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सोमवार, 30 मई 2016

हेमंत करकरे ज़िंदा होते तो क्या प्रज्ञा को फंसाने के आरोप में गिरफ़्तार हो जाते ?


हरिगोविंद विश्वकर्मा
कोई भी स्त्री या पुरुष किसी मुक़दमे में या तो कसूरवार होता है या बेकसूर।  क्या कोई आरोपी कसूरवार और बेकसूर दोनों हो सकता है? एक जाहिल आदमी भी कहेगा -नहीं! लेकिन मालेगांव ब्लास्ट 2008 की मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर दोषी भी हैं और बेकसूर भी। जब दिल्ली और महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार थी, तब वह दोषी थीं। अब दोनों जगह बीजेपी की सरकार है, तब वह बेकसूर हैं। मतलब यहां दोषी होने या न होने का फ़ैसला कोर्ट नहीं, राजनीतिक दल कर रहे हैं। संभवतः इस तरह की विचित्र मिसाल भारत जैसे देश में ही देखने को मिल सकती है, जहां कोई किसी केस में दोषी है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी वफादारी किस राजनीतिक दल के प्रति है। यानी यहां अदालत का रोल ही ख़त्म कर दिया गया।

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जैसा कि सब जानते हैं, न्यायिक हिरासत में क़रीब आठ साल से जेल में बंद साध्वी प्रज्ञा को नैशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी यानी एनआईए के 13 मई 2016 को दायर पूरक आरोपपत्र में क्लीनचिट दी जा चुकी है। उम्मीद की जा रही है कि क़ानून की औपचारिक प्रक्रिया पूरी होते ही वह कम से कम इस केस से बरी कर दी जाएंगी और संभव है कि वह जेल से रिहा भी हो जाएं। साध्वी को बरी करने का मतलब ब्लास्ट में उनके ख़िलाफ़ जांच एजेंसियों के पास इतने सबूत नहीं थे, जिससे उन्हें दोषी साबित कर सज़ा दिलाई जा सके। इसका यह भी मतलब होता है कि साध्वी और अन्य दूसरे पांच आरोपियों को बिना पर्याप्त सबूत के ही गिरफ़्तार कर लिया गया था। यानी जिस अपराध ने उनकी ज़िंदगी ही नष्ट नहीं कर दी, बल्कि आठ साल की सज़ा भी दी, उस अपराध को उन्होंने किया ही नहीं था। और, यह सब अमानवीय काम मुंबई आतंकी हमले में शहादत देने वाले महाराष्ट्र एटीएस के पूर्व मुखिया हेमंत करकरे के इशारे पर हुआ था।

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इसी तरह ब्लास्ट के दूसरे आरोपी सैन्य अफसर लेफ़्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित सहित मकोका की कठोर धारा के तहत अरेस्टेड 11 में से 10 आरोपियों के ख़िलाफ़ मकोका लगाने के सबूत ही नहीं हैं। लिहाज़ा, एनआईए ने सभी आरोपियों को मकोका से मुक्त कर दिया है। दरअसल, एनआईए का गठन कांग्रेस के कार्यकाल में मुंबई आतंकी हमले के बाद 31 दिसंबर 2008 को हुआ था और उसे मालेगांव ब्लास्ट 2008 का केस एक अप्रैल 2011 को सौंपा गया था। तब तक जांच महाराष्ट्र एटीएस ही कर रहा था और दो आरोपपत्र (मुख्य और पूरक) दायर भी कर चुका था। यानी एनआईए को केस दिए जाने तक क़रीब ढाई साल प्रज्ञा (गिरफ्तारी- 23 अक्टूबर 2008) और पुरोहित (गिरफ़्तारी- 5 नवबंर 2008) एटीएस की कस्टडी में थे।

