हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या आपको पता है, कि मरणोपरांत राष्ट्रपिता का दर्जा पाने वाले मोहनदास
कर्मचंद गांधी यानी महात्मा गांधी देश के पहले उपप्रधानमंत्री लौह पुरुष सरदार
बल्लभभाई पटेल की नीतियों से बिल्कुल इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। इसीलिए उन्होंने सरदार
पटेल को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इसके बाद कश्मीर पर हमले करने वाले पाकिस्तान
को 55 करोड़ रुपए के भुगतान जब पटेल ने को रोक दिया तब गांधी ने आमरण अनशन की धमकी
दे डाली। गांधी के आगे झुकती हुई भारत सरकार ने इसके बाद पाकिस्तान को 55 करोड़
रुपए का भुगतान कर दिया। दरअसल, उस समय एक बार तो नौबत यहां तक आ गई कि अगर गांधी
की हत्या न हुई होती तो एक दो दिन में सरदार पटेल के इस्तीफे की ख़बर आ जाती।
नवजीवन प्रकाशन मंदिर की ओर से प्रकाशित गांधी की दिल्ली डायरी में लिखित बयान
के अनुसार गांधीजी जनवरी के पहले हफ़्ते में लिखा, "कोई बड़ा फ़ैसला
लेने से पहले पटेल अब मुझसे कुछ नहीं पूछते, अब वह मेरी उपेक्षा
करते हैं।" जब पटेल ने घोषणा कर दी कि जब तक पाकिस्तान अपनी
सेना कश्मीर से वापस नहीं बुला लेता तो हम 55 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं करेंगे।
बकौल सरदार पटेल "कश्मीर पर निर्णय हुए बिना हम कोई रुपया पाकिस्तान को देना
स्वीकार नहीं करेंगे।" गांधी की दिल्ली डायरी के अनुसार, गांधी ने 12 जनवरी
1948 की शाम अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा, "ऐसा भी मौक़ा आता है जब अहिंसा का पुजारी किसी अन्याय के
सामने विरोध प्रकट करने के लिए उपवास करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसा मौक़ा मेरे
लिए आ गया है।"
गांधी की दैनिक डायरी पढ़ें तो पता चलता है कि अगर गांधीजी की हत्या न हुई
होती तो निश्चित रूप से सरदार पटेल को जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल से अलग होना पड़
सकता था। दरअसल, गांधी के ब्रम्हचर्य का प्रयोग जैसे प्रपंच से पटेल ख़ासे नाराज़
थे। पटेल को ब्रम्हचर्य के प्रयोग के दौरान गांधी का मनु, आभा, सुशीला और आश्रम की दूसरी महिलाओं के साथ नग्न सोना
बहुत नागवर लगता था। इससे पटेल उनसे और चिढ़ने लगे थे। इसलिए कोई भी बड़ा फ़ैसला
लेने से पहले उन्होंने गांधी की सलाह लेना कम कर दिए थे। हालांकि जब गांधी दिल्ली
में होते थे तब पटेल उनसे शुभेच्छा भेंट करने ज़रूर आते थे। 30 जनवरी की शाम गांधी
की हत्या से कुछ मिनट पहले पटेल उनसे मिलने आए थे। मुलाकात के कारण ही गांधी को
प्रर्थनास्थल पर पहुंचने में विलंब हो गया था।
जिस तरह गांधी का संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर से मतभेद थे,
उसी तरह उनका पटेल से सांप्रदायिक मसले पर गंभीर मतभेद था। ख़ासकर जब पाकिस्तान की
ओर से कश्मीर पर हमला किया गया तो पटेल ने बयान जारी करके पाकिस्तान को दिए जाने
वाले 75 करोड़ रुपए में से 55 करोड़ रुपए (20 करोड़ रुपए का भुगतान पहले ही किया
जा चुका था) की अंतिम किश्त रोकने की घोषाणा कर दी। मगर गांधी को पटेल का फ़ैसला बिल्कुल
रास नहीं आया। बताया जाता है कि इसके बाद गांधी पटेल के और विरोधी हो गए। गांधी के
साथ पटेल के गंभीर मतभेद के चलते ही गांधी की हत्या होने के बाद यह भी सवाल उठने
लगे कि कहीं गांधी की हत्या के पीछे पटेल का तो हाथ नहीं।
दरअसल, गांधी के पटेल से मतभेद की वजह मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर डायरेक्ट
ऐक्शन में नोआखली में हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार करवाने वाले बंगाल के शासक हुसैन
शहीद सुहरावर्दी थे। पटेल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन गांधी पटेल के
