बर्मा के बाद अब श्रीलंका में मुसलमान संकट में
हरिगोविंद विश्वकर्मा
दक्षिण एशिया में हिंद महासागर के सबसे उत्तरवर्ती छोर पर चारों ओर से उफनते समुद्र से घिरे द्वीप पर बसा ख़ूबसूरत सा छोटा देश श्रीलंका इन दिनों अशांत है। यह अशांति और न बढ़े इसलिए श्रीलंका सरकार ने पूरे देश में इमरजेंसी लगा दी है। दुर्भाग्य से यहां भी समस्या की जड़ इस्लाम धर्म को मानने वाले चंद सिरफ़िरे लोग हैं, जिनकी हरकतों के कारण शांतिपूर्ण जीवन जीने के अभिलाषी मुसलमान ख़ूनी संघर्ष में अपना सब कुछ गंवा रहे हैं। इससे पहले ग़रीब और मज़लूम मुसलमान बर्मा यानी म्यांमार में ख़ूनी संघर्ष के कारण पलायन करने को मजबूर हुए। चंद सिरफ़िरे आतंकवादियों के कारण दूसरे धर्मों के लोग सारे मुसलमानों को उपद्रवी मानते हैं और उन्हें शरण देने तक से कतराते हैं। भारत और श्रीलंका में यही हुआ है। बहरहाल, घूमने-फिरने के लिए शानदार डेस्टिनेशन श्रीलंका भारतीय समुद्र तट से महज 31 किलोमीटर की दूरी पर है, फिर भी भारत के लोग अपने पड़ोसी देश की मौजूदा समस्या से बहुत इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते हैं। म्यांमार की तरह श्रीलंका में भी मुसलमानों के विरोध में आवाज़ें उठने लगी हैं। यह पड़ोसी देश होने के नाते भारत के लिए भी यह खतरे की घंटी से कम नहीं है।
म्यांमार की तरह श्रीलंका में भी मुसलमानों का टकराव बहुसंख्यक बौद्ध धर्म के अनुयायियों से हो रहा है। अहिंसा का सिद्धांत आमतौर पर अन्य धर्मों की तुलना में बौद्ध धर्म में अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। बौद्ध भिक्षुओं को सदैव हिंसा से दूर रहने की नसीहत दी जाती है। उन्हें हथियार न उठाने और मानव हत्या से दूर रहने की भी शिक्षा दी जाती है। कुल मिलाकर बौद्ध धर्म ‘जीयो और जीने दो’ की फिलॉसफी पर चलता आया है। इसके बावजूद श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं का संघर्ष मुसलमानों से हो रहा है। सबसे अहम् बर्मा में भी मुसलमानों को देश से निकालने की मांग करने वाले बौद्ध भिक्षु ही हैं। जिस समुदाय का अतीत शांति के दूत का रहा हो, अगर वह समुदाय हिंसा में शामिल हो जाए और एक समुदाय के लोगों को ही देश से निकालने की मांग करने लगे तो कान खड़े हो जाते हैं। यह उसी तरह की घटना है, जैसे कोई पढ़ा-लिखा शांतिप्रिय नागरिक अचानक हथियार उठा ले। आमतौर पर किसी चीज़ की अति हो जाने पर ही शांति की राह पर चलने वाले लोग हिंसा की ओर क़दम बढ़ाते हैं। कमोबेश पहले म्यांमार और अब श्रीलंका में वही हो रहा है। बहरहाल, आइए जानते हैं, श्रीलंका में बौद्ध सिंहलियों और मुसलमानों के बीच क्यों हो रहा है ख़ूनी संघर्ष।
