Powered By Blogger

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

रेप की बढ़ती वारदातों के लिए क्या सामाजिक तानाबाना ज़िम्मेदार है?


हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश में दिनोंदिन गैंगरेप की बढ़ती वारदातों से हर शरीफ आदमी चिंतित है। वह समझ नहीं पा रहा है कि आधी आबादी पर हो रहा यह जुल्म आख़िर रुक क्यों नहीं रहा है। सख़्त क़ानून का डर बलात्कारी महसूस नहीं क्यों रहे हैं। आख़िर महिलाओं को हवस की निगाह से देखने के इस तरह के माइंडसेट की मूल वजह क्या है? सबसे दुर्भाग्य की बात यह है कि इस मुद्दे पर तो बहस ही नहीं चल रही है। आंदोलन, धरना-प्रदर्शन में असली मुद्दा गौण हो गया है।  

जगह-जगह जो बहस चल रही है। वह मुद्दे से भटकाने वाली ही है। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह यही भटकाने वाला मुद्दा छाया हुआ है। कहीं तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में वेटेनरी डॉक्टर से गैंगरेप करने वाले चारों आरोपियों के इनकाउंटर को सही बताया जा रहा है तो कहीं ग़लत। मतलब सज़ा देने के अमानवीय, अलोकतांत्रिक और तालिबानी तरीक़े ज़्यादातर लोग समर्थन कर रहे हैं। जबकि कुछ लोग इस तरह की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। इस विरोध और समर्थन में मूल मुद्दा ग़ायब है।  

हैदराबाद रोप में न्याय होने के बाद लोग उसी तरह की सज़ा की मांग उन्नाव गैंगरेप के आरोपियों के लिए कर रहे हैं। आक्रोशित लोग धरना-प्रदर्शन के ज़रिए रेपिस्ट को जल्द से जल्द सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी कर रहे हैं। कहीं-कहीं रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर है, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें। समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन ने तो राज्यसभा में यहां तक कह दिया कि बलात्कारियों की मॉब लिंचिंग कर दी जाए। यानी उनको भीड़ के हवाले कर दिया जाए और भीड़ उन्हें पीट-पीट कर मार डाले।

यह भी संभव है कि देश में अचानक बन रहे माहौल के दबाव में केंद्र सरकार बलात्कारियों को जल्दी से सज़ा देने वाला कोई बिल संसद में पेश कर दे और वह क़ानून भी बन जाए। अगर बलात्कारियों का जल्दी फ़ांसी सुनिश्चित करने वाला क़ानून बना तो निश्चित रूप से यह ऐतिहासिक होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या संभावित सख़्त क़ानून से रेप जैसे वीभत्स और हैवानियत भरे अपराध पर पूरी तरह अंकुश लग पाएगा? यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 2013 में नया रेप क़ानून बनने के बाद रेप की वारदातें रुकने की बजाय और बढ़ गईं हैं।

बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने से रेप की वारदात पर विराम लगने की गारंटी आख़िर कौन देगा? क्या हत्या के लिए मौत की सज़ा के प्रावधान से हत्या रुक गई? इसके लिए फ़ांसी की सज़ा होने के बाद भी हत्याएं क्यों हो रही हैं? इसका मतलब यह है कि जैसे फ़ांसी की सज़ा हत्याएं रोकने में नाकाम रही, वैसे ही कैपिटल पनीश्मेंट रेप को रोकने में कामयाब होगा, इस पर पूर्ण भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब पुरुष पर वहशीपन या हैवानियत सवार होता है तो वह क्वांटम ऑफ़ पनीश्मेंट के बारे में सोचता ही नहीं, अगर सोचता तो अपराध ही न करता। लिहाज़ा, ऐसे क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद भी रेप का सिलसिला जारी रह सकता है।

दरअसल, हिंदुस्तानी बहुत भावुक किस्म के होते हैं। भावुकता में इंसान का विवेक और उसकी तर्क-क्षमता कुंद हो जाती है। वह संतुलित एवं संयमित ढंग से सोच ही नहीं पाता। कोरी भावुकता इंसान को समस्या की जड़ तक पहुंचने ही नहीं देती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि भावुकता सही मायने में समस्या को आइडेंटीफ़ाई करने में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक इंसान भावुक होकर सोचेगा, किसी समस्या का सही हल नहीं कर सकेगा। इसलिए यह वक़्त भावुक होने की नहीं, बल्कि इस बात पर विचार करने का है कि रेप जैसे अपराध को रोका कैसे जाए। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर कुछ ऐसा प्रावधान हो जाएं कि रेप जैसा अपराध ही नियंत्रित हो जाए तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

अगर इस बिंदु पर ग़ौर करेंगे तो सवाल उठेगा कि आख़िर बलात्कार जैसा जघन्य अपराध होता ही क्यों हैं। क्यों पुरुष औरत को एकांत में देखकर अपना विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, भूल जाता है और वहशी और हैवान बन जाता है? क्यों वह यौन-भुखमरी (सेक्स स्टारवेशन) का शिकार हो जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी चाहिए, क्यों वहशी पुरुष के लिए भोग की वस्तु बन जाती है? यानी क्यों किसी जगह स्त्री की कम संख्या से पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साथ मनमानी करने लगते हैं। इस विषय पर गंभीरता और संयम से विचार करने के बाद लगता है कि रेप ही नहीं, महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए हमारे समाज का ताना-बाना ही मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है।

हमारे समाज का तानाबाना बुरी तरह मेल-डॉमिनेटेड है। ऐसे समाज में स्त्री चाहकर भी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती, क्योंकि यह ढांचा स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक यानी सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा समाज प्रचलन में आया है, तब से स्त्री दोयम दर्जे की ही नागिरक रही है। शहरों में लड़कियों को जींस-टीशर्ट में देखकर हम कुछ समय के लिए भले ख़ुश हो लें कि समाज में महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं, लेकिन सच तो यह है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई। यह एक स्त्री से बेहतर और कोई नहीं जान सकता। पुरुष-प्रधान समाज की मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी नहीं देती।

आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में वे तमाम प्रावधान किए जाएं जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाते हैं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। जो लोग गैंगरेप की मुख़ालफ़त कर रहे हैं, क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? संसद में भावुक होने वाले नेता क्या स्त्री के प्रति बायस्ड नहीं हैं? राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दें, तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभालता है? पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यही दर्शाता है कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात होता है।

जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी इसलिए बन सकीं, क्योंकि नेहरू को पुत्र नहीं था। आज भी उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बनती हैं, जहां पुत्र नहीं होते। जब विकसित परिवारों में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे का बर्ताव हो, तो दूर-दराज़ और पिछड़े इलाक़ों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, सहज कल्पना की जा सकती है। संसद ने महिलाओं को आरक्षण देने वाला बिल पास ही नहीं किया। यह मुद्दा मौजूदा सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी एजेंडे में नहीं है। फिर ये लोग गैंगरेप पर क्यों चिंता जता रहे हैं? ज़ाहिर है, इनका स्त्रीप्रेम छद्म है, हक़ीक़त से परे है। महिला आरक्षण पर इनका मौन इन्हें पुरुष-प्रधान समाज का पैरोकार ही नहीं बनाता, बल्कि यह भी दर्शाता है कि इनका महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने में कोई दिलचस्पी नहीं। सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं।

अगर सचमुच ये लोग महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती हैं तो संसद और विधान सभाओं समेत हर जनपंचायत में 33 फ़ीसदी नहीं, बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित करने की पहल करें। देश में महिलाओं की आबादी क़रीब-क़रीब फ़िफ़्टी परसेंट है तो आरक्षण 33 फ़ीसदी क्यों? एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस्ड परिवारों की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न कर लें, बल्कि इसका लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

चूंकि देश में आधी जनसंख्या महिलाओं की है, लिहाज़ा उनके लिए हर जगह 50 फ़ीसदी जगह आरक्षित की जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों, मसलन पुजारियों की संख्या में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर होनी चाहिए। सरकारी और निजी संस्थान की नौकरियों में आधी जगह महिलाओं को दी जानी चाहिए। बैंक हो, यूनिवर्सिटी हो या अन्य संस्थान हर जगह आधी जगह महिलाएं हों। महिलाएं घर में क्यों बैठें? वे काम पर क्यों न जाएं?

अगर 50 फ़ीसदी महिलाएं काम पर जाएंगी तो बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होगी। यानी हर सावर्जनिक जगह पर इक्का-दुक्का महिला की बजाय बड़ी संख्या में महिलाएं दिखेंगी। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। सड़क, बस, ट्रेन और दफ़्तरों में महिलाओं की बराबर मौजूदगी से किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि उसकी ओर बुरी निग़ाह डाले। महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों का हौसला बढ़ाती है। इस मुद्दे पर ईमानदारी से सोचने वाला व्यक्ति इसका समर्थन करेगा। महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाने के लिए उनका इम्पॉवरमेंट ही एकमात्र विकल्प है। यही हर समस्या का स्थाई हल भी है। जब संसद में 770 सदस्यों में से 385 महिलाएं होंगी, केंद्र और राज्य-मंत्रिमंडल में महिला-पुरुष बराबर होंगे, ब्यूरोक्रेसी में आधी संख्या में स्त्री होगी, अदालतों में 50 फ़ीसदी जज महिलाएं होंगी, पुलिस थानों में पुलिस वर्दी में आधी लड़कियां होंगी तो अपने आप महिला पुरुष की बराबरी कर लेगी। वह क़ानून की बैसाखी के बिना भी सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेगी।

लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? सबसे बड़ा सवाल यही है। इसमें परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत है। अगर हम सही मायने में महिलाओं को पुरुष के बराबर खड़ा करना है तो उन सभी ग्रंथों-किताबों को पुनर्परिभाषित करना होगा जो पति को ‘परमेश्वर’ और पत्नी को ‘चरणों की दासी’ मानते हैं। हमें उन त्यौहारों को प्रमोट करने से बचना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए पत्नी व्रत रखती है। स्त्री को घूंघट या बुरके की नारकीय परिपाटी से मुक्ति दिलानी होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो बदलाव की शुरुआत तुरंत करनी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप पर घड़ियाली आंसू बहाने का क्या औचित्य, क्योंकि वस्तुतः यह समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का क़ानून बना दिया जाए। यानी पुरुष प्रधान समाज है, रेप होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।
(समाप्त)

शनिवार, 30 नवंबर 2019

आखिर शरद पवार ने क्यों दिया शिवसेना को ही समर्थन?


आखिर शरद पवार ने क्यों दिया शिवसेना को ही समर्थन?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अब जबकि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी-कांग्रेस की महा विकास अघाड़ी सरकार ने राज्य विधान सभा में बहुमत हासिल कर लिया है। इस बात पर चर्चा करना समीचीन होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने अपने दो धुर विरोधी दलों भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना में से शिवसेना को ही समर्थन देने और तीन दलों की महा विकास अघाड़ी बनाकर राज्य सरकार में शामिल होने का फ़ैसला क्यों किया?

जब से शरद पवार ने यह निर्णय लिया है, तब से राजनीतिक टीकाकार इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि आख़िर मराठा क्षत्रप ने शिवसेना को ही समर्थन क्यों दिया? जब किसी दक्षिणपंथी दल के साथ जाना ही था तो पवार भाजपा के साथ क्यों नहीं गए, जबकि 2014 के विधान सबा चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिलने पर उन्होंने भाजपा को समर्थन देने के साफ संकेत दे दिए थे। तो इस बार पवार ने भाजपा की बजाय शिवसेना को क्यों चुना? इस मुद्दे पर राजनीतिक टीकाकार आगे भी लंबे समय तक सिर खपाते रहेंगे।

दरअसल, महाराष्ट्र की सत्ता के कारीडोर से परिचित लोग मानते हैं कि भाजपा के साथ जाने पर पवार को फ़ायदा ही फ़ायदा था। भाजपा के साथ गठबंधन बनाने पर मुमकिन था कि कांग्रेस पवार का साथ न देती लेकिन इसके बावजूद पवार साहब के दोनों हाथ में लड्डू होते। मसलन, पहला लाभ यह होता कि एनसीपी को केंद्र सरकार में एक या वह चाहती तो दो मंत्री पद मिल सकते थे। मतलब ख़ुद पवार और उनकी लोकसभा सदस्य बेटी सुप्रिया सुले या सीनियर एनसीपी लीडर प्रफुल्ल पटेल केंद्र में कैबिनेट मंत्री बन सकते थे।

दूसरा एनसीपी के जिन नेताओं के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं, उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता। ज़ाहिर है इससे क़रीब 25 हज़ार करोड़ रुपए के महाराष्ट्र सहकारी बैंक घोटाले में मनी लॉन्डरिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय के राडार में आए ख़ुद शरद पवार और सिंचाई विभाग में कई हज़ार करोड़ के घोटाले में कथित तौर पर शामिल उनके भतीजे अजित पवार को राहत मिल सकती थी। इक़बाल मिर्ची के साथ कारोबारी रिश्ते के गंभीर आरोप का सामना कर रहे सीनियर एनसीपी लीडर प्रफुल्ल पटेल प्रवर्तन निदेशालय के शिकंजे से बच सकते थे। इसके अलावा दिल्ली के महाराष्ट्र सदन समेत कई घोटाले में कथित तौर पर शामिल होने के कारण लंबे समय तक जेल में बंद रहे छगन भुजबल और जयंत पाटिल को भी फ़ौरी तौर पर राहत मिल सकती थी।

