Powered By Blogger

सोमवार, 29 जनवरी 2018

गांधी पुण्यतिथि पर विशेष : क्या कांग्रेसी ही चाहते थे,कोई गांधीजी को मार दे!?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या वाक़ई देश के बंटवारे के बाद लोग राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी, जिन्हें पूरी दुनिया सम्मान के साथ महात्मा गांधी कहती है, से नफ़रत करने लगे थे और हर कोई चाहता था कि गांधीजी या तो मर जाएं, या फिर उन्हें कोई मार दे? उपलब्ध दस्तावेज़ बताते हैं कि कई कांग्रेस नेता ख़ुद चाहते थे कि कोई गांधीजी की हत्या कर दे, तो अच्छा हो और इसी मन:स्थिति के चलते गांधीजी की सुरक्षा पुख़्ता नहीं की गई और उनकी हत्या कर दी गई। अन्यथा अगर केंद्र और बॉम्बे सरकार और सुरक्षा तंत्र चौकस रहा होता तो शर्तिया गांधीजी की हत्या टाली जा सकती थी।

दरअसल, दस्तावेज़ बताते हैं कि आज़ादी मिलने के बाद अगस्त 1947 से जनवरी 1948 के बीच गांधीजी बहुत अलोकप्रिय हो गए थे। उनके ब्रम्हचर्य के प्रयोग से पं. जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल समेत सभी लोग उनको कोस रहे थे। ख़ासकर पाकिस्तान ने जब कश्मीर पर आक्रमण करवाया तो सरदार पटेल ने 12 जनवरी 1948 की सुबह इस्लामाबाद को क़रार के तहत दी जाने वाली 55 करोड़ रुपए की राशि को रोकने का फ़रमान जारी कर दिया। गांधीजी ने उसी दिन शाम को इस फ़ैसले के विरोध में आमरण अनशन शुरू करने की घोषणा कर दी। गांधीजी के दबाव के चलते दो दिन बाद भारत ने पाक को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। इससे पूरा देश गांधीजी से नाराज़ हो गया था।
इसके अलावा विभाजन की त्रासदी झेलने वाला सिंधी और पंजाबी समुदाय का हर व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर कहता था कि वह गांधीजी को गोली मार देगा। लोगों में आक्रोश उनकी मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण पनपा था। ज़ाहिर है गांधीजी की अहिंसा अव्यवहारिक थी, क्योंकि उनकी अहिंसा के चलते अखंड भारत के 30 लाख नागरिक मारे गए और कई लाख लोगों का जमाया हुआ कारोबार नष्ट हो गया जिससे करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए थे।

ज़्यादातर लोग मानते थे कि गांधीजी की तुष्टीकरण नीति के चलते ही भारत का दो देश में विभाजन हो गया। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना भी गांधीजी की तुष्टीकरण नीति की मुख़ालफ़त करते थे। लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि जिन्ना हैरान थे कि मुसलमानों की हर छोटी बड़ी समस्या में गांधीजी क्यों इतनी ज़्यादा दिलचस्पी लेते हैं। दरअसल, गांधीजी ने जब ख़िलाफ़त आंदोलन (1919-1922) शुरू किया तो जिन्ना अचरज में पड़ गए, क्योंकि उसका संबंध भारतीय मुसलमानों से था ही नहीं। वह तुर्की का मामला था। जैसे आजकल रोहिंग्या मुसलमानों के लिए लोग आंसू बहाते हैं, वैसे ही अली बंधुओं समेत कई मुसलमान उस आंदोलन को हवा दे रहे थे। जबकि उस समय मुसलमानों की और भी समस्याएं थी, जो ख़िलाफ़त आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण थीं और जिन्हें तत्काल हल करने की ज़रूरत थी। लेकिन गांधीजी हमेशा अपनी बात को ही सच मानते थे। सच पूछो तो गांधीजी आला दर्जे के ज़िद्दी इंसान थे और अपने आगे किसी की भी नहीं सुनते थे। बहरहाल, सन् 1946-48 के आसपास लोग मानने लगे थे कि अगर गांधीजी अनावश्यक ज़िद न करते तो बात इतनी न बिगड़ती और मुल्क के विभाजन की नौबत न आती। गांधीजी के मुस्लिम प्रेम से लोग उसी तरह चिढ़ते थे, जिस तरह धर्मनिरपेक्षता का राग आलापने वालों से आजकल लोग चिढ़ते हैं।


बहरहाल, गांधीजी के आमरण अनशन की ख़बर एजेंसी के ज़रिए 12 जनवरी की शाम पुणे से प्रकाशित अख़बार हिंदूराष्ट्रके दफ्तर में पहुंची। नारायण आप्टे उर्फ नाना अख़बार का प्रकाशक और नाथूराम गोडसे संपादक थे। संभवतः उसी समय नाथूराम ने गांधीजी की हत्या करने का निश्चय कर लिया। क्योंकि अगले दो दिन उसने 3-3 हज़ार रुपए की दो बीमा पालिसींज का नॉमिनी उसने दोस्त नारायण आप्टे उर्फ नाना, जिसे गांधीजी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में फांसी दे दी गई, की पत्नी चंपूताई आप्टे और छोटे भाई गोपाल गोडसे की पत्नी सिंधुताई को बना दिया। यही बात नाना आप्टे और गोपाल के ख़िलाफ़ गई और दोनों फंस गए।
गांधीजी से लोग इस कदर चिढ़े हुए कि यह पता चलने के बाद भी कि उनकी हत्या होने वाली है, उनकी सुरक्षा चाक-चौबंद नहीं की गई और इसका नतीजा यह हुआ कि जिस जगह उनकी हत्या की कोशिश की गई थी, उसी जगह दस दिन बाद हत्या कर दी गई। दरअसल, देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होने वाला मदनलाल पाहवा, जिसे गांधी हत्याकांड में आजीवन कारावास हुई थी, गांधीजी के ख़ून का प्यासा था। उसने 20 जनवरी 1948 को बिड़ला हाउस परिसर में गांधीजी के सभा स्थल के पास बम फोड़ा और घटनास्थल पर ही पकड़ा गया। दुर्भाग्य से उसी बिड़ला हाउस में 30 जनवरी शाम गांधीजी के सीने में तीन गोलियां उतार कर नाथूराम ने उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी।



