हरिगोविंद विश्वकर्मा
सीनियर बीजेपी लीडर और राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी ने संसद में
राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या पर चर्चा कराने की पैरवी की है। कहना
न होगा कि गाहे-बगाहे स्वामी ने क़रीब सात दशक पुराने गांधी हत्याकांड के मुद्दे
को फिर से चर्चा में ला दिया है। दरअसल, राष्ट्रपिता की हत्या से जुड़े कई पहलू ऐसे हैं,
जिन पर कभी चर्चा
तक नहीं हुई। लिहाज़ा, यह सुनहरा मौक़ा है, जब उस दुखद घटना के हर पहलू की चर्चा
करके उसे सार्वजनिक किया जाए और देश के लोगों का भ्रम दूर किया जाए कि आख़िर
वास्तविकता क्या है।
दरअसल, गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 4 फरवरी 1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के मुखिया माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरुजी को गिरफ़्तार करवाने के बाद आरएसएस समेत कई हिंदूवादी संगठनों पर प्रतिबंध
लगा दिया था। लेकिन गांधी की हत्या में संघ की संलिप्तता का कोई प्रमाण न मिलने पर
छह महीने बाद 5 अगस्त 1948 को गुरुजी रिहा कर दिए गए थे और तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने
संघ को क्लीनचिट देते हुए 11 जुलाई 1949 को उस पर लगे प्रतिबंध को उठाने की घोषणा की थी। दरअसल,
क़रीब डेढ़ साल
हुई जांच पड़ताल के बाद सरदार पटेल ने भी माना था कि गांधीजी की हत्या में आरएसएस
की कोई भूमिका नहीं, क्योंकि नाथूराम गोडसे ने हत्या का आरोप अकेले अपने ऊपर ले लिया था।
पिछली कांग्रेस सरकार के शासनकाल में हुए कई घोटालों को उजागर करने वाले
सुब्रमण्यम स्वामी के सवाल को एकदम से ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि वाक़ई हत्या के
बाद महात्मा गांधी की लाश का पोस्टमार्टम नहीं हुआ था, इससे आधिकारिक तौर पर पता नहीं
चल सका कि आख़िर हत्यारे नाथूराम ने उन पर कितनी गोलियां चलाई थी। हालांकि
गोडसे ने अपने बयान में कहा था कि वह गांधीजी पर दो ही गोली चलाना चाहता था लेकिन तीन
गोली चल गई, जबकि कई लोग दावा कर रहे थे कि उसकी रिवॉल्वर से तीन नहीं
कुल चार गोलियां चली थीं।
बहरहाल, सबसे बड़ी बात गोली लगने के बाद महात्मा गांधी को घायल अवस्था में किसी
अस्पताल नहीं ले जाया गया, बल्कि उन्हें वहीं घटनास्थल पर ही मृत घोषित कर दिया गया और
उनका शव उनके आवास बिरला हाऊस में रखा गया। जबकि क़ानूनन जब भी किसी व्यक्ति पर पर
गोलीबारी होती और गोली उसे लगती है, तब सबसे पहले उसे पास के अस्पताल ले जाया जाता है।
वहां मौजूद डॉक्टर ही बॉडी का परिक्षण करने के बाद उसे ‘ऑन एडमिशन’ या ‘आफ्टर एडमिशन’ मृत घोषित करते हैं।
दरअसल, गांधी की हत्या से जुड़े हर पहलू को नेहरू की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने
अनावश्यक रूप से रहस्यमय बना दिया। देश के लोग आज तक ढेर सारे बिंदुओं से अनजान
है। गांधी की हत्या क़रीब सात दशक से पहेली बनी हुई है। यहां तक कि गांधी के जीवन
के निगेटिव पहलुओं को उकेरते हुए जितनी भी किताबें छपती थीं, सब पर सरकार की ओर से
प्रतिबंध लगा दिया जाता था, जिससे बाद में लेखक-प्रकाशक कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाते थे और
कोर्ट के आदेश के बाद वह प्रतिबंध हटता था।
