हैं। बहस या समीक्षा की मांग सिरे से ख़ारिज़ करते हैं। सीएम मेहबूबा मुफ़्ती, उमर अब्दुल्ला आदि धमकी देते हैं कि अगर यह हटा तो कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। इस बात में दो राय नहीं कि इस विकास-विरोधी प्रावधान को अब्दुल्ला-मुफ्ती जैसे सियासतदां और नैशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए बनाए रखना चाहती हैं, क्योंकि यह धारा उनके ऐय्याशी, निकम्मेपन और भ्रष्टाचार पर लीपापोती करने का कारगर टूल बन गया है।
अगर कहा जाए कि इस सीमावर्ती राज्य की समस्या के लिए केवल पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ज़िम्मेदार हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। नेहरू की अदूरदर्शिता और अहंकार का नतीजा आज पूरा मुल्क़ भुगत रहा है। धारा 370 का सबने कड़ा विरोध किया था, पर नेहरू अड़े रहे। ’अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता और मज़बूरी’ का हवाला देकर इसे लागू कराने में सफल रहे। नेहरू और शेख अब्दुला के बीच दिल्ली समझौते के बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश किया गया।
देश के स्वरूप पर आघात करने वाले इस प्रावधान का डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने पुरज़ोर विरोध किया था। 1952 में मुखर्जी ने नेहरू से कहा, “आप जो करने जा रहे हैं, वह नासूर बन जाएगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा। यह प्रावधान उन लोगों को मज़बूत करेगा, जो कहते कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों का समूह है।“ आज घाटी में जो हालात हैं उन्हें देखकर लगता है कि मुखर्जी की आशंका ग़लत नहीं थी? धारा 370 के कारण ही राज्य मुख्यधारा से जुडऩे की बजाय अलगाववाद की ओर मुड़ गया। यानी देश के अंदर ही एक मिनी पाकिस्तान बन गया, जहां तिरंगे का अपमान होता है, देशविरोधी नारे लगाए जाते हैं और भारतीयों की मौत की कामना की जाती है।
एक उपलब्ध रिपोर्ट के मुताबिक़, डॉ. भीमराव आंबेडकर भी कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने ने शेख़ अब्दुल्ला को लताड़ते हुए साफ़ शब्दों में कह दिया था, “आप चाहते हैं, भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके यहां सड़कें बनाए, आपको राशन दे और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत के पास सीमित अधिकार हों और जनता का कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं हो। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना देश के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा है और मैं क़ानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।“ तब अब्दुल्ला नेहरू से मिले जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेज दिया। आयंगर सरदार पटेल से मिले और उनसे कहा कि वह इस मामले में कुछ करें क्योंकि नेहरू ने अब्दुल्ला से इस बात का वादा किया था और अब यह उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ गया है।
दरअसल, विशेष दर्जे के कारण राज्य में बेटियों के साथ घोर पक्षपात होता है। दूसरे राज्य के व्यक्ति से शादी करने पर वे स्टेट सब्जेक्ट यानी राज्य की नागरिकता खो देती हैं। कुपवाड़ा की अमरजीत कौर इस अमानवीय पक्ष की जीती जागती मिसाल हैं। गैर-कश्मीरी से शादी करने वाली अमरजीत को नागरिकता साबित करने और पैत्रृक संपति पर अधिकार साबित करने में 24 साल लग गए। दूसरे राज्य के पुरुष से शादी के बाद बेटियां नागरिक बनी रहेंगी या नहीं, इस मसले पर आज भी कोई साफ़ गाइडलाइन नहीं है। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के 2002 के फ़ैसले के बाद धारा 370 की विसंगतियां प्रकाश में आईं। इसे बदलने की कोशिश तो दूर राजनीतिक दलों ने इस पर चर्चा भी नहीं की। इसी मंतव्य के तहत सन् 2004 में विधानसभा में ‘स्थाई नागरिकता अयोग्यता विधेयक’ यानी परमानेंट रेज़िडेंट्स डिसक्वालिफ़िकेशन बिल पेश हुआ। इसका मकसद ही हाईकोर्ट का फैसला निरस्त करना था। यह बिल क़ानून नहीं बन सका तो इसका सारा श्रेय विधान परिषद को जाता है जिसने इसे मंज़ूरी देने वाला प्रस्ताव ख़ारिज़ कर दिया।