गांधी हत्याकांड की सुनवाई लालकिले में बनाई गई एक विशेष अदालत में हुई। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से एमए और बंबई यूनिवर्सिटी से पीएचडी माटुंगा के रामनारायण रूइया कॉलेज में हिंदी भाषा पढ़ाने वाले डॉ. जगदीश जैन गांधी हत्याकांड के मुक़दमे में गवाह थे। उनकी गवाही 45 अगस्त 1948 को हुई। जैन के अदालत को बताया, "मदनलाल पाहवा, जिसे बाद में हत्याकांड के षड़यंत्र में शामिल पाया गया और आजीवन कारावास की सज़ा हुई, 7 जनवरी 1948 को मेरे घर आया और बताया कि कुछ लोगों के साथ मिलकर वह गांधीजी की हत्या करने वाला है। मैंने उसकी बात को ज़्यादा अहमियत नहीं दी, क्योंकि उस समय हर सिंधी-पंजाबी गांधी-हत्या की बात करता था। लेकिन तीन दिन बाद जब मदन फिर मुझसे मिला और बताया कि उसे गांधीजी की सभा में विस्फोट करने का काम सौंपा गया है, ताकि उनकी हत्या की जा सके। यह सुनकर मैं परेशान हो उठा।"
जैन ने कोर्ट को आगे बताया, "15 जनवरी को मदन दिल्ली चला गया। 17 जनवरी को जेवियर कॉलेज में जयप्रकाश नारायण का भाषण हुआ। मैं उनसे मिलकर साज़िश के बारे में बताने की चेष्टा की, लेकिन उनके आसपास बहुत भीड़ होने से पूरी बात नहीं बता पाया, पर दिल्ली में गांधीजी की हत्या की साज़िश की संभावना से उन्हें अवगत करा दिया। जब 21 जनवरी की सुबह अख़बारों में बिड़ला भवन में बम विस्फोट और मदनलाल की गिरफ़्तारी की ख़बर पढ़ी तो मेरे पांव तले ज़मीन खिसक गई। मैंने टेलीफोन पर सरादर पटेल को बताना चाहा, पर असफल रहा। कांग्रेस नेता एसके पाटिल से मिलने की कोशिश की, पर उनसे भी नहीं मिल सका। 22 जनवरी को शाम 4 बजे मुख्यमंत्री बीजी खेर से सचिवालय में मिला। तब गृहमंत्री मोरारजी देसाई भी मौजूद थे। मैंने मदनलाल की सारी बातें दोनों को बता दी।"


बहारहाल, गांधी हत्याकांड में मोरारजी की गवाही 23, 2425 अगस्त 1048 को हुई। जैन के वक्तव्य की पुष्टि करते हुए उन्होंने कहा, "22 जनवरी 1948 को ही अहमदाबाद जाने से पहले मैंने डिप्टी पुलिस कमिश्नर जमशेद दोराब नागरवाला को रात 8 बजे बॉम्बे सेंट्रल रेलवे स्टेशन बुलाया और विष्णु करकरे को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया। यह सूचना मैंने मुंबई के तत्कालीन (पहले भारतीय) पुलिस कमिश्नर जेएस भरुचा को भी दे दी थी। दूसरे दिन 23 जनवरी को सुबह सरदार पटेल से मिला और उन्हें भी सारी जानकारी दे दी और बता दिया कि करकरे को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया गया है।"

कहने का मतलब गांधीजी की हत्या की साज़िश रची गई है यह जानकारी सरदार पटेल, जय प्रकाश नारायण, बीजी खेर और मोरारजी देसाई जैसे नेताओं के अलावा जांच करने वाले जेडी नागरवाला और दिल्ली पुलिस कमिश्नर डीडब्ल्यू मेहरा और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट जसवंत सिंह को भी थी। इसके बावजूद बिड़ला हाऊस की सुरक्षा शिथिल रही। इसीलिए जज आत्माराम ने अपने फ़ैसले में लिखा, "20 से 30 जनवरी 1948 तक पुलिस की जांच पड़ताल में शिथिलता को मुझे सरकार के संज्ञान में लानी है। 20 जनवरी को मदन की गिरफ्तारी के बाद उसका ब्यौरा पुलिस ने प्राप्त कर लिया था और जैन से गृहमंत्री मोरारजी देसाई और पुलिस को सूचना मिल चुकी थी। खेद की बात है कि अगर बंबई और दिल्ली की पुलिस ने तत्परता दिखाई होती और जांच पड़ताल में शिथिलता नहीं बरती होती तो कदाचित गांधी -हत्या की दुखद घटना टाली जा सकती थी।"


