हरिगोविंद विश्वकर्मा
सेंसर बोर्ड ने जिन गालियों
को आधार बनाकर फिल्मकार विनय तिवारी की फिल्म "मोहल्ला अस्सी" को कई साल तक लटकाए रखा, वह गाली कोई अब्यूजिंग लैंग्वेज नहीं, बल्कि वह काशी यानी बनारस की सहज और स्वाभाविक भाषा और जीवनचर्या है। जो
कमोबेश हर जबान पर गाहे-बगाहे आती रहती है। अगर आप बनारस में कुछ दिन रहें, वहां
की गलियों में घूमें, लोगों से मिले और वहां के जन-जीवन में शामिल हों तो आपको भी
लगेगा कि यह गाली एक तरह से बनारस की नेचुरल अभिव्यक्ति है। बनारस के लोगों के लिए
यह गाली एक तरह से प्राण ऊर्जा का
काम करती है। इससे चौबीस घंटे लोगों में ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है। बस, बनारस
के इसी फलसफे को सबसे पहले भारतीय सेंसर बोर्ड और बाद में दूसरे वैधानिक संस्थान
समझ नहीं पाए और मोहल्ला अस्सी को गाली-गलौज वाली फिल्म की कैटेगरी में रखकर
अनावश्यक विलंब कर दिया। इस कारण काशी से दूर रहने वाले काशी की इस नेचुरलिटी को
रूपहले परदे पर देखने से वंचित रह गए।
बहरहाल, कई साल की लंबी
अदालती लड़ाई और जद्दोजहद के बाद विवादास्पद मोहल्ला अस्सी फिल्म अंततः पिछले शुक्रवार
से सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। वृहस्पतिवार की शाम अंधेरी पश्चिम के फन रिपब्लिक
में इस फिल्म का प्रीमियर शो रखा गया था, जिसमें मोहल्ला अस्सी के अभिनेता-अभिनेत्री
और फिल्म से जुड़े दूसरे लोगों के अलावा बड़ी संख्या में बॉलीवुड और मीडिया के लोग
आमंत्रित थे। लोगों ने फिल्म देखने का बाद उसकी जमकर तारीफ की। वाकई कई
कलाकारों ने फिल्म में जोरदार अभिनय किया है।
अगर फिल्म मोहल्ला अस्सी की
बात करें तो, प्रचीनतम शहर बनारस की पृष्ठभूमि में बनी मोहल्ला अस्सी फिल्म भारतीय
समाज, खासकर धर्मनिरपेक्षता पर करारा प्रहार करती है। दरअसल, फिल्म बताती है कि एक
धर्म-निरपेक्ष समाज में जब सांप्रदायिकता के माहौल के धर्म जहर का रिसाव शुरू होना
शुरू होता है, तब माहौल बदलने में समय नहीं लगता है। फिल्म के आखिर में यह भी संदेश
दिया गया है कि इन बाहर हो रही घटनाओं से एक आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन
नहीं आता है। आम आदमी के जीवन में परिवर्तन तभी आता है जब वह समय के साथ खुद को
सुधारने की कवायद में जुट जाता है।
इस फिल्म की कहानी
दो ट्रेक पर चलती है। पहली पंडित धर्मनाथ पांडेय (सन्नी देओल) को समय के बदलाव के
साथ अपने आदर्श ध्वस्त होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर भारत की राजनीतिक
परिस्थितियां विचलित कर देने वाली है। अस्सी पर पप्पू की चाय दुकान, पंडितों का मुहल्ला और वहां के घाट इस द्वंद्व के चित्रण का मंच है। मंडल कमीशन और
मंदिर-मस्जिद विवाद की गरमाहट पप्पू की चाय की चुस्कियों में भी महसूस की जाती है,
जहां भाजपा, कांग्रेस और
कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग अकसर चाय पर चर्चा करते देखे जाते हैं। फिल्म में बाजारवाद
ने मूल्यों और परम्पराओं को निशाना बनाया गया है। सच पूछो तो यह फिल्म राजनीति व
बाजारीकरण के प्रभावों से समाज, मूल्यों और
परम्पराओं में पैदा हुए द्वंद्व को बयां करती है।
कुछ लोग जरूरतों
के लिए मूल्यों को किनारे कर देते हैं और बाजारीकरण से पैदा अवसर भुनाते हैं। वहीं कुछ लोग
लकीर के फकीर बनकर परंपराओं से अब भी चिपके हुए हैं, उसके लिए वे तमाम दिक्कतें भी
उठाने को तैयार हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परंपराओं को छोड़ने के लिए तैयार हैं,
लेकिन लोकलाज की वजह से कोई कदम उठाने से डरते
हैं, परंतु जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, पहली जमात के लोगों में शामिल हो जाते हैं।
इस फिल्म को बनाया है विनय
तिवारी ने और इसका निर्देशन चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने किया है। यह बहुत शानदार
तरीके से बनाई गई है। मोहल्ला अस्सी में असली बनारस पूरी तरह जीवंत दिखता है। इस
फिल्म में बनारस की गालियों के साथ साथ बनारस की गलियां और वहां का फक्कड़ जीवन खी
उभर कर सामने आया है। साहित्य मनीषी डॉ काशीनाथ सिंह के चर्चित उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर बनी इस फिल्म में
गाली का प्रचुर इस्तेमाल किया गया है। वैसे मूल उपन्यास में भी बनारस की स्वाभाविक
गाली है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के
उपन्यास - ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के बाद काशी का अस्सी में ही सबसे ज्यादा गाली का प्रयोग
किया गया है।
बतौर नायक भले ही
सन्नी देओल ने ठीकठाक अभिनय किया हैं लेकिन कन्नी गुरु के किरदार में रविकिशन की
अभिनय ज्यादा सहज है। साक्षी तंवर,
दयाशंकर पांडेय और मुकेश
तिवारी, अखिलेंद्र मिश्र समेत सभी कलाकारों ने प्रभावी अभिनय किया
है। संगीत के मामले में यह फिल्म पिछड़ गई है।
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