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शनिवार, 9 मार्च 2013

औरतों को बस हर जगह 50 फीसदी प्रतिनिधित्व दे दें और कुछ न करें...!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
महिलाओं को ख़ुश करने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर भाति-भांति के प्रोग्राम्स होते हैं। यह मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की कवायद है। जैसे, कभी राष्ट्रपति, कभी प्रधानमंत्री तो कभी लोकसभा अध्यक्ष पद पर किसी महिला को बिठाकर या वाहवाही लूटने के लिए महिलाओं के लिए महिला बैंक बनाकर मान लेना कि महिला वूमैन इम्पॉवरमेंट हो गया। यह ठीक उसी तरह है जैसे प्रवचन सुनते समय तो सारे भक्त ख़ूब सिर हिलाकर दर्शाते हैं कि वे त्यागी हैं, कम से कम उनसे कोई अमानवीय कार्य नहीं होगा। लेकिन आम जीवन में तमाम तरह के पाप करते हैं। लोगों का हक़ मारते हैं और इसमें उन्हें तनिक भी अपराधबोध नहीं होता क्योंकि बाद में पूजापाठ करके मान लेते हैं कि पाप धुल गया। इसी तरह जो लोग धूम धड़ाके से महिला दिवस मनाते हैं, वे ही आम जीवन में महिलाओं का हक़ मारते आ रहे हैं। यह महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध है, इसका प्रायश्चित करने के लिए ही पुरुष प्रधान-समाज महिला दिवस मनाता है। 

सवाल उठता है कि क्या सचमुच समाज महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती है, क्या सचमुच ये महिलाओं का उत्थान चाहते हैं। अगर हां, तो आज ज़रूरत है समाज में उन प्रावधानों को करने की, जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाएं। उसके लिए ज़रूरी है कि पहले जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि असली समस्या क्या है। दरअसल, किसी को पता ही नहीं कि असली समस्या क्या है। ज़ाहिर है अगर आपको मर्ज़ के नेचर का पता नहीं होगा तो आप अंदाज़ से दवा देंगे जिससे ठीक होने की बजाय कभी–कभी मरीज़ की मौत भी हो जाती है। इसलिए सबसे पहले जानिए कि प्रॉब्लम क्या है।

वस्तुतः समाज में महिलाओं की बहुत कम विज़िबिलिटी ही सबसे बड़ी समस्या या प्रॉब्लम है। यानी घर के बाहर महिलाएं दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो बहुत कम तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों में उनकी प्रज़ेंस नाममात्र की है। मुंबई और दिल्ली जैसे डेवलप्ड सिटीज़ में भी महिलाओं की विज़िबिलिटी दस फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। देश के बाक़ी हिस्सों में तो हालत भयावह है। चूंकि समाज में महिलाओं की आबादी 50 फ़ीसदी है तो हर जगह उनकी मौजूदगी भी उसी अनुपात में यानी 50 फ़ीसदी होनी चाहिए। अगर विज़िबिलिटी की इस समस्या को हल कर लिया गया यानी महिलाओं की प्रज़ेंस 50 फ़ीसदी कर ली गई तो महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। इसके बाद महिला दिवस मनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। महिलाएं बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेंगी।

इस क्रम में सबसे पहले केंद्र और राज्य सरकार में 50 फीसदी जगह महिलाओं को देने को लिए सरकार और राजनैतिक दलों पर फ़ौरन दबाव बनाया जाना चाहिए। यानी पूरे देश की हर सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या पुरुष मंत्रियों के बराबर होनी चाहिए। इसी तरह विधायिका यानी संसद (लोकसभा-राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं समेत देश की हर जनपंचायत में महज़ 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित की जानी चाहिए। हमारे देश में महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी ही क्यों भाई? यह तो सरासर बेईमानी है। यानी संसद (लोकसभा-545 और राज्यसभा-245) में 890 सदस्यों में से 445 महिलाएं किसी भी सूरत में होनी ही चाहिए।

एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस-फ़ैमिलीज़ यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न कर ले, जैसा कि अमूमन होता रहा है। क्योंकि पॉलिटिकल क्लास की ये महिलाएं अपने पति, पिता, ससुर या बेटे की पुरुष प्रधान मानसिकता को ही रिप्रज़ेंट करती हैं। इसलिए रिज़र्वेशन का लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब,  देहाती, आदिवासी,  दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस बल, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, बैंक, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की होनी ही चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य शिक्षण संस्थानों में 50 प्रतिशत पोस्ट महिलाओं को दी जानी चाहिए। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 परसेंट महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी यानी हर जगह जितने पुरुष होंगे उतनी ही महिलाएं। ज़्यादा संख्या निश्चिततौर पर महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, पुलिस स्टेशन, अदालत में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है।