बहरहाल, नाथूराम ने एक बार जेल में ही गांधी-हत्या का ज़िक्र करते हुए गोपाल गोडसे को बताया था, “मैंने छह गोलियों से लोड अपने रिवॉल्वर को लेकर बिड़ला हाउस में शाम 4.55 बजे प्रवेश किया। रक्षकों ने मेरी तलाशी नहीं ली। 5.10 बजे गांधीजी मनु गांधी और आभा गांधी के कंधे पर हाथ रखे बाहर निकले। जैसे ही मेरे सामने आए सबसे पहले मैंने शानदार देश-सेवा के लिए उनका नमस्तेकहकर उनका अभिवादन किया और देश का नुकसान करने के लिए उन्हें ख़त्म करने के उद्देश्य से दोनों कन्याओं को उनसे दूर किया और फिर 5.17 बजे 3 गोलियां गांधीजी के सीने में उतार दी।

नाथूराम ने आगे बताया, “दरअसल, मेरी गोली जैसे ही चली, गांधीजी के साथ चल रहे 10-12 लोग दूर भाग गए। मुझे लगा था कि जैसे ही मैं गांधीजी को मारूंगा, मेरी हत्या कर दी जाएगी, लेकिन सब लोग आतंकित होकर भाग गए। मैंने गांधीजी की हत्या करने के बाद रिवॉल्वर समेत हाथ ऊपर उठा लिया। मैं चाहते था, कोई मुझे गिरफ़्तार कर ले। लेकिन कोई पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मैं पुलिस-पुलिस चिल्लाया। फिर मैंने एक सिपाही को आंखों से संकेत किया कि मेरी रिवॉल्वर ले लो। उसे विश्वास हो गया कि मैं उसे नहीं मारूंगा और वह हिम्मत जुटाकर मेरे पास आया और मेरा हाथ पकड़ लिया। इसके बाद लोग मुझ पर टूट पड़े और मुझे मारने लगे।बहारहाल, डीएसपी जसवंत सिंह के आदेश पर दसवंत सिंह और कुछ पुलिस वाले नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे बापू की हत्या की एफ़आईआर लिखी गई। इसे लिखा था थाने के दीवान-मुंशी दीवान डालू राम ने।

बहरहाल, जब शाम 5:45 बजे आकाशवाणी ने गांधी के निधन की सूचना दी और कहा कि नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने उनकी हत्या की तो सारा देश हैरान रह गया कि मराठी युवक ने यह काम क्यों किया, क्योंकि लोगों को आसंका थी कि कोई पंजाबी या सिंधी व्यक्ति गांधीजी की हत्या कर सकता है। बहरहाल, गांधीजी हत्या में नाथूराम के अलावा नारायाण आप्टे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, विनायक सावरकर, शंकर किस्तैया और दिगंबर बड़गे गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में और दिगंबर बड़गे वादा माफ़ सरकारी गवाह बन गए। उनकी गवाही को आधार बनाकर नाथूराम और नाना की फ़ांसी दी गई।

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

भारतीय गणतंत्र का इतिहास


Addressing a gathering on 69th Republic Day at Mira Road
भारतीय गणतंत्र का इतिहास
दरअसल,कहा जा रहा है कि इस साल 69 वां गणतंत्र दिवस है। जबकि भारत का गणतंत्र समारोह 1930 से मनाया जा रहा है।
दरअसल, सन् 1929 के दिसंबर में लाहौर (अब पाकिस्तान में) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पं जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को स्वायत्त उपनिवेश (डोमीनियन) का पद नहीं प्रदान करेगी, जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित एकाई बन जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा।

26 जनवरी 1930 आकर गुज़र गया। अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत पूर्ण स्वतंत्रता के संकल्प की घोषणा कर दी और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ कर दिया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। बहहाल, स्वतंत्रता मिलने के बाद 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा की घोषणा हुई। 9 दिसंबर 1947 को संविधान सबा का गठन किया गया, जो 2 साल 11 महीने 18 दिन में पूरा हो गया।

संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि समेत इस सभा में कुल 308 सदस्य थे। संविधान निर्माण में कुल 22 समितियां थी जिसमें प्रारूप समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण संविधान लिखनाया निर्माण करनाथा। प्रारूप समिति के अध्यक्ष विधिवेत्ता डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। प्रारूप समिति ने और उसमें विशेष रूप से डॉ. आंबेडकर जी ने भारतीय संविधान का निर्माण किया और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद को 26 नवंबर 1949 को भारत संविधान सुपूर्द किया।  इसलिए 26 नवंबर दिवस को भारत में संविधान दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है।

संविधान सभा ने संविधान निर्माण के समय कुल 114 दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के कुल 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किए। इसके दो दिन बाद संविधान 26 जनवरी को यह देश भर में लागू हो गया। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई।

भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधान इन देशों से लिए गए हैं....
ब्रिटेन: संसदीय प्रणाली, विधि निर्माण, एकल नागरिकता
अमेरीका: न्यायिक, स्वतंत्रता का अधिकार और मौलिक अधिकार
जर्मनी: आपातकाल का सिद्धांत
फ्रांस: गणत्रंतात्मक शासन व्यवस्था
कनाडा: राज्यों में शक्ति का विभाजन
आयरलैंड: नीति निदेशक तत्व
ऑस्ट्रेलिया: समवर्ती सूची
दक्षिणअफ्रीका: संविधान संशोधन की प्रक्रिया
रूस: मूल कर्तव्य


रविवार, 21 जनवरी 2018

इजराइल से क्यों नफ़रत करते हैं मुस्लिम ?

