हरिगोविंद विश्वकर्मा
आज रक्षा बंधन का त्यौहार
है। आज के दिन हर लड़की या स्त्री अपने भाई के पास जाती है और आरती उतारने के बाद
उसकी कलाई में रक्षा का धागा बांधती है। जिनके भाई दूर हैं, वे स्त्रियां कोरियर
या दूसरे माध्यम से अपने भाई तक राखी पहुंचाती हैं। जिन स्त्रियों के भाई नहीं
होते, वे स्त्रियां आज के दिन थोड़ी उदासी महसूस करती हैं। भाई की कमी महसूस करती
हैं। मन को दिलासा देने के लिए किसी मुंहबोले भाई को राखी बांध कर इस परंपरा का
निर्वहन करती हैं। कुल मिलाकर पता नहीं कब से यह परंपरा यूं ही चली आ रही है। पहले
यह त्योहार इतना प्रचलित नहीं था। परंतु संचार माध्यम, बाज़ारवाद और बेहतर
ट्रांसपोर्ट मोड ने इसे जन-जन में लोकप्रिय बना दिया।
बहुत गहन विचार और चिंतन करने
पर यही लगता है कि निश्चित रूप से रक्षाबंधन नाम के इस त्योहार की शुरुआत असुरक्षा
के माहौल में हुई है। यानी पहले समाज को स्त्री के लिए एकदम असुरक्षित बना दिया
गया, फिर स्त्री की रक्षा की कॉन्सेप्ट विकसित किया गया। मतलब, धीरे धीरे समाज ऐसा
हो होता गया होगा, जहां लड़कियां या महिलाएं असुरक्षित हो गई होती गई होंगी। तब
उनकी रक्षा की नौबत आई गई होगी। दरअसल, आज से दस हज़ार साल पहले, जब झुंड की
मुखिया स्त्री हुआ करती थी, तब न तो स्त्री न ही पुरुष को किसी रक्षा की ज़रूरत
नहीं पड़ती थी, क्योंकि तब सब लोग नैसर्गिक जीवन जीते थे और अपनी रक्षा स्वतः कर
लेते थे।
मानव सभ्यता के विकास क्रम
में जैसे जैसे समाज विकसित होता गया और झुंड के मुखिया का पद पुरुष ने स्त्री से
छीन लिया और स्त्री को भोग की वस्तु बना दिया, तब से स्त्री असुरक्षित हो गई।
कालांतर में पुरुष ने स्त्री पर एकाधिकार जताने के लिए उसके साथ साज़िश की। कह
दिया स्त्री “इज़्जत” की प्रतीक है। अगर उसे कोई छू देगा तो वह इज़्ज़त गंवा बैठेगी। दरअसल, यह
इज़्ज़त, जिसकी रक्षा स्त्री जीवन भर करती है और समाज में दयनीय हो जाती है, पूरी
तरह मनोवैज्ञानिक सोच है। इस इज़्ज़त की रक्षा करने के चक्कर में वह हमेशा
असुरक्षित महसूस करती है। कह सकते हैं कि वह बिंदास जीवन ही नहीं जी पाती, जबकि
पुरुष इस इज़्ज़त नाम की वैज्ञानिक सोच से परे रहता है और मस्ती से जीवन जीता है।
इस इज़्ज़त की रक्षा के चक्कर में स्त्री पुरुष से पिछड़ जाती है। उस अपनी इज़्ज़त
की रक्षा के लिए पुरुष की ज़रूरत पड़ती है।
चूंकि आरंभ में स्त्री की
मां के गर्भ से पैदा होने वाला पुरुष, जिसे वह ‘भाई’ कहती है, ही उसकी इज़्ज़त की रक्षा करता है। बाद में यह
काम दूसरा पुरुष जो उसका ‘पति’ कहलाता है। वह पुरुष केवल स्त्री की मांग में सिंदूर भर कर
या मंगलसूत्र पहनाकर या निकाह क़ुबूल है, कह कर स्त्री का स्वामी बन जाता है। वह
पुरुष अपनी स्त्री की रक्षा करने के नाम पर उसका भयानक शोषण करता है। उसका मन चाहा
इस्तेमाल करता है। उससे बलात्कार (इच्छा के विरुद्ध सेक्स) करता है और एक तरह से उस
घर में ग़ुलाम बनाकर रखता है। यह ट्रिपल तलाक़ की समस्या भी इसी तरह के माइंडसेट का नतीजा
है। पुरुष ख़ुद तो बिंदास जीवन जीता है, लेकिन इज़्ज़त की रखवाली की ज़िम्मेदारी
स्त्री पर छोड़ देता है।
यह तो स्त्री की रक्षा नहीं
हुई। पतिरूपी इस पुरुष से स्त्री की रक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। ज़रूरत है,
ऐसे प्रावधान किए जाएं, कि स्त्री को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े। समाज ऐसा हो कि पुरुष
की तरह स्त्री भी उसमें बिंदास सांस ले सके। इसके लिए स्त्री को बताना होगा, कि
उसके लिए जीवन महत्वपूर्ण है। लिहाज़ा, उसे
स्वतंत्र माहौल की ज़रूरत है। जहां वह इज़्ज़त के बोझ से परे होकर अपने बारे में
सोचे और अपने बारे में हर फ़ैसले वह ख़ुद करे, न कि पिता, भाई या पति के रूप में
उसके जीवन में आने वाला पुरुष उसके बारे में हर फ़ैसला ले। यानी स्त्री को करीयर
ओरिएंटेड बनाने की ज़रूरत है। उसे बताया जाए कि उसके लिए लिए पति यानी हसबैंड से
ज़्यादा ज़रूरी उसका अपना करियर है। कहने का मतलब स्त्री को आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भर बनाने की ज़रूरत है।
आज स्त्री-पुरुष संबंधों को
फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। जब इस संबंध की शुरुआत हुई थी, तब समाज आज
जैसा विकसित नहीं था। तब सूचना क्रांति नहीं हुई थी। आज की तरह दुनिया एक बस्ती
में तब्दील नहीं हुई थी, जैसी कि दुनिया आज है। ऐसे में आज जब हर चीज़ नए सिरे से
परिभाषित हो रही है, तो स्त्री-पुरुष संबंध भी क्यों न फिर से विज्ञान और
प्रौद्योगिकी में हुए विकास के मुताबिक परिभाषित किए जाएं। अगर ऐसा किया जाता है,
तो स्त्री अपने आप सुरक्षित हो जाएगी।
स्त्री को पूरी आज़ादी देने
की ज़रूरत है। जितना आजाद पुरुष है, उतनी ही आज़ादी स्त्री को भी होनी चाहिए। स्त्री
चाहे तो अकेले रहे या किसी पुरुष के साथ, ऐसे पुरुष के साथ जिसके साथ वह सहज महसूस
करे। यानी स्त्री अपने लिए पति नहीं, बल्कि जीवनसाथी चुने और ख़ुद चुने और स्वीकार
करे, न कि उसके जीवनसाथी का चयन उसका पिता या भाई करें। ख़ुद जीवनसाथी के चयन में
अगर लगे कि उसने ग़लत पुरुष चुना है, तो वह उसका त्याग कर दे और अगर उसके जीवन में
उसे समझने वाला कोई पुरुष आता है तो उसके साथ रहने के लिए वह स्वतंत्र हो। इसके
लिए स्त्री को उसकी आबादी के अनुसार नौकरी देने के ज़रूरत है। ज़ाहिर है, पुरुष यह
सब नहीं करेगा।
बहरहाल, रक्षाबंधन श्रावण
मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसीलिए इसे श्रावणी या सलूनो भी कहते हैं। गहन
रिसर्च के बावजूद राखी का त्यौहार कब शुरू हुआ, इसकी एकदम सटिक प्रमाणिक जानकारी
नहीं मिल सकी। इसके बावजूद लगता तो यही है कि मानव सभ्यता के विकसित होने के बाद
जब समाज पर पुरुषों का वर्चस्व हुआ, तब स्त्री की रक्षा
के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही इस त्यौहार की परिकल्पना की गई होगी। मकसद यह
रहा होगा कि समाज में पति-पत्नी के अलावा स्त्री-पुरुष में भाई-बहन का पवित्र
रिश्ता कायम हो। बहरहाल, हो सकता है इन पंक्तियों के
लेखक का आकलन शत-प्रतिशत सही न हो। लेकिन स्वस्थ्य समाज की संरचना के लिए ऐसा ही
कुछ हुआ होगा। वैसे, हमारा देश उत्सवों और
परंपराओं का देश है। सदियों से पूरे साल अनेक तीज-त्यौहार, पर्व, परंपराएं मनाए जाते रहे हैं। इन्हीं त्योहारों
में रक्षा-बंधन यानी राखी भी है। यह त्यौहार भाई-बहन के बीच अटूट-बंधन और
पवित्र-प्रेम को दर्शाता है। भारत के कुछ हिस्सों में इसे 'राखी-पूर्णिमा' के नाम से भी जाना जाता है।
स्कंध पुराण, पद्म पुराण भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत गीता में
वामनावतार नामक कथा में राखी का प्रसंग मिलता है। मसलन, दानवेंद्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का
राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इंद्र ने विष्णु से प्रार्थना की। तब विष्णु वामन
अवतार लेकर बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। विष्णु ने
तीन पग में आकाश पाताल और धरती नापकर बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार विष्णु
द्वारा बलि के अभिमान को चकनाचूर कर देने से ही यह त्योहार बलेव नाम से भी मशहूर
है। विष्णु पुराण के मुताबिक श्रावण की पूर्णिमा के दिन विष्णु ने हयग्रीव के रूप
में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को
विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
भविष्य पुराण के मुताबिक
सुर-असुर संग्राम में जब दानव हावी होने लगे तब इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गये।
इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके पति के
हाथ पर बांध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। मान्यता है कि लड़ाई
में इसी धागे की मंत्र शक्ति से ही इंद्र विजयी हुए। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा
के दिन धागा बांधने की प्रथा शुरू हो गई।
महाभारत में भी इस बात का
उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने
उनकी और उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी। उनका
कहना था कि राखी के धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते
हैं। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई।
द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। यह श्रावण मास
की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी
साड़ी को बढ़ाकर चुकाया।
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे
तब महिलाएं उन्हों माथे पर तिलक के साथ साथ हाथ में धागा बांधती थी। इस भरोसे के
साथ कि धागा विजयश्री ले आएगा। मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा
मेवाड़ पर हमला करने की सूचना मिली। रानी ने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर
रक्षा याचना की। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़
पहुंचकर कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकंदर की
पत्नी ने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांधकर मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध
के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी
राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवन-दान दिया।
राखी सामान्यतः बहनें भाई
को ही बांधती हैं, परंतु कई समाज में छोटी
लड़कियां संबंधियों को भी राखी बांधती हैं। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या
प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बांधी जाती है। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों
को राखी बांधने की परंपरा भी शुरू हो गई है जो प्रकृति को बचाने के एक प्रयास है।
ज़ाहिर है, इस तरह के प्रयास को बढ़ावा देना चाहिए।
राखी पर सभी को शुभकामनाएं।
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