दरअसल, गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के अपने इकबालिया बयान साफ़-साफ़ कहा
था कि गांधी की हत्या केवल उन्होंने (गोडसे ने) ही की है। इसमें कोई न तो शामिल है
और न ही कोई साज़िश रची गई। गांधी की हत्या के लिए ख़ुद गोडसे मानते थे कि
उन्होंने एक इंसान की हत्या की है, इसलिए उन्हें फांसी मिलनी चाहिए। इसी आधार पर उन्होंने जज
आत्माचरण के फांसी देने के फ़ैसले के ख़िलाफ अपील ही नहीं की। उन्होंने हाईकोर्ट
में अपील केवल हत्या का साज़िश करार देने के पुलिस के फ़ैसले के ख़िलाफ़ की थी।
देश के विभाजन के लिए गांधी को ज़िम्मेदार मानने वाला नाथूराम चाहता था कि
गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह साबित कर सकें कि
गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद नाथूराम को पहले दिन
तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के हवालात में रखा गया था। उस समय गांधी के सबसे छोटे
पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने गए थे। दरअसल, देवदास को लगा था कि किसी
सिरफिरे, विद्रूप
या असभ्य आचरण वाले व्यक्ति ने उनके पिता की हत्या की होगी, लेकिन जैसे ही वह हवालात के बाहर
पहुंचे गोडसे ने ही उऩ्हें पहचान लिया।
नाथूराम ने कहा, “मैं समझता हूं आप श्रीयुत देवदास गांधी हैं।“ इस पर देवदास ख़ासे हैरान हुए,
उन्होंने कहा,
“आप मुझे कैसे
जानते हैं।“ इस पर नाथूराम ने कहा, “हम लोग एक संपादक सम्मेलन में मिल चुके हैं। वहां आप ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के
संपादक के नाते और मैं ‘हिंदूराष्ट्र’ के संपादक के रूप में आया था।” नाथूराम ने कहा, “आज आप मेरी वजह से अपने
पिताको खो चुके हैं। आप और आपके परिवार पर जो वज्रपात हुआ है, उसका मुझे ख़ेद हैं।
मैंने गांधी की हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की है। आप पुलिस
से पूछिए, अगर पौने घंटे का वक़्त दें, जिससे मैं आपको बता सकूं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों
की?”
हालांकि उस समय पुलिस वालों ने देवदास-गोडसे मुलाकात को तीन मिनट से ज़्यादा बढ़ाने
से इनकरा कर दिया जिससे गांधी की हत्या पर गोडसे देवदास के साथ चर्चा नहीं कर सके
थे। दरअसल, नाथूराम गांधी की हत्या पर गांधीवादियों से चर्च करना चाहता था। वह अपना पक्ष
रखना चाहता था, इसीलिए जब गांधी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी ने नाथूराम को फ़ासी
की सज़ा सुनाए जाने के तीन महीने बाद अंबाला जेल में 17 मई 1949 को एक लंबा भावपूर्ण पत्र भेजा और
नाथूराम को अहसास कराने की कोशिश कि गांधी की हत्या करके नाथूराम ने ऐसी ग़लती की
जिसका एहसास उन्हें नहीं हैं, तब नाथूराम ने उनसे भी इस विषय पर चर्चा करने की
अपील की थी।
रामदास ने लिखा था, “मेरे पिताजी के नाशवान देह का ही आपने अंत किया है, और कुछ नहीं। इसका ज्ञान
आपको एक दिन होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।” 3 जून 1949 को रामदास को भेजे जवाब में नाथूराम ने उनसे मिलने और
गांधी की हत्या पर बातचीत करने की तीव्र इच्छा जताई। हालांकि उसके बाद रामदास और
नाथूराम के बीच कई पत्रों का आदान-प्रदान हुआ। रामदास तो नाथूराम से मिलने के लिए
तैयार हो गए थे, लेकिन उन्हें नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। इस पर दो बड़े गांधीवादियों आचार्य
विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला को नाथूराम से मिलने और उसके साथ चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थी, लेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस
तरह गांधी की हत्या पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।
दरअसल, नाथूराम ने इकबालिया बयान में स्वीकार किया था कि गांधी की हत्या केवल
उसने ही की है। नाथूराम ने बाद में दूसरे आरोपी अपने छोटे भाई गोपाल गोडसे को
बताया, “शुक्रवार
शाम 4.50
बजे मैं बिड़ला भवन के द्वार पर पहुंच गया। मैं चार-पांच लोगों के झुंड के साथ
रक्षक को झांसा देकर अंदर जाने में कामयाब रहा। वहां मैं भीड़ में अपने को छिपाए
रहा, ताकि
किसी को मुझे पर शक न हो। 5.10 बजे मैंने गांधीजी को अपने कमरे से निकलकर प्रार्थना सभा
की ओर जाते हुए देखा। मैं मार्ग में सभास्थल की सीढ़ियों के पास खड़े लोगों के साथ
खड़ा होकर इंतज़ार करने लगा। गांधीजी दो लड़कियों के कंधे पर हाथ रखे चले आ रहे
थे। जब गांधी मेरे क़रीब पहुंचे तब मैंने जेब में हाथ डालकर सेफ्टीकैच खोल दिया।
अब मुझे केवल तीन सेकेंड का समय चाहिए था। मैंने पहले गांधीजी का उनके महान्
कार्यों के लिए हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दोनों लड़कियों को उनसे अलग करके फायर
कर दिया। मैं दो गोली चलाने वाला था लेकिन तीन चल गई और गांधीजी ‘आह’ कहते हुए वहीं गिर पड़े।
गांधीजी ने ‘हे राम’ उच्चरण नहीं किया था।”
नाथूराम ने गोपाल को आगे बताया, “मेरे हाथ में पिस्तौल
थी, उसमें अभी भी चार गोलियां थीं। मैं और गोली नहीं दागूंगा, यह भरोसा किसी को
नहीं ता। इसलिए सभी लोग गांधी को छोड़कर दूर भाग गए। मैंने जब समर्पण की मुद्रा
में हाथ ऊपर किए तब भी मेरे क़रीब आगे की हिम्मत किसी की नहीं पड़ रही थी।
पुलिवाले की थी। मैं ख़ुद पुलिस पुलिस चिल्लाया। मैं काफी उत्तेजित महसूस कर रहा
था। पांच छह मिनट बाद एक व्यक्ति को भरोसा हो गया कि मैं गोली नहीं चलाऊंगा और वह
मेरे पास आया। इसके बाद सब मेरे पास पहुंचे और मुझ पर छड़ी और हाथ से प्रहार भी
किए।”
जब नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले जाया गया तो उसने फ़ौरन डॉक्टर बुलाकर अपनी
जांच कराने की इच्छा जताई। डॉक्टर के आते ही उसने कहा, “डॉक्टर, मेरे शरीर का परीक्षा किजिए, मेरा हृदय, मेरी नाड़ी
व्यवस्थित है या नहीं यह देखकर बताइए।” डॉक्टर ने जांच करके
कहा कि वह पूरी तरह फिट हैं। तब नाथूराम ने कहा, “ऐसा
मैंने इसलिए करवाया क्योंकि गांधी जी की हत्या मैंने अपने होशोंहवास में की है।
सरकार मुझे विक्षिप्त घोषित न कर दे। इसलिए मैंने चाहता था, कोई डॉक्टर मुझे पूरी
तरह फिट घोषित करे।”
बहरहाल, गांधी की हत्या को साज़िश साबित करके और नाथूराम गोडसे के साथ उनके
मित्र और सहयोगी नारायण आप्टे उर्फ नाना को अंबाला जेल में 15 नंवबर 1949 को फांसी पर लटका दिया
गया था, लेकिन गांधी की हत्या से जुड़े कई ऐसे पहलू हैं, जिन्हें लोग जानते ही नहीं।
इसलिए सुब्रमण्यम स्वामी की बात मानकर महात्मा गांधी की हत्या के हर पहलू पर चर्चा
बहुत ज़रूरी है, ताकि लोग जान सकें कि आख़िर क्या है, गांधी जी की हत्या का रहस्य?
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