हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या वाक़ई देश के बंटवारे के बाद लोग राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी, जिन्हें पूरी दुनिया सम्मान
के साथ महात्मा गांधी कहती है, से नफ़रत करने लगे थे और हर कोई चाहता था कि गांधीजी या तो मर जाएं, या फिर उन्हें कोई मार दे?
उपलब्ध दस्तावेज़ बताते हैं कि कई कांग्रेस नेता ख़ुद चाहते थे कि कोई गांधीजी की
हत्या कर दे, तो अच्छा हो और इसी मन:स्थिति के चलते गांधीजी की सुरक्षा पुख़्ता नहीं की गई
और उनकी हत्या कर दी गई। अन्यथा अगर केंद्र और बॉम्बे सरकार और सुरक्षा तंत्र चौकस
रहा होता तो शर्तिया गांधीजी की हत्या टाली जा सकती थी।
दरअसल, दस्तावेज़ बताते हैं कि आज़ादी मिलने के बाद
अगस्त 1947 से जनवरी 1948 के बीच गांधीजी बहुत
अलोकप्रिय हो गए थे। उनके ब्रम्हचर्य के प्रयोग से पं. जवाहरलाल नेहरू और सरदार
वल्लभभाई पटेल समेत सभी लोग उनको कोस रहे थे। ख़ासकर पाकिस्तान ने जब कश्मीर पर
आक्रमण करवाया तो सरदार पटेल ने 12 जनवरी 1948 की सुबह इस्लामाबाद को क़रार के तहत दी जाने वाली 55 करोड़ रुपए की राशि को रोकने का फ़रमान जारी कर
दिया। गांधीजी ने उसी दिन शाम को इस फ़ैसले के विरोध में आमरण अनशन शुरू करने की
घोषणा कर दी। गांधीजी के दबाव के चलते दो दिन बाद भारत ने पाक को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर
दिया। इससे पूरा देश गांधीजी से नाराज़ हो गया था।
इसके अलावा विभाजन की त्रासदी झेलने वाला सिंधी और पंजाबी समुदाय का हर
व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर कहता था कि वह गांधीजी को गोली मार देगा। लोगों में
आक्रोश उनकी मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण पनपा था। ज़ाहिर है गांधीजी की अहिंसा
अव्यवहारिक थी, क्योंकि उनकी अहिंसा के चलते अखंड भारत के 30 लाख नागरिक मारे गए और कई लाख लोगों का जमाया हुआ
कारोबार नष्ट हो गया जिससे करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए थे।
ज़्यादातर लोग मानते थे कि गांधीजी की तुष्टीकरण नीति के चलते ही भारत का दो
देश में विभाजन हो गया। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना भी गांधीजी की तुष्टीकरण नीति की मुख़ालफ़त करते थे। लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि जिन्ना हैरान थे कि मुसलमानों की हर छोटी
बड़ी समस्या में गांधीजी क्यों इतनी ज़्यादा दिलचस्पी लेते हैं। दरअसल, गांधीजी ने जब ख़िलाफ़त
आंदोलन (1919-1922) शुरू किया तो जिन्ना अचरज में पड़ गए, क्योंकि उसका संबंध भारतीय मुसलमानों से था ही नहीं। वह
तुर्की का मामला था। जैसे आजकल रोहिंग्या मुसलमानों के लिए लोग आंसू बहाते हैं,
वैसे ही अली बंधुओं समेत कई
मुसलमान उस आंदोलन को हवा दे रहे थे। जबकि उस समय मुसलमानों की और भी समस्याएं
थी, जो ख़िलाफ़त आंदोलन
से ज़्यादा महत्वपूर्ण थीं और जिन्हें तत्काल हल करने की ज़रूरत थी। लेकिन गांधीजी
हमेशा अपनी बात को ही सच मानते थे। सच पूछो तो गांधीजी आला दर्जे के ज़िद्दी इंसान
थे और अपने आगे किसी की भी नहीं सुनते थे। बहरहाल, सन् 1946-48 के आसपास लोग मानने लगे थे कि अगर गांधीजी अनावश्यक ज़िद न
करते तो बात इतनी न बिगड़ती और मुल्क के विभाजन की नौबत न आती। गांधीजी के मुस्लिम
प्रेम से लोग उसी तरह चिढ़ते थे, जिस तरह धर्मनिरपेक्षता का राग आलापने वालों से आजकल लोग चिढ़ते हैं।
बहरहाल, गांधीजी के आमरण अनशन की ख़बर एजेंसी के ज़रिए 12 जनवरी की शाम पुणे से प्रकाशित अख़बार ‘हिंदूराष्ट्र’ के दफ्तर में पहुंची। नारायण
