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सोमवार, 24 दिसंबर 2018

मीनारा मस्जिद - मुंबई का अजमेर शरीफ



हरिगोविंद विश्वकर्मा
यूं तो माहे रमज़ान हर मुसलमान के लिए खास होता है और ज़्यादातर मुलमान पूरे महीने भर रोजा रखते हैं। रोजे के इस महीने में दक्षिण मुंबई की मशहूर मस्जिद मीनारा मस्जिद में नमाज पढ़ने और सजदा करने का मौका मिल जाए तो इबादत में चांर चांद लग जाता है। इसीलिए रमजान महीने में मीनारा मस्जिद में चहल-पहल बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। सबसे बड़ी बात महीने भर यहां रोजाना ढाई हजार लोग एक साथ पांचों वक्त की नमाज अता करने हैं।
मीनारा मस्जिद मुंबई की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक रही है। इसका निर्माण सन् 1835-1840 के बीच हुआ। मीनारा मस्जिद के मुख्य ट्रस्टी जनाब अब्दुल वहाब बताते हैं कि मीनारा मस्जिद के निर्माण के बाद से ही यहां नमाज अता करने का सिलसिला शुरू हो गया था, लेकिन मीनारा मस्जिद की ओनर मीनारा मस्जिद ट्रस्ट का पंजीकरण बॉम्बे की ब्रिटिश हुकूमत में चैरिटी विभाग में 30-35 साल बाद 1879 में हो पाया। दो मंजिली (ग्राउंड फ्लस वन प्लस टैरेस) यह पाक मस्जिद 1850 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में फैली है। इसके पहले मुख्य ट्रस्टी जनाब अली मोहम्मद मर्चेंट थे।
मीनारा मस्जिद का निर्माण हलाई मेमन जमात के कारोबारी परिवार ने करवाया। इस्लाम में बहुत ज्यादा आस्था रखने वाले हलाई मेमन जमात का परिवार अपनी आमदमी का एक बड़ा हिस्सा धर्म-कर्म, इबादत और दान पर खर्च कर देता था। मीनारा मस्जिद और दूसरे धर्मस्थलों का निर्माण उसके परोपकार का हिस्सा था। यह मस्जिद रंग बिरंगी सजावट के चलते रात में जगमग करती रहती है।
दरअसल, बॉम्बे के सात टापुओं में से दो बॉम्बे और मजगांव द्वापों को रिक्लेम करने के बाद बनी जगह पर मेमन समुदाय के कारोबारी आकर बसे। उस समय आसपास कोई मस्जिद नहीं थी। इससे जमात के लोगों को नमाज अता करने में असुविधा होती थी। उसी असुविधा को दूर करने के लिए मीनारा मस्जिद का निर्माण कराने का फैसला लिया। जनाब अब्दुल वहाब बताते हैं कि पूरा मोहम्मद अली रोड और आसपास के इलाके को मेमन समुदाय ने ही बसाया और गुलजार किया है। मेमन समुदाय के कारोबारियों ने ही उस दौर में मीनारा मस्जिद के अलावा जकारिया मस्जिद समेत कई मस्जिदों और गरगाहों का निर्माण करवाया।
मीनारा मस्जिद की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस मस्जिद परिसर में एक दरगाह भी है और यहां अजमेर शरीफ की तरह कई सूफी संतों की मजारें भी है। इस कारण नमाज के लिए इसकी अहमियत बहुत बढ़ जाती है। मीनारा मस्जिद एक तरह से मोहम्मद अली रोड ही नहीं पूरी दक्षिण मुंबई की ताज की तरह है। पिछले साल इस मस्जिद में सोलर सिस्टम लगा दिया गया। यहां की बिजली की खपत का 35 हिस्सा सोलर ऊर्जा से आता है। उसके लिए टैरेस पर सोलर पैनल लगाए गए है। मीनारा मज्सिद मुंबई की पहली मस्जिद है जहां गैरपरंपरागत ऊर्जा का इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर यह मस्जिद विश्व बंधुत्व एवं भाईचारे का संदेश देती है।

दादर कबूतरखाना - कबूतरों का आशियाना


हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुपरस्टारद्वय रजनीकांत और अक्षय कुमार की फिल्म '2.0' ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी है। इस फिल्म ने कमाई के मामले में पिछली कई फिल्मों को पीछे छोड़ दिया है। इस फिल्म में बताया गया है कि किस तरह पक्षियों की प्रजातियों के नष्ट होने से मानव गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहा है। लिहाजा, फिल्म के जरिए पक्षियों की रक्षा का संदेश दिया गया है। पक्षियों की रक्षा का यह संदेश आज का नहीं, बल्कि तकरीबन नौ दशक पुराना है। पक्षियों को बचाने और उन्हें दाना-पानी देने के लिए ही मुंबई में जगह-जगह कबूतरखाना का निर्माण किया गया था। यह कार्य ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ था। उसी क्रम में दादर रेलवे स्टेशन से वॉकिंग डिस्टेंस पर एक कबूतरखाना बनाया गया था। तब से यह कबूतरखाना पक्षियों खासकर कबूतरों का बसेरा रहा है। आज भी दादर का कबूतरखाना मुंबई के जाने पहचाने स्थलों में गिना जाता है।
एम.सी. जावले रोड के त्रिमुहानी पर स्थित कबूतरखाने की संरचना का निर्माण 1933 में किया गया था। तब यहां रोजाना करीब चार हजार कबूतर दाना चुगते थे और पानी पीते थे। यहां रोजाना करीब 15 सौ किलोग्राम चना, जवारी, बाजरा और मूंग कबूतर खाते थे और यहां रखा पानी पीते थे। कबूतरों को अन्न-जल देने का यह अभियान आज भी जारी है। शांतिनाथ जैन मंदिर, हनुमान मंदिर और एक मस्जिद से घिरा यह कबूतरखाना कभी बहुत शांतिप्रिय स्थल हुआ करता था। इसीलिए इसकी लिस्टिंग ग्रेड दो की विरासत के रूप में हुई है। इसका ग्रिल कॉस्ट आयरन का बनाया गया था। यह पुराना धान्यागार था। अब सूरत-ए-हाल एकदम बदल गया है। बड़ी संख्या में वाहनों के आवागमन और फेरीवालों के कारण यह स्थल बहुत भीड़-भाड़ वाला हो गया है। कभी यहां एक फव्वारा होता था, जो कई साल से बंद है। यह कबूतरखाना कभी शूटिंग के लिए फिल्मकारों की मनपसंद जगह होती थी। 
यह जाना पहचाना स्थान अपने जीवन के छठे-सातवें दशक में जी रहे नागरिकों के होठों पर मुस्कान लाता है। कई लोग आज भी कबूतरों को दाना देने नियमित आते हैं। पिछले सात दशक से इस विरासत का रखरखाव दादर कबूतरखाना ट्रस्ट दादर मार्केट की दुकानों से धन संग्रह करके करता है। बॉम्बे वेट्स कॉलेज और बीएसपीसीए के पशु चिकित्सक नियमित रूप से टीकाकरण के लिए इसका दौरा करते रहते हैं। कबूतरों को विटामिन की जरूरी खुराक देते हैं, जिससे आलसी कबूतर फिट और बीमारियों से दूर रहें और कबूतर खाने के आसपास के लोगों को इनके कारण कोई बीमारी न हो। इसके बावजूद कुछ समय पहले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की ओर से दादर कबूतरखाना बंद कराने की मांग की गई थी। मनसे नगरसेवक संदीप देशपांडे का तर्क था, "कबूतरखाने के आसपास रहने वालों का कहना है कि कबूतरखाना की वजह से तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं और लोग बीमार हो रहे हैं। जनता के हित में हम लोगों ने इस कबूतरखाने को बंद करने के लिए बीएमसी कमिशनर अजय मेहता को पत्र लिखा।" हालांकि भाजपा के नगरसेवकों ने विराध किया था और कहा था कि इसका सुंदरीकरण करके इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए। दूसरी ओर वन्यजीव प्रेमी लता अंकलेकर कहती हैं, "कबूतर कोई बीमारी नहीं फैलाते हैं। जो अपनी सेहत का ध्यान नहीं देते हैं, वे खुद बीमार पड़ते हैं और आरोप कबूतरों पर लगाते हैं। मैं 25 कबूतरखाने के पास ही 25 बिल्लियों के साथ रहती हूं। उनकी गंदगी खुद साफ करती हूं, मुझे कोई बीमारी नहीं लगती।"