विरोध को उचित नहीं मानते थे। वस्तुतः गांधी नेहरू के मुकाबले पटेल को कट्टरपंथी
मानते थे। उनको लगता था आगे चल कर पटेल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के मुकाबले नेहरू
की नरम और लचीली नीति देश के लिए ज़्यादा सफल होगी। पर छुपा हुआ सत्य यह भी था कि
गांधी की मर्जी के ख़िलाफ़ एक बार सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने
के बाद से गांधी कांग्रेस पर अपनी पकड़ को लेकर आश्वस्त नहीं थे। उन्हें लगता था कि
अगर पटेल ने अपना नाम वापस नहीं लिया तो नेहरू हार जाएंगे जिसे उनकी हार मानी
जाएगी। साथ ही उन्हें यह भी पता था कि पटेल उनके कहने पर अपना नाम वापस ले लेंगे
लेकिन नेहरू ऐसा नहीं करेंगे।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी 'इंडिया विन्स फ्रीडम' में लिखा था, "सरदार पटेल के नाम का समर्थन
ना करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है
कि मेरे बाद अगर 1946 में पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को वह नेहरू से बेहतर ढंग से
लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद
को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया
होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।"
31 अक्टूबर 1875 को जन्मे पटेल ने सी राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनने से रोक
दिया था इसके बावजूद राजगोपालाचारी ने लिखा, “इस में कोई संदेह
नहीं कि बेहतर होता अगर पटेल प्रधानमंत्री और नेहरू विदेशमंत्री बनाए गए होते। मैं
स्वीकार करता हूं कि मैं भी ग़लत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज़्यादा प्रगतिशील
और बुद्धिमान हैं। पटेल के प्रति यह झूठा प्रचार किया गया था कि वह मुस्लिमों के
प्रति कठोर थे। अफ़सोस कि यह ग़लत तथ्य होने के बावजूद इसका प्रचार किया जा रहा था।"
दरअसल, सन् 1946 के चुनाव में भारी समर्थन मिलने के बावजूद गांधी ने पटेल को कांग्रेस
अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कांग्रेस अध्यक्ष ही आज़ादी मिलने पर देश का प्रधानमंत्री
बनता और गांधी की पहली पसंद जवाहरलाल नेहरू थे। इसलिए उन्होंने पटेल से चुनाव
मैदान से हटने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया। सन् 1946 में सभी को विश्वास
था कि आजादी मिलने वाली है। दूसरा वर्ल्ड वॉर खत्म हो चुका था और अंग्रेज भारतीयों
को सत्ता हस्तांतरण के बारे में विचार-विमर्श करने लगे थे। कांग्रेस के नेतृत्व
में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उस साल चुनावों में
कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें मिली थीं। अचानक कांग्रेस अध्यक्ष पद की ओर सभी की
निगाह चली गई थी। पटेल की कर्मठ जीवन शैली, कामयाब प्रशासक और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता की छवि के
कारण कांग्रेस में आम कार्यकर्त्ता ही नहीं वरिष्ठ नेता भी उनको प्रधानमंत्री बनाना
चाहते थे।
भारत छोडो आंदोलन के कारण कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता जेल में थे। इस कारण 6 साल से चुनाव नहीं हो सका
था। लिहाज़ा, 6 साल से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। वह भी अध्यक्ष
पद के चुनावों में भाग लेने के इच्छुक थे क्योंकि उनकी भी प्रधानमंत्री बनने की
महत्वाकांक्षा थी। किंतु गांधी ने उन्हें बता दिया कि अध्यक्ष पद का फिर से
उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। आज़ाद ने अध्यक्ष बनने का इरादा त्याग दिया। यही नहीं,
गांधी ने साफ तौर अपना
समर्थन नेहरू को दिया था। उनकी नज़र में उस समय कांग्रेस की बागडोर संभालने के लिए
