हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन धूमधाम से मटकी फोड़ने वाले दही-हांडी यानी गोविंदा त्यौहार से ठीक सप्ताह भर पहले ऐसा फ़ैसला दे दिया कि सदियों पुरानी बेहद रोमांचक और लोकप्रिय गोविंदा परंपरा का अस्तित्व ही संकट में दिखने लगा है। ज़ाहिर सी बात है, इस त्यौहार को सही मायने में मनाने वाले जेनुइन लोग निराश हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस बात पर बहस भी छिड़ गई है कि सुप्रीम कोर्ट की दही-हांडी पर सख़्ती कहीं भारतीय संस्कृति पर हमला तो नहीं है?
अपने फ़ैसले में देश की सबसे बड़ी अदालत नें साफ़ कर दिया कि मटकी फोड़ने के लिए बनाए जाने वाले पिरामिड में 18 साल से कम उम्र के बच्चे हिस्सा नहीं ले सकेंगे और न ही मटकी की ऊंचाई 20 फीट से ज़्यादा होगी। लब्बोलुआब देश की सबसे बड़ी अदालत ने बॉम्बे हाईकोर्ट के पिछले साल के फ़ैसले को ही बरकरार रखा है।
पिछले साल बॉम्बे हाईकोर्ट ने ऐसे इंतज़ामात करने के निर्देश दिए थे, जिन पर अमल करना मुश्किल भरा ही नहीं, क़रीब-क़रीब असंभव है। मसलन, हाईकोर्ट ने कहा था कि मटकी-स्थल के आसपास ज़मीन पर गद्दे बिछाए जाएं। चूंकि गोविंदा पर्व बारिश में पड़ता है, ऐसे में खुले आसमान के नीचे गद्दे नहीं बिछाए जा सकते। इससे गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है। यह आयोजकों के लिए भी व्यवहारिक नहीं। हाईकोर्ट ने गोविंदाओं के लिए सुरक्षात्मक कवच और हेलमेट का इंतज़ाम करने और मटकी सड़क या रास्ते पर न टांगने की भी निर्देश दिया था। यह भी व्यवहारिक नहीं था। लिहाज़ा, इन आदेशों का पालन करना बहुत ही मुश्किल भरा होगा। अब सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले को ओके कर दिया।
राज्य की देवेंद्र फड़नवीस सरकार के पास पुलिस को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सख़्ती से पालन का निर्देश देने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था। इसीलिए कई लोग आशंका जताने लगे हैं कि कहीं अदालत के दख़ल और राज्य सरकार के कोर्ट का फ़ैसला लागू करवाने की मजबूरी के चलते भारतीय संस्कृति की यह रोमांचकारी परंपरा सदा के लिए ख़त्म न हो जाए। दरअसल, अदालत की ओर से दही-हांडी के जो तरीक़े बताए गए हैं, वे प्राइमा फ़ेसाई इतने अव्यवहारिक हैं कि उन पर अमल करने से बेहतर होगा, यह पर्व ही न मनाया जाए।
दही-हांडी का रोचक पर्व भारत में दशकों नहीं, कई सदियों से धूमधाम से मनाया जाता रहा है। महाराष्ट्र में यह सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रहा है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन होने वाले इस उत्सव में युवाओं के साथ-साथ किशोर और बच्चे भी उत्साह से शिरकत करते रहे हैं। किशोरों और बच्चों को इस पर्व में इसलिए शामिल किया जाता रहा है क्योंकि, उनका वजन कम होता है, लिहाज़ा, मटकी फोड़ते के लिए पिरामिड बनाते समय उन्हें आसानी से कंधे पर बिठाकर मटकी तक पहुंचा जा सकता है। यह काम कोई वयस्क आदमी नहीं कर सकता।
