हरिगोविंद विश्वकर्मा
राज ठाकरे ने नागपुर में 24 अगस्त को चुनाव न लड़ने का ऐलान करके अपने पांव पर
एक तरह से कुल्हाड़ी मार ली है. इसका कई मोर्चे पर राज को नुकसान उठाना पड़ेगा. पार्टी
अब अधूरे मन से चुनाव लड़ेगी. वैसे राज के फ़ैसले से सबसे ज़्यादा हानि ख़ुद उनकी
होगी एक राजनेता के रूप में. वह कभी परिपक्व नेता नहीं बन पाएंगे. दरअसल, किसी भी नेता
या पब्लिक लाइफ़ में उतरने वाले व्यक्ति को हर उस मंच का अनुभव होना ही चाहिए,
जहां डिबेट होता है. यानी
जहां आपका विरोध करने की हिम्मत रखने वाले लोग भी बैठे हों. ऐसे में नेता के हर भाषण
का बारीक़ी से विश्लेषण होगा और उसे मुहतोड़ जबाव दिया जाएगा. इससे नेता ख़ुद महसूस
करता है कि कहां उसने ग़लत बोल दिया या कहां उसका वक्तव्य सही था. अपनी बातों के
काट जाने से वह सावधान होगा और अगली बार और तैयारी एवं अध्ययन के बाद ही अपनी बात
कहेगा. इस प्रक्रिया से गुज़रने के बाद हर नेता धीरे-धीरे परिपक्व यानी सीज़न्ड हो
जाता है. इसलिए, हर नेता का विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ना ज़रूरी होता है. अगर उसे
हारने से डर सता रहा है तो वह विधानपरिषद या राज्यसभा में जा सकता है. लेकिन उसे
वाद-विवाद वाले फ़ोरम का मंच ज़रूर शेयर करना चाहिए.
अगर ठाकरे परिवार की बात करें तो वह इस तरह के डिबेट वाले एक्सपोज़र से अब तक पूरी
तरह वंचित रहा है. इस परिवार की दूसरी पीढ़ी राजनीति में है. लेकिन अभी तक किसी ने
चुनाव नहीं लड़ा और न ही किसी सदन की सदस्यता ली. इससे इस परिवार के नेताओं के
भाषणों में वह मैच्यौरिटी नहीं दिखी जो किसी सीज़न्ड पॉलिटिशियन्स में आमतौर पर
होगी चाहिए. इस परिवार के नेता बाल ठाकरे के दौर से आए दिन बेहद विवादित, असंवैधानिक
और लोगों को नाराज़ करने वाले बयान देते रहे हैं. इसके चलते तो एक बाल ठाकरे की
नागरिकता छह साल के लिए छीन ली गई थी. यानी छह साल वह वोट ही नहीं दे पाए. दरअसल,
बाल ठाकरे देश के बहुत अच्छे नेता हो सकते थे, लेकिन अगर उन्होंने चुनाव लड़ा होता
तब. चुनाव न लड़ने से या संसद या विधानसभा की बहस के वंचित रहने से उनके विचारों
में वह परिपक्वता नहीं दिखी जो आमतौर पर होना चाहिए थी. एक बार तो उन्होंने अपनी एक
सभा में एक जज तक को भला-बुरा कह दिया था, जिसके लिए उन्हें बाद में ख़ेद जताना
पड़ा. उनके ख़िलाफ़ अकसर मानहानि के मुक़दमे दायर होते थे, जो अगर वह संसदीय
परंपरा में उतर कर वाद-विवाद में हिस्सा लिए होते तो शायद न होता.
दरअसल, ठाकरेज़ (सभी ठाकरे) की समस्या यह रही कि कम उम्र या वाद-विवाद का
सामना किए बिना वे पार्टी के मुखिया बना दिए जाते रहे हैं. जब शिवसेना का जन्म हुआ
और बाल ठाकरे प्रमुख बने तब वह 40 साल के नहीं थे. तब तक उन्होंने कोई चुनाव भी नहीं
लड़ा था. लिहाज़ा, पार्टी का सर्वेसर्वा बन जाने से नेता चमचों से घिर जाता है.
चमचे किसी भी राजनेता के व्यक्तित्व के विकास में सबसे बड़ी बाधा होते हैं. दरअसल,
चमचे, नेता के सही को सही तो कहेंगे ही, उसके ग़लत को भी डर के मारे सही कहने लगते
है. इससे नेता अपनी कही हुई ग़लत बात को भी सही मानने लगता है. यहीं से उसका
वैचारिक पतन शुरू हो जाता है. बाल ठाकरे के साथ यही हुआ. चमचों ने उन्हें वैचारिक
रूप से ग़रीब बना दिया. अगर वह चुनाव लड़े होते. लोकसभा का अनुभव लिए होते. तब
निश्चित तौर पर लोकसभा की बहस उन्हें परिपक्व कर देती और तब वह शर्तिया देश के
प्रधानमंत्री भी बन सकते थे. बाल ठाकरे में वह क़ाबिलियत तो थी ही जो राष्ट्रीय
नेता में होनी चाहिए. यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि भीमराव अंबेडकर के बाद
महाराष्ट्र की धरती पर पैदा होने वाले बाल ठाकरे अब तक के सबसे लोकप्रिय और सर्व
मान्य नेता रहे. जैसे इस देश की जनता नरेंद्र मोदी पर यक़ीन कर लिया, एक बार बाल
ठाकरे पर भी यक़ीन कर लेती. तब शायद देश को प्रधानमंत्री देने का महाराष्ट्र के
लोगों का सपना पूरा हो जाता.
