हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने पिछले हफ़्ते रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा पेश किया है, उसकी भाषा असाधारण रूप से बेहद कठोर है। भाषा से ही पता चल जाता है कि भारत सरकार जेहादी प्रवृत्ति वाले इन उपद्रवी तत्वों के साथ भविष्य में कोई भी रियायत बरतने नहीं जा रही है। मानवाधिकार से जुड़े लोग भले इसे मानवता विरोधी क़दम क़रार दें, लेकिन राष्ट्र हित में यह उचित, दूरदर्शी एवं प्रशंसनीय क़दम है। केंद्र सरकार के हलफ़नामे में सुप्रीम कोर्ट को इस मसले से दूर रहने की ‘सलाह’ देते हुए दो टूक शब्दों में कहा गया है कि रोहिंग्या का मसला केवल और केवल भारत सरकार का मामला है, लिहाज़ा इस मसले पर किसी जनहित याचिका को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। राजनीतिक हलक़ों में माना जा रहा है कि अब तक किसी भी सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में इतना कठोर हलफ़नामा पेश करने की हिमाकत नहीं की है।
कथित तौर पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पैरवी करने वाले वामपंथी विचारक भले ही सरकार के क़दम से सहमत न हों, लेकिन देशहित के लिए सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सरकार के क़दम से बिल्कुल असहमत नहीं होगा। भविष्य को ध्यान में रखा जाए तो केंद्र का क़दम बहुत सही जान पड़ता है। हलफ़नामे में कहा गया है कि फिलहाल देश में40 हज़ार से ज़्यादा रोहिंग्या मुस्लिम अवैध शरणार्थी हैं। इनसे देश की सुरक्षा को बहुत गंभीर ख़तरा है, क्योंकि इनमें से ढेर सारे लोगों का ताल्लुकात पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द और अमन के दुश्मन आईएसआई, इस्लामिक स्टेट, अलक़ायदा, तालिबान, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे आतंकी संगठनों से हैं। इसमें दो राय नहीं कि अपने उपद्रवी और जेहादी स्वभाव के कारण ही रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार (बर्मा) से निकाले गए हैं। इन शरणार्थियों के बारे में अगर दिल्ली में दूसरी सरकार होती तो इतना सख़्त स्टैंड कभी न ले पाती।
दुनिया के सामने खड़े इस्लामिक आतंकवादी ख़तरे को नज़रअंदाज़ करने वाले लोग रोहिंग्या मुसलमान को अल्पसंख्यक समुदाय का मानते हैं। उनके अनुसार रोहिंग्या पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। सवाल यह उठता है कि आख़िर रोहिंग्या मुसलमानों से म्यांमार को क्या परेशानी है? जो उन्हें वहां से निकाला जा रहा है। यह सब म्यांमार में तब हो रहा है जब वहां शांति नोबेल सम्मान पाने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सू ची का दल नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी सत्ता में है। रोहिंग्या मसले पर अपनी महीने भर पुरानी चुप्पी तोड़ते हुए सू ची ने कहा है कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों के जेहाद में शामिल होने के चलते ही सेना को उनके खिलाफ ऑपरेशन शुरू करना पड़ा।
दरअसल, म्यांमार में इस समय फेथ मूवमेंट ऑफ़ अराकान (एफएमए), अक़ा मुल मुजाहिदीन (एएमएम), हरकत ओल-यक़ीन (एचओवाई) और केबंगकितन मुजाहिद रोहिंग्या (केएमआर) जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इस साल अगस्त में म्यांमार के रखाइन में मौंगडोव सीमा पर रोहिंग्या आतंकियों ने सुरक्षा दस्ते पर हमला करके 9 पुलिस अफसरों की हत्या कर दी। जांच में पता चला कि यह हमला रोहिंग्या आतंकियों ने किया। इसके बाद सेना ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया और मौंगडोव जिले की सीमा सील कर दी। दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई होती है तो इंपैक्ट बदमाशों पर तो बहुत कम, मासूम लोगों पर ज़्यादा होता है। यही म्यांमार में हो रहा है। बेशक, एक तरफ़ से सारे के सारे रोहिंग्या मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि रोहिंग्या आतंकियों के बौद्धों और हिंदुओं के ख़िलाफ़ जेहाद का विरोध करने की बजाय उस पर मौन धारण करना इनके लिए अब भारी पड़ रहा है। रोहिंग्या सेना पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं। सामूहिक मारकाट के अलावा प्रताड़ना और रेप के भी आरोप हैं। हालांकि सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।