वस्तुतः दही-हांडी में मिट्टी (अब ताबां या पीतल) की मटकी में दही, मक्खन, शहद, फल और कैश धनराशि रखे जाते हैं। इस मटकी को धरती से काफी ऊपर तक टांगा जाता है। प्रायः रुपए की लड़ी रस्से से बांधी जाती है। इसी रस्से से वह बर्तन भी बांधा जाता है। बच्चे, किशोर और नवयुवक लड़के–लड़कियां पुरस्कार जीतने के लिए समारोह में हिस्सा लेते हैं और एक–दूसरे के कंधे पर चढ़कर पिरामिड बनाते हैं। जिससे सबसे ऊपर पहुंचकर आसानी से मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है। इस धनराशि को मानव पिरामिड में भाग लेने वाले सभी सहयोगियों में बांट दिया जाता है।
यह कहना न तो ग़लत होगा और न ही अतिरंजनापूर्ण कि दही-हांडी मूलतः बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का ही का खेल रहा है। इस रोमांचकारी भारतीय परंपरा का आरंभ भगवान कृष्ण के बाल्यकाल में गोपियों की मटकी से माखन चुराने की घटनाओं से माना जाता है। बालक कन्हैया गोपियों की मटकी फोड़कर माखन चुरा लेते थे। बड़े होने पर श्रीकृष्ण ने मटकी नहीं फोड़ी बल्कि वह कंस को मारने के लिए गोकुल को ही छोड़ दिया था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि गोविंदा त्यौहार केवल और केवल बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का ही है। इसमें बड़ों को शामिल नहीं होना चाहिए।
दही-हांडी की मटकी असल में सबसे ऊपर का बच्चा फोड़ता है। उसे पिरामिड में शामिल नवयुवक अपने कंधे पर बिठाकर सहारा देते हैं और मटकी तक पहुंचाते हैं। इसलिए यह कहने में कतई हर्ज़ नहीं कि इस त्यौहार का अट्रैक्शन ही बच्चे हैं। लिहाज़ा बच्चों की भागीदारी के बिना यह अधूरा सा लगेगा। इसमें केवल वयस्क युवक ही भाग लेंगे तब यह और जोख़िम भरा हो सकता है। 18 साल का होते होते औसत इंसान का वज़न 60 किलोग्राम पार कर जाता है। अगर पिरमिड में सबसे ऊपर इतने वज़नदार व्यक्ति को चढ़ाया गया तो नीचे के गोविंदाओं के दबने का ख़तरा रहेगा।
अब शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने नेतागण देश की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले पर ख़ेद जता रहे हैं। राज ठाकरे ने तो तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है, “दही हांडी उत्सव को कोर्ट ने नियमों में उलझा दिया है। तो क्या अब स्टूल पर खड़े होकर दही हांडी फोड़ी जाए?” ज़ाहिर है ऐसे कमेंट इन नेताओं की अपरिपक्वता ही दर्शाते हैं। अब खेद जताने से क्या फ़ायदा। यह तो वही बात हुई कि अब पछताए का होत जब चिड़िया चुग गई खेत।
ज़ाहिर सी बात है, अदालत का दख़ल रातोरात नहीं हुआ है। हाल के वर्षों ख़ासकर टीवी चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट और इस त्यौहार को प्रॉडक्ट बेचने का ज़रिया बना देने से इस पर्व का बड़ा घाटा हुआ। दही-हांडी की प्राचीन परंपरा को नेताओं और बाज़ारवादियों ने अपने निजी लाभ के लिए हाईजैक कर लिया था। इसे पब्लिसिटी का माध्यम बना दिया था। इसका पूरी तरह कॉमर्शियलाइज़ेशन हो गया था। इस पर्व में करोड़ों के वारे-न्यारे होने लगे थे। गोविंदा मंडल भी पेशेवर हो गए थे, जिससे गलाकाट स्पर्धा शुरू हो गई थी। इसके चलते मटकी की ऊंचाई और इनामी राशि भयानक रूप से बढ़ने लगी थी। बाज़ारीकरण के चलते ही यह त्यौहार हंगामें वाला पर्व बन गया, इस कारण एक बड़ा तबक़ा इन आयोजनों से चिढ़ने लगा था। कहा जा सकता है कि आयोजकों और बाज़ार को संचालित करने वाली कंपनियों द्वारा इसे मुनाफ़े का जरिया बना देने से ही इस त्यौहार का बंटाधार हुआ।