इज़राइल से क्यों नफ़रत करते हैं मुस्लिम ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अकसर देखा जाता है कि इज़राइल का नाम आते ही मुस्लिम समाज के लोग आक्रामक हो जाते हैं। इज़राइल और वहां के नेताओं का विरोध उनका एकमात्र एजेंडा रहता है। अब देखिएइज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू पत्नी सारा समेत भारत की ऐतिहासिक यात्रा पर आए। मुंबई में नेतान्याहू ने फिल्मी सितारों के शलोम बॉलीवुड शो में हिस्सा भी लियाजिसमें अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार दिखे लेकिन बॉलीवुड सितारे आमिर ख़ानसलमान ख़ानशाहरुख ख़ान और सैफअली ख़ान नदारद रहे। मेहमान नेता ने सुभाष घईअभिषेकऐश्वर्याकरन जौहरविवेक ओबेरायप्रसून जोशी आदि के साथ सेल्फी ली। ज़हिर हैसेक्यूलरिज़्म का राग आलापने वाले ख़ान्स में कहीं न कहीं वही मुस्लिम मानसिकता हैजिसके तहत यह समाज इज़राइलनरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ का विरोध करता है। इसी तरह का विरोध वे बालासाहेब ठाकरे का भी करते थे। इज़राइली मेहमान का सबने स्वागत कियालेकिन मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया।


असुरक्षा ने इज़राइल को बनाया आक्रामक
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 29 नवंबर 1949 को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने फ़लीस्‍तीन के विभाजन को मान्यता दीऔर एक अरब और 20,770 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में एक यहूदी देश बना। इस क़रार को यहूदियों ने तुरंत मान लियालेकिन अरब समुदाय ने विरोध किया। 14 मई 1948 को यहूदी समुदाय ने इज़राइल को राष्ट्र घोषित कर दिया। उसी समय सीरियालीबियासउदी अरबमिस्रयमन और इराक ने इज़राइल पर हमला कर दिया। 1949 में युद्धविराम की घोषणा हुई। जोर्डन और इज़राइल के बीच 'ग्रीन लाइननाम की सीमा रेखा बनी। 11 मई 1949 को राष्ट्रसंघ ने इजराइल को मान्यता दे दी। तभी से इज़राइल बहादुरी से मुस्लिम देशों का मुक़ाबला कर रहा है। उसने अरब देशों के नाको चने चबवा दिए। 5 जून 1967 को इज़राइल ने अकेले मिस्रजोर्डनसीरिया और इराक के ख़िलाफ़ युद्ध घोषित कर दिया और महज छह दिनों में ही उन्हें पराजित करके क्षेत्र में अपनी सैनिक प्रभुसत्ता कायम कर ली। तभी से अरब - इज़राइल युद्ध चल रहा है और मुसलमान लोग इज़राइल से नफ़रत करते हैं।

दुनिया का सबसे अल्पसंख्यक समुदाय
यह सच है कि यहूदी दुनिया का सबसे अल्पसंख्यक समुदाय है। विश्व में इनकी आबादी डेढ करोड़ भी नहीं है। 14 मई 1948 से पहले इनका कोई देश भी नहीं थाजबकि ये लोग दुनिया भर में फैले हुए थे। यहूदियों से मुसलमान ही नहींईसाई भी नफ़रत करते थे। शेक्सपीयर के नाटकों में तो अमूमन यहूदी ही विलेन होते हैं। इससे पता चलता है कि यहूदियों के साथ कितना अन्याय किया गया। इस बहादुर कौम से भारत का रिश्ता महाभारत काल से है। यहूदी धर्म क़रीब 3000 वर्ष ईसा पूर्व अस्तित्व में आया। यहूदियों का राजा सोलोमन का व्‍यापारी जहाज कारोबार करने यहां आया। आतिथ्य प्रिय हिंदू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्‍बन को उपाधि प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के बाद कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे। कहने का मतलब भारत में यूहदियों के आने और बसने का इतिहास बहुत पुराना है। वह भी तब से हैजब ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म भी नहीं हुआ था।

ढाई हजार साल पुराना संबंध
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इज़राइल यात्रा और बेंजामिन नेतान्याहू की भारत यात्रा से यहूदियों के बारे में आम भारतीयों की जिज्ञासा बढ़ गईक्योंकि भारत से इज़राइल का ढाई हजार साल पुराना संबंध होने के बावजूद यहां लोग यहूदियों के बारे बहुत कम जानते हैं। भारत में यहूदी 2985 साल पहले से हैं। 973 ईसा पूर्व यहूदी केरल के मालाबार तट पर सबसे पहले आए। दुनिया में जब इन पर अन्याय हो रहा थातब भारत ने इन्हें आश्रय एवं सम्मान दिया। क़रीब ढाई हज़ार साल पहले ये कारोबारी और शरणा‌र्थियों के रूप में समुद्र के रास्ते भारत आए। भारत में यहूदी हिब्रू और भारतीय भाषाएं बोलते हैं।

महाराष्ट्र में 2200 साल पुराना इतिहास
महाराष्ट्र में यहूदियों की मौजूदगी क़रीब 2200 साल से है। सर्वप्रथम यहूदी जहाज रास्ता भटक कर अलीबाग के नवगांव पहुंच गया। जहाज में सवार एक दर्जन से ज़्यादा लोगों ने वहीं आश्रय ले लिया। इसीलिए नवगांव यहूदियों का प्रथम स्थान बन गया। यह भूमि यहूदियों के लिए पवित्र समझी जाती है। इसे 'जेरूसेलम गेटकहते हैं। यहां पर यहूदी पूरी तरह मराठी संस्कृति में घुल मिल गए हैं। इतिहासकार दीपक राव बताते हैं कि अधिकतर भारतीय यहूदी रायगड़ में रहा करते थे और वहीं से देश के दूसरे हिस्सों में गए। बेन इज़राइलियों ने मराठी से नाता जोड़ लिया है और वे यहूदी नववर्ष पर पारंपरिक मिठाई पूरनपोली भी बनाते हैं। रायगड़ के अलावा मुंबई और ठाणे में बड़ी संख्या में यहूदी रहते हैं। ठाणे में उनका 137साल पुराना सिनेगॉग 'गेट ऑफ हेवनहै।

