हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुमकिन है आप इस हेडिंग को पढ़ कर हंस दें। यह आपका अधिकार है। किसी भी लेख को पढ़कर उस पर प्रतिक्रिया देने का नैसर्गिक अधिकार। वैसे कांग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी के बारे में पिछले तीन-साढ़े तीन साल के दौरान नकारात्मक बातें बहुत ज़्यादा लिखी और बोली गईं। राहुल को अब भी ऐसा अरिपक्व नेता बताया जाता है, जो अपनी मां पर निर्भर रहा है। इस तरह की सामग्री जो लोग पढ़ते या सुनते रहे हैं, उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई कि राहुल वाक़ई नकारा औलाद हैं। राहुल के बारे में हुई निगेटिव रिपोर्टिंग का नतीजा यह हुआ कि जो कभी उनसे नहीं मिला, या जो उन्हें जानता भी नहीं, वह भी मानता है कि राहुल गांधी-परिवार के अयोग्य उत्तराधिकारी हैं।
यक़ीन कीजिए, यह सच निष्कर्ष बिल्कुल नहीं है। दरअसल, यह निष्कर्ष नकारात्मक पब्लिसिटी पर आधारित है। सौ फ़ीसदी सच तो यह है कि अगर राहुल गांधी एकदम से सक्रिय हो जाएं और सार्वजनिक जीवन में अपने आपको उसी तरह समर्पित कर दें, जिस तरह नरेंद्र मोदी ने 2013 में बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद अपने आपको पूरी तरह समर्पित कर दिया था। दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल एवं दून स्कूल, हावर्ड यूनिवर्सिटी के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से स्नातक और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज से एमफिल करने वाले राहुल गांधी अगर कांग्रेस संगठन को पर्याप्त समय दें और गैरचुनावी मौसम में भी हर हफ्ते कम से कम देश के किसी भी कोने में रैली ज़रूर करते रहें तो वह निश्चित रूप से कांग्रेस में जान फूंक सकते हैं।
राहुल गांधी के पक्ष में यह बात जाती है कि उनमें विपक्षी नेता बनने के नैसर्गिक गुण हैं। सत्ता पक्ष में राहुल भले सफल नहीं हुए, लेकिन विपक्ष में वह बेहद सफल हो सकते हैं, क्योंकि उनका तेवर ही विपक्षी नेता का है यानी उनका नैसर्गिक टेस्ट सिस्टम विरोधी है। याद कीजिए, 2013 की घटना जब राहुल ने अजय माकन की प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचकर सबके सामने अध्यादेश को फाड़ दिया था। वस्तुतः केंद्र ने भ्रष्टाचार में फंसे नेताओं के लिए चुनाव लड़ने का रास्ता खोलने के लिए अध्यादेश लाया था, क्योंकि लालू यादव और रशीद मसूद उसी समय जेल भेजे गए थे। तब राहुल ने कहा था कि अध्यादेश सरासर बकवास है और इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए'। राहुल के कृत्य को सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए सरकार की बेइज्जती माना गया था हालांकि राहुल की इस मुद्दे पर तारीफ ही हुई थी।
दरअसल, मनमोहन सरकार के दौर में अकसर राहुल ऐसे-ऐसे बयान देते रहते थे, जिससे आम लोगों को भ्रम होता था कि कहीं वह सरकार के विरोधी यानी विपक्ष में तो नहीं हैं। इस तरह का प्योर सिस्टम-विरोधी नेता किसी भी पार्टी का एसेट होना चाहिए था, लेकिन दिग्भ्रमित कांग्रेस के नेता राहुल को बोझ मानने लगे थे। राहुल जैसा नेता जो किसी भी विपक्षी पार्टी की पहली पसंद हो सकता था, वही नेता कांग्रेस में इतने लंबे समय तक एकदम हाशिए पर रहा। खैर कांग्रेस ने बहुत देर से ही सही भूल सुधार कर लिया है और उसे उसका लाभ भी मिल सकता है।