गोविंदा इतना ज़्यादा स्पर्धात्मक हो गया था कि विदेशों से पेशवर गोविंद मंडल मटकी फोड़ने के लिए आने लगे थे। आज ख़ेद जताने वाले लोगों को उसी समय सक्रिय होकर गोविंदा की परंपरा को नष्ट कर रहे लोगों को रोकना चाहिए था। जब स्पर्धा बढ़ने से पिरामिड में शामिल गोविंदाओं को मटकी फोड़ने के दौरान मौत होने लगी तो मजबूरन कुछ लोगों ने महसूस किया कि इस त्योहार को विद्रुप रूप देने का विरोध होना चाहिए, उस पर अंकुश लगना चाहिए। हादसों को रोकने के लिए ही हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गईं।
दरअसल, पिछले साल सबसे पहले मुंबई पुलिस के तत्कालीन प्रमुख राकेश मारिया ने बच्चों का सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 12 साल उम्र तक के बच्चों के दही-हांडी के पिरामिड में भाग लेने पर रोक लगा दी थी। मुंबई के पुलिस प्रमुख ने यह क़दम बाल मज़दूरी उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के दबाव में उठाया था। यहां तक तो थोड़ी खैरियत थी, लेकिन रही सही कसर अदालत के आदेश ने पूरी कर दी। ऐसे में राज्य सरकार को निर्देश दिया जाना चाहिए कि गोविंदा को कॉमर्शियलाइज़ेशन बनाने से रोका जाए, न कि इस पर अव्यवहारिक बंदिशे लगाकर।
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन धूमधाम से मटकी फोड़ने वाले दही-हांडी यानी गोविंदा त्यौहार से ठीक सप्ताह भर पहले ऐसा फ़ैसला दे दिया कि सदियों पुरानी बेहद रोमांचक और लोकप्रिय गोविंदा परंपरा का अस्तित्व ही संकट में दिखने लगा है। ज़ाहिर सी बात है, इस त्यौहार को सही मायने में मनाने वाले जेनुइन लोग निराश हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस बात पर बहस भी छिड़ गई है कि सुप्रीम कोर्ट की दही-हांडी पर सख़्ती कहीं भारतीय संस्कृति पर हमला तो नहीं है?
अपने फ़ैसले में देश की सबसे बड़ी अदालत नें साफ़ कर दिया कि मटकी फोड़ने के लिए बनाए जाने वाले पिरामिड में 18 साल से कम उम्र के बच्चे हिस्सा नहीं ले सकेंगे और न ही मटकी की ऊंचाई 20 फीट से ज़्यादा होगी। लब्बोलुआब देश की सबसे बड़ी अदालत ने बॉम्बे हाईकोर्ट के पिछले साल के फ़ैसले को ही बरकरार रखा है।
पिछले साल बॉम्बे हाईकोर्ट ने ऐसे इंतज़ामात करने के निर्देश दिए थे, जिन पर अमल करना मुश्किल भरा ही नहीं, क़रीब-क़रीब असंभव है। मसलन, हाईकोर्ट ने कहा था कि मटकी-स्थल के आसपास ज़मीन पर गद्दे बिछाए जाएं। चूंकि गोविंदा पर्व बारिश में पड़ता है, ऐसे में खुले आसमान के नीचे गद्दे नहीं बिछाए जा सकते। इससे गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है। यह आयोजकों के लिए भी व्यवहारिक नहीं। हाईकोर्ट ने गोविंदाओं के लिए सुरक्षात्मक कवच और हेलमेट का इंतज़ाम करने और मटकी सड़क या रास्ते पर न टांगने की भी निर्देश दिया था। यह भी व्यवहारिक नहीं था। लिहाज़ा, इन आदेशों का पालन करना बहुत ही मुश्किल भरा होगा। अब सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले को ओके कर दिया।