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हालांकि, पुरोहित की पत्नी अपर्णा पुरोहित आरोप लगाते हुए कहती हैं, "एटीएस पुरोहित को 29 अक्टूबर 2008 से ही हिरासत में लेकर पूछताछ कर रही थी। पुरोहित के साथ थर्ड डिग्री और अमानवीय तरीके से इनरोगेशन हुआ। पूछताछ ने नाम पर कर्नल आरके श्रीवास्तव के अलावा करकरे, खानविलकर, परमवीर सिंह और शेखर बागड़े जैसे पुलिस अफसर पुरोहित को टॉर्चर करते रहे। इतना टॉर्चर किया कि पुरोहित का घुटना फिर से क्षतिग्रस्त हो गया। गौरतलब है पुरोहित कश्मीर में एक आतंकी मुठभेड़ में घायल हुए थे और उनके घुटने की बड़ी सर्जरी हुई थी।" बहरहाल, इसी तरह के आरोप एटीएस पर साध्वी प्रज्ञा भी लगाती हैं। उनका आरोप है कि कस्टडी के दौरान उऩहें थर्ड डिग्री टॉर्चर किया गया और एक महिला के रूप में उनकी मर्यादा को तार-तार किया गया।

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अब सवाल उठता है कि इतनी लंबी कस्टडी के दौरान आख़िर पूरी एटीएस की टीम थर्ड डिग्री टॉर्चर और मर्यादा भंग करने के बावजूद प्रज्ञा, पुरोहित और दूसरे नौ आरोपियों के ख़िलाफ़ ऐसे सबूत क्यों नहीं जुटा पाई, जिनसे उनकी गिरफ़्तारी को न्यायोचित ठहराया जाता और मालेगांव ब्लास्ट में आरोपियों की संलिप्तता साबित की जा सकती। ले-देकर सबूत के रूप में एटीएस के पास एक क्षतिग्रस्त बाइक और सभी आरोपियों एवं गवाहों एकबालिया बयान थे, जिसे, जैसा कि आरोपियों और गवाहों का आरोप है, एटीएस ने थर्ड डिग्री इंटरोगेशन के ज़रिए ज़बरदस्ती कबूलवाया था। यानी बिना फुख़्ता सबूत के एक महिला और सैन्य अधिकारी को जेल में रखने का क्या औचित्य था? इस सवाल का जवाब करकरे अगर ज़िंदा होते तो उन्हें देना ही पड़ता।

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साध्वी और पुरोहित के आरोपों से सवाल उठता है, क्या करकरे अपने पद का दुरुपयोग कर रहे थे? क्या वह निष्पक्ष नहीं, बल्कि पूर्वाग्रहित और पक्षपाती पुलिस अधिकारी थे? क्या हर केस की जांच वह इसी तरह कर रहे थे? क्या साध्वी और पुरोहित को गिरफ़्तार कर उन्होंने ब्लंडर किया था? क्या उन्होंने किसी व्यक्ति या व्यक्तियों अथवा राजनीतिक दल के इशारे पर “हिंदू आतंकवाद” का हव्वा खड़ा किया? जिसका इस्तेमाल अब पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ अकसर कर रहा है। इन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर करकरे सारी सूचनाएं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह से क्यों शेयर करते थे? वह एटीएस चीफ के रूप में तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को रिपोर्ट करते थे या फिर दिग्विजय सिंह को? अगर वह दिग्विजय को रिपोर्ट नहीं करते थे, तब उन्हें अकसर फोन क्यों करते थे? इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर एटीएस और एनआईए की ओर से दायर तीनों आरोप पत्रों में भी नहीं मिलता है।

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कई लोग पूछते हैं कि जब करकरे की जान को वाक़ई ख़तरा था, जैसा कि दिग्विजय सिंह दावा करते हैं कि करकरे ने उनसे कहा था कि उनकी जान को ख़तरा है, तब करकरे ने दिग्विजय को ही यह बात क्यों बताई? मान लीजिए करकरे की जान को वाक़ई ख़तरा था तब, उन्होंने राज्य के मुखिया चीफ मिनिस्टर या विभाग के मुखिया गृहमंत्री अथवा स्टेट पुलिस के मुखिया पुलिस महानिदेशक या मुंबई पुलिस के चीफ पुलिस कमिश्नर को बताने की बजाय दिग्विजय सिंह को बताना क्यों उचित समझा? जबकि दिग्विजय उस समय संसद सदस्य भी नहीं थे। क्या इस तरह की कोई मिसाल मिलती है? जब किसी शीर्ष पुलिस अफसर को किसी नेता से गुहार लगाते सुना गया? क्या किसी पुलिस अफसर के ऑफिशियल फोन से किसी ऐसे नेता को फोन कभी किया गया है, जिस नेता से उसका कोई फ़ॉर्मल कनेक्शन ही न हो।