आप्टे उर्फ नाना अख़बार का प्रकाशक और नाथूराम गोडसे संपादक थे। संभवतः उसी समय
नाथूराम ने गांधीजी की हत्या करने का निश्चय कर लिया। क्योंकि अगले दो दिन उसने 3-3 हज़ार रुपए की दो बीमा
पालिसींज का नॉमिनी उसने दोस्त नारायण आप्टे उर्फ नाना, जिसे गांधीजी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के
आरोप में फांसी दे दी गई, की पत्नी चंपूताई आप्टे और छोटे भाई गोपाल गोडसे की पत्नी सिंधुताई को बना
दिया। यही बात नाना आप्टे और गोपाल के ख़िलाफ़ गई और दोनों फंस गए।
गांधीजी से लोग इस कदर चिढ़े हुए कि यह पता चलने के बाद भी कि उनकी हत्या होने
वाली है, उनकी सुरक्षा
चाक-चौबंद नहीं की गई और इसका नतीजा यह हुआ कि जिस जगह उनकी हत्या की कोशिश की गई
थी, उसी जगह दस दिन बाद
हत्या कर दी गई। दरअसल, देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होने वाला मदनलाल पाहवा,
जिसे गांधी हत्याकांड में
आजीवन कारावास हुई थी, गांधीजी के ख़ून का प्यासा था। उसने 20 जनवरी 1948 को बिड़ला हाउस परिसर में गांधीजी के सभा स्थल के पास बम फोड़ा और घटनास्थल
पर ही पकड़ा गया। दुर्भाग्य से उसी बिड़ला हाउस में 30 जनवरी शाम गांधीजी के सीने में तीन गोलियां उतार
कर नाथूराम ने उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी।
गांधी हत्याकांड की सुनवाई लालकिले में बनाई गई एक विशेष अदालत में हुई। बनारस
हिंदू यूनिवर्सिटी से एमए और बंबई यूनिवर्सिटी से पीएचडी माटुंगा के रामनारायण
रूइया कॉलेज में हिंदी भाषा पढ़ाने वाले डॉ. जगदीश जैन गांधी हत्याकांड के मुक़दमे
में गवाह थे। उनकी गवाही 4 व 5 अगस्त 1948 को हुई। जैन के अदालत को
बताया, "मदनलाल पाहवा, जिसे बाद में हत्याकांड के षड़यंत्र में शामिल पाया गया और आजीवन कारावास की
सज़ा हुई, 7 जनवरी 1948 को मेरे घर आया और बताया कि
कुछ लोगों के साथ मिलकर वह गांधीजी की हत्या करने वाला है। मैंने उसकी बात को
ज़्यादा अहमियत नहीं दी, क्योंकि उस समय हर सिंधी-पंजाबी गांधी-हत्या की बात करता था। लेकिन तीन दिन
बाद जब मदन फिर मुझसे मिला और बताया कि उसे गांधीजी की सभा में विस्फोट करने का
काम सौंपा गया है, ताकि उनकी हत्या की जा सके। यह सुनकर मैं परेशान हो उठा।"
जैन ने कोर्ट को आगे बताया, "15 जनवरी को मदन दिल्ली चला गया। 17 जनवरी को जेवियर कॉलेज में जयप्रकाश नारायण का
भाषण हुआ। मैं उनसे मिलकर साज़िश के बारे में बताने की चेष्टा की, लेकिन उनके आसपास बहुत भीड़
होने से पूरी बात नहीं बता पाया, पर दिल्ली में गांधीजी की हत्या की साज़िश की संभावना से उन्हें अवगत करा
दिया। जब 21 जनवरी की सुबह
अख़बारों में बिड़ला भवन में बम विस्फोट और मदनलाल की गिरफ़्तारी की ख़बर पढ़ी तो
मेरे पांव तले ज़मीन खिसक गई। मैंने टेलीफोन पर सरादर पटेल को बताना चाहा, पर असफल रहा। कांग्रेस नेता
एसके पाटिल से मिलने की कोशिश की, पर उनसे भी नहीं मिल सका। 22 जनवरी को शाम 4 बजे मुख्यमंत्री बीजी खेर से सचिवालय में मिला। तब गृहमंत्री मोरारजी देसाई
भी मौजूद थे। मैंने मदनलाल की सारी बातें दोनों को बता दी।"
बहारहाल, गांधी हत्याकांड में मोरारजी की गवाही 23, 24 व 25 अगस्त 1048 को हुई। जैन के वक्तव्य की पुष्टि करते हुए उन्होंने कहा, "22 जनवरी 1948 को ही अहमदाबाद जाने से
पहले मैंने डिप्टी पुलिस कमिश्नर जमशेद दोराब नागरवाला को रात 8 बजे बॉम्बे सेंट्रल रेलवे
स्टेशन बुलाया और विष्णु करकरे को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया। यह सूचना मैंने