एक सच यह भी है कि केंद्र इस राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता है, फिर भी राज्य में उद्योग–धंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई तैयार नहीं, क्योंकि यह धारा आड़े आती हैं। उद्योग का रोज़गार से सीधा संबंध है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार के अवसर नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर इतना समृद्ध होने के बावजूद इसे शासकों ने दीन-हीन राज्य बना दिया है। यह केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर है। इसकी माली हालत इतनी ख़राब है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। इतना ही नहीं इस राज्य के लोग पूरे देश के पैसे पर ऐश करते हैं।
दरअसल, धारा 370 को लागू करते समय नेहरू ने भरोसा दिया था कि यह अस्थायी व्यवस्था है जो समय के साथ घिस–घिस कर ख़ुद समाप्त हो जाएगी, लेकिन यह घिसने की बजाय परमानेंट हो गई। अब पीडीपी और एनसी क्रमशः सेल्फ़रूल और ग्रेटर ऑटोनॉमी के ज़रिए कश्मीर को 1953 से पहले की पोज़िशन में लाने की वकालत करते हैं। दरअसल, इन मुद्दों को उछालकर कश्मीरी नेतृत्व संकेत देता है कि धारा 370 को टच मत करो। ऐसे में यह कहना अतिरंजनापूर्ण कतई नहीं होगा कि मोदी ने चुनाव के दौरान यह मसला व्यापक राष्ट्रीय हित में उठाया था, लेकिन उस पर अमल नहीं किया। विशेषज्ञों का मानना है कि धारा 370 हटाने के बाद राज्य की 95 फ़ीसदी आबादी का विकास होगा जो अब तक मुख्यधारा से कटी हुई है क्योंकि सत्ता सुख भोगने वाले राजनेता अकेले ही अब तक सारी मलाई खाते रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति कमोबेश कांग्रेस सरकार जैसी ही रही है। कांग्रेस की तरह बीजेपी भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रिटक पार्टी के साथ सत्ता सुख भोग रही है। इसके लिए बीजेपी ने पीडीपी को लिखित रूप में आश्वासन भी दिया है कि राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छे 370 को केंद्र की एनडीए सरकार जस का तस बनाए रखेगी यानी उससे कोई छोड़छाड़ नहीं किया जाएगा। ज़ाहिर है, अपने को घोर राष्ट्रवादी पार्टी मानने वाली बीजेपी ने फ़िलहाल कश्मीर में सत्ता सुख के लिए अपने सबसे अहम् एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अब बीजेपी कह रही है, जब भारतीय संसद में दो तिहाई बहुमत मिलेगा, इस मसले को तब देखेंगे।
दरअसल, लोकसभा में चुनाव प्रचार के दौरान जम्मू की रैली में मोदी ने ही धारा 370 पर कम से कम बहस करने की बात कही थी। उस समय राष्ट्रवाद के पैरोकार उम्मीद करने लगे थे कि सत्ता में आने के बाद मोदी इस एजेंडे पर काम करेंगे। मोदी ने शुरुआत भी अच्छी की थी। उधमपुर के लोकसभा सदस्य डॉ. जीतेंद्र सिंह को पीएमओ में राज्यमंत्री बना दिया था और डॉ. जीतेंद्र धारा 370 पर बहस की बात करने लगे थे, तब भी लगा थी कि मोदी परंपरा से हटकर कोई क़दम उठाएंगे, लेकिन दो साल बाद हालात एकदम अलग हैं। बहस तो दूर बीजेपी ने पीडीपी को लिखकर दे दिया है कि यह मसला जस का तस रहेगा। यही तो कांग्रेस करती आ रही है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इस बात पर अफ़सोस करते रहे कि बहुमत न होने के कारण धारा 370 को पर कोई फ़ैसला नहीं ले पा रहे हैं। कम से कम ऐसी शिकायत मोदी को नहीं है, क्योंकि उनके पास लोकसभा में 280 सीट का अच्छा बहुमत है। देश की जनता ने मोदी को बहुमत और एनडीए को 336 लोकसभा सदस्यों की शक्ति देकर यह संदेश दिया है कि भारत में सभी राज्यों को बराबर कर दीजिए। लिहाज़ा, मोदी के सत्ता में आते ही लोग धारा 370 को ख़त्म करने की चर्चा करने लगे थे।
यह सच है कि धारा 370 ख़त्म करने के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत यानी लोकसभा में 367 सीट और राज्यसभा में 164 सीट की ज़रूरत है। यह काम केंद्र नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास दो तिहाई बहुमत न तो लोकसभा में है न ही राज्यसभा में। लेकिन, चूंकि मोदी ने ख़ुद चुनाव प्रचार के दौरान धारा 370 के औचित्य पर सवाल उठाया था और उन्हें उसी मुद्दे पर जनादेश मिला था। लिहाज़ा, कम से कम सरकार को इस मुद्दे पर संसद में बहस की पहल तो करनी चाहिए थी। ताकि पूरा देश सुनता कि उनके क़ानून-निर्माता किसी राज्य विशेष को स्पेशल स्टैटस देने के बारे में क्या सोच रखते हैं।
