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अप्रैल 2019 की सुबह जनसंख्या इंडेक्स से पता चला कि भारत की जनसंख्या एक अरब छत्तीस
करोड़ (136 करोड़) हो गई। इतनी बड़ी आबादी को रोटी-कपड़ा-मकान के अलावा स्वास्थ्य-शिक्षा
और रोज़गार दिलाना किसी भी सरकार के लिए असंभव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना
कार्यकाल पूरा कर रहे हैं, लेकिन जनसंख्या का मसाइल उनके एजेंडा में ही नहीं था। पिछले पांच साल के
दौरान सरकार ने अनगिनत योजनाओं की घोषणा की लेकिन उनमें एक भी ऐसी योजना नहीं है, जो सुरसा के मुंह की तरह दिन दूना रात चौगुना बढ़ रही आबादी पर अंकुश लगाए।
लोग हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य की तरह अपने “साम्राज्य की
रक्षा” के लिए तीन-तीन चार-चार उत्तराधिकारी पैदा किए जा रहे
हैं। जिससे देश की आबादी हर घंटे क़रीब दो हज़ार बढ़ जाती है। इससे हर जगह
अव्यवस्था का आलम है, चाहे वह ट्रेन हो, बस हो या फिर मकान। हर जगह भारी भीड़। कह सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि न
केवल सारी योजनाओं पर पानी फेर रही है। हिंदुस्तानियों को का जीवन जानवर जैसा बना
दिया है।
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जो
लोग कभी विदेश, ख़ासकर
यूरोप या अमेरिकी देशों की यात्रा पर करते हैं और वहां लोगों का जीवन देखकर हैरान होते हैं।
कहीं कोई भीड़ नहीं – बसों में पर्याप्त जगह,
ट्रेन में हर समय टिकट और सीट उपलब्ध, पार्क
या टूरिस्ट स्पॉट पर आराम से बैठने, मस्ती करने की जगह और
माहौल। यह देखकर मन में सवाल उठता है कि, भारत में ये
सुविधाएं क्यों नहीं। अगले पल जवाब मिल जाता है, सुविधाएं तो भरपूर हैं, लेकिन यहां ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों ने नरक मचा कर रखा है। आज़ादी
के बाद इतने बच्चे पैदा किए गए कि देश का नागरिक क्रॉउड में तब्दील हो गया। भीड़
के चलते बस में चढ़ना मुश्किल, इतनी ट्रेनें बढ़ाई जा रही
हैं, फिर भी कनफर्म्ड टिकट नहीं मिलता। कहीं नौकरी की एकाध
जगह का ऐड छपा नहीं, कि हज़ारों बेरोज़गार युवक लाइन लगा
लेते हैं। मतलब हर जगह भीड़ ही भीड़, पशुओं की तरह मारामारी
है। जनसंख्या बढ़ोतरी के कारण इस देश में नागरिक इंसान न होकर पशु जैसा हो गया है।
इसमें
दो राय नहीं कि देश में जनसंख्या विस्फोट सभी समस्याओं की जननी बन गई है। ग़रीबी, कुपोषण, भुखमरी, बेरोज़गारी, निरक्षरता, बढ़ते अपराध, आतंकवाद, पुअर हेल्थकेयर, धार्मिक उन्माद, कट्टरता
और शिक्षण संस्थानों में दाख़िला जैसी समस्याएं आबादी विस्फोट की नाभि से ही
निकलकर समाज को बीमार और परेशान कर रही हैं। केवल जनसंख्या ही अकेले दम पर सभी
योजनाओं, नीतियों और प्रोग्राम्स की हवा निकाल रही है।
यह सुरसा बनकर मानव कल्याण के हर फ़ैसले को अप्रभावी बना रही है। लिहाज़ा, जनसंख्या
वृद्धि को देश की सबसे बड़ी समस्या मानते हुए, सबसे पहले इससे निपटने का विकल्प या समाधान
तलाशा जाना चाहिए।
इस
क्रम में थोक के भाव बच्चे पैदा करने वालों,
चाहे वे किसी धर्म या मजहब के हों, पर अंकुश
लगाना बहुत ज़रूरी है। जब तक बच्चे पैदा करने वालों के मन में भय पैदा नहीं किया