ऊपर से भाजपा के साथ महाराष्ट्र में सरकार बनाने से शरद पवार जितना चाहते, उन्हें मंत्री पद मिल जाते। जबकि शिवसेना के साथ जाने से उनको 12 से अधिक मंत्री पद नहीं मिलने वाला। इसके बावजूद शरद पवार ने शिवसेना का साथ दिया। कहा जाता है कि अजित पवार को एनसीपी संसदीय दल का नेता चुने जाने के लिए हुई निर्वाचित विधायकों की बैठक में ख़ुद अजित पवार और धनंजय मुंडे भाजपा के साथ सरकार बनाने की पैरवी कर रहे थे, जबकि नवाब मलिक और दूसरे नेता भाजपा की बजाय शिवसेना को समर्थन देने की बात कर रहे थे।

सबकी राय सुनने के बाद शरद पवार ने अपना फ़रमान सुनाया। वह फ़रमान था कि एनसीपी भाजपा के साथ नहीं, बल्कि शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाएगी। दरअसल, एनसीपी में शरद पवार का क़द इतना ज़्यादा विशाल है कि बाक़ी सभी नेता उनके सामने बौने नज़र आते हैं। किसी में उनकी बात काटने की न कूवत है न हिम्मत। लिहाज़ा, सबके सब ने चुपचाप साहेब का आदेश सिरोधार्य कर लिया और यह निश्चित हो गया कि अगली सरकार में एनसीपी और कांग्रेस शामिल होंगे, क्योंकि कांग्रेस में भी पवार के फ़ैसले को काटने की किसी में हिम्मत नहीं है। इसके बाद आगे की रणनीति पर काम होने लगा।

जब मीडिया में ख़बर आई कि एनसीपी शिवसेना के साथ सरकार बनाएगी तो लोग भी हैरान हुए कि एनसीपी शिवसेना के साथ सरकार कैसे बनाएगी और उसमें कांग्रेस किस भूमिका में शामिल होगी? दरअसल, इसका जवाब खोजने के लिए शरद पवार के राजनीतिक जीवन पर नज़र डालनी पड़ेगी।

पवार पहली बार 18 जुलाई 1978 को मुख्यमंत्री बने थे। इसके लिए उनको अपने गुरु वसंतदादा पाटिल की सरकार गिरानी पड़ी थी। वह 20 महीने मुख्यमंत्री रहे। दूसरी बार वह 26 जून 1988 को मुख्यमंत्री बने जब राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस में वापस लिया। इस बार वह लगभग तीन साल मुख्यमंत्री रहे। तीसरी और अंतिम बार शरद पवार 6 मार्च 1993 को मुख्यमंत्री बने और दो साल तक शासन किया।

1995 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस हार गई और पहली बार राज्य में शिवसेना-भाजपा भगवा गठबंधन सरकार बनी। 1999 में शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी बना ली और अपने बूते पर चुनाव में उतरे थे। 1999 के चुनाव में शिवसेना (69) और भाजपा (56) का गठबंधन केवल 125 सीट जीत सका। सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 20 विधायक का समर्थन भगवा गठबंधन को नहीं मिल सका। इसके बाद सरकार बनाने के लिए 75 सीट जीतने वाली कांग्रेस और 58 सीट जीतने वाली एनसीपी के बीच पोस्टपोल गठबंधन हुआ। 15 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से विलासराव देशमुख पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने।

एनसीपी सरकार में अहम पार्टनर थी और सरकार उस पर निर्भर थी। लिहाज़ा, रोज़ाना सुबह-सुबह शरद पवार का फोन मुख्यमंत्री के सरकारी आवास वर्षा में आने लगा। पवार साहब देशमुख को ज़रूरी दिशा-निर्देश देते थे। चूंकि सरकार पवार के समर्थन के बिना चल नहीं सकती थी, इसलिए रोज सुबह पवार साहब का कॉल अटेंड करना देशमुख की मजबूरी थी। चुनाव से कुछ महीने पहले देशमुख की जगह सुशील कुमार शिंदे मुख्यमंत्री बने। उनको भी रोज़ाना पवार साहब का फोन अटेंड करना पड़ता था।

इसी तरह 2004 के चुनाव में भी शिवसेना (62)-भाजपा (54) गठबंधन को 116 सीट मिली। इस बार कांग्रेस की सीट 75 से घटकर 69 हो गई, जबकि एनसीपी 58 से 71 पर पहुंच गई। लेकिन पवार साहब ने मुख्यमंत्री पद पर दावा नहीं किया। वह उपमुख्यमंत्री पद से संतुष्ट हो गए। विलासराव देशमुख दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस बार भी रोज़ सुबह उनको पवार का कॉल अटेंड करना पड़ता था। 2008 में मुंबई पर आतंकी हमले के बाद क्षतिग्रस्त होटल ताज में बेटे रितेश देशमुख और फिल्मकार रामगोपाल वर्मा को ले जाने की गलती पर देशमुख को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और अशोक चव्हाण नए मुख्यमंत्री बने। उनको भी रोज़ सुबह पवार साहब का फोन कॉल लेना पड़ता था।

2009 के चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को जबरदस्त सफलता मिली और 144 सीट जीतकर यह गठबंधन बहुमत (145) के मुहाने पर पहुंच गया। हालांकि एनसीपी 71 से 62 सीट पर आ गई, लेकिन कांग्रेस 69 से 82 पर पहुंच गई। राज्य में फिर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार बनी। अशोक चव्हाण पहली बार से अधिक शक्तिशाली मुख्यमंत्री के रूप में सत्तानशीं हुए। लेकिन पवार साहब का कॉल उनको लेना ही पड़ता था। महीने भर में ही आदर्श घोटाले के कारण चव्हाण की कुर्सी चली गई। 11 नवंबर 2010 को दिल्ली से पृथ्वीराज चव्हाण मुख्यमंत्री बनाकर भेजे गए। अब वर्षा में आने वाले पवार साहब के कॉल वही अटेंड करते थे। यह सिलसिला 2014 तक चला।

2014 में नरेंद्र मोदी लहर में पूरे देश की तरह यहां भी कांग्रेस-एनसीपी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। इस चुनाव में भाजपा को शानदार सफलता मिली परंतु 122 सीट जीतने के बावजूद भाजपा सत्ता से 23 सीट पीछे थी। लिहाज़ा, पवार ने भाजपा को समर्थन देने का साफ़ संकेत दे दिया। इससे शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे पर नवनिर्वाचित विधायकों का सरकार में शामिल होने के लिए ज़बरदस्त दबाव पड़ा और नौबत शिवसेना में विभाजन की भी आ गई। मजबूरी में उद्धव छोटे भाई के रूप में भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार में शामिल होने के लिए तैयार हुए और देवेंद्र फड़णवीस राज्य के मुख्यमंत्री हुए।