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बतौर सबूत दिग्विजय सिंह टेलीफोन कॉल के आइटमाइज़्ड बिल भी सार्वजनिक कर चुके हैं। जिससे साबित हो जाता है कि करकरे उन्हें अपने ऑफिशियल लैंडलाइन से वाक़ई कॉल किया करते थे। करकरे की इस कांग्रेस नेता से इतनी आत्मीयता थी कि वह उनसे निजी बातें भी शेयर करते थे। दरअसल, करकरे के मारे जाने के एक साल बाद दिग्विजय ने छह दिसंबर 2010 को मुंबई में एक सभा में यह दावा किया था कि मुंबई आतंकी हमले में मारे जाने से पहले करकरे ने उन्हें फोन किया था और कहा था कि मालेगांव ब्लास्ट में “हिंदू आतंकवादियों” को पकड़ने से उनकी जान को पक्षिणपंथी यानी हिंदू संगठनों से ख़तरा है।

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दिग्विजय सिंह का बयान इतना विवादास्पद और शर्मसार करने वाला था कि कांग्रेस को आधिकारिक रूप से उनके बयान को उनका निजी विचार बताना पड़ा। यहां तक कि करकरे की पत्नी कविता करकरे ने भी एक बयान जारी करके दिग्विजय सिंह के दावे की निंदा की थी। दरअसल, दिग्विजय सिंह के बयान से लगा कि मुंबई पर आतंकी हमला लश्कर-ए-तैयबा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने करकरे को रास्ते से हटाने के लिए सीआईए और मोसाद के साथ मिलकर रची है।

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इतना ही नहीं, दिग्विजय ने उर्दू के पत्रकार अज़ीज़ बर्नी की किताब “आरएसएस की साज़िशः 26/11” का विमोचन भी किया, जिसमें बर्नी ने भी साबित करने की हर संभव कोशिश की है कि 1993 के बाद देश में जितने ब्लास्ट हुए हैं, सब “हिंदू आतंकवादी” कर रहे हैं। हालांकि, इसके लिए बाद में बर्नी को माफ़ी भी मांगनी पड़ी थी। इसी दौरान क़रीब तीन दशक तक महाराष्ट्र पुलिस सेवा में रहे आईपीएस एसएम मुश्रीफ़ की किताब “हू किल्ड करकरे” आई, जिसमें में भी दावा किया गया कि करकरे की हत्या कसाब ने नहीं की, बल्कि आरएसएस के इशारे पर इंटेलिजेंस ब्यूरो ने करवाई। बहरहाल, इस तरह की अतार्किक बात किताब में लिखने वाले बर्नी और मुश्रीफ़ के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने की और न ही भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने।

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दरअसल, इसमें दो राय नहीं कि दिग्विजय का बयान और करकरे से बातचीत के सबूत मालेगांव बमकांड में करकरे की भूमिका संदिग्ध बना देता है। मामले से जुड़े वकीलों और पत्रकारों का तो यहां तक कहना है कि अगर करकरे ज़िदा रहे होते तो गलत जांच के आरोप में उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई संभव थी, जिनमें उऩकी गिरफ़्तारी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। तो क्या करकरे अगर ज़िंदा होते तो वाक़ई गिरफ़्तार किए जा सकते थे? एनआईए के पूरक आरोप पत्र से पूरी जांच व्यवस्था पर सवालिया निशान पैदा हो गया है। इस साजिश की तहकीकात करने वाली तमाम भारतीय जांच एजेंसियों की साख़ ही संदिग्ध हो गई है।