जाएगा, आबादी पर अंकुश मुमकिन नहीं। बच्चे पैदा करने
से रोकने के लिए दस-बीस साल के लिए चीन जैसा कठोर क़ानून बनाना होगा। ऐसे कड़े
क़ानून, जो जनसंख्या पर अंकुश लगाया जा सके। सबसे पहले हम दो हमारे दो
की नीति पर सख़्ती से अमल करना होगा। तीसरी संतान पैदा करने वालों को सामाजिक
अपराध का दोषी मानने और उन्हें जेल भेजने का प्रावधान करना होगा। जो सरकारी
कर्मचारी तीसरी संतान पैदा करें,
उन्हें फ़ौरन नौकरी से बर्खास्त करने का भी प्रावधान करने की ज़रूरत
है। जब तक ऐसे क़दम नहीं उठाए गए, तो यह सिलसिला नहीं थमेगा।
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देश में ऐसी नीति की दरकार है, जिससे केवल दो बच्चे पैदा करने वाले प्रोत्साहित किए जा सकें। जिनके पास केवल एक बच्चा है, उन्हें और ज़्यादा प्रोत्साहन देने की ज़रूरत है। जिनके पास केवल एक बेटी है, उन्हें पक्के तौर पर सरकारी नौकरी देने का प्रावधान होना चाहिए। खेती तो दूर की बात इंसान के रहने के लिए ही जगह कम न पड़ने लगे, इस बात को ध्यान में रखकर “हम दो हमारे दो” के साथ साथ “हम दो हमारा एक” और “हम दो हमारा कोई नहीं” जैसी योजनाएं शुरू करने की ज़रूरत है। हम दो हमारा कोई नहीं का मतलब निःसंतान रहना नहीं, बल्कि जिन्होंने कोई बच्चा पैदा नहीं किया, उनको वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा देने जैसे क़दम उठाए जाने चाहिए। हम दो हमारा कोई नहीं योजना प्रयोग के तौर पर पहले पांच साल फिर दस और बाद में बीस साल के लिए आजमाई जा सकती है।
भारतीय
समाज में सदियों से लोग मानते आए हैं कि बच्चे बुढ़ापे में उनका पालन-पोषण करते
हैं। ऐसा लोग देश में सोशल सिक्योरिटी न होने के कारण सोचते हैं। कह सकते हैं कि
भारत पुत्र-प्रधान परंपराओं का देश है। पुत्र पैदा होने पर यहां लोग जश्न मनाते
हैं। लोग मान कर चलते हैं कि बेटियां शादी के बाद दूसरे के घर चली जाती हैं, इसलिए बुढ़ापे में देखभाल के लिए पुत्र
ज़रूरी है। पुत्र को लोग बुढ़ापे की लाठी भी मानते हैं। इसलिए हर दंपत्ति चाहता है, उसे एक बेटा ज़रूर हो। इसीलिए दो बेटियां
होने पर कई लोग बेटे के लिए तीसरा बच्चा पैदा करते हैं। यह आम धारणा है।
बच्चों
के बुढ़ापे में सहारा बनने की परिकल्पना कोरे भ्रम के अलावा और कुछ नहीं है। आजकल माता-पिता
बच्चों के एजेंडे में होते ही नहीं। जो मां-बाप बच्चों को पालने, उन्हें बेहतर शिक्षा देने के
चक्कर में क़ायदे से जीवन जी नहीं पाते, उन्हें उनकी ही औलाद
बुढ़ापे में घर में अपमानित करती है, नारकीय जीवन की सौगात
देती है। बुजुर्गो को बोझ मानकर उनका तिरस्कार करने की ख़बरे आए दिन अख़बारों की सुर्खियों
में रहती हैं। ऐसे भी उदाहरण भी देखने को मिलते हैं, कि बेटे
ने बूढ़े माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया। उम्र के अंतिम दौर में लोग
वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर किए जा रहे हैं।
डब्ल्यूएचओ
और हेल्पेज के मुताबिक, 2026 में भारत में बूढ़ों की आबादी 17.32
करोड़ होने का अनुमान है। पॉप्युलेशन को उम्र के हिसाब से नज़र रखने वाली संस्था
कंट्री मीटर्स की वेबसाइट के मुताबिक भारत में 65 साल या उससे ऊपर की आबादी 5.5
फ़ीसदी यानी सात करोड़ से ज़्यादा हैं। अनुमानतः 50 लाख लोग ऐसे हैं, जिनके पास बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं है।
ऐसे लोगों को 65 साल की उम्र होने पर सरकार की ओर से 20 हज़ार रुपए महीने पेंशन देने
की योजना शुरू की जानी चाहिए। फ़ालतू योजनाओं में वैसे भी लाखों करोड़ रुपए बर्बाद
होते हैं। अगर वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा की आकर्षक योजना शुरू हुई तो निश्चित
रूप से लोगों में बेटे की चाहत कम होगी और आबादी पर अंकुश लगेगा।
भारत
में इंसान इतने ज़्यादा हो गए हैं कि ज़मीन कम पड़ने लगी है। आबादी पर हर पल नज़र
रखने वाली बेवसाइट सेंसस इंडिया के मुताबिक़ देश में हर घंटे तीन हज़ार (3080)
बच्चे पैदा हो रहे हैं, जबकि हर घंटे एक हजार (1099) लोगों की मौत
होती है। यानी देश की आबादी हर घंटे क़रीब दो हज़ार बढ़ जाती है। जनसंख्या विस्फोट
को देखकर ही डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड पॉप्युलेशन प्रोस्पेक्ट्स’ में कहा गया है कि इसी तरह बच्चे पैदा होते
रहे तो भारत की आबादी सन् 2028 तक चीन से ज़्यादा हो जाएगी। इसका मतलब लोगों को
रहने के लिए जगह नहीं बचेगी।
धर्म
के आधार पर आबादी देखें तो मुसलमान अब भी दो से ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं।
2011 की जनसंख्या में मुसलमानों की आबादी 14.2 फीसदी बताई गई। जबकि 2001 की जनगणना
में भारत में मुस्लिम आबादी 13.4 फ़ीसदी थी। इसका मतलब दस साल में 0.8 फीसदी यानी
लगभग एक फीसदी मुसलमान बढ़ रहे हैं। दूसरी तरफ 2011 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी
में हिंदुओं की संख्या 79.8 फीसदी थी। 2001 में हिंदुओं की संख्या 80.45 फीसदी थी, मतलब
हिंदुओं का जनसंख्या कम हो रही है, यानी जनसंख्या वृद्धि में हिंदुओं का कोई
योगदान नहीं है। हिंदुओं की आबादी पिछले दस साल में 0.66 फीसदी कम हुई। अगर धर्म के आधार पर
देखें तो हर हिंदू स्त्री औसतन 2 बच्चे और हर मुस्लिम स्त्री औसतन 3 बच्चे पैदा कर
रही है। जैन महिला केवल औसतन 1.2 बच्चे पैदा करती है। यह भी गौर करने वाली बात है
कि यह आंकड़ा महिलाओं का है। निचले तबके के मुसलमानों में बड़ी संख्या लोग एक से
ज़्यादा शादियां करते हैं। इस हिसाब से देखे तो हर औसत मुसलमान तीन से चार बच्चों
का बाप होता। इसलिए मुस्लिम आबादी बढ़ रही है। इसी तरह हर हिंदू पुरुष अब दो से भी
कम बच्चों का बाप होता है। इसलिए हिंदू आबादी घट रही है।
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भारत
के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 फ़ीसदी हिस्सा है, जबकि विश्व की आबादी का 16.8 फ़ीसदी हिस्सा यहां
रहता है। इस लिहाज़ से भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा घनत्व वाला देश है। फ़िलहाल देश
की आबादी 1.36 अरब पहुंच चुकी है। 68.86 करोड़ (51.54 फ़ीसदी) पुरुष और 64.49
करोड़ (48.46 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। हर 1000 पुरुष के लिए 943 महिलाएं हैं। संयुक्त
राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन की अपेक्षा भारत की जनसंख्या दोगुनी तेजी
से बढ़ रही है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की जनसंख्या साल 2010 से 2019
के बीच सालाना 1.2 फीसदी की दर से बढ़ रही है।
19वीं
सदी के उत्तरार्ध में इस भूभाग (तब भारत नहीं, ब्रिटिश इंडिया था) की आबादी ही क़रीब 17
करोड़ थी, लेकिन अब उससे ज़्यादा लोग हर दस साल में बढ़
जाते हैं। 20वीं सदी के आरंभ में ब्रिटिश इंडिया की आबादी 23.84 करोड़ से दस साल
में 25.21 करोड़ हो गई। अगले दो दशकों में जनसंख्या 27.89 और 31.86 करोड़ हुई।
आबादी में विस्फोट आज़ादी के बाद आया। सन् 1951 की जनगणना में पता चला, देश की आबादी 36 करोड़ को
पार कर चुकी है। आबादी 1961 में उछलकर 43.9 करोड़ हो गई। सत्तर के दशक में लगा कि
देश में बच्चे पैदा करने का कॉम्पटिशन शुरू हो गया है, क्योंकि
दस साल में 11 करोड़ लोग बढ़ गए। आबादी 54 करोड़ हो गई। इसी तरह 1981 में 68.3
करोड़ और 1991 में 84.6 करोड़ हो गई। अगले दशक में 16 करोड़ लोग बढ़े। न्यू
मिलेनियम में तो बच्चे पैदा करने के सारे रिकॉर्ड टूट गए। एक दशक में 21 करोड़
बच्चे पैदा हुए और 2011 में आबादी 1.21 अरब हो गई।
मज़ेदार
बात यह है कि आज़ादी के बाद से ही केंद्र और सभी राज्य सरकारें कोशिश कर रही हैं
कि इस पर अंकुश लगाया जाए लेकिन हर कोशिश टांय-टांय फिस्स हो रही है। देश में दो
बार जनसंख्या नीति बन चुकी है, जिसमें जनसंख्या विस्फोट पर अंकुश लगाने और छोटे
परिवार प्रमोट करने की बात थी, पर सब धरी की धरी रह गई। सन् 2000 से जनसंख्या आयोग
भी अस्तित्व में आ चुका है। फिर भी आबादी थमने का नाम नहीं ले रही है। नसबंदी भारत
में चीन से पहले से शुरू हुई,
लेकिन ख़ास नतीजा नहीं निकला। अब प्रयोग के तौर पर गर्भवती महिला का
पंजीकरण अनिवार्य होना चाहिए। यह काम देहात में ग्राम पंचायत और शहर में
म्युनिसिपैलिटी को करनी चाहिए। सरकार का नेटवर्क गांव गांव और घर घर है, इसलिए यह काम कठिन नहीं है। हर गर्भवती महिला पर नज़र रखना ग्राम पंचायत
अधिकारी और म्युनिसिपैलिटी के अधिकारी की ड्यूटी का हिस्सा कर दिया जाए।
सत्तर
के दशक में चीन में ऐसी ही परिस्थियां थीं। लिहाज़ा, आबादी
कंट्रोल करने के लिए चीन को 1979 में वन चाइल्ड पॉलिसी लागू करनी पड़ी। इसके तहत
हर कपल को एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त है। दूसरा बच्चा पैदा करने पर पैरेट्स
के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई होती ही है, बच्चे को 'गैरकानूनी बच्चा’ कहा जाता है। उसे निःशुल्क शिक्षा या सेहत संबंधी सुविधाएं नहीं दी जाती
हैं। यही नहीं, बच्चा अपने ही देश में यात्रा नहीं कर सकता
और किसी लाइब्रेरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता। यह नीति के लागू होने से पहले चीन
में लोग औसतन चार बच्चे पैदा करते थे। वन चाइल्ड पॉलिसी से आबादी पर तो अंकुश लगा
ही, चीन में लोगों की ज़िंदगी पूरी तरह से बदल
गई। जो भी हो, भारत को
अगर समस्याओं का देश होने से बचाना है तो कठोर क़दम उठाने ही होंगे।
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