मुंबईठाणेअलीबाग में सिनेगॉग
अलीबाग में यहूदियों की एक बस्ती हैजहां 15-16 यहूदी परिवार रहते हैं। इसके अलावानवगांवरोहापेणथलमुरु और पोयनाड में भी यहूदी बसे हैं। इस क्षेत्र में लगभग 70 यहूदी परिवार हैं। अलीबाग शहर के बीचोंबीच 'इस्राइल आलीनाम की एक गली भी है। उनका पवित्र स्थान इंडियन ज्वेयिशहेरिटेज सेंटर यानी मागेन अबोथ सिनेगॉग है। इसका निर्माण 1848 में किया गया। अगर किसी यहूदी परिवार में शादी होती है तो दुल्हा-दुल्हन यहां ज़रूर आते हैं। मकर संक्रांति के दिन यहूदी जेरूसेलम गेट पहुंचे और पवित्र स्थल को नमन किया। मुंबई में क़रीब 4 हजार यहूदी हैं। क़रीब 1800 ठाणे में बस गए हैं। 1796 में सैमुअल स्ट्रीट पर बना 'गेट ऑफ मर्सीमुंबई का सबसे पुराना सिनेगॉग है। बच्चों का नामकरण संस्कार लंबे समय से यहां होता आया है। मस्जिद स्टेशन का नाम भी यहूदी शब्द 'माशेदसे बना है जिसका प्रयोग यहूदी के लोग सिनेगॉग के लिए करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में'गेट ऑफ मर्सीगैरपारंपरिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हुआ है। यहां रोश हशना और योम किपुर जैसे यहूदी त्योहार मनाए जाते हैं। पारंपरिक वेशभूषा किप्पा पहने लोग प्रार्थना वाली शॉल ओढ़े रहते हैं और धार्मिक किताबों का पाठ करते हैं। पूजा के आख़िर में पवित्र यहूदी किताब साफेर तोरा से कुछ हिस्सों का भी पाठ होता है।

भारत में कितने यहूदी समुदाय?
भारत में यहूदियों के तीन बड़े संप्रदाय हैं। पहला संप्रदाय बेन इज़राइल है जो महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है। जब रोमन ने उनका जीना हराम कर दियातब ये लोग महाराष्ट्र में आकर बस गए। पत्रकार सिफ्रा सैमुअल लेंटिन ने भारतीय यहूदियों पर लिखी किताब 'इंडियाज़ जूइशहेरिटेज में बेन इज़राइल संप्रदाय के 1749 में भारत आने की बात कही है। दूसरा संप्रदाय बग़दादी यहूदियों का है। इनको मिज़राही यहूदी भी कहते हैं। ये क़रीब 280 साल पहले कोलकाता और मुंबई में बस गए। यह शिक्षित और मेहनतकश तबका जल्द ही धनवान हो गया। ये हिंदीमराठी और बांग्ला भाषाएं बोलते हैं। तीसरा संप्रदाय चेन्नई के यहूदियों का है। पुर्तगाली मूल वाले मद्रास के परदेसी यहूदी 17वीं सदी में भारत आए। यहां हीरेकीमती पत्‍थरों और मूंगों का कारोबार करते थे। यूरोप से भी इनके अच्छे संबंध रहे। भारत में एक और संप्रदाय हैजो लोस्ट ट्राइब्स का वंशज है। ब्नेई मेनाश लोग मणिपुर और मिज़ोरम में बसे हैं। उन्होंने यहां का सांस्कृतिक और रीति-रिवाज़ अपना लिया है।

अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा
महाराष्ट्र सरकार ने यहूदियों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया है। हालांकि इससे इनकी शिक्षा या रोज़गार के लिए शायद ही कोई लाभ होक्योंकि इन मामलों में कभी भी यहूदियों को किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। हांइतना ज़रूर है कि अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से कई नौकरशाही अड़चनें कम हो  जाएंगी। इसका फायदा यह होगा कि जनगणना के समय या बच्चों के जन्म या विवाह पंजीकरण के समय अब कोई कर्मचारी उन्हें 'अन्यकी श्रेणी में नहीं डाल सकेगा।

मुंबई के निर्माण में बड़ा योगदान
यहूदियों को शांतउद्यमी और समाज से जुड़े व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। तेल के धंधे और खेती के बाद यहूदियों ने कारोबार का रुख किया और धीरे-धीरे सेनासरकारी सेवातकनीक और कला के क्षेत्र में भी लोहा मनवाने लगे। ब्रिटिश काल के दस्तावेजों में इन की गिनती यूरोप-निवासी के रूप में की जाती थी। उन्हें प्रशासनिक ढांचे में ऊपरी ओहदा मिलता था। उन्नीसवीं शताब्दी में कारोबारी डेविड सासून और उनके परिजनों ने मुंबई को बेहतर बनाने में अहम योगदान दिया था। सासून खानदान ने भायखला के जीजामाता उद्यान में घंटाघर बनवाने के अलावा काला घोड़ा इलाके में सासून लाइब्रेरी और कोलाबा में सासून बंदरगाह भी बनवाया।