माहिम चर्च - देश का सबसे पुराना चर्च



हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रभु ईसा मसीह का जन्मदिन और क्रिसमस-डे शहर के तमाम चर्चों (गिरिजाघरों) में बीती शाम से ही धूमधाम से मनाया जा रहा है। इस दौरान इन स्थलों को आकर्षक झांकी व पेड़ों से भी सजाया गया। क्रिसमस के मौके पर हर चर्च को दूल्हन की तरह सजाया जाता है। माहिम चर्च हर साल दिसंबर में अलग रूप में नजर आता है। इस चर्च में क्रिसमस बेहद लोकप्रिय है।
माहिम चर्च का असली नाम सेंट माइकल चर्च है। यह मुंबई ही नहीं देश के सबसे पुराने कैथोलिक चर्च में से एक है। यह पुर्तगालियों द्वारा बनाया गया पहला निर्माण है। दरअसल, 1534 में सुल्तान बहादुर शाह को हराकर पुर्तगालियों ने मुंबई पर नियंत्रण कर लिया। उन्होंने इसके बाद यहां दो चर्च बनवाए। इनके निर्माण चर्च निर्माता एंटोनियो डो पोर्टो ने किए थे। पहला चर्च सेंट मिगुल मांडव तट यानी अप माहिम में बना था, दूसरा चर्च लेडी ऑफ साल्वेशन लोअर माहिम (अब दादर) में बना और कॉन्वेंट के रूप में कार्य करता था। अपर माहिम के चर्च को 1585 में सेंट माइकल चर्च का जाने लगा। निर्माण के बाद कई चर्चों का पुनर्निर्माण भी किया गया।

18 वीं शताब्दी के आसपास बांद्रा इलाके में एक लोकप्रिय चैपल था। इसको 'ऑवर लेडी ऑफ द माउंट' के नाम से जाना जाता था। इस इमारत को पुर्तगालियों ने नष्ट कर दिया। संयोग से उस समय वर्जिन मैरी की एक नामचीन तस्वीर को बचा लिया गया था और उस उस तस्वीर को सेंट माइकल चर्च में स्थापित कर दिया गया और तब से यह तस्वीर चर्च के प्रमुख आकर्षणों में से एक है।
चैपल पर हमले के बाद लंबे समय तक एपोस्टोलिक विकर्स और पड्रोडो ऑर्डर के बीच तनाव कायम रहा और चर्च पर 60 वर्षों तक एपोस्टोलिक का कब्जा रहा। काफी संघर्ष और हमले के बाद  आखिरकार 1853 में पुर्तगाली पड्रोडो ऑर्डर ने इस चर्चर को अपने नियंत्रण में लिया। फिलहाल एकमात्र जीवित पुर्तगाली इमारतों में से एक सेंट माइकल चर्च विभिन्न औपनिवेशिक शक्तियों के प्रभाव के प्रमाण के रूप जाना जाता है।  सन 1668 में मुगलों और सिद्दियों ने मुंबई पर आक्रमण किया। लेकिन अंग्रेजों ने मुगलों के 14 जहाजों पर कब्ज़ा कर लिया और उन्हें खदेड़ दिया। मुगलों ने बदला लेने के लिए 1689 में फिर सैन्य टुकड़ी बॉम्बे भेजी। मुगलों की सेना ने मुंबई को घेर लिया और भारी तबाही की। इस हमले में सेंट माइकल चर्च भी क्षतिग्रस्त हुआ। बाद में समझौता होने पर लड़ाई खत्म हो गई।

20 वीं शताब्दी में सेंट माइकल चर्च का नवीकरण किया गया। चर्च का मौजूदा स्वरूप 1973 में बनाया गया। प्रारंभ में, ग्लास पेंटिंग, आकर्षक संरचनाएं, लकड़ी की बेंच, वर्जिन मैरी और जीसस क्राइस्ट की तस्वीरें इस सुंदर कैथोलिक चर्च को सुशोभित करती थीं। लेकिन चर्च के निरंतर और बार बार नवीकरण के कारण चर्च के पुर्तगाली वास्तुकला के सभी अवशेष अब गायब हो गए हैं। अब चर्च यहां सिर्फ एक शानदार इमारतीय संरचना है, जो शहर की सबसे पुरानी पुर्तगाली इमारतों में से एक है।
चर्च के सामने फुटपाथ पर एक छोटा सा बाजार  है, जहां आप मोमबत्तियां, हार-माला, ताजे फूल और कई और उपयोगी सामान बिकते हैं।  बुधवार को चर्च में आयोजित नोवेना मास में हिस्सा लेने और अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करने का एक शानदार अवसर मिलता है। ऐसी मान्यता है कि जो लोग  9 बुधवार को नवीना मास में भाग लेते हैं, उनकी मनोकामना पूरी होती है। दरअसल, नोवेना परंपरा 1948 में शुरू हुई। सबसे खास बात है कि कैथोलिक चर्च में सभी धर्म के अनुयायियों को प्रवेश और इनकी सेवाओं का लाभ उठाने की अनुमति है। अधिकतर समय, चर्च को आकर्षक रूप से सजाया जाता है और अनुयायियों की आवाजाही होती रहती है।