अगर कश्मीर में मौजूदा हालात पर बात करें तो एनआईटी का विवाद थम गया है, पर आतंकी वारदात और सीमापार से घुसपैठ बढ़ रही हैं। धीरे-धीरे घाटी में आतंकवाद की फिर से वापसी होती नज़र आ रही है। हैरानी की बात है कि यह घोर राष्ट्रवादी कहे जाने वाले प्रधानमंत्री के रिजिम में हो रहा है। इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर समस्या और आतंकवाद तब तक यथावत रहेगा, जब तक कठोर फ़ैसला लेते हुए विशेष राज्य का दर्जा देने वाले धारा 370 ख़त्म नहीं कर दी जाती। वाक़ई अगर कश्मीर समस्या सदा के लिए हल करना है तो भारतीय संसद को ज़बरदस्ती इस धारा को स्क्रैप कर देना चाहिए।
कई लोग आशंकित रहते हैं कि इसे ख़त्म करने से बवाल हो सकता है। यह महज़ भ्रांति है, क्योंकि राज्य में जितने लोग इस धारा के समर्थक हैं, उससे ज़्यादा इसके विरोधी। इसलिए, अगर संसद इसे ख़त्म करने का प्रस्ताव पारित करती है, तो बहुत होगा, मुट्ठी भर लोग श्रीनगर की सड़कों पर निकलेंगे। इस तरह का विरोध तो यहां 26-27 साल से आए दिन हो रहा है। एक और विरोध प्रशासन झेल लेगा, जैसे 8 अगस्त 1953 को तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस करके जेल में डाल देने पर विरोध ज़रूर हुआ था परंतु वह धीरे-धीरे शांत हो गया। ठीक इसी तरह धारा 370 ख़त्म करने पर विरोध होगा, लेकिन धीरे-धीरे शांत हो जाएगा और कम से कम एक नासूर की स्थाई सर्जरी तो हो जाएगी।
कश्मीर का भूगोल ही ऐसा है कि वह स्वतंत्र देश के रूप में अपना अस्तित्व लंबे समय तक नहीं बनाए रख सकता। अगस्त 1947 में वह आज़ाद था, पर विभाजन के फ़ौरन बाद पाकिस्तान ने क़ब्ज़े के मकसद से कबीलाइयों के साथ हमला कर दिया और मुज़फ़्फ़राबाद व मीरपुर जैसे समृद्ध इलाकों पर क़ब्ज़ा कर लिया। कश्मीर पाकिस्तान से बचाने के लिए राजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली का रुख किया। 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय के समझौते का बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बना। मतलब, मान लीजिए, कश्मीर आज़ाद हो भी जाए, तो पाकिस्तान उसे आज़ाद नहीं रहने देगा। अगर पाकिस्तान से बच गया तो चीन घात लगाए बैठा है। जैसे तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया, वैसे ही कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेगा। यानी कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व फिज़िबल नहीं है।
यह तथ्य अलगाववादी और दूसरे नेता भली-भांति जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कश्मीर भारत से अलग नहीं हो सकता। लिहाज़ा, अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए आज़ादी का राग आलापते रहते हैं। देश के पैसे पर पल रहे ये लोग इतने भारत को अपना देश मानते ही नहीं और दुष्प्रचार करते रहते हैं। इनकी पूरी कवायद धारा 370 अक्षुण्ण रखने के लिए होती है। दरअसल, पिछले क़रीब सात दशक से सत्ता सुख भोगने वाले ये लोग इसे ख़त्म करना तो दूर इस पर चर्चा का भी विरोध करते हैं। बहस या समीक्षा की मांग सिरे से ख़ारिज़ करते हैं। सीएम मेहबूबा मुफ़्ती, उमर अब्दुल्ला आदि धमकी देते हैं कि अगर यह हटा तो कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। इस बात में दो राय नहीं कि इस विकास-विरोधी प्रावधान को अब्दुल्ला-मुफ्ती जैसे सियासतदां और नैशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए बनाए रखना चाहती हैं, क्योंकि यह धारा उनके ऐय्याशी, निकम्मेपन और भ्रष्टाचार पर लीपापोती करने का कारगर टूल बन गया है।
अगर कहा जाए कि इस सीमावर्ती राज्य की समस्या के लिए केवल पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ज़िम्मेदार हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। नेहरू की अदूरदर्शिता और अहंकार का नतीजा आज पूरा मुल्क़ भुगत रहा है। धारा 370 का सबने कड़ा विरोध किया था, पर नेहरू अड़े रहे। ’अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता और मज़बूरी’ का हवाला देकर इसे लागू कराने में सफल रहे। नेहरू और शेख अब्दुला के बीच दिल्ली समझौते के बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश किया गया।