दरअसल, चंद साल पहले तक श्रीलंका में जातीय हिंसा की ख़बरें आती थीं। जब उत्तरी श्रीलंका के जाफना प्रायद्वीप में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग करने वाले तमिल विद्रोहियों के साथ वहां की बहुसंख्यक जनता का संघर्ष होता था, जो लिट्टे के सरगना वेलुपिल्लई प्रभाकरण के मई 2009 में मारे जाने के बाद क़रीब-क़रीब समाप्त हो गया। प्रभाकरण के बाद श्रीलंका में चार-पांच साल पूर्ण शांति रही। मगर जून 2014 में अचानक श्रीलंका में धार्मिक दंगे भड़क उठे। देश में मजहबी ख़ूनी टकराव की यह पहली वारदात थी। अब क़रीब साढ़े तीन साल के समयांतराल के बाद फिर से धार्मिक दंगे हो रहे हैं। इस बार भी दंगे 2014 की तरह चंद अतिवादी और सिरफ़िरे मुस्लिम युवकों द्वारा बर्बर तरीक़े से सिंहली समाज के एक व्यक्ति की हत्या कर देने से हिंसा की चिंगारी उठी और पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। मामला बहुसंख्यक सिंहली समाज के अल्पसंख्यक मुसलमानों के साथ खूनी संघर्ष का था, जिसे यथाशीघ्र रोकने के लिए श्रीलंका सरकार को आनन-फानन में पूरे देश में आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी।
श्रीलंका में धार्मिक दंगे के बाद सिंहली और मुस्लिम समाज के बीच भयानक तनाव है। पिछले कई साल से बौद्ध समुदाय के लोग मुस्लिमों पर आरोप लगाते रहे हैं कि यहां के मुसलमान आजकल ग़रीब लोगों का धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं। इसके बाद सिंहली आक्रामक हो गए। चंद सिरफ़िरे लोगों की हरकत की कीमत पूरे मुल्क को चुकानी पड़ रही है। पिछले अक्टूबर से गॉल में मुसलमानों की मिल्कियत वाली कंपनियों और मस्जिदों पर हमले की कई वारदातों हो चुकी हैं। श्रीलंका में धार्मिक हिंसा के लिए चंद सिरफ़िरे मुसलमानों के साथ-साथ कट्टरपंथी बौद्ध संगठन 'बोदुबाला सेना' को भी ज़िम्मेदार माना जा रहा है। 'बोदुबाला सेना' के जनरल सेक्रटरी गालागोदा ऐथे गनानसारा अकसर कहते रहे हैं कि मुस्लिमों की बढ़ती आबादी देश के मूल सिंहली बौद्धों के लिए गंभीर ख़तरा है। उनकी बात से इनकार नहीं किया जा सकता। आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की आबादी श्रीलंका में सबसे ज़्यादा बढ़ रही है। श्रीलंका में 2012 में हुई जनगणना के अनुसार श्रीलंका की में 70 फ़ीसदी बौद्ध धर्म के, 12 फ़ीसदी हिंदू, 10 फ़ीसदी मुसलमान और 7.8 फ़ीसदी ईसाई हैं। 31 साल में बौद्ध धर्म की जनसंख्या में मामूली बढ़ोतरी हुई और वहां 69.30 से70.10 फ़ीसदी तक पहुंची। इसी दौरान मुसलमानों की आबादी 7.56 फ़ीसदी से बढ़कर क़रीब 10 (9.77) फ़ीसदी हो गई। 1931 में यहां 5.46 फ़ीसदी मुसलमान थे। क़रीब नब्बे साल में इनकी आबादी दोगुनी हो गई। सबसे अहम श्रीलंका में हिंदुओ की आबादी बड़ी तेज़ी से घट रही है।1981 में वहां 15.43 फ़ीसदी हिंदू थे, जबकि 2012 में यह घटकर 12.58 फ़ीसदी रह गई है, जबकि ईसाइयों की आबादी 7..8 के आसपास यानी स्थिर रही है।
क़रीब 2 करोड़ 65 लाख आबादी वाले इस द्वीप का वर्णन भारतीय पौराणिक काव्यों में लंका के रूप में मिलता है। पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में यूरोपीय व्यापारियों ने इस भूभाग पर क़दम रखा। शुरू में इस पर पुर्तगालियों का आधिपत्य रहा, बाद में फ्रांसिसियों ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया। अठारहवीं सदी के आते-आते इस तटीय इलाकों पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया। 