फिल्म जगत में भी दस्तक
यहूदी समुदाय की फिल्म जगत में भी अच्छी-खासी मौजूदगी रही है। मूक फिल्मों के दौर की अदाकारा हेनोक आइसैक साटमकर ने 'श्री 420और 'पाकीजाजैसी फिल्मों में भी यादगार भूमिकाएं की। दरअसल लोग उन्हें नादिरा के नाम से ज़्यादा जानते हैं। 'बूट पालिश' (1954) और 'गोलमाल'(1979) जैसी फिल्मों में यादगार अभिनय करने वाले डेविड अब्राहम चेउलकर भी इसी समुदाय से हैं। मशहूर नृत्यांगना और सेंसर बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष लीला सैमसन भी यहूदी ही हैं। वैसे भारत में यहूदी की मौजूदगी 1971 युद्ध के हीरो लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब की चर्चा के बिना अधूरी रहेगीजिन्होंने 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दियाथा।

'इजरायल पितृभूमिभारत मातृभूमि
राल्फी जिराद बड़े गर्व से बताते हैं कि 6 यहूदियों को अब तक पद्मश्री मिल चुका है।। जिराद पत्नी येल के साथ मुंबई के यहूदियों पर शोध को बढ़ावा देने में लगे हैं। पति-पत्नी त्योहारों पर बाहर से आने वाले मेहमानों का नेपियन सी रोड के अपने घर में स्वागत करते हैं। उन्हें यहूदियों से जुड़े स्मारकों की सैर पर भी ले जाते हैं। जिराद कहते हैं, 'इजरायल हमारी पितृभूमि हैतो भारत हमारी मातृभूमि। वह बताते हैं कि ब्रिटिश काल में भारतीय यहूदियों की आबादी 35 हजार के क़रीब थी। फ़िलहाल दुनिया में भारतीय यहूदी क़रीब दो लाख हैजिनमें से ज़्यादा इजरायल में रहते हैं। इन लोगों ने मराठी में यहूदी कीर्तन गाए हैं। मराठी से इनका इतना लगाव है कि अवीव विश्वविद्यालय में मराठी भाषा पढ़ाई जाती है।

हिंदुत्व और यहूदीवाद
यहूदीवाद आंदोलन यूरोप में 19 वीं सदी में शुरू हुआ। इसका मक़सद यूरोप और दूसरी जगह रहने वाले यहूदियों को 'अपने देश इज़राइलभेजना थाक्योंकि उनका कोई देश नहीं था। पराए देशों में उनके लिए अपनी संस्कृति को महफूज़ रखना मुश्किल था। पिछले चंद सालों से हिंदुत्ववादी और ज़ायनिज़्म यानी यहूदीवाद के बीच सकारात्मक समानताएं खोजने की कोशिशें चल रही हैं। ऑनलाइन मैगज़ीन 'स्वराज्यके कंसल्टिंग एडिटर जयदीप प्रभु कहते हैं, "हिंदू और यहूदी धर्म में तीन मूल समानताएं हैं। पहलादोनों विचारधारा बेघर रही हैं। वैसे 1948 में यहूदियों को अपना देश मिल गयालेकिन हिंदुत्व का सियासी मक़सद पूरा नहीं हुआ हैक्योंकि भारत अभी हिंदू राष्ट्र नहीं बना है। दूसरादोनों विचारधाराओं का दुश्मन एक हैवह है इस्लाम। हालांकि अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण इस्लाम हर धर्म का दुश्मन बन गया है। और तीसराअसुरक्षा के एहसास से ग्रस्त दोनों विचारधाराओं ने सियासी लक्ष्य हासिल करने के लिए सांस्कृतिक पुनरुद्धार का सहारा लिया।"

नरसिंह राव ने बनाया राजनयिक संबंध
वैसे इज़राइल ने हमेशा भारत के साथ दोस्ती की पहल की हैक्योंकि वह अपने को इकलौता यहूदी देश और भारत को इकलौता हिंदू देश। लेकिन कांग्रेस की अल्पसंख्यक-तुष्टीकरण नीति इसमें सबसे बड़ी बाधा रही है। आतंकवादी कौम फ़लीस्‍तीन का समर्थन करने से भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ। अभी हाल ही में पाकिस्तान में फ़लीस्‍तीनी राजदूत ने आतंकी मौलाना हाफिज़ सईद के साथ मंच शेयर किया। कहने का मतलब फ़लीस्‍तीन भी उसी मानसिकता की शिकार हैजिसके तहत इस धर्म को मानने वाले लोग 14 साल से जिहाद छेड़े हुए हैं। इसके विपरीत इज़राइल हमारा शुभचिंतक हैलेकिन मुस्लिमों के नाराज़ होने के डर से भारत ने उसके कोई संबंध नहीं रखा। वह तो धन्यवाद कहिए पीवी नरसिंह राव को जिन्होंने 1992 में इज़राइल से राजनयिक संबंध बनाया। 






