लंबे अरसे, तक़रीबन 16 साल, बाद शनिवार की मेरी पूरी की पूरी शाम, जिसे हम इवनिंग शिफ़्ट भी कह सकते हैं, किसी अख़बार के दफ़्तर में गुज़री. वैसे, अख़बार के दफ़्तर में मेरी अंतिम शाम मई 1999 में “अमर उजाला कारोबार” के नोएडा दफ़्तर में थी. वह अख़बार का मेरा
अंतिम दफ़्तर था. उसके बाद पहले यूएनआई और उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ गया.
इस दौरान उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र में यदा-कदा संपादकों से मिलने
अख़बारों के दफ़्तर जाना होता था लेकिन पूरी शिफ़्ट गुज़ारने के लिए डेढ़ दशक से
ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा. और मौक़ा दिया बड़े भाई ओमजी ने कि एक दिन मैं
अपनी पूरी शाम अख़बार के दफ़्तर में गुज़ारूं.
हुआ यूं, कि पिछले रविवार वास्तुशास्त्री-ज्योतिष दोस्त अशोक शर्माजी
के साथ वैसे ही ओमजी से मिलने चला आया. बहुत दिन से मिला नहीं था. बातचीत के दौरान
ही आदेश मिला कि अगले सप्ताह यहां बतौर अतिथि संपादक काम करने आना है. ओमजी का
आदेश न मानने का साहस मुझमें तो नहीं है, सो सिर झुकाकर
विनम्रता से कहा, आपका आदेश सिरोधार्य हैं.
शनिवार साप्ताहिक अवकाश था सो टीवी 9 के दफ़्तर जाने की झंझट नहीं थी. झंझट मैंने
इसलिए कहा क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रेशर झेलना हर किसी के वश में नहीं
होता. इसलिए इसे आमतौर पर झंझट ही कहा जाता है. बहरहाल, मन बना लिया कि शनिवार की
पूरी की पूरी शाम ओमजी के साथ ही गुज़रेगी.
लिहाज़ा, सुबह से ही दिमाग़ में कि आज शाम “एब्सल्यूट इंडिया” के दफ़्तर जाना है. आप
किसी अख़बार के दफ़्तर में जाएं और कोई पीस न लिखें, यह कहां संभव है. प्रिंट के संपादक होते ही ऐसे घाघ हैं कि किसी से भी कॉलर
पकड़कर लिखवा लें. बड़े भाई ओमजी की तो बात ही निराली है. वह तो सौम्यता की
प्रतिमूर्ति हैं. फिर, पत्रकारिता का कखगघ उन्हीं
के सानिध्य में जो सीखा. इसलिए, सुबह ही सोचने लगा किस
टॉपिक पर लिखूं. व्यंग्य लिखूं, कोई फ़ीचर लिखूं या फिर कोई
सीरियस पोलिटिकल कमेंट लिखू दूं. इराक़ में आईएसआईएस आतंकवादी का कैमरे के सामने
अमेरिकी पत्रकार जेम्स फ़ॉली का सिर क़लम करने की दिल दहलाने वाली घटना जेहन में
कई दिन बीत जाने के बाद भी गुमड़ रही थी, तो ग़ाज़ा में
इज़राइल हमास संघर्ष में रोज़ाना हो रही मौतें भी मन को मथ रही थी. नरेंद्र मोदी के
शासन में एलओसी और आईबी पर लगातार पाकिस्तानी रेंज़र्स की गोलीबारी और 75वां
सीज़फ़ायर वाइलेशन भी मथ रहा था. याद आया, चुनाव प्रचार के
दौरान मोदी सीज़फ़ायर वाइलेशन पर बहुत बोलते थे, अब एकदम चुप हैं. आरएसपुरा सेक्टर में दो भारतीयों की हत्या पर भी बीजेपी
हुक़्मरान ख़ामोश हैं. इसी तरह मोदी की सभाओं में एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन मुख्यमंत्रियों की
हूटिंग के बाद रांची में नरेंद्र सिंह तोमर को काले झंडे दिखाने पर बीजेपी-जेएमएम
में क्लैश जैसा इशू भी जेहन में था. इस बीच स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का बयान
सुनकर हंसी आ गई कि देश के प्रमुख स्वास्थ्य संस्थानों में भ्रष्टाचार वह कतई सहन
नहीं करेंगे. हर्षवर्धन गले में ईमानदारी का बोर्ड लटकाए घूमते हैं. दरअसल,
हेल्थ मिनिस्टर ने यह बयान एम्स से भ्रष्टाचार उजागर करने
वाले अधिकारी संजीव चतुर्वेदी को हटाने के बाद दिया था. इस पर भी लिखने का मन हुआ.