ईसाई धर्म की अनुयायी और नियमित चर्च जाने वाली जॉयस डीसूजा कहती हैं, "ईसा मसीह ने मानवता को गुलामी से मुक्त कराने के लिए जन्म लिया था। इसीलिए उनके जन्म दिन को ईसाई समुदाय के लोग धूमधाम से मनाते हैं। उन्होंने मानवता की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।"

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

अंततः कांग्रेस में जान फूंकने में सफल रहे राहुल गांधी


हरिगोविंद विश्वकर्मा
अगर चार राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव और उसके पहले के राजनीतिक परिवेश पर ग़ौर करें तो यही लगता है कि कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले अपने अध्यक्ष राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करने में पूरी तरह सफल रही है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधान सभा के चुनाव नतीजे कांग्रेस की वापसी की कहानी कह रहे हैं। इसमे दो राय नहीं कि चुनावों में राहुल गांधी ने न केवल कांग्रेस पार्टी में रिवाइव किया, बल्कि वह ख़ुद को राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के मुक़ाबले स्टेब्लिश करने में भी सफल रहे हैं। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर जोरदार हमले के चलते कांग्रेस के फ़ायरब्रांड नेता के रूप में उभरे राहुल गांधी ही अब अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी को चुनौती देंगे।

यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि कांग्रेस अब मई 2014 वाली स्थिति से उबर कर बहुत ऊपर आ गई है। उसका ग्राफ इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि भाजपा और उसकी पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खेमे में कांग्रेस और राहुल गांधी को ख़तरे के रूप में देखा जाने लगा है। भाजपा भली-भांति जानती है, कि राष्ट्रीय स्तर पर उसे अखिलेश-तेजस्वी, पटनायक-नायडू, ममता-मायावती या पवार-केजरीवाल से कोई ख़तरा नहीं है। भगवा पार्टी को ख़तरा केवल राहुल गांधी से है। अगर भविष्य में नरेंद्र मोदी को चुनौती मिली तो केवल राहुल से ही मिलेगी। इसीलिए मोदी समर्थकों के निशाने पर सबसे ज़्यादा राहुल गांधी ही रहते हैं। राहुल को उपहास का पात्र बनाने का कोई मौक़ा मोदी के समर्थक नहीं चूकते हैं। फेसबुक, ट्विटर और व्हाटसअप जैसे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर राहुल के बारे में थोक के भाव में चुटकुले रचे जाते हैं और यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले राहुल गांधी कहीं नहीं ठहरते, जबकि हक़ीक़त यह है कि उदार और जेंटलमैन पॉलिटिशियन की छवि वाले राहुल मुक़ाबले में हैं।

यह सच है कि राहुल को संभावित विकल्प बनता देखकर पिछले चार-पांच साल के दौरान उनके बारे में नकारात्मक बातें बहुत ज़्यादा कही और लिखी गई हैं। भाजपा से सहानुभूति रखने वाले अब भी राहुल गांधी को ऐसा अरिपक्व नेता बताते हैं, जो अब भी अपनी मां पर निर्भर है। ख़ुद नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में अपने काम का ज़िक्र बिल्कुल नहीं करते हैं। वह कांग्रेस के कार्यकाल और कांग्रेस परिवार का ज़िक्र करते हैं। बहरहाल, नकारत्मक पब्लिसिटी से निकाले गए निष्कर्ष सत्य से परे हैं, क्योंकि ये निष्कर्ष केवल नकारात्मक पब्लिसिटी पर आधारित होते हैं। इसके विपरीत राहुल बार-बार राफेल विमान सौदे की बात करके भाजपा को लगातार कठघरे में खड़ा करते रहे हैं और पूछते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने राफेल विमान को कितने में ख़रीदा। मजेदार बात यह है कि गोपनीयता का हवाला देते हुए सरकार और भाजपा के लोग राफेल का दाम नहीं बता रहे हैं। यहां तक कि वित्तमंत्री अरुण जेटली जैसा तथ्यों की बात करने वाले नेता राफेल के दाम में कम कीमत का परसेंट तो बता रहे हैं, लेकिन सही दाम नहीं बता रहे हैं। इससे देश के आम आदमी के मन में शंका पैदा होती है कि कहीं न कहीं गड़बड़ी जरूर है। अन्यथा अगर केंद्र सरकार ने राफेल को कांग्रेस से कम कीमत पर ख़रीदा होता तो अब तक इसका इतना प्रचार प्रसार कर दिया जाता कि राफेल का दाम हर आदमी की ज़ुबान पर होता। 

चारों विधान सभा चुनाव में राहुल गांधी बेहद सक्रिय रहे और प्रचार में उसी तरह जुटे रहे, जिस तरह नरेंद्र मोदी 2014 से कर रहे हैं। यह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत हैं कि राहुल कांग्रेस संगठन को पर्याप्त समय दे रहे है। इसी के चलते वह कांग्रेस में जान फूंकने में सफल रहे हैं। राहुल के पक्ष में यह बात जाती है कि उनमें विपक्ष का नेता बनने के सारे नैसर्गिक गुण हैं। सत्ता पक्ष में राहुल भले सफल न हुए, लेकिन विपक्ष में वह सफल हो सकते हैं, क्योंकि उनका तेवर ही विपक्षी नेता का है यानी उनका नैसर्गिक टेस्ट सिस्टम विरोधी है। याद कीजिए, 2013 की घटना जब राहुल ने अजय माकन की प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचकर सबके सामने अध्यादेश को फाड़ दिया था। राहुल के कृत्य को सीधे प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार की बेइज़्ज़ती माना गया था हालांकि राहुल की इस मुद्दे पर तारीफ़ ही हुई थी।

आजकल राष्ट्रीय स्तर पर केवल दो ही नेताओं की चर्चा हो रही है। या नरेंद्र मोदी या फिर राहुल गांधी। यही तो कांग्रेस चाहती थी। कह सकते हैं कि यहां राहुल गांधी या कांग्रेस के मैनेजर्स की अपनी रणनीति पूरी तरह सफल हो दिख रहे हैं, क्योंकि विपक्ष में बाक़ी दल एक दो राज्य तक ही सीमित हैं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का जनाधार केवल उत्तर प्रदेश में हैं, तो राष्ट्रीय जनता दल बिहार की पार्टी है। ममता की तृणमूल का पश्चिम बंगाल के बाहर कोई अस्तित्व नहीं है, तो बीजू जनता दल को भी नवीन पटनायक ने उड़ीसा से बाहर ले जाने की कोशिश ही नहीं की। यही हाल तेलुगु देशम, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तमिल पार्टियों और वामपंथी दलों का है। भाजपा और कांग्रेस के मुक़ाबले खड़ा होने का माद्दा आम आदमी पार्टी में ज़रूर था, लेकिन अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा ने इस पार्टी को दिल्ली की क्षेत्रीय पार्टी बना दिया। मतलब इन दलों के नेता नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देंगे, इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है।
 
इस देश की जनता का टेस्ट ही ऐसा है कि यहां जुमलेबाज़ नेता के लिए हमेशा ज़बरदस्त स्कोप रहता है। उसी जुमलेबाज़ी से जनता को रिझा कर नरेंद्र मोदी सत्ता में पहुंचे हैं। अगर कहें कि राहुल गांधी अब मोदी की तरह जुमलेबाज़ी करने लगे हैं, तो अतिशयोक्ति या हैरानी नहीं होनी चाहिए। अभी हाल ही में एक चुनाव सभा में राहुल ने कहा, "भाइयो और बहनों, आपके पिताजी ने कुछ नहीं किया। आपके दादाजी ने भी कुछ नहीं किया। इतना ही नहीं आपने परदादाजी ने भी कुछ नहीं किया।" यह मोदी की ही स्टाइल में उनको दिया गया जवाब था। छत्तीसगढ़ में राहुल ने नरेंद्र मोदी का नाम लेकर कहा, "मोदीजी आप दिन गिनकर रख लें। कांग्रेस सत्ता में आई तो 10 दिनों के भीतर किसानों का कर्ज माफ हो जाएगा और यह पैसा नीरव मोदी, विजय माल्या और अनिल अंबानी के पास से आएगा।" राफेल का ज़िक्र करते हुए राहुल कहते हैं, "चौकीदार चोर है।" ऐसी ही जुमलेबाज़ी राहुल ने गुजरात विधानसभा चुनाव में की थी और जीएसटी को 'गब्बर सिंह टैक्स' का नाम दिया था। इससे पहले मोदी सरकार को 'शूट-बूट की सरकार' और उनकी योजनाओं को 'फेयर ऐंड लवली योजना' करार दे चुके हैं। यह सब जुमलेबाजी है। दरअसल, अब तक ऐसी जुमलेबाज़ी केवल नरेंद्र मोदी ही करते रहे हैं। यानी जुमलेबाज़ी के मुद्दे पर भी मोदी के सामने राहुल गंभीर चुनौती पेश करने लगे हैं।

राहुल गांधी के संसद या संसद से बाहर दिए गए भाषणों पर अगर ग़ौर करें तो पाएंगे कि वह भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ते। यानी लोगों को संबोधित करने की नैसर्गिक परिपक्वता अब उनमें आ गई है, जो किसी बड़े नेता के लिए बहुत ज़रूरी है। पब्लिक फोरा पर भी वह परिपक्व नेता की तरह बड़ी बेबाकी से हर मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि राहुल का होमवर्क ठीकठाक ही नहीं, देश के कई प्रमुख नेताओं के मुक़ाबले बहुत ही अच्छा होता है। एकाध फ्लंबिंग को छोड़ दें, तो कम से कम वह बोलते समय ब्लंडर नहीं करते और जेंटलमैन की तरह अपनी बात रखते हैं। वह जब भी बोलते हैं, अच्छा बोलते हैं। भाषण भी अच्छा और प्रभावशाली देते हैं। लोकसभा में कई बार उन्होंने यादगार भाषण दिया भी है।

राहुल गांधी के पक्ष में एक और बात जाती है कि वह गांधी वंशवाद के प्रतिनिधि हैं। 38 साल तक देश को प्रधानमंत्री देने वाले नेहरू-गांधी खानदान के वह पुरुष वारिस हैं। भारत के लोग वंशवाद पर भी फ़िदा रहते हैं। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद पवार, बाल ठाकरे, गोपीनाथ मुंडे, सिंधिया परिवार, अब्दुल्ला और सोरेन फैमिली, पटनायक और करुणानिधि परिवार भारतीय नागरिकों की इसी गुलाम मानसिकता के कारण फलते-फूलते रहे हैं। ये नेता जनता की इसी कमज़ोरी को भुनाकर अपने परिवार के लोगों को संसद और विधान सभा में भेजते रहे हैं। दरअसल, सदियों से खानदानी हिंदू राजाओं या मुस्लिम शासकों के शासन में सांस लेने के कारण यहां की जनता ग़ुलाम मानसिकता की हो गई है। मूढ़ किस्म की इस जनता को वंशवाद शासन बहुत भाता है। लिहाज़ा, इस तरह की भावुक जनता के लिए राहुल गांधी सबसे फिट नेता हैं।

सोमवार, 19 नवंबर 2018

बनारस की दिनचर्या का हिस्सा है गाली


हरिगोविंद विश्वकर्मा
सेंसर बोर्ड ने जिन गालियों को आधार बनाकर फिल्मकार विनय तिवारी की फिल्म "मोहल्ला अस्सी" को कई साल तक लटकाए रखा, वह गाली कोई अब्यूजिंग लैंग्वेज नहीं, बल्कि वह काशी यानी बनारस की सहज और स्वाभाविक भाषा और जीवनचर्या है। जो कमोबेश हर जबान पर गाहे-बगाहे आती रहती है। अगर आप बनारस में कुछ दिन रहें, वहां की गलियों में घूमें, लोगों से मिले और वहां के जन-जीवन में शामिल हों तो आपको भी लगेगा कि यह गाली एक तरह से बनारस की नेचुरल अभिव्यक्ति है। बनारस के लोगों के लिए यह गाली एक तरह से प्राण ऊर्जा का काम करती है। इससे चौबीस घंटे लोगों में ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है। बस, बनारस के इसी फलसफे को सबसे पहले भारतीय सेंसर बोर्ड और बाद में दूसरे वैधानिक संस्थान समझ नहीं पाए और मोहल्ला अस्सी को गाली-गलौज वाली फिल्म की कैटेगरी में रखकर अनावश्यक विलंब कर दिया। इस कारण काशी से दूर रहने वाले काशी की इस नेचुरलिटी को रूपहले परदे पर देखने से वंचित रह गए।

बहरहाल, कई साल की लंबी अदालती लड़ाई और जद्दोजहद के बाद विवादास्पद मोहल्ला अस्सी फिल्म अंततः पिछले शुक्रवार से सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। वृहस्पतिवार की शाम अंधेरी पश्चिम के फन रिपब्लिक में इस फिल्म का प्रीमियर शो रखा गया था, जिसमें मोहल्ला अस्सी के अभिनेता-अभिनेत्री और फिल्म से जुड़े दूसरे लोगों के अलावा बड़ी संख्या में बॉलीवुड और मीडिया के लोग आमंत्रित थे। लोगों ने फिल्म देखने का बाद उसकी जमकर तारीफ की। वाकई कई कलाकारों ने फिल्म में जोरदार अभिनय किया है।

अगर फिल्म मोहल्ला अस्सी की बात करें तो, प्रचीनतम शहर बनारस की पृष्ठभूमि में बनी मोहल्ला अस्सी फिल्म भारतीय समाज, खासकर धर्मनिरपेक्षता पर करारा प्रहार करती है। दरअसल, फिल्म बताती है कि एक धर्म-निरपेक्ष समाज में जब सांप्रदायिकता के माहौल के धर्म जहर का रिसाव शुरू होना शुरू होता है, तब माहौल बदलने में समय नहीं लगता है। फिल्म के आखिर में यह भी संदेश दिया गया है कि इन बाहर हो रही घटनाओं से एक आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता है। आम आदमी के जीवन में परिवर्तन तभी आता है जब वह समय के साथ खुद को सुधारने की कवायद में जुट जाता है।