1818 में कैंडी के राजा के आत्मसमर्पण करने के बाद देश पर अंग्रेजों का एकाधिकार हो गया। अंग्रेजों ने इसका नाम 'सीलोन' रख दिया। 'सीलोन' नाम 1972 तक प्रचलन में रहा। बाद में इसे बदलकर 'लंका' कर दिया गया। सन् 1978 में इसके आगे 'श्री' जोड़कर औपचारिक रूप से श्रीलंका कर दिया गया। श्रीलंका की राजधानी कोलंबो समुद्री परिवहन की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बंदरगाह है। प्रशासकीय रूप से श्रीलंका केंद्रीय प्रांत, उत्तरी मध्य प्रांत, उत्तरी प्रांत, पूर्वी प्रांत, उत्तर पश्चिमी प्रांत, दक्षिणी प्रांत, उवा प्रांत, सबरगमुव प्रांत और पश्चिमी प्रांत के रूप में नौ प्रांतों और 25 जनपदों में बंटा हुआ है।
जहां तक श्रीलंका में इस्लाम के फलने-फूलने की बात है तो यह सिलसिला सातवीं सदी में शुरू हुआ, जब कुछ अरब व्यापारी भारत के साथ श्रीलंका में आकर व्यापार करने लगे। अरब व्यापारी बाद में यहां की स्थानीय महिलाओं के साथ निकाह और उनका धर्म परिवर्तन करवाने लगे। इन व्यापारियों को ‘श्रीलंकन मूर’ कहा जाता है। आठवीं सदी तक अरब व्यापारियों ने श्रीलंका समेत पूरे हिंद महासागर के व्यापार को अपने नियंत्रण में ले लिया। व्यापार पर नियंत्रण करने के बाद इन व्यापारियों ने इस्लाम का प्रचार प्रसार करना शुरू किया। यह सिलसिला 15वीं सदी तक चलता रहा। 16 वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारी श्रीलंका पहुंचे। उन्होंने श्रीलंकन मूर के कारोबार पर हमला करके उसे पंगु बना दिया। पुर्तगालियों के अत्याचार से तंग मुस्लिम व्यापारी पलायन करने लगे। इस दौरान एक समय ऐसा भी आया जब श्रीलंका में मुसलमानों की आबादी घटने लगी।
18वीं और 19वीं सदी में हालैंड और अंग्रेज़ व्यापारी जावा और मलेशिया से मुसलमानों को श्रीलंका लेकर आए। इस तरह इस छोटे से द्वीप पर मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ने लगी। इसके अलावा 19 वीं और 20 वीं सदी में पड़ोसी भारत से भी मुसलमान श्रीलंका जाकर बस गए। इनमें मेमन, बोहरा और खोजा प्रमुख थे। सबसे अहम पाकिस्तानी और दक्षिण भारतीय मुसलमानों ने श्रीलंका में शफी और हनीफी विचारधारा को शुरू किया। यहां के मुसलमान सामान्यतया सुन्नी रवायत और देवबंदी तबलिगी जमात, जमाते इस्लाम और थवाहीद परंपरा को मानते हैं, जिनके कई केंद्र कोलंबो में हैं। मौजूदा समय में श्रीलंका में मुसलमानों के मसाइल को मुस्लिम रिलिजियस एंड कल्चर अफेयर्स डिपार्टमेंट देखता है, जिसकी स्थापना 1980 में की गई। इस विभाग की स्थापना श्रीलंका में मुसलमानों को देश की मुख्य धारा में लाने के लिए किया गया था। आधुनिक श्रीलंका में मिश्रित मुसलमान हैं, जिनमें मुख्य रूप से मूर, मलाया और धर्मांतरण कर चुके तमिल मुसलमान हैं।