वैसे कई लोगों का मानना है कि सोनिया गांधी ने राहुल को अध्यक्ष बनाने में बहुत देर कर दी, लेकिन इन पंक्तियों का लेखक ऐसे लोगों से इत्तिफाक नहीं रखता। अभी इतनी देर नहीं हुई है कि जहां से वापसी न हो सके। फिलहाल इस देश में अच्छे, कुछ गंभीर और थोड़ी जुमलेबाज़ी करने वाले विपक्षी नेता के लिए ज़बरदस्त स्कोप है। विपक्षी नेता विहीन हो चुके इस देश में राहुल ही इकलौते नेता हैं, जो भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकते हैं और अगर जमकर मेहनत की, तो कांग्रेस को पुनर्जीवित भी कर सकते हैं।
इतना ही नहीं राहुल में वह भी मैटेरियल है जो उन्हें सीधे जनता से जोड़ता है. मसलन आम आगमी के घर जाकर उसका हालचाल पूछना। सांसद रहते हुए सन् 2008 में राहुल महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त यवतमाल जिले के जालका गांव पहुंच गए थे और आत्महत्या करने वाले किसान की विधवा कलावती से मिलकर उनका दुखदर्द सुना था। उन्होंने किसानों की आत्महत्या का दर्द समझाने के लिए कलावती का जिक्र संसद में किया। राहुल का वह भाषण भी लंबे समय तक मीडिया में चर्चा में रहा। राहुल के इस बयान के बाद पूरा देश कलावती को जान गया। राहुल ने इस तरह के वाहवाही बटोरने वाले कई दौरे किए। इस तरह की खूबी बहुत कम नेताओं में होती है। राहुल के पिता राजीव गांधी में यह ख़ूबी कूट-कूट कर भरी थी।
राहुल गांधी के संसद या संसद से बाहर दिए गए भाषणों पर अगर गौर करें तो पाएंगे कि वह भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ते। यानी लोगों को संबोधित करने की नैसर्गिक परिपक्वता उनमें आ गई है, जो किसी बड़े नेता के लिए बहुत ज़रूरी है। राहुल ने कुछ साल पहले कई न्यूज़ चैनलों को इंटरव्यू भी दिया था, जिसमें उन्होंने परिपक्व नेता की तरह बड़ी बेबाकी से हर मुद्दे पर अपना विचार रखा था। इसका मतलब यह कि राहुल का होमवर्क ठीकठाक ही नहीं, देश के कई प्रमुख नेताओं के मुक़ाबले बहुत ही अच्छा है। एकाध फ्लंबिंग को छोड़ दें, तो कम से कम वह बोलते समय ब्लंडर नहीं करते और जेंटलमैन की तरह अपनी बात रखते हैं। वह जब भी बोलते हैं, अच्छा बोलते हैं। भाषण भी अच्छा और प्रभावशाली देते हैं। लोकसभा में कई बार उन्होंने यादगार भाषण दिया भी है।
ऐसे में लोग, ख़ासकर राजनीतिक टीकाकार, अकसर हैरान होते हैं कि कांग्रेस अपने इस अतिलोकप्रिय नेता के पर्फॉरमेंस को लेकर इतने दिन तक आख़िर आश्वस्त क्यों नहीं रही? पार्टी अपने इस फायरब्रांड नेता को लेकर शुरू से ही असमंजस में क्यों रही? उन्हें आगे करने में अनावश्यक हिचकिचाहट क्यों दिखाती रही? ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले उन्हें फ्रंट पर खड़ा करने में। वैसे 19 जून 1970 को जन्मे राहुल गांधी अब बच्चे या युवा नहीं रहे, वह 47 साल के हो गए हैं। इस उम्र में तो उनके पिता राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल भी पूरा कर चुके थे। बहरहाल, राहुल 2004 से अपने माता-पिता और चाचा संजय गांधी के संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश अमेठी से लगातार तीसरी बार लोकसभा के सदस्य हैं।
राहुल गांधी के पक्ष में एक और बात जाती है कि वह गांधी वंशवाद के प्रतिनिधि हैं। 38 साल तक देश को प्रधानमंत्री देने वाले नेहरू-गांधी खानदान के वह पुरुष वारिस हैं। भारत के लोग वंशवाद पर भी फिदा रहते हैं। मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद पवार, बाल ठाकरे, मुंडे, सिंधिया परिवार, अब्दुल्ला और सोरेन फैमिली,पटनायक और करुणानिधि परिवार जनता की इसी मानसिकता के कारण फलते फूलते रहे हैं। ये नेता जनता की इसी कमज़ोरी को भुनाकर अपने परिवार के लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेजते रहे हैं। दरअसल, सदियों से खानदानी हिंदू राजाओं या मुस्लिम शासकों के शासन में सांस लेने के कारण यहां की जनता ग़ुलाम मानसिकता की हो गई है। इस मूढ़ जनता को वंशवाद शासन बहुत भाता है। लिहाज़ा, इस तरह की भावुक जनता के लिए राहुल गांधी सबसे फिट नेता हैं।