इस फिल्म की कहानी दो ट्रेक पर चलती है। पहली पंडित धर्मनाथ पांडेय (सन्नी देओल) को समय के बदलाव के साथ अपने आदर्श ध्वस्त होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर भारत की राजनीतिक परिस्थितियां विचलित कर देने वाली है। अस्सी पर पप्पू की चाय दुकान, पंडितों का मुहल्ला और वहां के घाट  इस द्वंद्व के चित्रण का मंच है। मंडल कमीशन और मंदिर-मस्जिद विवाद की गरमाहट पप्पू की चाय की चुस्कियों में भी महसूस की जाती है, जहां भाजपा, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग अकसर चाय पर चर्चा करते देखे जाते हैं। फिल्म में बाजारवाद ने मूल्यों और परम्पराओं को निशाना बनाया गया है। सच पूछो तो यह फिल्म राजनीति व बाजारीकरण के प्रभावों से समाज, मूल्यों और परम्पराओं में पैदा हुए द्वंद्व को बयां करती है।

कुछ लोग जरूरतों के लिए मूल्यों को किनारे कर देते हैं और बाजारीकरण से पैदा अवसर भुनाते हैं। वहीं कुछ लोग लकीर के फकीर बनकर परंपराओं से अब भी चिपके हुए हैं, उसके लिए वे तमाम दिक्कतें भी उठाने को तैयार हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परंपराओं को छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन लोकलाज की वजह से कोई कदम उठाने से डरते हैं, परंतु जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, पहली जमात के लोगों में शामिल हो जाते हैं।

इस फिल्म को बनाया है विनय तिवारी ने और इसका निर्देशन चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने किया है। यह बहुत शानदार तरीके से बनाई गई है। मोहल्ला अस्सी में असली बनारस पूरी तरह जीवंत दिखता है। इस फिल्म में बनारस की गालियों के साथ साथ बनारस की गलियां और वहां का फक्कड़ जीवन खी उभर कर सामने आया है। साहित्य मनीषी डॉ काशीनाथ सिंह के चर्चित उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर बनी इस फिल्म में गाली का प्रचुर इस्तेमाल किया गया है। वैसे मूल उपन्यास में भी बनारस की स्वाभाविक गाली है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास - झीनी झीनी बीनी चदरिया के बाद काशी का अस्सी में ही सबसे ज्यादा गाली का प्रयोग किया गया है।

बतौर नायक भले ही सन्नी देओल ने ठीकठाक अभिनय किया हैं लेकिन कन्नी गुरु के किरदार में रविकिशन की अभिनय ज्यादा सहज है। साक्षी तंवर, दयाशंकर पांडेय और मुकेश तिवारी, अखिलेंद्र मिश्र समेत सभी कलाकारों ने प्रभावी अभिनय किया है। संगीत के मामले में यह फिल्म पिछड़ गई है।

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

महिलाओं का रक्षा कवच बनेगी हैशटैग मीटू क्रांति

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अपनी पूरी पत्रकारिता के दौरान शक्तिशाली संपादक रहे एमजे अकबर को अगर पता होता कि जिन महिलाओं के साथ वह कथिततौर पर यौनचेष्टा, जैसा कि आरोप है, कर रहे हैं, वही महिलाएं कभी हैशटैग मीटू मुहिम के जरिए उनके कुकृत्य को दुनिया के सामने ला देंगी, जिसके चलते समाज में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाएगा, उनका मान-सम्मान और प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी, उन्हें ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ के शर्मनाक अंदाज़ में केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना पड़ेगा, तो वह निश्चित रूप से किसी की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ यौनचेष्टा नहीं करते। कहने का मतलब हैशटैग मीटू ने लंपट टाइप पुरुषों के लिए एक 'टेरर क्रिएट' तो कर ही दिया। इस टेरर में जो इंपैक्ट है, वह भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और 354 में भी नहीं है। कहने का मतलब हैशटैग मीटू के रूप में महिलाओं को एक कारगर रक्षा कवच मिल गया है। इस बिना पर तो हैशटैग मीटू को मुहिम न कह कर एक क्रांति कहा जाना चाहिए।

पुरुष वर्ग में जिस तरह की घबराहट और बेचैनी हैशटैग मीटू क्रांति के बारे में देखी जा रही है, उसका यही तात्पर्य है कि इसके निश्चित रूप से दूरगामी परिणाम होंगे। यौन-शोषण पर अंकुश लगाने की दिशा में यह मील का पत्थर साबित होगा। यह हर महिला के लिए रक्षा कवच बनकर घर ही नहीं कार्यस्थल पर उसकी हिफाजत करेगा। वहशी स्वभाव के पुरुष हैशटैग मीटू के डर से महिलाओं की ओर देखने का दुस्साहस नहीं करेंगे। अभी कुछ सेलिब्रेटीज और बड़ी महिला पत्रकार सामने आई हैं। आगे आम महिलाएं सामने आने वाली हैं, क्योंकि मीटू क्रांति अब देश के कोने-कोने में पहुंच रही है। यह भी कह सकते हैं कि मीटू यौन शोषण के ख़िलाफ़ महिलाओं के संघर्ष का सबसे सशक्त माध्यम बन गया है। यह निश्चित तौर हर स्त्री को आज़ादी और गरिमा के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा। वे आज़ाद पक्षी की तरह खुले आसमान में उड़ सकेंगी।