राज्य की देवेंद्र फड़नवीस सरकार के पास पुलिस को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सख़्ती से पालन का निर्देश देने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था। इसीलिए कई लोग आशंका जताने लगे हैं कि कहीं अदालत के दख़ल और राज्य सरकार के कोर्ट का फ़ैसला लागू करवाने की मजबूरी के चलते भारतीय संस्कृति की यह रोमांचकारी परंपरा सदा के लिए ख़त्म न हो जाए। दरअसल, अदालत की ओर से दही-हांडी के जो तरीक़े बताए गए हैं, वे प्राइमा फ़ेसाई इतने अव्यवहारिक हैं कि उन पर अमल करने से बेहतर होगा, यह पर्व ही न मनाया जाए।
दही-हांडी का रोचक पर्व भारत में दशकों नहीं, कई सदियों से धूमधाम से मनाया जाता रहा है। महाराष्ट्र में यह सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रहा है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन होने वाले इस उत्सव में युवाओं के साथ-साथ किशोर और बच्चे भी उत्साह से शिरकत करते रहे हैं। किशोरों और बच्चों को इस पर्व में इसलिए शामिल किया जाता रहा है क्योंकि, उनका वजन कम होता है, लिहाज़ा, मटकी फोड़ते के लिए पिरामिड बनाते समय उन्हें आसानी से कंधे पर बिठाकर मटकी तक पहुंचा जा सकता है। यह काम कोई वयस्क आदमी नहीं कर सकता।
वस्तुतः दही-हांडी में मिट्टी (अब ताबां या पीतल) की मटकी में दही, मक्खन, शहद, फल और कैश धनराशि रखे जाते हैं। इस मटकी को धरती से काफी ऊपर तक टांगा जाता है। प्रायः रुपए की लड़ी रस्से से बांधी जाती है। इसी रस्से से वह बर्तन भी बांधा जाता है। बच्चे, किशोर और नवयुवक लड़के–लड़कियां पुरस्कार जीतने के लिए समारोह में हिस्सा लेते हैं और एक–दूसरे के कंधे पर चढ़कर पिरामिड बनाते हैं। जिससे सबसे ऊपर पहुंचकर आसानी से मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है। इस धनराशि को मानव पिरामिड में भाग लेने वाले सभी सहयोगियों में बांट दिया जाता है।
यह कहना न तो ग़लत होगा और न ही अतिरंजनापूर्ण कि दही-हांडी मूलतः बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का ही का खेल रहा है। इस रोमांचकारी भारतीय परंपरा का आरंभ भगवान कृष्ण के बाल्यकाल में गोपियों की मटकी से माखन चुराने की घटनाओं से माना जाता है। बालक कन्हैया गोपियों की मटकी फोड़कर माखन चुरा लेते थे। बड़े होने पर श्रीकृष्ण ने मटकी नहीं फोड़ी बल्कि वह कंस को मारने के लिए गोकुल को ही छोड़ दिया था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि गोविंदा त्यौहार केवल और केवल बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का ही है। इसमें बड़ों को शामिल नहीं होना चाहिए।
दही-हांडी की मटकी असल में सबसे ऊपर का बच्चा फोड़ता है। उसे पिरामिड में शामिल नवयुवक अपने कंधे पर बिठाकर सहारा देते हैं और मटकी तक पहुंचाते हैं। इसलिए यह कहने में कतई हर्ज़ नहीं कि इस त्यौहार का अट्रैक्शन ही बच्चे हैं। लिहाज़ा बच्चों की भागीदारी के बिना यह अधूरा सा लगेगा। इसमें केवल वयस्क युवक ही भाग लेंगे तब यह और जोख़िम भरा हो सकता है। 18 साल का होते होते औसत इंसान का वज़न 60 किलोग्राम पार कर जाता है। अगर पिरमिड में सबसे ऊपर इतने वज़नदार व्यक्ति को चढ़ाया गया तो नीचे के गोविंदाओं के दबने का ख़तरा रहेगा।