वैसे, घर से निकलते-निकलते मायावती की पीसी भी सुन ली
थी, उन्हें मलाल था, मोदी को तीन महीने होने वाले
हैं पीएम बने, अभी अच्छे दिनों का कुछ अता-पता नहीं. अच्छे दिन का इंतज़ार
मायावाती ही नहीं, देश का हर आदमी कर रहा है, लेकिन चौंकाया मायावती की आगे की बात ने. मायावाती के मुताबिक, अच्छे दिन लाने के लिए तीन महीने का वक़्त पर्याप्त होता है.
बहरहाल, मीरारोड में ट्रेन ली तो नए मॉडल की ट्रेन में
भी गंदगी काफी दिखी. सीट के नीचे तो कचरे का ढेर सा था. मैंने उसे यह समझकर
नज़रअंदाज़ किया कि मोदी ने कहा है कि सफाई अभियान दो अक्टूबर को गांधी जयंती से
शुरू होगा. लिहाज़ा, रेलवे वाले थोड़ी
गंदगी कर लें, ताकि उसे ही साफ़ करें. इसलिए सफ़ाई रेल कर्मचारी आजकल थोड़ी मोहलत में
हैं और ट्रेन गंदी. वैसे भी दो अक्टूबर से सफ़ाई पर धकाधक काम करने वाले हैं,
हर ट्रेन को चमकाने वाले हैं. ट्रेन से अंधेरी उतरा तो
सीढ़ियों पर भागमभाग दिखी. लोग बेतहाशा भाग रहे थे. पता चला ऐन मौक़े पर लेडी
अनाउंसर ने घोषणा कर दी कि प्लेटफ़ॉर्म 5 की चर्चगेट फॉस्ट लोकल 3 नंबर
प्लेटफ़ॉर्म पर आएगी. इसलिए दो तीन मिनट बचाने के लिए मुंबई के लोकल यात्री भाग
रहे थे. लोगों को धक्के मार रहे थे.
बहरहाल, एब्सल्यूट इंडिया दफ़्तर पहुंचने पर दफ़्तर में ओमजी ने
बड़ा सम्मान दिया. पता नहीं मैं डिज़र्व करता हूं या नहीं. अपने पूरे स्टॉफ़ से
परिचय करवाया. कभी सहकर्मी रहे बसंत मौर्य और आदित्य दुबे समेत कई साथियों से
पुराना परिचय था. सबके साथ फोटो खिंचवाई. और आदेश दिया, मैं ऑफ़िस में अपना अनुभव क़लमबद्ध करूं. मेरे लिए यह बहुत मुश्किल भरा काम था.
पर करना ही था, फरमान जो था. यह भी कहा कि आज हर पेज की हेडिंग और लेआउट चेक भी
चेक करूं. बातचीत के दौरान फ़ीचर पेज बन गया. जिसमें स्व. प्रो. उडुपी
राजगोपालाचार्य (यूआर) अनंतमूर्ति की कहानी “कामरूपी” थी. यह देखकर लगा सचमुच
ओमजी मुंबई की हिंदी पत्रकारिता को बदल रहे हैं. कहानी बड़ी थी. पूरा पेज छोटा पड़
रहे था. मैंने कह दिया, कहानी एडिट करना या उसमें
काट-छांट करना साहित्यिक अपराध है, सो शेष दूसरे पेज पर दे
दीजिए. ओमजी मान गए. अच्छा लगा. क़लम से लिखना तो 1998 में ही छूट गया था, सो सोचने लगा कि
कंप्यूटर मिल जाता तो काम हो जाता. पुराने सहयोगी सोनू के सौजन्य से कंप्यूटर मिल
गया और लिखने बैठ गया. इस दौरान पेज भी आते रहे. उन्हें चेक करता रहा और अपने बोर
करने वाले अनुभव लिख डाला. और मेरी कला तो देखिए, आपसे बोरिंग लेख पढ़वा भी लिया!
हरिगोविंद विश्वकर्मा
2 टिप्पणियां:
aanand aa gaya padhkar.bandhai.bade vo hote hai jo chote ko bada bana de aur yah kubat bahut kamlog me hoti hai . yah sunkar achccha lagaki aap atithi guest rahe bandhai
Dhanyawad mitravar!
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