अभिनेत्री तनुश्री दत्‍ता के हिम्मत की दाद देनी होगी। सबसे पहले खुले तौर पर तनु ने ही मीटू के ज़रिए अभिनेता नाना पाटेकर पर 'ग़लत तरीक़े से छूने' का आरोप लगाया था। उसके बाद से तो रोज़ाना नए-नए और सनसनीखेज़ मामले सामने आ रहे हैं। इनमें कई तो रोंगटे खड़े करने वाले हैं। महिलाओं के अनुभव पढ़कर हर कोई सोचने लगता है कि कोई पुरुष इतना वहशी भी हो सकता है, वह इतना भी नीचे गिर सकता है। कम से कम एमजे अकबर की हरकत तो इसी कैटेगरी में आती है। उन पर अब तक एक दो नहीं, पूरे दो दर्जन महिलाओं ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। सभी महिलाओं के आरोप बेहद संगीन हैं। इसीलिए उनका मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा ले लिया गया। यक़ीनन इस तरह के चाल-चरित्र वाले व्यक्ति के लिए सरकार में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। सबसे अहम् बात, नाना और अकबर को छोड़ भी दें तो भी हैशटैग मीटू अभियान के चपेट में ऐसे नामचीन लोग आ रहे हैं, जिनकी समाज में बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मानित छवि रही है। इन अभियान के चलते ऐसे लोग रातोंरात आसमान से फ़र्श पर गिर रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि सोशल मीडिया पर इन दिनों हैशटैग मीटू के चलते पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पुरुषों का विद्रूप चेहरा सामने आ रहा है। दरअसल, सदियों से स्त्री के साथ पुरुष जानवर जैसा व्यवहार करता रहा है। पुरुष की यौनचेष्टाओं को महिलाएं चुपचाप सहती आ रही हैं और ऊफ तक भी नहीं करती हैं। जो एकाध विरोध करती हैं, उन्हें बलात दबा दिया जाता है। यह मामला इसलिए भी सामने नहीं आ पाता है, क्योंकि सारा तंत्र ताक़तवर पुरुष के पक्ष में होता है। लिहाज़ा, हिम्मत करने वाली महिला पर तरह तरह के लांछन लगा दिए जाते है। हैशटैग मीटू के साथ भी यही हो रहा है। होना तो यह चाहिए था कि पुरुष प्रधान समाज और उसके पैरोकार सहिष्णुता का परिचय देते और आप-बीती सुनाने वाली महिलाओं के पक्ष में खड़े होते। उनके साहस की सराहना करते, लेकिन ये लोग यह भी सहन नहीं कर पाया। अब इनकी ओर से इस क्रांति के बारे में नकारात्मक बातें कही जा रही हैं। तरह-तरह के जोक्स बनाए जा रहे हैं। 21वी सदी में भी नारी को चरणों की दासी के रूप में देखने की इच्छा रखने वाले पुरुष तो विरोध कर ही रहे हैं, कई पितृसत्तावादी महिलाएं भी इसका यह कहकर विरोध कर रही हैं कि जब यौन शौषण हो रहा था, तब क्यों चुप रहीं। यह भी कहा जा रहा है कि काम निकालने के लिए अमुक महिला ने ही उस पुरुष को उकसाया होगा और काम निकल जाने के बाद अब आरोप लगा रही है। कई लोग कह रहे हैं, जब काम था तब ‘स्वीटू’ काम निकल गया तब ‘मी टू’।

इस तरह का कुतर्क करने वाले लोग भारतीय समाज में महिलाओं का वास्तविक स्थिति से या तो अनजान हैं या जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारतीय समाज में महिलाओं को सरवाइव करने के लिए घर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी तरह तरह के समझौते करने पड़ते हैं। महिलाएं अब तक इतनी सक्षम नहीं हैं कि बिना काम या नौकरी के घर की बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें। इसलिए मजबूरी में काम देने वाले, बॉस या प्रभावशाली सहकर्मी की उन हरकतों को भी सह लेती हैं, जिसे मजबूरी न होने पर कतई न सहतीं। कह सकते हैं कि पराश्रित बनाकर रखी गई महिलाएं यौन शोषण को ज़हर के घूंट की तरह पीकर चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती रही है। वस्तुतः समय के साथ ज़ुल्म और अत्याचार सहन करने की प्रवृत्ति उसके डीएनए में घुस गई और उसके भीतर विरोध करने का मैकेनिज़्म ख़त्म हो गया। इसके लिए भी हमारा समाज ही ज़िम्मेदार है। समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि छेड़छाड़ या यौन-उत्पीड़न या फिर इस तरह की किसी बात को सार्वजनिक करने पर पुरुष की नहीं, बल्कि महिला की ही बदनामी समझी जाती है। इसी अवधारणा के तहत बलात्कार या यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं का नाम तक गुप्त रखने की परंपरा है। ऐसे परिवेश में किसी स्त्री के लिए यौन-उत्पीड़न की घटना का सबूत पेश करना कितना दुष्कर है, यह इस समाज के ताने-बाने को समझना वाले ही समझ सकता है।

अगर रोज़ी-रोटी के लिए कोई महिला दूसरा रास्ता अपनाती या समझौते करती है अथवा बॉस या काम देने वाले उस पुरुष की यौनचेष्टा झेलती, जिसे वह दिल से पसंद नहीं करती, तो यह समाज के लिए और भी बड़ा कलंक है। मानव सभ्यता के इतने साल बाद भी हमने ऐसे समाज का सृजन कि किसी महिला को नौकरी या काम उसकी प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि उसके महिला होने, उसकी सूरत, उसकी फिज़िक और उसके कंप्रोमाइज़ करने के आधार पर मिलती है। यह किसी स्वस्थ समाज का लक्षण तो बिल्कुल नहीं है। यहां हैशटैग मीटू के बारे में एक बात समझना बहुत ज़रूरी है। महिलाओं का देर से मुंह खोलना मुद्दा ही नहीं है। इसलिए यह कहने के कोई मतलब नहीं कि यौन शोषण के समय मुंह क्यों नहीं खोला। यहां एकमात्र मुद्दा यह है कि अमुक पुरुष ने किसी महिला की इच्छा के विपरीत उसे हासिल करने की चेष्टा की, यानी उसने क़ानूनन अपराध किया है। कोई भी अपराध समय के साथ कम या ख़त्म नहीं हो जाता। लिहाज़ा, उन पुरुषों का भी अपराध बिल्कुल नहीं हुआ है, जिन पर यौनचेष्टा के आरोप लग रहे हैं।  अब भी समय है कि इन लोगों के ख़िलाफ़ सुओ मोटो के तहत आपराधिक मामला दर्ज़ किया जाए और  उनके अपराध के लिए कानून के मुताबिक उनको सज़ा दी जाए, अन्यथा ये लोग ऐसे यौन अपराध आगे भी करते रहेंगा। इनकी नीयत अगर औरतों के प्रति तब ठीक नहीं थी तो अब भी ठीक नहीं होगी, क्योंकि इंसान की आदत कभी नहीं बदलती है।

कई क़ानूनविद्, जिनमें कई नामचीन महिलाएं भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि मीटू के मामले सबूत मांगने वाली अदालतों में बिल्कुल नहीं ठहरेंगे, इसलिए इन मामलों में सज़ा मिलने की संभावना बहुत ही कम है। अगर सबूत मांगने वाली अदालत सज़ा नहीं दे सकी तो क्या हुआ, जिन-जिन लोगों के यौन अपराधों से परदा हटा है, उनकी हालत आज सज़ायाफ़्ता अपराधी से भी गई गुज़री हो गई है। हर जगह उन्हें संदेह की नज़र से देखा जा रहा है। यानी उनकी जीवन भर की कमाई उनसे छिन गई। इससे बड़ी सज़ा और कुछ हो ही नहीं सकती। इसका अर्थ यह ही कि यह अभियान बिल्कुल बेकार नहीं गया। सही मायने में अपराधी को सज़ा मिल रही है। वह जीवन भर इस ज़िल्लत से नहीं उबर पाएगा।

रविवार, 19 अगस्त 2018

मुंबई के नाथ टेकड़ीवाला बाबुलनाथ मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा 
सावन का महीना शुरू हो गया है। यह मनभावन महीना हिंदुओं के लिए बहुत अहम है। इसे सबसे पवित्र महीना माना जाता है। इस महीने में मुंबई के जिस धार्मिक स्थल में सबसे चहल पहल होती है वह मुंबई का बाबुलनाथ मंदिर है। इसके अलावा यहाँ महाशिवरात्रि और हर सोमवार को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। 

प्राचीनकाल का ये शिव मंदिर मुंबई ही नहीं पूरे भारत में बने सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।  गिरगांव चौपाटी के निकट मालाबार हिल्स की पहाड़ी पर बना यह प्राचीन मंदिर बबुल (बाबुल) के पेड़ के देवता के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह बबूल के पेड़ के देवता के रूप में विराजमान हैं। यहाँ के भगवान शंकर को मुंबई के लिफ्ट वाले शिवबाबा भी कहा जाता है।

हिंदू राजा भीमदेव ने 12 वीं शताब्दी में पवित्र शिवलिंग और मूर्तियों को बाबुलनाथ मंदिर के अंदर स्थापित करवाया था। यह मंदिर लंबे समय तक भूमि के अन्दर समाहित हो गया था। मौजूदा मंदिर को फिर से खोजा गया और जब मूल मूर्तियों को खोदकर बाहर निकाला जा रहा था तो पाँचवीं मूर्ति पानी में डूब कर टूट गई थी। आज मूलतः भगवान शिव, पार्वती, गणेश और हनुमान जी की चार मूर्तियाँ मंदिर में स्थापित हैं। 

वैसे तो मंदिर को लेकर कोई पक्के सुबूत अब तक किसी के हाथ नहीं लगे हैं, मगर कुछ इतिहासकार बताते हैं कि किसी ज़माने में यहाँ घना जंगल और चरागाह हुआ करता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जहाँ पर आज मालाबार पहाड़ी है, आज से लगभग 300 साल पहले तक वहां चरागाह था, जिसमें बबूल के वृक्ष बहुतायत में थे। कहा जाता है कि इस इलाक़े की अधिकांश जमीन धनवान सोनार पांडुरंग की थी। पांडुरंग के पास अनेक गायें थीं, जिनकी देखभाल बाबुल नामक एक चरवाहा करता था, झुंड में कपिला नाम की भी एक गाय थी। वह हरी घास अधिक खाती थी और  अन्य गायों की अपेक्षा अधिक दूध देती थी। एक शाम कपिला ने दूध का एक भी बूँद नहीं दिया। पांडुरंग के पूछने पर बाबुल ने कहा कि कपिला दूध एक भगवान को पिला देती है। जहाँ गाय दूध गिराती थी, उसे खोदने पर एक स्वयंभू शिवलिंग निकला अर्थात काले पत्थर से निर्मित एक आत्म-अस्तित्व वाली शिवलिंग प्राप्त हुई। वही स्थान अब बाबुलनाथ मंदिर है।

मंदिर की वास्तुकला और अद्भभुत आन्तरिक संरचना को देखकर, ऐसा लगता है जैसे कैलाश पर्वत पर स्थित मंदिर वहीं पर मौजूद है। मंदिर की संपूर्ण छत और खंभे हिंदू पौराणिक कथाओं के सुंदर चित्रों से सुशोभित हैं। मंदिर का निर्माण सन् 1780 ई में हुआ था। अब तो मंदिर तक जाने के लिए लिफ़्ट यानी एस्केलेटर बना दिया गया है, जिससे भक्त आसानी से यहाँ पहुँच जाते हैं।

यदि आप एक व्यस्त शहरी जीवन जी रहे हैं तो धार्मिक स्थानों पर भ्रमण करने से आपके मन को शांति मिल सकती है। सदियों से यहां विराजमान बबूल देवता रोजाना सैकड़ों भक्तों को आशीर्वाद देकर उनकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। रोजाना सैकड़ों की संख्या में भक्तों की भीड़ ऊंचाई पर स्थापित महादेव जी के इस अद्वितीय रूप के दर्शन करने को आती है।

स्वयंभू शिवलिंग - जंगलेश्वर महादेव मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा
वैसे तो सावन में हर शिवमंदिर में शिव भक्त आते हैं, लेकिन जंगलेश्वर महादेव मंदिर में बम-बम भोले बोलने वालों की भारी भीड़ उमड़ती है। इसीलिए बारिश के इस महीने में जंगलेश्वर मंदिर गुलजार रहता है। सोमवार के दिन तो भक्तों का रेला ही नहीं थमता है। घटकोपर पश्चिम में बना मंदिर करीब दो सौ साल पुराना है। बेहद सुकून देने वाला यह मंदिर भक्तों को संपूर्ण आनंद देता है। विशाल गुंबद और अर्धचंद्राकार स्तंभों वाले इस प्राचीन शिवमंदिर में विशालाकार स्वयंभू शिवलिंग दूर से ही नजर आता है। इस मंदिर के गर्भगृह में लिंग रूप में स्वयंभू रूप में प्रकटे महादेव, देवी पार्वती, गणेश, माता गंगा और माता लक्ष्मी विराजमान हैं। 1994 में समाजसेवक बाल सुर्वे ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। जीर्णोद्धार के बाद इसका पूरा स्वरूप ही बदल गया है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, सदियों पहले खैरानी रोड जंगल और पहाड़ से घिरा था। यहां की बंजर भूमि में सर्पों का बसेरा था। माना जाता है कि जब भी कहीं कोई संकट आता है, वहां सर्प दिखाई देने लगते हैं। यह भी कहा जाता है कि सांपों के कारण यहां कोई भी जीवित नहीं बच पाता था। कालांत में संयोग से यहां साधु-संत आने लगे। साधुओं ने उबड़-खाबड़ जमीन समतल करके छोटा-सा मंदिर बनाया और उसमें शिवलिंग स्थापित कर दिया। बाद में इस पूरे इलाके में सर्प दिखाई देने बंद हो गए और इलाका मानवों से आबाद होने लगा। धीरे-धीरे यह मंदिर साधुओं के बीच बहुत लोकप्रिय हो गया। कहते हैं, एक दिन एक सांप मंदिर परिसर में आया और शिव की मूर्ति के बगल में बैठ गया। साधुओं ने उसे दूध पिलाया। उस दिन से वह सांप नियमित रूप से शिवलिंग के बगल में बैठने लगा। बाद में यह मंदिर सांप का स्थाई निवास बन गया, यह सिलसिला लंबे समय तक चला। बहरहाल, जैसे जैसे समय बीतने लगा और यहां की जनसंख्या बढ़ने लगी, उसके साथ ही सांप मंदिर परिसर से गायब होते गए।