नेहरू से बढ़कर कोई उम्मीदवार नहीं था।
अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की अंतिम तिथि 29 अप्रैल 1946 थी। नामांकन 15 राज्यों की कांग्रेस की क्षेत्रीय कमेटियों द्वारा
किया जाना था। हैरत की बात कि गांधी के खुले समर्थन के बावजूद नेहरू को एक भी
राज्य की कांग्रेस कमेटी का समर्थन नहीं मिला, जबकि 15 में से 12 राज्यों से सरदार पटेल का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए
प्रस्तावित किया गया। बाकी 3 राज्यों ने किसी का भी नाम आगे नहीं आया। स्पष्ट है कि पटेल के पास निर्विवाद
समर्थन हासिल था जो उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए पर्याप्त था। इसे
गांधी ने चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने जेबी कृपलानी पर दबाव डाला कि वह
कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को नेहरू के नाम का प्रस्ताव करने के लिए राजी
करें। आश्चर्य की बात कि गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि कांग्रेस कार्य समिति
के सदस्यों के पास यह अधिकार था ही नहीं कि वह नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखते क्योकि
यह अधिकार कांग्रेस के संविधान के अनुसार केवल राज्यों की इकाइयों के पास ही था।
बहरहाल, सच तो यह है कि सरदार पटेल ने ही भारत को विभाजित करने के मंसूबों पर पानी
फेरा था। आज जो विकासशील भारत हैं, वद 70 साल पहले भारत-श्रेष्ठ भारत के मिशन की कमान संभालने वाले सरदार पटेल की
ही देन है। वस्तुतः स्वतंत्रता मिलने से पहले भारत में दो तरह के शासक थे। भारत का
एक हिस्सा वह था जिस पर अंग्रेजों का सीधा शासन था, दूसरा हिस्सा वह था जिस पर 562 से ज्यादा रियासते और रजवाड़े
थे। रियासतदार और रजवाड़े अंग्रेजों के अधीन शासन कर रहे थे।
विभाजित के समय अंग्रेजों ने चालाकी से रजवाड़ों के सामने दो विकल्प रखा। पहला
विकल्प भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय था और दूसरा विकल्प आजाद देश
के रूप में वजूद कायम रखना। यह पटेल का कमाल था कि उन्होंने सूझबूझ और कूटनीति से
बिना किसी खूनखराबे के भारत को एक किया। 6 मई 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों और रजवाड़ों का भारत में विलय का मुश्किल मिशन शुरू
किया। विलय के बदले रियासतों के वशंजों को प्रिवी पर्सेज के जरिए नियमित आर्थिक
मदद का प्रस्ताव रखा। साथ ही रियासतों से उन्होंने देशभक्ति की भावना से फैसला
लेने को कहा। 15 अगस्त 1947 तक भारत में शामिल होने की समय सीमा भी तय कर दी। साम-दाम-दंड-भेद की पटेल की
इस कूटनीति ने जल्दी ही रंग दिखाना शुरू कर दिया।
आखिरकार 15 अगस्त 1947 को जब लाल किले में तिरंगा फहराया गया तब-तब भारत एक मुल्क के रूप में दुनिया
के नक्शे पर वजूद में आया लेकिन जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का
फैसला किया। जम्मू-कश्मीर के राजा हिंदू थे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी,
जबकि जूनागढ़ और हैदराबाद के
शासक मुस्लिम थे, लेकिन उनकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में इन्हें
लेकर कोई भी गलत फैसला बड़ी आफ़त बन सकता था।
87 फीसदी हिंदू आबादी वाले हैदराबाद का नवाब उस्मान अली खान विलय के पक्ष नहीं था,
उसके इशारे पर वहां की सेना
हैदराबाद की जनता पर अत्याचार कर रही थी। 13 सितंबर 1948 को पटेल ने भारतीय फौज को हैदराबाद पर चढ़ाई करने का
आदेश दे दिया। ऑपरेशन पोलो के तहत सेना ने दो ही दिन में हैदराबाद पर क़ब्ज़ा कर
लिया।
नोट - व्यस्ता के कारण इसे कल यानी 31 अक्टूबर 2017 को पूरा नहीं कर पाया था,
आज पूरा हुआ और पोस्ट कर रहा हूं।
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