आतंक से लड़ने में सबसे माहिर इज़राइल सर्जिकल स्ट्राइक में मास्टर है। 1976 में अपहृत विमान को छुड़ाने के लिए इज़राइली कमांडो 4000 किलोमीटर दूर यूगांडा की राजधानी एंतेब्बे एयरपोर्ट में घुस गए। संघर्ष में फ़लीस्‍तीनी आतंकियों और सेना के 37 जवानों को मार डाला और अपने106 सभी यात्रियों को सुरक्षित अपने वतन ले आए। उस ऑपरेशन की अगुवाई करने वाले प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के बड़े भाई योनातन नेतान्याहू शहीद हो गए थे। एयरइंडिया के विमान आईसी-814 को जब आतंकी कंधार ले गए तब इज़राइल ने कमांडो सहायता की पेशकश की थीलेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण ने भारत को बेड़ियों में जकड़ दिया था और नई दिल्ली ने इज़राइल की मदद से कंधार में हमला करने की बजाय ख़तरनाक आतंकी मौलाना मसूद अज़हरमुश्ताक अहमद जरगर और अहमद उमर सईद शेख को रिहा कर दिया। बहरहालनरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अपने नैसर्गिक दोस्त इजराइल के साथ संबंधों को आगे बढ़ा रहा हैयह व्यापक राष्ट्रहित में है। यह मोदी सरकार की विदेश नीति में बहुत बड़ी सफलता भी है।

रविवार, 14 जनवरी 2018

ग़ज़ल - किस्मत से ज़ियादा

टूटा है कहर सब पर किस्मत से ज़ियादा
नफरत भरी है यहां मोहब्बत से ज़ियादा
दिल का कदर क्या वह खाक करेगा
जिसके लिए प्यार नहीं तिजारत से ज़ियादा
भाई-चारे का घटना गर यूं ही जारी रहा
खून-खराबा होगा महाभारत से ज़ियादा
खौफज़दा है सारा मुल्क उस शख्स से आज
जो जानता नहीं कुछ शरारत से ज़ियादा
जब तक ना आया था ऊंट पहाड़ के नीचे
समझता था ख़ुद को ऊंचा पर्वत से ज़ियादा
किसी के पास कुछ देख बेशुमार ना कहो
हर चीज मिली सबको ज़रूरत से ज़ियादा
आखिर ख़ुदा बरक्कत करे तो कैसे करे
झूठ बोलता है आदमी इबादत से ज़ियादा
-हरिगोविंद विश्वकर्मा

शनिवार, 13 जनवरी 2018

भारत-पाक युद्ध 1971 - पाक की कमर तोड़ने वाले आईएनएस निर्भीक व आईएनएस निर्घात

हरिगोविंद विश्वकर्मा
सन् 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध दोनों देशों के इतिहास के साथ दक्षिण एशिया के भूगोल के लिहाज से भी बेहद अहम है। 3 से 16 दिसंबर के बीच 13 दिन चलने वाले युद्ध में इंडियन नेवी के आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात ने युद्ध के दूसरे दिन कराची हारबर पर मिसाइल दाग कर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी थी। इसी युद्ध का नतीजा था कि पाकिस्तान पर भारत की शानदार फतह हुई और दक्षिण एशिया के क्षितिज पर एक नया मुल्‍क बांग्‍लादेश उदित हुआ।

कराची पाकिस्‍तान के लिए उतना ही अहम है जितना भारत के लिए मुंबई। कराची समुद्री व्‍यापार का सबसे बड़ा केंद्र था। वहां का बंदरगाह पाकिस्‍तान के लिए अहम था। वहां सिर्फ पाकिस्‍तान नेवी का हेडक्‍वार्टर ही नहीं था बल्कि तेल भंडारण का भी एक प्रमुख केंद्र था। ऑपरेशन ट्राइडेंट के तहत नेवी ने कराची बंदरगाह पर मिसाइल बोटों से हमला किया। इस हमले में पहली बार इस क्षेत्र में युद्धरोधी मिसाइलों का उपयोग किया गया। अभियान बेहद कामयाब रहा लेकिन मुख्‍य लक्ष्‍य तेल भंडारण को नष्‍ट करने में नाकाम रहा। इसलिए उसकी अगली कड़ी के तहत ऑपरेशन पायथन को अंजाम दिया गयाजिससे पाकिस्तान के हौसले पस्त हो गए।

युद्ध में भारतीय पताका फहराने और पाकिस्‍तान के हथियार डालने के पीछे थल सेना और वायुसेना के साथ नेवी की अहम भूमिका रही। दूसरे दिन के हमले के बाद भारतीय सेनाएं रुकी नहीं। कमांडिग ऑफीसर लेफ्टिनेंट कमांडर बहादुर नरिमन (बीएन) काविनालेफ्टिनेंट कमांडर आईजे शर्मालेफ्टिनेंट कमांडर ओपी मेहता के नेतृत्व में नेवी ने पाक नौसेना मुख्यालय और कराची बंदरगाह पर मिसाइल हमला किया। उस हमले को वैश्विक सैन्‍य इतिहास के सबसे जोखिम भरे अभियानों में गिना जाता हैजिसे आईएनएस विनाशनिर्भीकनिर्घातनिपाततलवारत्रिशूल और वीर ने अंजाम दिया।

दरअसल जब भारतीय सेना और वायुसेना अपने अपने मोर्चों पर डटी थीं तो पूर्वी और पश्चिमी तट को ब्‍लॉक करने का मास्‍टर प्‍लान नेवी ने बनाया। उसके तहत पश्चिमी क्षेत्र में जिस अभियान को अंजाम दिया गयाउसको ऑपरेशन ट्राइडेंट कहा गया। 8 दिसंबर 1971 की रात आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात ने मिसाइल बोट आईएनएस विनाश और दो मल्‍टीपर्पज फ्रिगेट आईएनएस तलवार और आईएनएस त्रिशूल ने हमला बोला।