मुंबई के तत्कालीन (पहले भारतीय) पुलिस कमिश्नर जेएस भरुचा को भी दे दी थी। दूसरे
दिन 23 जनवरी को सुबह
सरदार पटेल से मिला और उन्हें भी सारी जानकारी दे दी और बता दिया कि करकरे को
गिरफ़्तार करने का आदेश दिया गया है।"
कहने का मतलब गांधीजी की हत्या की साज़िश रची गई है यह जानकारी सरदार पटेल,
जय प्रकाश नारायण, बीजी खेर और मोरारजी देसाई
जैसे नेताओं के अलावा जांच करने वाले जेडी नागरवाला और दिल्ली पुलिस कमिश्नर
डीडब्ल्यू मेहरा और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट जसवंत सिंह को भी थी। इसके बावजूद बिड़ला
हाऊस की सुरक्षा शिथिल रही। इसीलिए जज आत्माराम ने अपने फ़ैसले में लिखा,
"20 से 30 जनवरी 1948 तक पुलिस की जांच पड़ताल
में शिथिलता को मुझे सरकार के संज्ञान में लानी है। 20 जनवरी को मदन की गिरफ्तारी के बाद उसका ब्यौरा
पुलिस ने प्राप्त कर लिया था और जैन से गृहमंत्री मोरारजी देसाई और पुलिस को सूचना
मिल चुकी थी। खेद की बात है कि अगर बंबई और दिल्ली की पुलिस ने तत्परता दिखाई होती
और जांच पड़ताल में शिथिलता नहीं बरती होती तो कदाचित गांधी -हत्या की दुखद घटना
टाली जा सकती थी।"
बहरहाल, नाथूराम ने एक बार जेल में ही गांधी-हत्या का ज़िक्र करते हुए गोपाल गोडसे को बताया
था, “मैंने छह गोलियों से
लोड अपने रिवॉल्वर को लेकर बिड़ला हाउस में शाम 4.55 बजे प्रवेश किया। रक्षकों ने मेरी तलाशी नहीं ली। 5.10 बजे गांधीजी मनु गांधी और
आभा गांधी के कंधे पर हाथ रखे बाहर निकले। जैसे ही मेरे सामने आए सबसे पहले मैंने
शानदार देश-सेवा के लिए उनका ‘नमस्ते’ कहकर उनका अभिवादन किया और देश का नुकसान करने के लिए उन्हें ख़त्म करने के
उद्देश्य से दोनों कन्याओं को उनसे दूर किया और फिर 5.17 बजे 3 गोलियां गांधीजी के सीने में उतार दी।”
नाथूराम ने आगे बताया, “दरअसल, मेरी गोली जैसे ही
चली, गांधीजी के साथ चल
रहे 10-12 लोग दूर भाग गए।
मुझे लगा था कि जैसे ही मैं गांधीजी को मारूंगा, मेरी हत्या कर दी जाएगी, लेकिन सब लोग आतंकित होकर भाग गए। मैंने गांधीजी की
हत्या करने के बाद रिवॉल्वर समेत हाथ ऊपर उठा लिया। मैं चाहते था, कोई मुझे गिरफ़्तार कर ले।
लेकिन कोई पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मैं पुलिस-पुलिस चिल्लाया। फिर
मैंने एक सिपाही को आंखों से संकेत किया कि मेरी रिवॉल्वर ले लो। उसे विश्वास हो
गया कि मैं उसे नहीं मारूंगा और वह हिम्मत जुटाकर मेरे पास आया और मेरा हाथ पकड़
लिया। इसके बाद लोग मुझ पर टूट पड़े और मुझे मारने लगे।” बहारहाल, डीएसपी जसवंत सिंह के आदेश पर दसवंत सिंह और कुछ पुलिस वाले
नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे बापू की हत्या की
एफ़आईआर लिखी गई। इसे लिखा था थाने के दीवान-मुंशी दीवान डालू राम ने।
बहरहाल, जब शाम 5:45 बजे आकाशवाणी ने गांधी के निधन की सूचना दी और कहा कि नाथूराम गोडसे नाम के
व्यक्ति ने उनकी हत्या की तो सारा देश हैरान रह गया कि मराठी युवक ने यह काम क्यों
किया, क्योंकि लोगों को
आसंका थी कि कोई पंजाबी या सिंधी व्यक्ति गांधीजी की हत्या कर सकता है। बहरहाल,
गांधीजी हत्या में नाथूराम
के अलावा नारायाण आप्टे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, विनायक सावरकर, शंकर किस्तैया और दिगंबर बड़गे गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में और दिगंबर बड़गे
वादा माफ़ सरकारी गवाह बन गए। उनकी गवाही को आधार बनाकर नाथूराम और नाना की फ़ांसी
दी गई।
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