अब राज ठाकरे का भी यही हाल है. राज का मराठी मानुस का पूरा दर्शन ही
असंवैधानिक है. उनके ख़िलाफ़ अब तक कोई सख़्त कार्रवाई नहीं हुई, इसका मतलब यह
नहीं कि उन्होंने जो बोला वह संविधान के अनुसार था. दरअसल, महाराष्ट्र या मुंबई में
केवल मराठी लोगों को प्रवेश देने के लिए संविधान में परिवर्तन करना होगा. संविधान
में साफ़-साफ़ लिखना होगा कि दूसरे प्रांत के लोग यहां रोज़ी-रोटी के लिए नहीं आ
सकते हैं. तब ही कोई नेता कहेगा कि देश के दूसरे प्रांत के लोग मुंबई या
महाराष्ट्र में क़दम न रखें जो वह जायज होगा. लेकिन जब तक संविधान में यह परिवर्तन
नहीं हो जाता किसी नेता को किसी भारतीय नागरिक को देश के किसी कोने में जाने या
रोज़ा-रोटी कमाने से रोकने का कोई हक़ नहीं है. अगर कोई नेता ऐसा करता है, तो
संविधान का उल्लंघन का मामला दर्ज करके उसके ख़िलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए.
इसीलिए, 31 मई की शाम जब राज ठाकरे ने सोमैया ग्राउंड में ऐलान किया था कि वह विधानसभा
चुनाव लड़ेंगे और अगर चुनाव में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को बहुमत मिला तो सत्ता
वही संभालेंगे. यानी राज ठाकरे ने खुद को पार्टी का सीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया था.
चुनाव में उनकी पार्टी का चाहे जो हश्र होता, लेकिन राज तो शर्तिया चुनाव जीत
जाते. वह पांच साल विधान सभा में जाते और जो कुछ बोलते जब उन्हें जवाब मिलता की
उनका बयान या उनकी फिलॉसफी कितनी सही है कितनी ग़लत. यह यहा-कदा दिल्ली या अन्य
जगह जाते. वहां भी भाषण करते. तब पता चलता वह किस तरह की बातें करते हैं. तो आम
तौर पर सभी ने राज ठाकरे के विधान सभा चुनाव लड़ने के फ़ैसले का स्वागत किया था.
क्योंकि अब तक लोग राज ठाकरे का जो भाषण देखते-सुनते हैं उसमें गहराई नहीं होती,
उसमें उच्छश्रृंखलता दिखती है जो किसी राजनेता को वैचारिक रूप से हलका करती है.
लोकसभा चुनाव के दौरान राज ठाकरे ने भी हर चैनल को इंटरव्यू दिया. हिंदी बोलने की
अपनी कसम तोड़ दी लेकिन हर इंटरव्यू में वह वैचारित रूप से कमज़ोर नज़र आए. उस
कमजोरी को दूर करने का मौक़ा उन्हें ऐसेंबली में निश्चित तौर पर मिलता.
राजनीतिक हलक़ों माना जा गया कि राज ठाकरे ने नरेंद्र मोदी के पदचिन्हों पर
चलते हुए चुनाव से पहले खुद को सीएम उम्मीदवार घोषित किया था. यानी जिस तरह बीजेपी
ने लोकसभा चुनाव से पहले मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ा,
राज उसकी पैटर्न को अपनाना चाहते थे. उन्होंने मोदी पैटर्न अपनाया पर किया कुछ
नहीं. मोदी ने प्रधानमंत्री पद का बीजेपी प्रत्याशी बनाए जाने के बाद तूफानी दौरे
शुरू कर दिए. लेकिन राज ठाकरे ने चुनाव लड़ने का ऐलान करने के बाद चुपचाप घर में
बैठ गएकुछ नहीं किया. यहां तक कि राज से ज़्यादा ऐक्टिव उनके चचरे भाई उद्धव ठाकरे
रहे. उद्धव फ़िलहाल, महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा मेहनत करने वाले राजनेता हैं. वह
पूरे राज्य का दौरा कर रहे हैं. उनका रोज़ाना कहीं न कहीं प्रोग्राम रहता है. राज
ठाकरे के विधानसभा चुनाव का बिगुल फूंकने जो उनके कार्यकर्ताओं में जो जोश आया था,
राज के यू-टर्न लेने से वह जोश ठंडा पड़ गया. अगर विधान सभा चुनाव में इस बार
एमएनएस पिछली बार से कम सीटें जीते तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. लिहाज़ा, कह सकते
हैं कि राज ठाकरे के चुनाव लड़ने से पीछे हटने को उनके लिए चुनाव से पहले हार मान
लेने का प्रतीक है.
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