हरिगोविंद विश्वकर्मा
सन् 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध दोनों देशों के इतिहास के साथ दक्षिण एशिया के भूगोल के लिहाज से भी बेहद अहम है। 3 से 16 दिसंबर के बीच 13 दिन चलने वाले युद्ध में इंडियन नेवी के आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात ने युद्ध के दूसरे दिन कराची हारबर पर मिसाइल दाग कर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी थी। इसी युद्ध का नतीजा था कि पाकिस्तान पर भारत की शानदार फतह हुई और दक्षिण एशिया के क्षितिज पर एक नया मुल्क बांग्लादेश उदित हुआ।
कराची पाकिस्तान के लिए उतना ही अहम है जितना भारत के लिए मुंबई। कराची समुद्री व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था। वहां का बंदरगाह पाकिस्तान के लिए अहम था। वहां सिर्फ पाकिस्तान नेवी का हेडक्वार्टर ही नहीं था बल्कि तेल भंडारण का भी एक प्रमुख केंद्र था। ऑपरेशन ट्राइडेंट के तहत नेवी ने कराची बंदरगाह पर मिसाइल बोटों से हमला किया। इस हमले में पहली बार इस क्षेत्र में युद्धरोधी मिसाइलों का उपयोग किया गया। अभियान बेहद कामयाब रहा लेकिन मुख्य लक्ष्य तेल भंडारण को नष्ट करने में नाकाम रहा। इसलिए उसकी अगली कड़ी के तहत ऑपरेशन पायथन को अंजाम दिया गया, जिससे पाकिस्तान के हौसले पस्त हो गए।
युद्ध में भारतीय पताका फहराने और पाकिस्तान के हथियार डालने के पीछे थल सेना और वायुसेना के साथ नेवी की अहम भूमिका रही। दूसरे दिन के हमले के बाद भारतीय सेनाएं रुकी नहीं। कमांडिग ऑफीसर लेफ्टिनेंट कमांडर बहादुर नरिमन (बीएन) काविना, लेफ्टिनेंट कमांडर आईजे शर्मा, लेफ्टिनेंट कमांडर ओपी मेहता के नेतृत्व में नेवी ने पाक नौसेना मुख्यालय और कराची बंदरगाह पर मिसाइल हमला किया। उस हमले को वैश्विक सैन्य इतिहास के सबसे जोखिम भरे अभियानों में गिना जाता है, जिसे आईएनएस विनाश, निर्भीक, निर्घात, निपात, तलवार, त्रिशूल और वीर ने अंजाम दिया।
दरअसल जब भारतीय सेना और वायुसेना अपने अपने मोर्चों पर डटी थीं तो पूर्वी और पश्चिमी तट को ब्लॉक करने का मास्टर प्लान नेवी ने बनाया। उसके तहत पश्चिमी क्षेत्र में जिस अभियान को अंजाम दिया गया, उसको ऑपरेशन ट्राइडेंट कहा गया। 8 दिसंबर 1971 की रात आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात ने मिसाइल बोट आईएनएस विनाश और दो मल्टीपर्पज फ्रिगेट आईएनएस तलवार और आईएनएस त्रिशूल ने हमला बोला।
भारतीय नौसेना को ऑपरेशन ट्राइडेंट और ऑपरेशन पायथन के जरिए पाक के कई युद्धपोतों को नष्ट करने के साथ तेल और आयुध भंडारों को नष्ट करने में कामयाबी मिली। वायुसेना के सहयोग से इन हमलों के चलते कराची जोन के 50 फीसदी से अधिक ईंधन क्षमताएं नष्ट हो गईं। इससे दुश्मन की अर्थव्यवस्था तो नष्ट हुई ही, उसे करीब तीन अरब डॉलर का नुकसान हुआ। इस ऑपरेशन के आठवें दिन पाकिस्तानी सेना ने हथियार डाल दिया और 1962 की चीन से हार का सदमा भुलाकर भारत विश्वमंच पर एक शक्ति के रूप में उभरा और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में दुर्गा के रूप में मशहूर हुईं।
भारतीय नौसेना के दो युद्धपोतों आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात को पिछले शुक्रवार को भावभीनी विदाई दी गई। आईएनएस निर्भीक 30 साल तक नौसेना की सेवा में रहा, जबकि नेवी के साथ आईएनएस निर्घात का सफर 28 साल तक चला। दरअसल, सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान कराची हार्बर पर नौसेना की आक्रामक कार्रवाई को सफलतापूर्वक निभाने वाले दोनों जंगी बेड़ों आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात को नए अवतार में क्रमश: 21 दिसंबर 1987 और 15 दिसंबर 1989 को पूर्व सोवियत संघ ने भारत को सौंप दिया था।
आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात में 70 नाविकों और सात अधिकारियों का दल तैनात रहता था। दोनों जहाजों में चार जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइलें, मध्यम श्रेणी की मारक क्षमता से लैस एके 176 गन और एके 630 की कैलिबर गन तैनात रहती थीं। कराची ऑपरेशन के बाद करीब तीन दशकों में दोनों जहाजों ने ऑपरेशन विजय और पराक्रम जैसे कई अभियानों में सफलतापूर्वक हिस्सा लिया। कई अवसरों पर दोनों जंगी बेड़े को गुजरात में भी तैनात किया गया था। कमांडर आनंद मुकुंदन और कमांडर मोहम्मद इकराम दोनों जहाजों के अंतिम कमांडिंग ऑफिसर रहे।
भारतीय नौसेना ने आईएनएस निर्भीक और निर्घात को पारंपरिक तरीके से अंतिम विदाई दी। कार्यक्रम में फ्लैग ऑफिसर वेस्टर्न फ्लीट रियर एडमिरल आरबी पंडित मौजूद थे। पंडित ने सबसे पहले आईएनएस निर्घाटत की कमांडिंग की थी। इसके अलावा कमांडर वीआर नाफाडे और कमांडर एस. मैमपुल्ली भी जलसे में मौजूद थे। दोनों कमांडरों ने आईएनएस निर्भीक और निर्घाट को कमीशन किया था। दोनों कमांडरों को गेस्ट ऑफ ऑनर दिया गया।
56 मीटर लंबे और 10.5 मीटर चौड़े आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात भारतीय नौसेना के जंगी जहाज थे। ये दोनों भारतीय नौसेना की वीर कैटेगरी का पोत थे। दोनों का कुल भार 455 टन था। आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात की पानी में रफ्तार 59 किलोमीटर प्रति घंटा है। 971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान कराची बंदरगाह पर दोनों ने अपने मूल अवतार में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे।
भारतीय नौसेना का इतिहास
भारतीय नौसेना के इतिहास को 1612 के समय से पता लगाया जा सकता है जब सर्वश्रेष्ठ कप्तान ने इनका सामना किया और पुर्तगालियों को पराजित किया। 1686 में इसका नाम बंबई मेरीन रखा गया और 1830 में इसे हर मेजेस्टीर इंडियन नेवी का नाम दिया गया। 1863 से 1877 के दौरान इसे बॉम्बे मरीन नाम दिया गया, जिसके बाद हर मेजेस्टी इंडियन मेरीन बना। इस समय, नेवी दो डिविजन किए गए. कलकत्ता में ईस्ट डिविजन और मुंबई में वेस्टर्न डिविजव। इसका शीर्षक 1892 में रॉयल इंडियन मेरीन कर दिया गया, जिस समय तक इसमें 50 से अधिक जंगी जहाज शामिल हुए। पहले भारतीय के रूप में सूबेदार लेफ्टिनेंट डीएन मुखर्जी इंजीनियर अधिकारी के रूप में 1928 में रॉयल इंडियन मरीन में शामिल हुए। सेकंड वर्ल्डवॉर में इसमें आठ युद्धपोत शामिल किए गए और इनकी संख्या् 117 युद्ध पोतों तक बढ़ी और 30,000 जवानों को लाया गया था। आजादी के समय रॉयल इंडियन नेवी में तटीय गश्ती के लिए 32 पुराने जहाजों के साथ 11,000 अफसर और जवान थे। भारतीय नौसेना के प्रथम कमांडर इन चीफ एडमिरल सर एडवर्ड पैरी, केसीबी ने प्रशासन 1951 में एडमिरल सर मार्क पिजी, केबीई, सीबी, डीएसओ को सौंप दिया था। एडमिरल पिजी भी 1955 में नौसेना के पहले चीफ बन गए, और उनके बाद वाइस एडमिरल एसएच कारलिल, सीबी, डीएसओ आए थे। 22 अप्रैल 1958 को वाइस एडमिरल आरडी कटारी ने नौसेना के प्रथम भारतीय चीफ के रूप में पद ग्रहण किया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें