हरिगोविंद विश्वकर्मा
फ़ेसबुक या दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़्यादातर नौकरीशुदा लोग सक्रिय हैं। जिन्हें नियमित रूप से हर महीने वेतन मिलता है। ज़िंदगी एक सही ढर्रे पर होती है। ज़ाहिर है, उनके सामने कम से कम भोजन का संकट यानी क्वैश्चन ऑफ एग्ज़िस्टेंस नहीं है। उन्हें केवल और बेहतर जीवन की उम्मीद रहती है। उनकी यही एकमात्र समस्या होती है, जिसे जेनुइन समस्या की कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता है। कह सकते हैं कि इसलिए अमूमन ऐसे लोग बिंदास रहते हैं। किसी घटना को लेकर बहुत चिंतित नहीं होते, क्योंकि उनके सामने रोटी की संकट नहीं होता है। लॉक्ड डाउन की अवस्था में उनके सामने ‘वर्क फ्रॉम होम’ का विकल्प है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निजी कंपनियों से अपील भी कर चुके हैं कि संकट की कर्मचारियों का वेतन न काटा जाए। ज़ाहिर है कोई भी कंपनी अपने कर्मचारियों का वेतन नहीं काटने वाली है। इसीलिए नौकरीशुदा लोग बहुत ज़्यादा चिंतित नहीं हैं। कई लोगों के फेसबुक पोस्ट से तो यही लगता है कि कोरोना संक्रमण उनके एक एडवेंचर की तरह हैं, इसीलिए ऐसे लोग इस महामारी के हमले के बाद के घटनाक्रम को उत्सव की तरह ले रहे हैं।
जिनके पास नौकरी नहीं है, या जो दैनिक आधार पर श्रम करने वाले लोग हैं, वे सोशल नेटवर्किंग साइट पर बहुत कम सक्रिय रहते हैं। ऐसे लोगों का ज़्यादातर समय दो जून की रोटी जुटाने में ही चला जाता है। उनके सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर बहुत सक्रिय न होने से आम सोशली या नौकरीशुदा व्यक्ति को उनकी सोच, उनकी पीड़ा, उनके दुख-दर्द का एहसास नहीं हो पाता। यह महसूस करना हो तो बाहर जाने वाली ट्रेनों के प्रस्थान स्थल यानी कुर्ला टर्मिनस यानी एलटीटी चले जाइए। सब भाग रहे हैं। सब कुछ छोड़कर भाग रहे हैं। केवल बीवी बच्चों के साथ। ये लोग कोरोना के डर से नहीं भाग रहे हैं, बल्कि ये लोग कोरोना के चंगुल में फंसे देश में होने वाली रोटी के संकट से घबराकर भाग रहे हैं। उन्हें पता है कि कोरोना से लॉक्ड डॉउन का दौर लंबा खिंचा तो वे कोरोना से नहीं तो भुखमरी से अवश्य मर जाएंगे। इसलिए अपने वतन जाना चाहते हैं, गांव में कम से कम दो जून की नहीं तो, एक जून रोटी तो मिल जाएगी।
जिनके पास किसी तरह नौकरी नहीं है। यानी जो लोग जिस दिन काम करते हैं, उन्हें उसी दिन का मेहनताना मिलता है, ज़ाहिर है, उनका सब कुछ, ज़्यादातर का जीवन ही, ख़त्म होने के कग़ार पर है। वे लोग ‘काम नहीं तो दाम नहीं’ जैसे माहौल में ज़िंदा रह पाएंगे, इसे लेकर आश्वस्त नहीं हैं। इन असंगठित क्षेत्र के बदनसीब लोगों के पास ‘वर्क फ्रॉम होम’ का विकल्प ही नहीं है। ज़ाहिर है, इनमें से ज़्यादातर कोरोना संक्रमण से बच जाएंगे, लेकिन कारोबार चौपट होने से उपजे हालात में भोजन का संकट उनकी जान ले लेगा।
दैनिक आधार पर काम करने वाले जानते हैं कि इटली, स्पेन और ब्रिटेन जैसे देश, जहां बेरोज़गारों को इतनी भत्ता मिलता है कि वे साल में एक बार विदेश यात्रा करते हैं, में लोग कोरोना को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं तो भारत जैसा देश, जहां स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह राम भरोसे हैं, जहां हैं, वहां मुनाफ़ाखोर हेल्थ इश्योरेंस कंपनियों के क़ब्ज़े में हैं, ऐसे हालात में यह देश कोरोना जैसी महामारी से कैसे निपटेगा, यह सब लोग बख़ूबी जानते हैं। कोई भी सरकार भाषण का ज्ञान देने के अलावा कुछ नहीं कर पाती, मौजूदा सरकार भी वही कर रही है। हमारी सरकार कोरोना को चीन की बीमारी समझती रही। कह लें हाथ पे हाथ धरे बैठी रही। जनवरी से ही विदेश से आने वाले हर शख्स पर नज़र नहीं रखा जा सका। यही वजह यह हुई कि कनिका कपूर जैसे लोग कोरोना वायरस लेकर आते रहे और इसे परमाणु संलयन (चेन रिएक्शन) की तरह फैलाते रहे। हर दिन दूसरे दिन से ज़्यादा लोग कोरोना की चपेट में आ रहे हैं। इसलिए फिर कह रहा हूं, इस कोरोना वायरस को फैलने से रोका जाए और इस देश को तुरंत लॉक्ड डॉउन कर दिया जाए।
फ़िलहाल, काम के अभाव में लोग घरों में क़ैद हो रहे हैं। दिन भर से घर में बैठे हैं। चुपचाप। ख़ाली बैठा, मैं कभी फेसबुक पर चला जाता हूं, कभी टीवी चालू कर देता हूं। अभी मैंने जी सिनेमा चैनल पर ‘उजड़ा चमन’ फिल्म देखी। अच्छी फिल्म लगी। फिल्म ख़त्म होने के बाद फिर सोचने लगा। बहुत विचलित हो रहा हूं। समझ में नहीं आ रहा है, क्या किया जाए? आगे क्या होगा? इसकी भी बहुत अधिक चिंता है। दुबई से जबलपुर का चार लोगों का एक परिवार कोरोना पॉजिटिव पाया गया है। इन लोगों ने मुंबई से जबलपुर तक की यात्रा ट्रेन से की। अभी-अभी ख़बर आई है कि विदेश संपर्क के बाद ट्रेन में बिना विदेश संपर्क के आठ कोरोना केस पाए गए हैं। ये लोग दिल्ली से रामगुंडम की यात्रा कर रहे थे। यानी कम्युनिटी स्प्रेड का ख़तरा एकदम हमारी चौखट तक आ गया है।
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