भारतीय नौसेना को ऑपरेशन ट्राइडेंट और ऑपरेशन पायथन के जरिए पाक के कई युद्धपोतों को नष्‍ट करने के साथ तेल और आयुध भंडारों को नष्‍ट करने में कामयाबी मिली। वायुसेना के सहयोग से इन हमलों के चलते कराची जोन के 50 फीसदी से अधिक ईंधन क्षमताएं नष्‍ट हो गईं। इससे दुश्मन की अर्थव्‍यवस्‍था तो नष्ट हुई हीउसे करीब तीन अरब डॉलर का नुकसान हुआ। इस ऑपरेशन के आठवें दिन पाकिस्तानी सेना ने हथियार डाल दिया और 1962 की चीन से हार का सदमा भुलाकर भारत विश्वमंच पर एक शक्ति के रूप में उभरा और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में दुर्गा के रूप में मशहूर हुईं।

भारतीय नौसेना के दो युद्धपोतों आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात को पिछले शुक्रवार को भावभीनी विदाई दी गई। आईएनएस निर्भीक 30 साल तक नौसेना की सेवा में रहाजबकि नेवी के साथ आईएनएस निर्घात का सफर 28 साल तक चला। दरअसलसन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान कराची हार्बर पर नौसेना की आक्रामक कार्रवाई को सफलतापूर्वक निभाने वाले दोनों जंगी बेड़ों आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात को नए अवतार में क्रमश: 21 दिसंबर 1987 और 15 दिसंबर 1989 को पूर्व सोवियत संघ ने भारत को सौंप दिया था।

आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात में 70 नाविकों और सात अधिकारियों का दल तैनात रहता था। दोनों जहाजों में चार जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइलेंमध्यम श्रेणी की मारक क्षमता से लैस एके 176 गन और एके 630 की कैलिबर गन तैनात रहती थीं। कराची ऑपरेशन के बाद करीब तीन दशकों में दोनों जहाजों ने ऑपरेशन विजय और पराक्रम जैसे कई अभियानों में सफलतापूर्वक हिस्सा लिया। कई अवसरों पर दोनों जंगी बेड़े को गुजरात में भी तैनात किया गया था। कमांडर आनंद मुकुंदन और कमांडर मोहम्मद इकराम दोनों जहाजों के अंतिम कमांडिंग ऑफिसर रहे।

भारतीय नौसेना ने आईएनएस निर्भीक और निर्घात को पारंपरिक तरीके से अंतिम विदाई दी। कार्यक्रम में फ्लैग ऑफिसर वेस्‍टर्न फ्लीट रियर एडमिरल आरबी पंडित मौजूद थे। पंडित ने सबसे पहले आईएनएस निर्घाटत की कमांडिंग की थी। इसके अलावा कमांडर वीआर नाफाडे और कमांडर एस. मैमपुल्ली भी जलसे में मौजूद थे। दोनों कमांडरों ने आईएनएस निर्भीक और निर्घाट को कमीशन किया था। दोनों कमांडरों को गेस्ट ऑफ ऑनर दिया गया।

56 मीटर लंबे और 10.5 मीटर चौड़े आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात भारतीय नौसेना के जंगी जहाज थे। ये दोनों भारतीय नौसेना की वीर कैटेगरी का पोत थे। दोनों का कुल भार 455 टन था। आईएनएस निर्भीक और आईएनएस निर्घात की पानी में रफ्तार 59 किलोमीटर प्रति घंटा है। 971 में भारत-पाकिस्‍तान युद्ध के दौरान कराची बंदरगाह पर दोनों ने अपने मूल अवतार में दुश्‍मनों के छक्‍के छुड़ा दिए थे।


भारतीय नौसेना का इतिहास
भारतीय नौसेना के इतिहास को 1612 के समय से पता लगाया जा सकता है जब सर्वश्रेष्ठ कप्तान ने इनका सामना किया और पुर्तगालियों को पराजित किया। 1686 में इसका नाम बंबई मेरीन रखा गया और 1830 में इसे हर मेजेस्टीर इंडियन नेवी का नाम दिया गया। 1863 से 1877 के दौरान इसे बॉम्बे मरीन नाम दिया गयाजिसके बाद हर मेजेस्टी इंडियन मेरीन बना। इस समयनेवी दो डिविजन किए गए. कलकत्ता में ईस्ट डिविजन और मुंबई में वेस्टर्न डिविजव। इसका शीर्षक 1892 में रॉयल इंडियन मेरीन कर दिया गयाजिस समय तक इसमें 50 से अधिक जंगी जहाज शामिल हुए। पहले भारतीय के रूप में सूबेदार लेफ्टिनेंट डीएन मुखर्जी इंजीनियर अधिकारी के रूप में 1928 में रॉयल इंडियन मरीन में शामिल हुए। सेकंड वर्ल्डवॉर में इसमें आठ युद्धपोत शामिल किए गए और इनकी संख्या् 117 युद्ध पोतों तक बढ़ी और 30,000 जवानों को लाया गया था। आजादी के समय रॉयल इंडियन नेवी में तटीय गश्ती के लिए 32 पुराने जहाजों के साथ 11,000 अफसर और जवान थे। भारतीय नौसेना के प्रथम कमांडर इन चीफ एडमिरल सर एडवर्ड पैरीकेसीबी ने प्रशासन 1951 में एडमिरल सर मार्क पिजीकेबीईसीबीडीएसओ को सौंप दिया था। एडमिरल पिजी भी 1955 में नौसेना के पहले चीफ बन गएऔर उनके बाद वाइस एडमिरल एसएच कारलिलसीबीडीएसओ आए थे। 22 अप्रैल 1958 को वाइस एडमिरल आरडी कटारी ने नौसेना के प्रथम भारतीय चीफ के रूप में पद ग्रहण किया।