देश के स्वरूप पर आघात करने वाले इस प्रावधान का डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने पुरज़ोर विरोध किया था। 1952 में मुखर्जी ने नेहरू से कहा, “आप जो करने जा रहे हैं, वह नासूर बन जाएगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा। यह प्रावधान उन लोगों को मज़बूत करेगा, जो कहते कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों का समूह है।“ आज घाटी में जो हालात हैं उन्हें देखकर लगता है कि मुखर्जी की आशंका ग़लत नहीं थी? धारा 370 के कारण ही राज्य मुख्यधारा से जुडऩे की बजाय अलगाववाद की ओर मुड़ गया। यानी देश के अंदर ही एक मिनी पाकिस्तान बन गया, जहां तिरंगे का अपमान होता है, देशविरोधी नारे लगाए जाते हैं और भारतीयों की मौत की कामना की जाती है।
एक उपलब्ध रिपोर्ट के मुताबिक़, डॉ. भीमराव आंबेडकर भी कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने ने शेख़ अब्दुल्ला को लताड़ते हुए साफ़ शब्दों में कह दिया था, “आप चाहते हैं, भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके यहां सड़कें बनाए, आपको राशन दे और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत के पास सीमित अधिकार हों और जनता का कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं हो। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना देश के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा है और मैं क़ानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।“ तब अब्दुल्ला नेहरू से मिले जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेज दिया। आयंगर सरदार पटेल से मिले और उनसे कहा कि वह इस मामले में कुछ करें क्योंकि नेहरू ने अब्दुल्ला से इस बात का वादा किया था और अब यह उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ गया है।
दरअसल, विशेष दर्जे के कारण राज्य में बेटियों के साथ घोर पक्षपात होता है। दूसरे राज्य के व्यक्ति से शादी करने पर वे स्टेट सब्जेक्ट यानी राज्य की नागरिकता खो देती हैं। कुपवाड़ा की अमरजीत कौर इस अमानवीय पक्ष की जीती जागती मिसाल हैं। गैर-कश्मीरी से शादी करने वाली अमरजीत को नागरिकता साबित करने और पैत्रृक संपति पर अधिकार साबित करने में 24 साल लग गए। दूसरे राज्य के पुरुष से शादी के बाद बेटियां नागरिक बनी रहेंगी या नहीं, इस मसले पर आज भी कोई साफ़ गाइडलाइन नहीं है। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के 2002 के फ़ैसले के बाद धारा 370 की विसंगतियां प्रकाश में आईं। इसे बदलने की कोशिश तो दूर राजनीतिक दलों ने इस पर चर्चा भी नहीं की। इसी मंतव्य के तहत सन् 2004 में विधानसभा में ‘स्थाई नागरिकता अयोग्यता विधेयक’ यानी परमानेंट रेज़िडेंट्स डिसक्वालिफ़िकेशन बिल पेश हुआ। इसका मकसद ही हाईकोर्ट का फैसला निरस्त करना था। यह बिल क़ानून नहीं बन सका तो इसका सारा श्रेय विधान परिषद को जाता है जिसने इसे मंज़ूरी देने वाला प्रस्ताव ख़ारिज़ कर दिया।
एक सच यह भी है कि केंद्र इस राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता है, फिर भी राज्य में उद्योग–धंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई तैयार नहीं, क्योंकि यह धारा आड़े आती हैं। उद्योग का रोज़गार से सीधा संबंध है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार के अवसर नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर इतना समृद्ध होने के बावजूद इसे शासकों ने दीन-हीन राज्य बना दिया है। यह केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर है। इसकी माली हालत इतनी ख़राब है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। इतना ही नहीं इस राज्य के लोग पूरे देश के पैसे पर ऐश करते हैं।
दरअसल, धारा 370 को लागू करते समय नेहरू ने भरोसा दिया था कि यह अस्थायी व्यवस्था है जो समय के साथ घिस–घिस कर ख़ुद समाप्त हो जाएगी, लेकिन यह घिसने की बजाय परमानेंट हो गई। अब पीडीपी और एनसी क्रमशः सेल्फ़रूल और ग्रेटर ऑटोनॉमी के ज़रिए कश्मीर को 1953 से पहले की पोज़िशन में लाने की वकालत करते हैं। दरअसल, इन मुद्दों को उछालकर कश्मीरी नेतृत्व संकेत देता है कि धारा 370 को टच मत करो। ऐसे में यह कहना अतिरंजनापूर्ण कतई नहीं होगा कि मोदी ने चुनाव के दौरान यह मसला व्यापक राष्ट्रीय हित में उठाया था, लेकिन उस पर अमल नहीं किया। विशेषज्ञों का मानना है कि धारा 370 हटाने के बाद राज्य की 95 फ़ीसदी आबादी का विकास होगा जो अब तक मुख्यधारा से कटी हुई है क्योंकि सत्ता सुख भोगने वाले राजनेता अकेले ही अब तक सारी मलाई खाते रहे हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें