हरिगोविंद विश्वकर्मा
निश्चित तौर पर प्रखर परिवारवादी और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह
यादव अपने राजनीतिक जीवन के सबसे ज़्यादा संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। देश के सबसे बड़े
राजनीतिक परिवार के महाभारत में उनका अपना बेटा ही उनके सामने खड़ा है। इस संकट
के बीच उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उससे यही लगता है
कि मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं। देश के
सबसे बड़े सूबे में शासन करने वाली पार्टी में जो घमासान चल रहा है, उसे दो तीन महीने
पुराना मामला मानना भारी भूल होगी। इसकी जड़ें महीने-दो महीने या साल दो साल नहीं
बल्कि तीन दशक से ज़्यादा पुरानी हैं।
इतना ही नहीं, जो लोग समाजवादी पार्टी में मौजूदा कलह को चाचा-भतीजे यानी
अखिलेश यादव और उनकी टीम में सर्वाधिक ताक़तवर मंत्री रहे शिवपाल यादव के बीच की वर्चस्व
की लड़ाई मानकर चल रहे हैं, वे यक़ीनन भारी ग़लतफ़हमी में हैं। दरअसल, शतरंज के इस
खेल में शिवपाल तो महज़ एक मोहरा भर हैं, जिन्हें अपने बड़े बेटे पर अंकुश रखने के
लिए नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव इस्तेमाल कर रहे हैं। सबसे अहम बात यह कि मुलायम
अपनी इच्छा से यह सब नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनसे यह सब करवाया जा रहा है। मुलायम जैसी
शख़्सियत से यह सब कराने की क्षमता किसके पास है। यह भी समझने की बात है।
सबसे अहम बात यह कि मुलायम के जिगरी दोस्त राज्यसभा सदस्य और पॉलिटिकल मैनेजर ठाकुर
अमर सिंह इस मामले पर पूरी तरह ख़ामोश हैं, फिर भी समाजवादी पार्टी के मौजूदा संकट
में उनका नाम बार-बार आ रहा है। ऐसे परिवेश में आम लोगों के मन में सहज सवाल उठना
लाज़िमी है कि आख़िर अखिलेश यादव अपने पिता के अभिन्न मित्र से इतना चिढ़ते क्यों
हैं। इसका उत्तर जानने के लिए अस्सी के दौर में जाना पड़ेगा, जब समाजवादी पार्टी
या जनता दल का अस्तित्व नहीं था और तब मुलायम सिंह यादव लोकदल के नेता हुआ करते थे।
1967 में बतौर विधान सभा सदस्य राजनीतिक सफ़र शुरू करने वाले मुलायम सिंह
अस्सी के दशक तक राज्य के बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली नेता बन गए। चौधरी चरण
सिंह के बाद संभवतः वह उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग और यादवों के सबसे ज़्यादा
कद्दावर नेता हैं। राजनीतिक सफ़र में नेताओं के जीवन में महिलाएं आती रही हैं। जब
मुलायम उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे तो उनके जीवन में अचानक
उनकी फ़िलहाल दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की एंट्री हुई।
मुलायम सिंह और साधना गुप्ता की प्रेम कहानी कब शुरू हुई, इस बारे में अधिकृत
ब्यौरा किसी के पास नहीं है। कहा जाता है कि 1982 में जब मुलायम लोकदल के अध्यक्ष
बने तब एक दिन उनकी नज़र अचानक पार्टी की नई युवा पदाधिकारी साधना पर पड़ी। 20 साल की तरुणी साधना इतनी ख़ूबसूरत कि जो भी उन्हें देखता, बस देखता ही रह जाता था। मुलायम भी अपवाद नहीं थे। पहली मुलाक़ात में वह उम्र में 23 साल छोटी साधना गुप्ता को दिल दे बैठे। यहीं से
मुलायम-साधना की अनोखी प्रेम कहानी शुरू हुई, जो तीस-बत्तीस साल बाद अंततः देश के
सबसे ताक़तवर राजनीतिक परिवार में विभाजन की वजह बन रही है।
अस्सी के दशक में साधना गुप्ता और मुलायम सिंह के बीच क्या चल रहा है, इसकी
भनक लंबे समय तक किसी को नहीं लगी। मुलायम के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति वाले मामले की जांच के दौरान सीबीआई की स्टेट्स रिपोर्ट में दर्ज है कि साधना गुप्ता और फर्रुखाबाद के चंद्रप्रकाश गुप्ता की शादी 4 जुलाई 1986 को हई थी। अगले साल 7 जुलाई 1987 को प्रतीक गुप्ता (अब प्रतीक यादव) का जन्म हुआ था। बहरहाल, 1962 में जन्मी औरैया जिले की साधना गुप्ता का मुलायम के चलते पति चंद्रप्रकाश गुप्ता से साल 1990 में औपचारिक तलाक हो गया। इसी दौरान 1987 में साधना ने एक पुत्र प्रतीक गुप्ता को जन्म दिया। कहते हैं कि साधना गुप्ता के साथ प्रेम संबंध की
भनक मुलायम की पहली पत्नी और अखिलेश की मां मालती देवी को लग गई। वह बहुत ही
आकर्षक और दान-धर्म में यक़ीन करने वाली महिला थीं। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं
होगा कि मुलायम का पूरा परिवार अगर एकजुट बना रहा है तो इसका सारा श्रेय मालती
देवी को ही जाता है। मुलायम राजनीति में सक्रिय थे। उस दौरान वे एक-दूसरे को शायद
ही कभी-कभार देख पाते थे, लेकिन मालती देवी अपने परिवार और 1973 में जन्मे बेटे अखिलेश यादव
का पूरा ख़्याल रख रही थीं।
नब्बे के दशक (दिसंबर 1989) में जब मुलायम मुख्यमंत्री बने तो धीरे-धीरे बात
फैलने लगी कि उनकी दो पत्नियां हैं, लेकिन वह इतने ताक़तवर नेता थे कि किसी की
मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। अलबत्ता सीबीआई को प्रतीक के एक रिकॉर्ड से पता चला है कि उन्होंने 1994 में अपने घर का पता मुलायम के आधिकारिक निवास को बताया था। बहरहाल, नब्बे के दशक के अंतिम दौर में
अखिलेश को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता के बारे में पता चला। उन्हें यकीन नहीं
हुआ, लेकिन बात सच थी। उस समय मुलायम साधना गुप्ता की कमोबेश हर बात मानने लगे थे।
इसीलिए मुलायम के शासन (1993-2007) में साधना गुप्ता ने अकूत संपत्ति बनाई। आय से
अधिक संपत्ति का उनका केस आयकर विभाग के पास लंबित है। बहरहाल, 2003 में अखिलेश की
मां मालती देवी का बीमारी से निधन हो गया और मुलायम का सारा ध्यान साधना गुप्ता पर
आ गया। हालांकि वह इस रिश्ते को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।
मुलायम और साधना के संबंध की जानकारी मुलायम परिवार के अलावा अमर सिंह को थी।
मालती देवी के निधन के बाद साधना चाहने लगी कि मुलायम उन्हें अपनी आधिकारिक पत्नी
मान लें, लेकिन पारिवारिक दबाव, ख़ासकर अखिलेश यादव के चलते मुलायम इस रिश्ते को कोई
नाम नहीं देना चहते थे। इस बीच साधना 2006 में गुप्ता अमर सिंह से मिलने लगीं और
उनसे आग्रह करने लगीं कि वह नेताजी को मनाएं। लिहाज़ा, अमर सिंह नेताजी को साधना
गुप्ता और प्रतीक गुप्ता को अपनाने के लिए मनाने लगे। 2007 में अमर सिंह ने सार्वजनिक
मंच से मुलायम से साधना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया और इस
बार मुलायम उनकी बात मानने के लिए तैयार हो गए।
जो भी हो, अमर सिंह के बयान से मुलायम परिवार में फिर खलबली मच गई। लोग साधना
को अपनाने के लिए तैयार ही नहीं थे। बहरहाल, अखिलेश के विरोध को नज़रअंदाज़ करते
हुए मुलायम ने अपने ख़िलाफ़ चल रहे आय से अधिक संपत्ति से संबंधित मुक़दमे में
सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दिया, जिसमें उन्होंने साधना गुप्ता को पत्नी और
प्रतीक को बेटे के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके बाद साधना गुप्ता साधना यादव और प्रतीक
गुप्ता प्रतीक यादव हो गए। अखिलेश ने साधना गुप्ता के अपने परिवार में एंट्री के
लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार माना। तब से वह अमर सिंह से चिढ़ने लगे थे। वह मानते
हैं कि साधना गुप्ता और अमर सिंह के चलते उनके पिताजी ने उनकी मां के साथ न्याय नहीं किया।
बहरहाल, मार्च सन् 2012 में मुख्यमंत्री बनने पर अखिलेश यादव शुरू में साधना
गुप्ता को कतई घास नहीं डालते थे। इससे मुलायम नाराज़ हो गए और अखिलेश को झुकना पड़ा।
इस तरह साधना गुप्ता ने मुलायम के ज़रिए मुख्यमंत्री पर शिकंजा कस दिया और अपने
चहेते अफ़सरों को मनपसंद पोस्टिंग दिलाने लगीं। ‘द संडे गार्डियन’ ने सितंबर 2012 में साधना गुप्ता की सिफारिश पर मलाईदार पोस्टिंग पाने वाले
अधिकारियों की पूरी फेहरिस्त छाप दी, तब साधना गुप्ता पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर
सुर्खियों में आईं।
अब यह साफ़ हो गया है कि मुलायम की विरासत को लेकर चल रहे मौजूदा संघर्ष में अखिलेश
की लड़ाई सीधे लीड्स यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाले अपने सौतेले भाई प्रतीक यादव
से है। लखनऊ में रियल इस्टेट के बेताज बादशाह बन चुके प्रतीक को अपनी माता साधना
गुप्ता का समर्थन मिल रहा है। चूंकि साधना नेताजी के साथ रहती हैं और उनकी बात
मुलायम टाल ही नहीं सकते। यानी कह सकते हैं कि बाहरवाली से घरवाली बनी साधना
गुप्ता की बात टालना फ़िलहाल मुलायम सिंह के वश में नहीं है।
लखनऊ के गलियारे में साधना गुप्ता को कैकेयी कहा जा रहा है। आमतौर पर परदे के
पीछे रहने वाली साधना अखिलेश से तब से बहुत ज़्यादा नाराज़ चल रही हैं, जब अखिलेश
ने उनके आदमी गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। दरअसल, प्रतीक
के बहुत ख़ासमख़ास गायत्री प्रजापति को मुलायम के कहने पर खनन जैसा मलाईदार महकमा
दिया गया था। यह विभाग हुक्मरानों को हर महीने दो सौ करोड़ की अवैध उगाही करवाता है।
जब इसकी भनक अखिलेश को लगी तो वह प्रतीक के रसूख और कमाई के स्रोतों पर हथौड़ा चलाने
लगे। यह बात साधना को बहुत बुरी लगी। नाराज़ साधना गुप्ता को मनाने के लिए ही मुलायम
ने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी अखिलेश से छीनकर साधना खेमे के शिवपाल यादव को
दे दी। अब उसी के चलते बाप-बेटे यानी अखिलेश और मुलायम आमने-सामने आ गए हैं।
इटावा जिले के सैफई में 22 नवंबर, 1939 को स्व. सुघर सिंह यादव और स्व. मूर्ति देवी के यहां जन्में और पांच भाइयों
में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह यादव तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उत्तर
प्रदेश के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ किया तो केवल और केवल अपने परिवार के
लिए किया। परिवार को उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतना ताक़तवर बना दिया है
कि आने वाले साल में उनके कुटुंब के सैकड़ों लोग सांसद या विधायक होंगे। फ़िलहाल मुलायम
समेत उनके परिवार में छह सांसद और तीन विधायक समेत 21 लोग महत्वपूर्ण पदों पर
क़ाबिज़ हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद का तोहमत कांग्रेस पर लगता है, लेकिन यूपी में
मुलायम परिवार ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया है।
बहरहाल, इस मुद्दे पर मुलायम सिंह को समर्थन नहीं मिलने वाला, क्योंकि
उन्होंने मुसलमानों को ख़ुश करने और अपने परिवार के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को
राजनीति में प्रमोट करने के अलावा कुछ नहीं किया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी
वह भले हों, लेकिन इस पार्टी का भविष्य अखिलेश यादव ही हैं। 2012 के विधान सभा
चुनाव में पार्टी को जो जनादेश मिला था, वह मायावती की स्टैट्यू पॉलिटिक्स की नाराज़गी और अखिलेश की ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जान फूंकने से मिला था।
राजनीतिक टीकाकार मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव के लिए बेहतर होगा कि वह अखिलेश
खेमे में रहे, क्योंकि शिवपाल-साधना की इमेज राज्य में अच्छे नेता की नहीं है। आम
धारणा भी यही है, कि लूट-खसोट करने के आदी हो चुके शिवपाल-साधना के नैक्सस ने
अखिलेश को स्वतंत्र रूप से काम ही नहीं करने दिया।
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