एक दूसरी पौराणिक कथा के मुताबिक दौ सौ साल पहले यह बीहड़ इलाका घने जंगल से घिरा था। एक दिन जंगल साफ़ करते समय, जंगली महाराज उर्फ जंगली बाबा नाम के साधु को महादेव का दुर्लभ शिवलिंग मिला। साधु ने उसे मंदिर में स्थापित किया। चूंकि शिवलिंग धरती से निकला था, इसलिए जंगलेश्वर मंदिर में शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग माना जाता है। जंगली महाराज के नाम पर इस मंदिर का नाम जंगलेश्वर महादेव मंदिर पड़ा। 

यह मंदिर करीब दो एकड़ भूखंड में फैला है। यहां स्थानीय इलाकों के लोग ही नहीं राज्यों के दूसरे हिस्से के लोग भी भगवान शिव की प्रार्थना करने आते हैं। कहा जाता है कि जो भी पूजा करता है उसकी तपस्या पूरी हो जाती है।

बाबुलनाथ के बाद यह प्राचीनतम मंदिर है। मंदिर में सोमवार को जुटने वाले हजारों भक्तों में ज्यादातर उत्तर भारतीय और गुजराती होते हैं। महाशिवरात्रि को भी भारी भीड़ उमड़ती है। इस मंदिर में सिर्फ शांति का वास है।
संभाजी लाड, 
सदस्य, 
जंगलेश्वर महादेव मंदिर भक्त मंडल

बहुत पुराना होने के कारण यह मंदिर जीर्ण अवस्था में था। जीर्णोद्धार के बाद इसकी भव्यता बढ़ गई। भगवान शिव की महिमा अपरंपार है, उनके पास सोने का दिल है। भोलेनाथ सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।  
-दीवाकर महाराज, 
पुजारी,
जंगलेश्लर महादेव मंदिर

शनिवार, 11 अगस्त 2018

सावन का आकर्षण - तुंगारेश्वर महादेव मंदिर

हरिगोविंद विश्वकर्मा

अगर आप शिवभक्त हैं और प्रकृति से प्रेम करते हैं, लेकिन व्यस्तता या किसी दूसरे कारण से सावन महीने में वसई के तुंगारेश्वर महादेव मंदिर नहीं जा पाए हैं तो यकीन मानिए आप बेहद सुकून देने वाले आनंद से वंचित हैं। वैसे तो सावन में महादेव के हर मंदिर में भक्त आते हैं, लेकिन शिव को अत्यंत प्रिय इस महीने में सातिवली पहाड़ियों पर स्थित तुंगारेश्वर मंदिर में भक्तों का भारी हुजूम उमड़ता है। यह स्थान इतना मनोरम और हरियाली भरा है कि यहां से वापस लौटने का मन ही नहीं करता। यह मान्यता है कि तुंगारेश्वर महादेव की परिवार के साथ पूजा करने से पारिवारिक सुख शांति मिलती है और यश व शोहरत में वृद्धि होती है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान महादेव शंकर भोलेनाथ को सावन महीना बहुत प्रिय है। इसीलिए सावन में शिव का दर्शन-पूजन और अभिषेक भक्तों के लिए एक अनुष्ठान की तरह होता है। दरअसल, पूरे सावन मास में शैव संप्रदाय के अनुयायी बाबा भोलेनाथ के बारह ज्योतिर्लिंगों में से किसी एक जगह सामर्थ्य के अनुसार जलाभिषेक करते हैं। जो भक्त ज्योतिर्लिंग नहीं जा पाते हैं, वे किसी प्राचीन शिव मंदिर में श्रावणी पूजा करते हैं। इसीलिए तुंगारेश्वर महादेव मंदिर समेत तमाम प्राचीन मंदिरों में सावन में भीड़ होती है।

समुद्र तल से 2177 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस जगह, तुंगारेश्वर मंदिर के अलावा काल भैरव मंदिर, जगमाता मंदिर और बालयोगी सदानंद महाराज मठ भी है। यहां महाशिवरात्रि पर जनसैलाब उमड़ता है। मौजूदा तुंगारेश्वर मंदिर तीन सदी से भी अधिक पुराना है। वैसे इसका जिक्र पुराण में भी मिलता है। इसे वास्तु का ध्यान रखकर बनाया गया है, इससे यहां आने वालों को धनात्मक ऊर्जा बहुत ज्यादा मिलती है। शिवलिंग के करीब एक खास जगह ध्यान लगाने से सकारात्मक ऊर्जा अधिकतम स्तर तक पहुंच जाती है। यह देश के सबसे सुकून देने वाले मंदिरों में से है, क्योंकि यह मनोरम स्थल पर बना है।

यह मान्यता है कि यहां तुंगा नाम का राक्षस रहता था, जो ऋषि-मुनियों को बहुत प्रताड़ित करता था। तुंगा को परशुराम ने पराजित करके सबकी उससे रक्षा की। परशुराम ने देवी निर्मला को भी तुंगा के चंगुल से बचाया। उन्होंने उसे बंधक बना कर यहीं रखा। यहां तुंगा भगवान शिव की आराधना करने लगा। उसकी तपस्या से भगवान शिव प्रस्न्न हुए और शिव के कहने पर परशुराम ने तुंगा को मुक्त कर दिया। तुंगा से पूजित यहां के शिव कालांतर में तुंगारेश्वर के नाम से मशहूर हुए। परशुराम ने आदि शंकराचार्य के साथ शुपारक में ध्यान किया था, वही गांव बाद में शुपारक और आजकल सोपारा (नालासोपारा) कहलाता है।

तुंगारेश्वर का इलाका वसई का प्रमुख पर्यटन स्थल भी है। यहां दूर से श्रद्धालु आते हैं। तुंगारेश्वर नदी की खूबसूरती का कोई पारावार नहीं। यही नहीं ये जगह कई छोटे-बड़े जलप्रपातों (वॉटर फॉल्स) के लिए जानी जाती है। यहां चिंचोटी वॉटर फॉल भी है। यहाँ दो झरने हैं, एक 
से ठंडा और दूसरे से गर्म पानी निकलता है। यह मानसून के दौरान घूमने के लिए सबसे आदर्श स्थल है। तुंगारेश्वर वन्यजीव अभयारण्य बनाकर तुंगारेश्वर पहाड़ियों को वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। यहां आना शानदार अनुभव होता है।

मंदिर का अस्तित्व त्रेतायुग से है। मंदिर देश के पवित्रतम स्थल में गिना जाता है। आज बालयोगी श्री सदानंद महाराज के हाथों महाभिषेक और महाआरती होगी।   
पुरुषोत्तम पाटिल
अध्यक्ष - श्री तुंगारेश्वर देवस्थान विश्स्त मंडल

तुंगारेश्वर अभयारण्य यहां की ऑक्सीजन की जरूरत पूरा करता है। इसे और भी हरा भरा बनाने के लिए नए वृक्ष लगाया जाना जरूरी है।
राजीव पाटिल, पूर्व मेयर वसई-विरार