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राजनीतिक गलियारे में यह सवाल कौंधने लगा है कि तथाकथित ‘हिंदू आतंकवाद’ का हव्वा खड़ा करने के लिए एक महिला को झूठी साज़िश में क्या फंसाया गया?  जब क्लीनचिट देना था, उसे बिना किसी पुख़्ता सबूत के इस केस में आठ साल तक जेल में क्यों रखा गया। दूसरा सवाल है कि अगर साध्वी वाकई तथाकथित हिंदू टेरर मॉड्यूल से जुड़ी और मालेगांव ब्लास्ट में शामिल रही हैं तो उन्हें और दूसरे आरोपियों को एनआईए की ओर से राहत क्यों दी गई? इतना ही नहीं सवाल यह भी है कि पुरोहित समेत 11 में से दस आरोपियों पर से मकोका क्यों हटा लिया गया?

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साध्वी-पुरोहित प्रकरण से देश की इंवेस्टिगेटिंग सिस्टम ही नहीं, न्याय-व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़ा हो गया है। इसका जवाब जज की कम संख्या पर भावुक होने वाले मुख्य न्यायायधीश जस्टिस तीर्थसिंह ठाकुर के लिए भी देना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि मान लीजिए, अगर केंद्र, राज्य सरकार या महाराष्ट्र एटीएस ने किसी व्यक्ति, खासकर किसी महिला, को झूठे केस में फंसा दिया था तो देश की अदालतें आठ साल तक क्या कर रही थीं। साध्वी की ज़मानत किस सबूत के आधार पर सुप्रीम कोर्ट तक ख़ारिज़ होती रही और अगर प्रज्ञा वास्तव में साज़िश में शामिल रही हैं, तो उन्हें अब क्लीनचिट क्यों दी जा रही है। एजेंसियों से यह क्यों नहीं पूछा गया कि प्रज्ञा अगर वह निर्दोष थीं तो उन्हें क्लीनचिट देने में इतना लंबा वक़्त कैसे लग गया।

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कहा जाता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रिक देश है, यहां स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका है। हर नागरिक को बोलने, लिखने, रहने और धर्म के चयन के मौलिक अधिकार मिले हैं। लिहाज़ा, देश की सबसे बड़ी अदालत को ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी कि कोई सरकार या जांच एजेंसी किसी भी नागरिक, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, को बिना सबूत के लंबे समय तक जेल में न रखे। यदि ऐसा होता है, तो यह मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, जिसे रोकना न्यायपालिका का काम है। लेकिन साध्वी और पुरोहित के केस में न्यायपालिका या तो पहले अपनी ज़िम्मेदारी सही तरीक़े से नहीं निभा पाई या अब नहीं निभा पा रही है, क्योंकि दोनों में से केवल एक ही संभव है। या तो साध्वी के ख़िलाफ़ सबूत होगा या सबूत नहीं होगा। सबूत पहले था लेकिन अब नहीं है, यह फ़ॉर्मूला नहीं चलेगा। अगर क्लीनचिट दी जा रही है, तो एटीएस से पूछना होगा कि इतनी प्रतिष्ठित संस्था क्या ऐसे ही काम करती है?

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पूरक आरोप पत्र में एनआईए ने एटीएस पर कई गंभीर आरोप भी लगाए हैं। आरोप इतने ज्यादा संगीन हैं कि एटीएस की भूमिका की ही जांच की नौबत आ गई है। यहां फोरेंसिक साइंस लैबोरेटरी कर्नाटक के डायरेक्टर रह चुके बीएम मोहन के दावे पर गौर करना होगा, क्योंकि उनके कार्यकाल में कई अहम नारको टेस्ट हुए थे। बीएम मोहन ने आईबीएन7 के डॉ. प्रवीण तिवारी से बातचीत के दौरान दावा किया है कि सिमी के कुछ आतंकियों का नार्को करते समय समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव ब्लास्ट के बारे में उन्हें अहम् जानकारियां मिली थीं। मोहन का दावा है कि इन इनपुट्स के आधार पर जांच एजेंसियां अगर सबूत जुटातीं, तो आतंकवादी धमाकों की कहानी कुछ और होती। उनका कहना है कि नार्को, ब्रेन मैपिंग, लाइ डिटेक्टर तीनों ही टेस्ट में सिमी के आतंकियों ने समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव ब्लासट मे हाथ होने की बात स्वीकार की थी। इन लोगों ने सिमी चीफ सफदर नागौरी की पूरी साज़िश का ख़ाका तैयार किए जाने की बात भी कही थी।