श्रीलंका सरकार एक और समस्या से जूझ रही है। जहां जहां मुसलमानों की जनसंख्या ज़्यादा है, वहां हिंसा और अपराध की ख़बरें ज़्यादा आती रहती हैं। 'बोदुबाला सेना ने प्रमाण जारी करके आरोप लगाया है कि मुस्लिम समुदाय के लोग बौद्ध पुरातात्विक स्थलों को तोड़ रहे हैं। आरोप यह भी लगाया जा रहा है कि म्यांमार से पलायन करके बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों ने श्रीलंका में पनाह ली है। इस बार की हिंसा की कई वजहों में से एक वजह म्यांमार से पलायन करके श्रीलंका में शरण ले रहे रोहिंग्याओं का भी मसला है। भारतीय जनता की तरह श्रीलंका की बहुसंख्यक सिंहली आबादी भी रोहिंग्या मुसलमानों को प्रॉब्लमक्रिएटर मानती रही है और उन्हें अपने देश में बसाने के एकदम से ख़िलाफ़ हैं। गनानसारा आरोप लगाते हैं कि मुस्लिम समुदाय का अतिवाद ख़तरे की घंटी है और श्रीलंका के मुसलमानों को मध्य पूर्व के मुस्लिम देशों से आर्थिक मदद मिलती है।
हालांकि आधिकारिक तौर पर कहा जा रहा है कि धार्मिक दंगों पर पूरी तरह से नियंत्रण पा लिया गया है, लेकिन दोनों पक्षों के बाच तनाव अब भी बरक़रार है। इसीलिए श्रीलंका की कैबिनेट ने दंगों को रोकने के लिए इमरजेंसी लगाई। आपातकाल लगाने का फैसला कैबिनेट की विशेष मीटिंग में किया गया था। सबसे अहम् बात सन् 2014 की तरह इस बार भी दंगे की आग सिरफ़िरे मुसलमानों के एक समूह की हिंसक हरकतों के कारण भड़की। कैंडी जिले के डिगना इलाके में 26फरवरी को गाड़ी चलाने वाले 41 साल के सिंहली पर चार मुस्लिम युवकों ने कातिलाना हमला कर दिया। सिंहली ड्राइवर की पीट-पीट कर हत्या करने बाद उस इलाके में सिंहलियों के घर और दुकानें भी तोड़ी गईं। सबसे अहम् बात, एक दूसरे से क़रीब एक हज़ार मील दूर म्यांमार और श्रीलंका में रहने वाले मुसलमान चंद वर्ष पहले तक शांतिप्रिय नागरिक माने जाते थे। यही वजह है कि न तो म्यांमार और न ही श्रीलंका में इस्लामी चरमपंथी आतंकवाद की समस्या पैदा हुई, जैसा कि भारत में है। हालांकि दुनिया भर में जारी इस्मालिक आतंकवाद का असर पिछले तीन-चार साल से इन दोनों देशों में भी चंद सिरफिरे मुसलमानों में जिहाद की भावना उठने लगी। ये सिरफिरे अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, फलीस्तीन और कश्मीर में मुसलमानों पर हो रहे तथाकथित अत्याचार की बात करने लगे थे। इसकी वजह से इनमें बहुसंख्यक बौद्ध समाज के प्रति नफरत पैदा होने लगी और ये लोग हिंसक हो गए। अब दोनों देश के आम मुसलमान उसी का नतीजा भुगत रहे हैं। कई साल पहले श्रीलंका में पशुओं को हलाल करने का मुद्दा उठा था। वह शांत हो गया।
यहां गौर करने वाली बात है कि सांस्कृतिक युद्ध घातक हथियारों से लड़े जाने वाले खुले युद्ध से ज़्यादा भयानक होता है। हथियारों के युद्ध एक समयांतराल के बाद समाप्त हो जाते हैं और हालात सामने हो जाते हैं लेकिन संप्रदाय और संस्कृति की आड़ में चलने वाले युद्ध लोगों को मजहबी पहचान देकर बांट देते हैं, और इसके दूरगामी परिणाम बेहद खतरनाक होते हैं जो कभी कभी मुल्क के विभाजन के रूप में सामने आता है। भारत इसकी जीती जागती मिसाल है। शायद श्रीलंका सरकार इसीलिए चौकन्नी हो गई है और इन दंगों को यथाशीघ्र रोकने के लिए ही देश में इमर्जेंसी लगाई है।
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