अब शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने नेतागण देश की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले पर ख़ेद जता रहे हैं। राज ठाकरे ने तो तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है, “दही हांडी उत्सव को कोर्ट ने नियमों में उलझा दिया है। तो क्या अब स्टूल पर खड़े होकर दही हांडी फोड़ी जाए?” ज़ाहिर है ऐसे कमेंट इन नेताओं की अपरिपक्वता ही दर्शाते हैं। अब खेद जताने से क्या फ़ायदा। यह तो वही बात हुई कि अब पछताए का होत जब चिड़िया चुग गई खेत।
ज़ाहिर सी बात है, अदालत का दख़ल रातोरात नहीं हुआ है। हाल के वर्षों ख़ासकर टीवी चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट और इस त्यौहार को प्रॉडक्ट बेचने का ज़रिया बना देने से इस पर्व का बड़ा घाटा हुआ। दही-हांडी की प्राचीन परंपरा को नेताओं और बाज़ारवादियों ने अपने निजी लाभ के लिए हाईजैक कर लिया था। इसे पब्लिसिटी का माध्यम बना दिया था। इसका पूरी तरह कॉमर्शियलाइज़ेशन हो गया था। इस पर्व में करोड़ों के वारे-न्यारे होने लगे थे। गोविंदा मंडल भी पेशेवर हो गए थे, जिससे गलाकाट स्पर्धा शुरू हो गई थी। इसके चलते मटकी की ऊंचाई और इनामी राशि भयानक रूप से बढ़ने लगी थी। बाज़ारीकरण के चलते ही यह त्यौहार हंगामें वाला पर्व बन गया, इस कारण एक बड़ा तबक़ा इन आयोजनों से चिढ़ने लगा था। कहा जा सकता है कि आयोजकों और बाज़ार को संचालित करने वाली कंपनियों द्वारा इसे मुनाफ़े का जरिया बना देने से ही इस त्यौहार का बंटाधार हुआ।
गोविंदा इतना ज़्यादा स्पर्धात्मक हो गया था कि विदेशों से पेशवर गोविंद मंडल मटकी फोड़ने के लिए आने लगे थे। आज ख़ेद जताने वाले लोगों को उसी समय सक्रिय होकर गोविंदा की परंपरा को नष्ट कर रहे लोगों को रोकना चाहिए था। जब स्पर्धा बढ़ने से पिरामिड में शामिल गोविंदाओं को मटकी फोड़ने के दौरान मौत होने लगी तो मजबूरन कुछ लोगों ने महसूस किया कि इस त्योहार को विद्रुप रूप देने का विरोध होना चाहिए, उस पर अंकुश लगना चाहिए। हादसों को रोकने के लिए ही हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गईं।
दरअसल, पिछले साल सबसे पहले मुंबई पुलिस के तत्कालीन प्रमुख राकेश मारिया ने बच्चों का सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 12 साल उम्र तक के बच्चों के दही-हांडी के पिरामिड में भाग लेने पर रोक लगा दी थी। मुंबई के पुलिस प्रमुख ने यह क़दम बाल मज़दूरी उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के दबाव में उठाया था। यहां तक तो थोड़ी खैरियत थी, लेकिन रही सही कसर अदालत के आदेश ने पूरी कर दी। ऐसे में राज्य सरकार को निर्देश दिया जाना चाहिए कि गोविंदा को कॉमर्शियलाइज़ेशन बनाने से रोका जाए, न कि इस पर अव्यवहारिक बंदिशे लगाकर।
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