दरअसल, सोनिया गांधी और राजीव गांधी का पुत्र होने के नाते भी राहुल को फ्रंट पर रहना चाहिए था। लेकिन ऐसा लगता है, कांग्रेस में एक ऐसा खेमा भी रहा है, जो नहीं चाहता था कि राहुल जैसा बेबाक बोलने वाला नेता पार्टी में फ्रंट पर आए और उन लोगों की जमी जमाई दुकानदारी ही चौपट कर दे। लिहाज़ा, यह खेमा 10 जनपथ को सलाह देता रहा कि राहुल अभी परिपक्व नहीं हुए हैं, लिहाज़ा अभी उन्हें बड़ी ज़िम्मदारी देने का सही समंय नहीं आया है। इसी बिना पर राहुल को मई 2014 में 44 सांसदों के बावजूद लोकसभा में कांग्रेस का नेता नहीं बनाया। उनकी जगह क़ायदे से हिंदी न बोल पाने वाले कर्नाटक के मल्लिकार्जुन खरगे को लोकसभा में नेता बना दिया। यह कांग्रेस का ब्लंडर था, उसे राहुल को कांग्रेस का नेता बनाना चाहिए था, ताकि वह भविष्य में देश का नेतृत्व करने के लिए तैयार होते। लेकिन पार्टी ने वह मौक़ा गंवा दिया था।
अगर कहें कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक दल कांग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह अच्छी जुमलेबाज़ी करने लगे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति या हैरानी नहीं होनी चाहिए। अभी गुजरात विधान सभा चुनाव में उन्होंने जीएसटी को 'गब्बर सिंह टैक्स' कहा। इस तरह की जुमलेबाज़ी अब तक नरेंद्र मोदी ही करते आए हैं। मोदी के जुमले पर तो इस देश की जनता आज भी फिदा है। आजकल राहुल भी उसी तरह की जुमलेबाज़ी करने लगे हैं, जिस तरह की जुमलेबाज़ी से जनता मंत्रमुग्ध होती रही है। यानी जुमलेबाज़ी के मुद्दे पर भी राहुल मोदी के सामने गंभीर चुनौती पेश करते हैं।
एक बात और, सत्तारूढ़ बीजेपी भली-भांति जानती है, कि राष्ट्रीय स्तर पर उसे मुलायम-लालू, पटनायक-नायडू, ममता-मायावती से कोई ख़तरा नहीं। भगवा पार्टी को ख़तरा केवल राहुल गांधी से है। अगर भविष्य में नरेंद्र मोदी को चुनौती मिली तो राहुल से ही मिलेगी। इसीलिए मोदी समर्थकों के निशाने पर सबसे ज़्यादा राहुल गांधी ही रहते हैं। राहुल को उपहास का पात्र बनाने का कोई मौक़ा मोदी के समर्थक नहीं चूकते। फेसबुक, ट्विटर और व्हासअप जैसे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर राहुल के बारे में थोक के भाव में चुटकुले रचे जाते हैं और यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि राहुल नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरते है, जबकि हक़ीकत है कि राहुल गांधी बहुत उदार और जेंटलमैन हैं और सबको लेकर चलने वाले नेता हैं। इसके बावजूद लंबे समय तक राहुल कांग्रेस में फ्रंट पर नहीं रहे, यह यह कांग्रेस का दुर्भाग्य था। बहरहाल अब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। इसका मतलब यह भी हुआ कि 2019 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी होगा, क्योंकि अभी दो महीने पहले राहुल ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले में पहली बार सार्वजनिक तौर पर कहा था कि पार्टी अगर उन्हें जिम्मेदारी देगी तो वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनेंगे।
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