म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। वहां रोहिंग्या मुसलमानों की जनस्ख्या 10 लाख से भी ज़्यादा है। रोहिंग्या मुसलमान मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। रोहिंग्या सुन्नी मुस्लिम हैं, जो बांग्लादेश के चटगांव में प्रचलित बांग्ला बोलते हैं। हालांकि वे कई पीढ़ियों से रखाइन में रह रहे हैं, इसके बावजूद म्यांमार सरकार इन्हें नागरिकता देने से मना करती है। सरकार इन्हें प्रॉब्लम क्रिएटर मानती है। जहां तक रोहिंग्या और बौद्धों के बीच विवाद की बात है तो झगड़ा 100 साल पुराना है। यह विवाद सन् 1948 में म्यांमार के ब्रिटिश से आज़ाद होने के बाद समय के साथ गहराती गई। इसी के चलते रखाइन राज्य अशांत है, जबकि म्यांमार में हर जगह शांति है। इसके लिए सरकार रोहिंग्या को ज़िम्मेदार मानती है। सन् 1982 में म्यांमार ने राष्ट्रीयता क़ानून बनाकर रोहिंग्या का नागरिक दर्जा ख़त्म कर दिया और उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया। रखाइन में सन् 2012 से सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, जिसमें बड़ी संख्या में जानें गई हैं और लाखों रोहिंग्या विस्थापित हुए। बड़ी संख्या में रोहिंग्या आज भी ख़स्ताहाल शिविरों में रह रहे हैं।
रोहिंग्या मुसलमान मूलतः खानाबदोश प्रजाति के हैं। मुसलमानों के भारत आगमन के बाद धर्मपरिवर्तन का सिलसिला शुरू होने पर इनका धर्म परिवर्तन करवा दिया गया। ये लोग 14 वीं शताब्दी में विस्थापित होकर चटगांव से अराकान योमा में आकर बस गए। इसीलिए इन्हें अराकांस इंडियन भी कहा जाता है। अराकान योमा को अराकान और रखाइन पर्वतमाला भी कहते हैं। यह भारत (असम, नगालैंड व मिज़ोरम) और म्यांमार (रखाइन व अराकान) की सीमा निर्धारित करने वाली पर्वतमाला है, जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक जाती है। यह रखाइन और इरावदी नदियों के दोआब के बीच है। इतिहासकार मानते हैं कि रोहिंग्या इस्लाम को मानते हैं। इनमें से बहुत से लोग सन् 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (जिसका बर्मा में नाम मिन सा मुन था) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में पनाह दी थी।
म्यांमार में 25 साल बाद पिछले साल चुनाव हुए थे। चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली थी. हालांकि संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं. सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। म्यांमार के राष्ट्रपति के प्रवक्ता ज़ाव हती कहते हैं कि म्यांमार की दुनिया में ग़लत रिपोर्टिंग हो रही है। दरअसल, सू ची भले अपने मुल्क की नेता हैं, लेकिन देश की सुरक्षा सेना के हाथ में है। अगर सू ची अंतराष्ट्रीय दवाब के आगे झुकती हैं तो आर्मी से उऩका टकराव हो सकता है जो जोख़िम भरा है। इससे उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है, क्योंकि म्यांमार में रोहिंग्या के प्रति सहानुभूति नहीं के बराबर है। वहां की आम जनता भी रोहिंग्या को उपद्रवी और समस्या पैदा करने वाली कौम मानती है।
भारत कहता है, रोहिंग्या दलालों के ज़रिए संगठित रूप से म्यांमार से पश्चिम बंगाल के बेनापोल-हरिदासपुर और हिल्ली एवं त्रिपुरा के सोनामोरा के अलावा कोलकाता और गुवाहाटी से भारत में घुसपैठ करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इन्हें देश में कहीं भी आने-जाने या बसने के मूलभूत अधिकार नहीं दिए जा सकते। ये अधिकार सिर्फ़ अपने नागरिकों के लिए ही हैं। 2012 से देश में उन्होंने अवैध तरीक़ों से प्रवेश किया। कई लोगों ने पैन कार्ड और वोटर आईडी भी बनवा लिए हैं। रोहिंग्या को अकेले भारत डिपोर्ट नहीं कर रहा है। बांग्लादेश भी इन्हें म्यांमार वापस भेज रहा है। हालांकि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बांग्लादेश के क़दम की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन बताया है। सच पूछिए तो रोहिंग्या किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। इन्हें जो देश अपने यहां शरण देगा, कल उसी के लिए यहां समस्या पैदा करेंगे। इसीलिए केंद्र चौकन्ना है, वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता, जिसे भविष्य में‘ऐतिहासिक भूल’ या हिस्टोरिक ब्लंडर कहा जाए। इस सूरते हाल में रोहिंग्या सहानुभूति के पात्र कतई नहीं हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने पिछले हफ़्ते रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा पेश किया है, उसकी भाषा असाधारण रूप से बेहद कठोर है। भाषा से ही पता चल जाता है कि भारत सरकार जेहादी प्रवृत्ति वाले इन उपद्रवी तत्वों के साथ भविष्य में कोई भी रियायत बरतने नहीं जा रही है। मानवाधिकार से जुड़े लोग भले इसे मानवता विरोधी क़दम क़रार दें, लेकिन राष्ट्र हित में यह उचित, दूरदर्शी एवं प्रशंसनीय क़दम है। केंद्र सरकार के हलफ़नामे में सुप्रीम कोर्ट को इस मसले से दूर रहने की ‘सलाह’ देते हुए दो टूक शब्दों में कहा गया है कि रोहिंग्या का मसला केवल और केवल भारत सरकार का मामला है, लिहाज़ा इस मसले पर किसी जनहित याचिका को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। राजनीतिक हलक़ों में माना जा रहा है कि अब तक किसी भी सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में इतना कठोर हलफ़नामा पेश करने की हिमाकत नहीं की है।
कथित तौर पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पैरवी करने वाले वामपंथी विचारक भले ही सरकार के क़दम से सहमत न हों, लेकिन देशहित के लिए सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सरकार के क़दम से बिल्कुल असहमत नहीं होगा। भविष्य को ध्यान में रखा जाए तो केंद्र का क़दम बहुत सही जान पड़ता है। हलफ़नामे में कहा गया है कि फिलहाल देश में40 हज़ार से ज़्यादा रोहिंग्या मुस्लिम अवैध शरणार्थी हैं। इनसे देश की सुरक्षा को बहुत गंभीर ख़तरा है, क्योंकि इनमें से ढेर सारे लोगों का ताल्लुकात पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द और अमन के दुश्मन आईएसआई, इस्लामिक स्टेट, अलक़ायदा, तालिबान, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे आतंकी संगठनों से हैं। इसमें दो राय नहीं कि अपने उपद्रवी और जेहादी स्वभाव के कारण ही रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार (बर्मा) से निकाले गए हैं। इन शरणार्थियों के बारे में अगर दिल्ली में दूसरी सरकार होती तो इतना सख़्त स्टैंड कभी न ले पाती।
दुनिया के सामने खड़े इस्लामिक आतंकवादी ख़तरे को नज़रअंदाज़ करने वाले लोग रोहिंग्या मुसलमान को अल्पसंख्यक समुदाय का मानते हैं। उनके अनुसार रोहिंग्या पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। सवाल यह उठता है कि आख़िर रोहिंग्या मुसलमानों से म्यांमार को क्या परेशानी है? जो उन्हें वहां से निकाला जा रहा है। यह सब म्यांमार में तब हो रहा है जब वहां शांति नोबेल सम्मान पाने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सू ची का दल नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी सत्ता में है। रोहिंग्या मसले पर अपनी महीने भर पुरानी चुप्पी तोड़ते हुए सू ची ने कहा है कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों के जेहाद में शामिल होने के चलते ही सेना को उनके खिलाफ ऑपरेशन शुरू करना पड़ा।
दरअसल, म्यांमार में इस समय फेथ मूवमेंट ऑफ़ अराकान (एफएमए), अक़ा मुल मुजाहिदीन (एएमएम), हरकत ओल-यक़ीन (एचओवाई) और केबंगकितन मुजाहिद रोहिंग्या (केएमआर) जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इस साल अगस्त में म्यांमार के रखाइन में मौंगडोव सीमा पर रोहिंग्या आतंकियों ने सुरक्षा दस्ते पर हमला करके 9 पुलिस अफसरों की हत्या कर दी। जांच में पता चला कि यह हमला रोहिंग्या आतंकियों ने किया। इसके बाद सेना ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया और मौंगडोव जिले की सीमा सील कर दी। दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई होती है तो इंपैक्ट बदमाशों पर तो बहुत कम, मासूम लोगों पर ज़्यादा होता है। यही म्यांमार में हो रहा है। बेशक, एक तरफ़ से सारे के सारे रोहिंग्या मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि रोहिंग्या आतंकियों के बौद्धों और हिंदुओं के ख़िलाफ़ जेहाद का विरोध करने की बजाय उस पर मौन धारण करना इनके लिए अब भारी पड़ रहा है। रोहिंग्या सेना पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं। सामूहिक मारकाट के अलावा प्रताड़ना और रेप के भी आरोप हैं। हालांकि सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।
म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। वहां रोहिंग्या मुसलमानों की जनस्ख्या 10 लाख से भी ज़्यादा है। रोहिंग्या मुसलमान मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। रोहिंग्या सुन्नी मुस्लिम हैं, जो बांग्लादेश के चटगांव में प्रचलित बांग्ला बोलते हैं। हालांकि वे कई पीढ़ियों से रखाइन में रह रहे हैं, इसके बावजूद म्यांमार सरकार इन्हें नागरिकता देने से मना करती है। सरकार इन्हें प्रॉब्लम क्रिएटर मानती है। जहां तक रोहिंग्या और बौद्धों के बीच विवाद की बात है तो झगड़ा 100 साल पुराना है। यह विवाद सन् 1948 में म्यांमार के ब्रिटिश से आज़ाद होने के बाद समय के साथ गहराती गई। इसी के चलते रखाइन राज्य अशांत है, जबकि म्यांमार में हर जगह शांति है। इसके लिए सरकार रोहिंग्या को ज़िम्मेदार मानती है। सन् 1982 में म्यांमार ने राष्ट्रीयता क़ानून बनाकर रोहिंग्या का नागरिक दर्जा ख़त्म कर दिया और उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया। रखाइन में सन् 2012 से सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, जिसमें बड़ी संख्या में जानें गई हैं और लाखों रोहिंग्या विस्थापित हुए। बड़ी संख्या में रोहिंग्या आज भी ख़स्ताहाल शिविरों में रह रहे हैं।
रोहिंग्या मुसलमान मूलतः खानाबदोश प्रजाति के हैं। मुसलमानों के भारत आगमन के बाद धर्मपरिवर्तन का सिलसिला शुरू होने पर इनका धर्म परिवर्तन करवा दिया गया। ये लोग 14 वीं शताब्दी में विस्थापित होकर चटगांव से अराकान योमा में आकर बस गए। इसीलिए इन्हें अराकांस इंडियन भी कहा जाता है। अराकान योमा को अराकान और रखाइन पर्वतमाला भी कहते हैं। यह भारत (असम, नगालैंड व मिज़ोरम) और म्यांमार (रखाइन व अराकान) की सीमा निर्धारित करने वाली पर्वतमाला है, जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक जाती है। यह रखाइन और इरावदी नदियों के दोआब के बीच है। इतिहासकार मानते हैं कि रोहिंग्या इस्लाम को मानते हैं। इनमें से बहुत से लोग सन् 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (जिसका बर्मा में नाम मिन सा मुन था) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में पनाह दी थी।
म्यांमार में 25 साल बाद पिछले साल चुनाव हुए थे। चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली थी. हालांकि संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं. सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। म्यांमार के राष्ट्रपति के प्रवक्ता ज़ाव हती कहते हैं कि म्यांमार की दुनिया में ग़लत रिपोर्टिंग हो रही है। दरअसल, सू ची भले अपने मुल्क की नेता हैं, लेकिन देश की सुरक्षा सेना के हाथ में है। अगर सू ची अंतराष्ट्रीय दवाब के आगे झुकती हैं तो आर्मी से उऩका टकराव हो सकता है जो जोख़िम भरा है। इससे उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है, क्योंकि म्यांमार में रोहिंग्या के प्रति सहानुभूति नहीं के बराबर है। वहां की आम जनता भी रोहिंग्या को उपद्रवी और समस्या पैदा करने वाली कौम मानती है।
भारत कहता है, रोहिंग्या दलालों के ज़रिए संगठित रूप से म्यांमार से पश्चिम बंगाल के बेनापोल-हरिदासपुर और हिल्ली एवं त्रिपुरा के सोनामोरा के अलावा कोलकाता और गुवाहाटी से भारत में घुसपैठ करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इन्हें देश में कहीं भी आने-जाने या बसने के मूलभूत अधिकार नहीं दिए जा सकते। ये अधिकार सिर्फ़ अपने नागरिकों के लिए ही हैं। 2012 से देश में उन्होंने अवैध तरीक़ों से प्रवेश किया। कई लोगों ने पैन कार्ड और वोटर आईडी भी बनवा लिए हैं। रोहिंग्या को अकेले भारत डिपोर्ट नहीं कर रहा है। बांग्लादेश भी इन्हें म्यांमार वापस भेज रहा है। हालांकि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बांग्लादेश के क़दम की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन बताया है। सच पूछिए तो रोहिंग्या किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। इन्हें जो देश अपने यहां शरण देगा, कल उसी के लिए यहां समस्या पैदा करेंगे। इसीलिए केंद्र चौकन्ना है, वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता, जिसे भविष्य में‘ऐतिहासिक भूल’ या हिस्टोरिक ब्लंडर कहा जाए। इस सूरते हाल में रोहिंग्या सहानुभूति के पात्र कतई नहीं हैं।
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