कल्पना कीजिए, केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल, लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं में पुरुषों के बहुमत की जगह बराबर संख्या में महिलाएं हो तो कितना बदलाव सा लगेगा। किसी ऑफ़िस में जाने पर 50 फ़ीसदी महिलाएं दिखने पर नारी-जाति वहां जाने पर रिलैक्स्ड फ़ील करेगी। पुलिस स्टेशन में आधी आबादी महिलाओं की होने पर ख़ुद महिलाएं शिकायत लेकर बेहिचक थाने में जाया करेंगी। जब लड़कियों को बड़ी तादाद में नौकरी मिलेगी तो उनमें सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को पराश्रित और वस्तु समझने की मानसिकता से बाहर निकलकर स्वावलंबी बनेंगी। वे माता-पिता पर बोझ नहीं बनेंगी। उनकी शादी माता-पिता के लिए बोझ या ज़िम्मेदारी नहीं होगी। जब लड़कियां बोझ नहीं रहेंगी तो कोई प्रेगनेंसी में सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट ही नहीं करवाएगा। लोग लकड़ी के पैदा होने पर उसी तरह ख़ुशी मनाएंगे जैसे पुत्रों के आगमन पर मनाते हैं। यक़ीन मानिए तब 1000 लड़कों के सामने 100 लड़कियां होंगी। हमारा समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए। यानी ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारीजैसी चौपाई रचने वाले तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा। इतना ही नहीं तुलसी के महाकाव्य रामचरित मानस को भी संशोधित करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भकाल घर से निकालकर जंगल में भेजने वाले पति राम को मर्यादा पुरुषोत्तममाना गया है। हमें उस महाकाव्य महाभारत और उसके लेखक व्यास की सोच को भी दुरुस्त करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति युधिष्ठिर को धर्मराजमानता है। हमें उन सभी परंपराओ और ग्रंथो में संशोधन करना होगा जहां पुरुष (पति) को परमेश्वरऔर स्त्री (पत्नी) को चरणों की दासीमाना गया है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए केवल स्त्री के व्रत रखने का प्रावधान है, पत्नी की सलामती के लिए पति के व्रत रखने का प्रवधान नहीं है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरका पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परंपराओं भी छोड़ना होगा। लेकिन सवाल खड़ा होता है, क्या यह पुरुष-प्रधान समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो बदलाव की शुरुआत तुरंत होनी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप या अन्य अपराध पर घड़ियाली आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं।

पिछले साल दिल्ली गैंगरेप पर महानायक अमिताभ बच्चन और उनकी पत्नी जया समेत बड़़ी तादाद में आंसू बहा रहे थे, पर क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा दिए या देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? टीवी न्यूज़ चैनलों पर सभी ने जया को राज्यसभा में भावुक होते और आंसू बहाते देखा गया था। क्या जया स्त्री के प्रति बायस नहीं हैं? क्या उनके घर में बेटी श्वेता को ग्रो करने का बेटे अभिषेक जैसा माहौल मिला? अमिताभ-जया की विरासत अकेले अभिषेक ही क्यों संभाल रहे हैं? क्या बॉलीवुड के सबसे बड़ी फ़ैमिली में श्वेता ने लड़की होने की कीमत नहीं चुकाई। उसे यही तो बताया गया कि फ़ीमेल होने के कारण वह पिता की विरासत नहीं संभाल सकती? लिहाज़ा उसे हाउसवाइफ़ बना दिया गया। इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लें, गांधी परिवार में राहुल से ज़्यादा टैलेंटेड होने के बावजूद प्रिंयका क्यों गृहणी बना दी गई हैं? क्या राजनीति की सबसे प्रतिष्ठित फ़ैमिली में प्रियंका नारी होने की कीमत नहीं चुका रही हैं? राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दे तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभाल रहा है। नवीन पटनायक, उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव जैसे पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यह नहीं दर्शाता कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात हो रहा है। इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इसलिए बन सकीं क्योंकि नेहरू को पुत्र ही नहीं था। इसी तरह उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बन रही हैं जहां पुत्र हैं ही नहीं। जब विकसित परिवारों यानी रूलिंग फ़ैमिलीज़ में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे हो रहा है तो इस तरह के माहौल में दूर-दराज़ और पिछड़े इलाकों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। ऐसे माहौल में हर जगह लड़कियों या महिलाओं की 50 फ़ीसदी मौजूदगी ही समस्या का एकमात्र हल है। मतलब सबसे यही अपील की जानी चाहिए कि औरतों को बस हर जगह 50 फीसदी प्रतिनिधित्व दे दें और कुछ न करें...!
 (समाप्त)