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हेमंत करकरे ने आख़िर एफएसएल के इनपुट्स पर ध्यान देकर जांच क्यों नहीं की। जब साध्वी और अन्य के ख़िलाफ़ सबूत नहीं मिले तो दूसरे अंगल की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? करकरे काबिल अफसर माने जाते थे। मुंबई के कई पत्रकार उन्हें बहुत अच्छा इंसान भी मानते हैं। वह सात साल रॉ के अधिकारी के रूप में ऑस्ट्रेलिया में रह चुके थे और कहा जाता है कि कंधार विमान हाइजैक में आतंकियों से संपर्क स्थापित करने में अहम रोल निभाया था और आईबी के अजित डोवाल की मदद की थी, जिससे सभी यात्री सुरक्षित भारत लाए जा सके थे। संभवतः इसीलिए सीएम मिनिस्टर विलासराव देशमुख ने जनवरी 2008 में उन्हें केपी रघुवंशी की जगह एटीएस प्रमुख बनाया था। बहरहाल, मालेगांव ब्लास्ट की सुनवाई फिलहाल मुंबई कोर्ट में चल रही है। लिहाजा, अदालत को ही तय करना होगा कि इनमें से किन तथ्यों के आधार पर केस की सुनवाई आगे बढ़ाई जाए, क्योंकि अंततः मालेगांव ब्लास्ट में दूध का दूध पानी का पानी अदालत को ही करना है। ताकि साध्वी को क्लीनचिट देने से उठे सवालों का जवाब मिल सके।

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साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का नासिक कोर्ट में दिया गया शपथपत्र - 14 अक्टूबर, 2008 को सुबह मुझे कुछ जांच के लिए एटीएस कार्यालय से काफी दूर ले जाया गया, वहां से दोपहर में मेरी वापसी हुई। उस दिन मेरी पसरीचा से कोई मुलाकात नहीं हुई। मुझे पता नहीं था कि पसरीचा कहां है। 15 अक्टूबर को दोपहर बाद मुझे और पसरीचा को एटीएस के वाहनों में नागपाड़ा स्थित राजदूत होटल ले जाया गया जहां कमरा नंबर 315 और 314 में हमे बंद कर दिया गया। यहां होटल में हमने कोई पैसा जमा नहीं कराया और न ही यहां ठहरने के लिए कोई खानापूर्ति की। सारा काम एटीएस ने ही किया। मुझे होटल में रखने के बाद एटीएस के लोगों ने मुझे एक मोबाइल दिया और मुझे उसी फोन से अपने रिश्तेदारों और शिष्यों (जिसमें मेरी एक महिला शिष्य भी शामिल थी) को फोन करने के लिए कहा और कहा कि मैं फोन करके लोगों को बताऊं कि मैं एक होटल में रूकी हूं और सकुशल हूं। मैंने उनसे पहली बार यह पूछा कि आप मुझसे यह सब क्यों कहलाना चाह रहे हैं। समय आने पर मैं उस महिला शिष्य का नाम भी सार्वजनिक कर दूंगी। एटीएस की इस प्रताड़ना के बाद मेरे पेट और किडनी में दर्द शुरू हो गया। मुझे भूख लगनी बंद हो गयी। मेरी हालत बिगड़ रही थी। होटल राजदूत में लाने के कुछ ही घण्टे बाद मुझे एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया जिसका नाम सुश्रुसा हास्पिटल था। मुझे आईसीयू में रखा गया। इसके आधे घण्टे के अंदर ही भीमाभाई पसरीचा भी अस्पताल में लाये गये और मेरे लिए जो कुछ जरूरी कागजी कार्यवाही थी वह एटीएस ने भीमाभाई से पूरी करवाई. जैसा कि भीमाभाई ने मुझे बताया कि श्रीमान खानविलकर ने हास्पिटल में पैसे जमा करवाये. इसके बाद पसरीचा को एटीएस वहां से लेकर चली गयी जिसके बाद से मेरा उनसे किसी प्रकार का कोई संपर्क नहीं हो पाया है। इस अस्पताल में कोई 3-4 दिन मेरा इलाज किया गया। यहां मेरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था तो मुझे यहां से एक अन्य अस्पताल में ले जाया गया जिसका नाम मुझे याद नहीं है। यह एक ऊंची ईमारत वाला अस्पताल था जहां दो-तीन दिन मेरा ईलाज किया गया। इस दौरान मेरे साथ कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं रखी गयी। न ही होटल राजदूत में और न ही इन दोनो अस्पतालों में. होटल राजदूत और दोनों अस्पताल में मुझे स्ट्रेचर पर लाया गया, इस दौरान मेरे चेहरे को एक काले कपड़े से ढंककर रखा गया। दूसरे अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद मुझे फिर एटीएस के आफिस कालाचौकी लाया गया। इसके बाद 23-10-2008 को मुझे गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के अगले दिन 24-10-2008 को मुझे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, नासिक की कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां मुझे 3-11-2008 तक पुलिस कस्टडी में रखने का आदेश हुआ। 24 तारीख तक मुझे वकील तो छोड़िये अपने परिवारवालों से भी मिलने की इजाजत नहीं दी गयी। मुझे बिना कानूनी रूप से गिरफ्तार किये ही 23-10-2008 के पहले ही पालीग्रैफिक टेस्ट किया गया। इसके बाद 1-11-2008 को दूसरा पालिग्राफिक टेस्ट किया गया। इसी के साथ मेरा नार्को टेस्ट भी किया गया। मेरा लाई डिटेक्टर टेस्ट और नार्को एनेल्सिस टेस्ट बिना मेरी अनुमति के किये गये। सभी परीक्षणों के बाद भी मालेगांव विस्फोट में मेरे शामिल होने का कोई सबूत नहीं मिल रहा था। आखिरकार 2 नवंबर को मुझे मेरी बहन प्रतिभा भगवान झा से मिलने की इजाजत दी गयी। मेरी बहन अपने साथ वकालतनामा लेकर आयी थी जो उसने और उसके पति ने वकील गणेश सोवानी से तैयार करवाया था। हम लोग कोई निजी बातचीत नहीं कर पाये क्योंकि एटीएस को लोग मेरी बातचीत सुन रहे थे। आखिरकार 3 नवंबर को ही सम्माननीय अदालत के कोर्ट रूम में मैं चार-पांच मिनट के लिए अपने वकील गणेश सोवानी से मिल पायी। 10 अक्टूबर के बाद से लगातार मेरे साथ जो कुछ किया गया उसे अपने वकील को मैं चार-पांच मिनट में ही कैसे बता पाती? इसलिए हाथ से लिखकर माननीय अदालत को मेरा जो बयान दिया था उसमें विस्तार से पूरी बात नहीं आ सकी। इसके बाद 11 नवंबर को भायखला जेल में एक महिला कांस्टेबल की मौजूदगी में मुझे अपने वकील गणेश सोवानी से एक बार फिर 4-5 मिनट के लिए मिलने का मौका दिया गया। इसके अगले दिन 13 नवंबर को मुझे फिर से 8-10 मिनट के लिए वकील से मिलने की इजाजत दी गयी। इसके बाद शुक्रवार 14 नवंबर को शाम 4.30 मिनट पर मुझे मेरे वकील से बात करने के लिए 20 मिनट का वक्त दिया गया जिसमें मैंने अपने साथ हुई सारी घटनाएं सिलसिलेवार उन्हें बताई, जिसे यहां प्रस्तुत किया गया है।

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