शपथ लेने के बाद फडणवीस जैसे ही वर्षा में शिफ़्ट हुए, उन्हें रोज़ सुबह पवार साहब के कॉल आने लगे। फडणवीस नए-नए चीफ़मिनिस्टर बने थे, सो अनिच्छा के बावजूद वह पवार के कॉल अटेंड कर लेते थे। कुछ समय बाद उनको लगा कि वर्षा में कॉल करना और मुख्यमंत्री को ज्ञान देना पवार का शगल बन गया है। लिहाज़ा, उन्होंने पवार साहब का कॉल नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया। उनके नज़रअंदाज़ करने के बावजूद कुछ दिन तक पवार साहब के कॉल आते रहे लेकिन धीरे-धीरे कॉल आने बंद हो गए।

2019 के चुनाव में भाजपा को अपने बल पर बहुमत न मिलने से सत्ता की चाबी एक बार फिर पवार के हाथ में आती दिखी। अंतिम नतीजे आने से पहले ही उन्होंने अपने क़रीबी शिवसेना प्रवक्ता संजय राऊत की ओर चारा फेंक भी दिया। पवार जानते थे कि फडणवीस सीएम बनेंगे तो उनका कॉल अटेंड नहीं करेंगे, लेकिन शिवसेना का सीएम ऐसी हिमाक़त नहीं कर सकता। शिवसेना मुख्यमंत्री पद की लालच में पवार साहब के जाल में उलझ गई। चुनाव में सत्ता के लिए 50-50 प्रतिशत की भागीदारी की बात करने वाली जो शिवसेना 124 सीट मिलने और चुनाव प्रचार में देवेंद्र फडणवीस का बार बार नाम उछाले जाने पर चुप रही उसी पार्टी ने भाजपा को बहुमत से 40 सीट दूर देखकर उसके सामने ढाई साल का मुख्यमंत्री पद देने का प्रस्ताव रख दिया।

इसे भाजपा स्वीकार नहीं कर सकती थी। लिहाज़ा, पार्टी ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। यही तो शरद पवार साहब चाहते थे। लिहाज़ा, उनकी पसंद के उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए हैं। क़रीब पांच साल बाद अब फिर पवार साहब का कॉल मुख्यमंत्री सीधे अटेंड करेगा। यही तो पवार साहब चाहते थे, इसीलिए उन्होंने मज़बूत भाजपा (105 सीट) की जगह कमज़ोर शिवसेना (56 सीट) को समर्थन देने का फैसला किया और सरकार बनवाकर अमित शाह से बड़े चाणक्य का तग़मा हासिल कर लिया।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

मी नाथूराम गोडसे बोलतोय !


हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक सभ्य, सहिष्णु, सहनशील और क्षमाशील देश है। यहां अपराधी को माफ़ कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। इसी परंपरा के तहत लोग मौत के बदले मौत यानी फ़ांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। जिस हत्यारे को माफ़ी नहीं मिल पाती, फ़ांसी पर लटकाने के बाद लोग उसे माफ़ कर देते हैं। भारतीय इतिहास में केवल और केवल एक हत्यारा ऐसा है, जिसे मौत की नींद सुलाने के बाद भी क्षमा नहीं किया गया। वह हत्यारा है नाथूराम विनायक गोडसे। प्रखर वक्ता, लेखक-पत्रकार और दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक। जिसने किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या की। इसीलिए पूरे देश के लिए तो नहीं, एक बड़े तबक़, जिन्हें गांधीवादी कहा जा सकता है, के लिए गोडसे से ज़्यादा घृणित व्यक्ति शायद ही धरती पर मिलेगा। ऐसे में अगर कोई उसी हत्यारे गोडसे को देशभक्त कह दे तो बवाल मचना स्वाभाविक है।

यह बवाल भोपाल से भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के लोकसभा में गोडसे को देशभक्त कह देने से मचा है। साध्वी को केंद्र सरकार ने रक्षा मामलों की संसदीय समिति से बाहर कर दिया है और उनके संसदीय बैठक में भाग लेने पर रोक लगा दी गई है। मामला इतने से नहीं बना तो साध्वी से लोकसभा में माफ़ी मंगवाई गई। हालांकि, माफी मांगते समय उन्होंने एक सवाल भी उठा दिया कि कोर्ट का फ़ैसला आने से पहले उन्हें आतंकवादी कहना क्या उचित है? पिछली गर्मियों में भी साध्वी के गोडसे को देशभक्त कहने से भूचाल आ गया था। तब चुनाव चल रहा था, लिहाज़ा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं करने की बात कही थी। अहम बात यह कि गोडसे को देशभक्त कहने वाली उसी साध्वी को भोपाल की जनता ने लोकसभा सदस्य चुन लिया और नाथूराम को हत्यारा कहने वाले दिग्विजय सिंह को नकार दिया।
नाथूराम गोडसे देशभक्त था या नहीं, यह गंभीर बहस का विषय है। इस विषय पर अध्ययनशील बहस की जरूरत है। 30 जनवरी 1948 से पहले के उसके कार्यों, उसके व्यक्तित्व और उसके समाज के प्रति व्यवहार पर चर्चा होनी चाहिए। बतौर पत्रकार उसके लेखन की चर्चा होनी चाहिए। लेकिन इस देश में समस्या यह है कि गोडसे का नाम भर लेने से एक तबक़ा, जो ख़ुद को सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष कहता आ रहा है, असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। दरअसलइस देश में एक गोडसे-ग्रंथि पैदा हो गई है। जिसके कारण गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही लोग आक्रामक हो जाते हैं और नाम लेने वाले को ही अनाप-शनाप ही नहीं बोलते बल्कि उसके कैरेक्टर का भी पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं। ऐसी सोच को सभ्य समाज तालिबानी सोच कहता हैजहां विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि यह कल्चर सहिष्णु और उदार माने जाने वाले भारतीय समाज में अस्तित्व में है और उन लोगों में है, जो ख़ुद को गांधीवाद का पैरोकार कहते हैं।

वैसे सभ्य, स्वस्थ एवं स्वाधीन लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी उदार समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंज़ाइश होती है। यह गुंज़ाइश भारत में है भी। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष या विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहेभले ही वह प्रथमदृष्ट्या उसके पक्ष में ही लगता प्रतीत होतो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क या साक्ष्य दे रहा है।
हत्या बेहद अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात है। हत्या किसी भी की नागरिक की हो, उसकी भर्त्सना होती है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील इंसान को विचलित करती है। हर सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोचकर ही दहल उठता है। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशक़ीमती जान चली जाती है। हत्या को इसीलिए इंसान के जीने के अधिकार का हनन माना जाता है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में विभिन्न कारणों से रोज़ाना अनगिनत हत्याएं होती हैं। सभी में तो नहीं, कुछ हत्याओं में हत्यारे को दंड स्वरूप फ़ांसी पर लटका दिया जाता है और लोग उसे क्षमा करके आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन गोडसे को लेकर भारतीय समाज आज भी 1940 के दशक में ठहरा हुआ है। यहां सवाल यह भी है कि क्या भारत में हर हत्यारे को लेकर इतनी ही घृणा और नफ़रत है या केवल नाथूराम गोडसे के लिए ही? अगर नहीं तो गोडसे से अतिरिक्त घृणा इसलिए कि उसने राष्ट्रपिता की हत्या की। आम तौर पर देखा जाता है कि हत्या करने वाला शख़्स बचने का प्रयास करता है। लिहाज़ा, हत्या की वारदात को अंज़ाम देने के बाद घटना स्थल से भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर मुक़दमें की सुनवाई के दौरान बचने की हर संभव कोशिश करता है और अच्छे वकील की मदद लेता है। अदालतों द्वारा राहत न मिलने पर वह राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष दया की गुहार लगाते हुए मर्सी पिटीशन तक दाख़िल करता है।

इस मामले में अगर नाथूराम की बात करें, तो वस्तुतः उसने गांधीजी की हत्या करने के बाद ही अपना ज़ुर्म क़बूल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण हरण किया है। एक जीती-जागती ज़िंदगी को ख़त्म किया है। लिहाज़ाउसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उसने हत्या करने के बाद भागने की बजाय ख़ुद को लोगों के हवाले कर दिया। वह चाहता तो भाग सकता था, क्योंकि उसके रिवॉल्वर में और गोलियां थीं। लेकिन उसने दंड पाने के लिए इक़बाल-ए-ज़ुर्म करके ख़ुद को क़ानून के हवाले करना उचित समझा ताकि उस पर मुक़दमा चले और उसे दंड दिया जा सके। इसलिए जब 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाई तो उसने उसे बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया और ऊपरी अदालत में अपील न करने का फ़ैसला कर लिया। उसे सज़ा देने के लिए देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका कितनी हड़बड़ी में थी कि इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां भारत में 20-20 साल तक हत्यारों को फ़ांसी नहीं दी जाती वहीं, हत्या के 656 वें दिन गोडसे और दूसरे आरोपी नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी पर लटका दिया गया।

यह देश इतने पर ही नहीं रुका, गोडसे से जुड़ी हर वस्तु पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि अदालती कार्यवाही से जुड़े दस्तावेज़ के साथ-साथ अदालत में दिए गए गोडसे को बयान को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। उधर 15 नवंबर 1949 के दिन हरियाणा के अंबाला शहर में ग़म का माहौल था। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा थातब अंबाला जेल में सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दे दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखीं। कहने का मतलब उस समय भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जिसकी सहानुभूति गोडसे के साथ थी, क्योंकि इनमें ज़्यादातर लोग विभाजन के बाद अपना घर-परिवार गंवाकर पाकिस्तान से भारत आए थे। ये लोग विभाजन के बाद गांधीजी के रवैये से असंतुष्ट थे।

दरअसलदेश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करेंताकि वह बता सकें कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहींबल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” 

दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता थाइसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थेलेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थीलेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

कई लोगों का मानना है कि आज बाल ठाकरे अगर ज़िंदा होते तो ज़रूर भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के पक्ष में खड़े हो जाते। दरअसल, इस देश का एक बड़ा तबका नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानता है। ऐसे लोग भाजपा और शिवसेना का समर्थन करते रहे हैं। भाजपा को दो लोकसभा चुनाव में जो जनादेश मिला है, वह धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उसका दुरुपयोग करने के विरोध में मिला है। ऐसे में इसम बात में दो राय नहीं, कि अगर भाजपा साध्वी के ख़िलाफ़ अधिक सख़्त होगी तो उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है।


शनिवार, 16 नवंबर 2019

क्या अब सत्ता का केंद्र नहीं रहा मातोश्री?

क्या अब सत्ता का केंद्र नहीं रहा मातोश्री?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की आज सातवीं बरसी है। क्या यह संयोग है कि उनकी बरसी ऐसे समय पड़ रही है, जब शिवसेना हिंदुत्व की बजाय राग सेक्यूलर गाने लगी है। हालांकि मौजूदा राजनीतिक हलचल के बीच एक सवाल उठ रहा है कि क्या बाल ठाकरे के बंगले मातोश्री की महत्ता अब कम होने लगी है? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि जहां बाल ठाकरे हर किसी से केवल और केवल मातोश्री में मिलते थे, वहीं उनके पुत्र और उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के दौर में लोग वार्ता के लिए मातोश्री आने की बजाय शिवसेना प्रमुख को मातोश्री से बाहर बुलाने लगे हैं।

दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने के अटल अभियान में जुटे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार के साथ पिछले 11 नवंबर को मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बांद्रा बैंडस्टैंड के ताज़ लैंड्स इंड होटल में जाना चर्चा का विषय बना हुआ है। अभी यह चर्चा चल ही रही थी कि उद्धव ठाकरे और दो दिन बाद कांग्रेस मैनेजर्स अहमद पटेल, केसी वेणुगोपाल और मल्लिकार्जुन खड़गे से भी मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बीकेसी के होटल ट्राइडेंट गए तो लोग मातोश्री का रुतबा कम होने की अटकल लगाने लगे।

दरअसल, मातोश्री मुंबई के बांद्रा पूर्व उपनगर में कलानगर का एक महज आलीशान बंगला ही नहीं, बल्कि बाल ठाकरे के दौर में सत्ता का सिंबल रहा। मातोश्री बंगला पिछले चार दशक से अधिक समय से महाराष्ट्र की राजनीति का एक प्रमुख केंद्र रहा। मुंबई में इस बंगले की महत्ता वर्षा और राजभवन से भी ज़्यादा नहीं, तो कभी कम भी नहीं रही है। मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश दुनिया का कोई भी व्यक्ति अगर शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे से मिलना या उनके साथ किसी तरह की बातचीत करना चाहता था, तो उसे मातोश्री ही जाना पड़ता था।

मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा एक रोचक प्रसंग से सहज ही लगाया जा सकता है। 1995 में शिवसेना-भाजपा की भगवा गठबंधन सत्ता में थी और वरिष्ठ शिवसेना नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। उस समय एनरॉन के साथ बिजली संबंधी डील का मामला सुर्खियों में था। उसी सिलसिले में एनरॉन की तत्कालीन प्रमुख स्टाइलिश रेबेका मार्क-जस्बैश की मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से मुलाकात होने वाली थी, लेकिन उस दिन जोशी को वेटिंग मोड पर डालकर रेबेका बाल ठाकरे के दरबार मातोश्री पहुंच गईं। मज़ेदार बात यह रही कि उसके बाद सरकार ने उनका कार्य कर भी दिया।

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेंद्र मोदी, जसवंत सिंह, नितिन गडकरी, गोपीनाथ मुंडे ही नहीं, बल्कि शरद पवार, प्रणव मुखर्जी और विलासराव देशमुख जैसे धुरंधर राजनेता भी बाल ठाकरे में मिलने के लिए मातोश्री का ही रुख करते थे। सुनील दत्त तो नियमित रूप से मातोश्री में मत्था टेकते थे, क्योंकि कहा जाता है कि 1993 में बम धमाके में शामिल रहे संजय दत्त को जमानत दिलाने में बाल ठाकरे का अहम किरदार था। इसी तरह अमिताभ बच्चन भी अकसर बाल ठाकरे से मिलने मातोश्री जाते थे।

अमिताभ के मातोश्री जाने से एक रोचक प्रसंग जुड़ा है। मुंबई के सांप्रदायिक दंगों पर 1995 में मणि रत्नम ने 'बॉम्बे' नाम से एक फ़िल्म बनाई थी। फ़िल्म में शिवसैनिक मुसलमानों को मारते-लूटते हुए दिखाए गए थे। अंत में बाल ठाकरे जैसा किरदार हिंसा पर दुख प्रकट करता दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने फ़िल्म का विरोध किया और इसे मुंबई के सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं होने देने का एलान किया। अमिताभ बच्चन ठाकरे की कंपनी फ़िल्म की वितरक थी। अमिताभ मातोश्री गए और पूछा कि फिल्म का विरोध क्यों? तो बाल ठाकरे ने कहा, “फिल्म में मेरा किरदार निभाने वाला व्यक्ति दंगों पर दुख प्रकट कर रहा है। यह मुझे मंज़ूर नहीं। मैं कभी किसी चीज़ पर दुख नहीं प्रकट करता।"

दरअसल, 19 जून 1966 को अपने दादर के आवास श्रीकृष्णा सदन में शिवसेना की स्थापना करने वाले बाल ठाकरे का जन्म पुणे में हुआ और बचपन भिवंडी में गुज़रा। बाद में उनके पिता केशव ठाकरे (प्रबोधनकार ठाकरे) काला तालाव आ गए। साठ के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक ने कलाकारों के लिए बांद्रा पूर्व में मीठी नदी के पास एक कालोनी बनाई और उसका नाम कलानगर रखा। वहां सभी कलाकारों-साहित्यकारों और पत्रकारों को एक रुपए प्रति फुट के भाव से प्लॉट दिया। बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट थे और ‘मार्मिक’ पत्रिका का प्रकाशन करते थे। लिहाज़ा उनको भी एक प्लॉट मिला और 1969 में पत्नी मीनाताई और बेटों समेत मातोश्री बंगले में आ गए थे। पहले मातोश्री एक मंजिला साधारण बंगला था।

साहित्यकार डॉ. पुष्पा भारती बताती हैं, ‘1969 में जब बालासाहेब रहने के लिए आए तो एक दिन डॉ. धर्मवीर भारती से मिलने के लिए हमारे घर आए। डॉक्टर साहब की लाइब्रेरी में एक से एक दुर्लभ किताबें देखकर वे बहुत खुश हुए और डॉक्टर साहब से कहा कि मुझे किताब पढ़ने के लिए नियमित आने की अनुमति दीजिए। इसके बाद कई बार वह कई बार मेरे यहां आए। 1995 में जब शिवेसना-भाजपा गठबंधन सत्ता महाराष्ट्र में आई तो मातोश्री बंगले में सुधार करके उसे तीन मंजिला कर दिया गया। उसके बाद ही यह बंगला धीरे-धीरे राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया और अंत में शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित हो गया।

दरअसल, बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे ने अपने पिता की बनाई ‘मातोश्री परंपरा’ को जारी रखने की भरसक कोशिश की। वह लोगों से मातोश्री में ही मिलते थे। अमित शाह भी उनसे मिलने एक बार मातोश्री गए थे। ठाकरे परिवार को जानने वाले राजनीतिक पत्रकारों का मानना है कि उद्धव ठाकरे में बाल ठाकरे जैसा करिश्मा उनमें नहीं दिखा। इसका असर कालांतर में दिखने भी लगा। वस्तुतः जब शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन किया था तो शिवसेना बड़े भाई के किरदार में थी, लेकिन आज दृश्य पूरी तरह बदल गया है।

बात सही भी है, बाल ठाकरे के दौर में शिवसेना की उंगली पकड़ कर चलने वाली भाजपा उद्धव ठाकरे के दौर में, ख़ासकर राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उदय के बाद धीरे-धीरे कब शिवसेना से आगे निकल गई उद्धव को पता ही नहीं चला। 2014 के विधान सभा चुनाव तक शिवसेना की ताकत घट गई थी, लेकिन इस सच को स्वीकार करने के लिए उद्धव ठाकरे तैयार नहीं थे। लिहाज़ा, गठबंधन में शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने की शर्त रख दी। बातचीत के लिए भाजपा नेता मातोश्री जाने के लिए तैयार नहीं हुए तो उद्धव ठाकरे ने आदित्य ठाकरे और सुभाष देसाई को भाजपा नेताओं से मिलने भेजा। इसके बाद दोनों का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। चुनाव प्रचार में उद्धव की भाषा भाजपा नेताओं खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बेहद तल्ख़ रही।

बहरहाल, महाराष्ट्र की जनता के जनादेश ने साबित कर दिया कि शिवसेना को अगर गठबंधन में रहना है तो छोटे भाई के रूप में ही रहना होगा, क्योंकि अकेले चुनाव लड़कर भाजपा 2009 के 46 सीट से 2014 में 122 सीट तक पहुंच गई, जबकि शिवसेना 45 से 63 तक ही सीमित रह गई। भाजपा को सरकार बनाने के लिए केवल 23 विधायकों की ज़रूरत थी। उद्धव पोस्ट-इलेक्शन गठबंधन नहीं करना चाहते थे, लेकिन शिवसेना विधायकों के दबाव और विद्रोह की आशंका के चलते उनको मजबूरी में सरकार में शामिल होना पड़ा।

बड़ा भाई से छोटा भाई बन जाने के अपमान के घूंट को उद्धव ठाकरे ने पी तो लिया, लेकिन उसे दिल से स्वीकार नहीं कर पाए। इसीलिए इस बार पहले बेटे आदित्य ठाकरे को देवेंद्र फड़णवीस की महाजनादेश यात्रा के समांतर विजय संकल्प मेलावा पर भेजा और उन्हें ‘नया महाराष्ट्र’ बनाने का आह्वान करने का निर्देश दिया। इस दौरान उनके निर्देश पर उनके लेफ़्टिनेंट संजय राउत आदित्य ठाकरे को राज्य का चीफ मिनिस्टर बनाने की बात करते रहे। उसी समय लग गया था, शिवसेना भाजपा और देवेंद्र फड़णवीस के लिए भस्मासुर साबित होने जा रही है।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

क्यों गोडसे का नाम भर लेने से असहिष्णु हो जाते हैं लोग ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
नाथूराम विनायक गोडसे। दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक और राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी का हत्यारा। बीती सदी का सबसे बड़ा विलेन। भारतीय भूमि पर पाकिस्तान नाम के देश का निर्माण करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना से भी बड़ा खलनायक। इतना बड़ा खलनायक कि लोग सार्वजनिक तौर पर उसके लिए सम्मानजनक संबोधन करने में भी हिचकते हैं। कोई उसे क़ातिल कहता है तो कोई आतंकवादी। कई लोग तो उसे आज़ाद भारत का पहला दहशतगर्द भी कहते हैं। कोई उसकी तुलना ओसामा बिन लादेन से करता है तो कोई अबु बकर अल बग़दादी से। दरअसलइस सहिष्णु देश में एक बड़ा तबका नाथूराम गोडसे का नाम सुनते ही असहिष्णु हो जाता है। कह सकते हैं कि इस देश में नाथूराम गोडसे को लेकर एक ग्रंथि पैदा हो गई है। जिसके कारण लोग गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही आक्रामक हो जाते हैं और नाम लेने वाले को ही अनाप-शनाप बोलने लगते हैं। हालांकि, एक तरह से इस तरह की सोच को तालिबानी सोच कहते हैंजहां विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि फ़िलहाल यह कल्चर भारतीय समाज में अस्तित्व में है।

आपको याद होगा, पिछली गर्मियों में लोकसभा चुनाव के दौरान बतौर भाजपा उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के चुनाव प्रचार के दौरान नाथूराम गोडसे को देशभक्त कह देने से पूरे देश में भूचाल-सा आ गया था। एक बार तो भाजपा भी टेंशन में आ गई थी कि कहीं साध्वी के बयान से उसका राजनीतिक खेल तो गड़बड़ नहीं हो जाएगा। लिहाज़ा, भाजपा की ओर से प्रज्ञा को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया। इतना ही नहीं, सर्वोच्च भाजपा नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्पष्टीकरण देना पड़ा। उन्होंने कहा कि इस बयान के लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं कर सकेंगे। विपक्ष तो साध्वी की उम्मीदवारी को ही खारिज़ करने की मांग कर रहा था। अंततः ‘गोडसे आतंकवादी नहीं देशभक्त थे’ बोलने वाली साध्वी प्रज्ञा को भारी दबाव के चलते अनमने ढंग से माफ़ी मांगनी पड़ी। इसके बावजूद भोपाल की जनता ने साध्वी को ही अपना प्रतिनिधि यानी लोकसभा सदस्य चुन लिया।

वैसे स्वस्थ लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी सभ्य समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंजाइश होती है। भारत में यह गुंजाइश है भी। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को एक अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष में या विपक्ष में अपना विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसी को अभिव्यक्ति की आजादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहेभले ही वह प्रथमदृष्ट्या गोडसे के पक्ष में ही लगता प्रतीत होतो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क या साक्ष्य दे रहा है।

यह सच है और साबित भी हो चुका है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को सरेआम गोली मार दी थी जिससे घटनास्थल पर ही बापू की मौत हो गई थी। यानी गोडसे ने एक इंसान ही नहींबल्कि इस देश को आज़ादी दिलाने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महात्मा गांधी की जीवनलीला ख़त्म कर दी थी। यानी वह राष्ट्रपिता की जान लेने वाला हत्यारा था। इसके लिए उसे क़ानून के अनुसार सज़ा मिलनी चाहिए। उसे क़ानून के अनुसार सज़ा देने के लिए उसके ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा चलाया गया। उसे निचली अदालत ने दोषी क़रार दिया और फ़ांसी की सज़ा सुनाई। जिसे गोडसे ने स्वीकार किया। चूंकि बाक़ी आरोपियों ने फ़ैसले को चुनौती दी, जिससे नाथूराम की भी शिमला हाईकोर्ट में पेशी हुई। हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान दूसरे आरोपियों की तरह गोडसे को भी अपना बचाव करने का पूरा अवसर दिया। इसका लाभ उठाकर गोडसे ने अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराने के लिए बहुत लंबा बयान दिया था। अंत में हाईकोर्ट ने भी दोषी माना और मौत की सज़ा को बरक़रार रखा। अंत में गोडसे और कथित तौर पर उसका साथ देने वाले उसके सहयोगी नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी दे दी गई।

लेकिन यह भी सच है कि गोडसे को सज़ा देने में जांच दल और अदालतों द्वारा असाधारण तेज़ी दिखाई गई और हत्या के एक साल 10 महीने और 15 दिन भीतर गोडसे और आप्टे को फ़ांसी पर लटका दिया गया। भारत में स्वतंत्रता के बाद 70 साल के दौरान अधिकारिक सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 52 लोगों को फ़ांसी की सजा दी गई है। हालांकि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के अनुसार 1947 से अब तक कुल 755 लोगों की मृत्युदंड दिया गया है। सबसे अहम अपराध के बाद न्यूनतम पांच साल से पहले किसी को सज़ा नहीं दी गई। हत्या के 15-15 साल ही नहीं 20-20 साल और कहीं कहीं 25 साल बाद तक आरोपी को फ़ांसी नहीं दी जाती। विलंब के कारण कई ग़ुनाहग़ारों की मौत की सज़ा को उम्रक़ैद में तब्दील हो गई। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फ़ांसी की सज़ा सुप्रीम कोर्ट ने उम्रक़ैद में बदल दी, क्योंकि दया याचिका पर फ़ैसला लेने में राष्ट्रपति ने कुछ ज़्यादा देर कर दी। 2013 में 22 पुलिसकर्मियों के हत्या करने वाले चंदन तस्कर वीरप्पन के 15 साथियों की फ़ांसी को उम्रक़ैद में बदल दिया गया। 2014 में खालिस्तानी आतंकी देवेंद्रपाल सिंह भुल्लर की फ़ांसी उम्रक़ैद हो गई।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आख़िर क्यों नाथूराम और नाना को हत्या की वारदात के दो साल से भी कम समय में फ़ांसी दे दी गईक्या गोडसे और आप्टे के साथ न्यायपालिकाकार्यपालिका और विधायिका की तरफ़ से घोर नाइंसाफी हुई थी? भारतीय पुलिस और भारतीय न्यायालयों ने महात्मा गांधी हत्याकांड के मुक़दमे की सुनवाई में जितनी तेज़ी दिखाईवैसी मिसाल भारतीय न्यायपालिका के संपूर्ण इतिहास में देखने को नहीं मिलती। इस प्रकरण का जो भी निष्पक्ष और विचारपूर्वक अध्ययन करेगाउसे निश्चित रूप से संदेह होगा है कि संभवतः भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों - न्यायपालिकाकार्यपालिका और विधायिका - ने 30 जनवरी 1948 को ही तय कर लिया था कि गांधी के हत्यारों को जल्दी से जल्दी फ़ांसी पर लटकाना है। यानी तीनों स्तंभों ने उसी दिन साज़िश रच दी थी कि हत्यारों को मृत्युदंड से कम सज़ा नहीं देनी है और यथाशीघ्र देनी है। वरना निचली अदालतहाईकोर्ट और प्रिवी काउंसिल (तब तक सुप्रीम कोर्ट का गठन नहीं हुआ था) ने डेढ़ साल से भी कम समय में फ़ांसी की सज़ा को अंतिम स्वीकृति दे दी थी।

वस्तुतः नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या करने के बाद ही अपने ज़ुर्म का इक़बाल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण हरण किया है। एक ज़िंदगी को ख़त्म की है। लिहाज़ाउसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। अपने इसी तर्क के चलते उसने अपनी सज़ा के ख़िलाफ हाईकोर्ट में अपील नहीं की। उसने यह भी कहा था कि गांधी की हत्या के कार्य को उसने अकेले अंजाम दिया हैइसलिए उसके अपराध की सज़ा उससे संबंधित दूसरे लोगों को कतई नहीं मिलना चाहिए। यही बात कहने वह हाईकोर्ट गया था। इसीलिए जब जुलाई में प्रिवी काउंसिल ने बाक़ी आरोपियों की अपील को ख़ारिज़ किया तो सप्ताह भर के भीतर गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फ़ांसी देने की तारीख़ मुक़र्रर कर दी गई। तमाम जन भावना की अनदेखी करते हुए उस दिन अंबाला जेल में दोनों को फ़ांसी के फंदे पर लटका दिया गया।

गोडसे ने नई दिल्ली के गांधीजी की हत्या बिड़ला हाउस परिसर में 30 जनवरी 1948 को शाम पांच बजकर सत्रह मिनट पर की थी। जब पेट्रोलिंग कर रहे तुगलक रोड थाने के इंस्पेक्टर दसौंधा सिंह और पार्लियामेंट थाने के डीएसपी जसवंत सिंह 5.22 बजे बिड़ला हाउस गेट पर पहुंचेतो वहां अफरा-तफरी का माहौल था। गांधी के अनुयायी रो-चिल्ला रहे थे। किसी से पुलिस अधिकारियों को पता चला किसी ने गांधीजी को गोली मार दी और ख़ुद को जनता के हवाले कर दिया है। गांधीजी को गोली मारने के बाद अपराधी द्वारा ख़ुद को जनता के हवाले करने की बात सुनकर दोनों पुलिस अफसर हैरान हुए। तब तक गांधीजी का शव अंदर उनके कमरे में ले जाया जा चुका था। लिहाज़ाजसवंत सिंह के आदेश पर दसौंधा सिंह और कुछ पुलिस वाले नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे थाने के दीवान-मुंशी डालू राम ने हत्या की एफ़आईआर लिखी। उस वक्त थाने में दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस डीवी संजीवी और डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल डीडब्ल्यू मेहता भी मौजूद थे। इसके बाद नाथूराम औपचारिक रूप से अंडर अरेस्ट हो गया।

हत्याकांड की जांच पूरी होने के बाद मुक़दमे की सुनवाई 27 मई 1949 को शुरू हुई। सभी नौ आरोपियों को लाल किला में बनाई गई विशेष अदालत में लाया गया और दिल्ली पुलिस ने हत्याकांड की जांच करके आठ आरोपियों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाख़िल किया। कहते हैं कि दिल्ली पुलिस की प्रताड़ना और डर के चलते नौवा आरोपी दिगंबर बड़गे सरकारी गवाह बन गया। बहरहाल, 21 जून को सभी पर आरोप तय कर दिए गए और अदालत की कार्यवाही शुरू हुई। 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फ़ांसी की सज़ा और पांच आरोपियों विष्णु करकरेमदनलाल पाहवागोपाल गोडसेशंकर किस्तैया और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई और विनायक दामोदर सावरकर को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया गया। यानी हत्या के एक साल 11 दिन बाद फैसला आ गया।

नाथूराम के अलावा बाकी सभी आरोपियों ने निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ ईस्ट पंजाब हाईकोर्ट में अपील की। उसके बाद हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों जस्टिस अमरनाथ भंडारीजस्टिस अच्छरूराम और जस्टिस गोपालदास खोसला की पूर्ण पीठ ने 23 मई 1949 को मुक़दमे की सुनवाई शुरू की। हाईकोर्ट ने गोडसे और आप्टे की फ़ांसी की सज़ा और विष्णु करकरेमदनलाल पाहवागोपाल गोडसे और शंकर किस्तैया की उम्र क़ैद की सज़ा को बरकरार रखा और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को रिहा कर दिया। सबसे अहम् बात हाईकोर्ट का फ़ैसला 22 जून 1949 को यानी एक महीने से एक दिन कम में ही आ गया। यहां अविश्वसनीय रूप से अदालत ने भी अभूतपूर्व तेज़ी दिखाई।

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीदिल्ली के अनुसार भारत में सन् 2000 से अब तक निचली अदालतें कुल 1617 क़ैदियों को मौत की सज़ा सुना चुकी हैंजिनमें से केवल 71 क़ैदियों को मृत्युदंड की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट व्दारा की गई है। पिछले दो दशक से तो भारत में फ़ांसी की सज़ा पर अमल ही नहीं हो रहा हैक्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के बाद 5 अपराधियों को मौत की सज़ा दी है। इस सदी में केवल 4 लोगों को फ़ांसी हुईउनमें 3 मोहम्मद अजमक कसाबमोहम्मद अफ़ज़ल गुरु और याक़ूब मेमन तो आतंकवादी थे। एक बच्ची से बलात्कार करके हत्या करने के अपराधी धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को कोलकाता के अलीपुर जेल में फ़ांसी दे दी गई थी।

दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों को वारदात के छह साल बाद भी फ़ांसी नहीं दी जा सकी है। निचली अदालत ने पांचों को पहले ही सुना दी थी. उसे दिल्ली हाईकोर्ट ने बरकरार भी रखा। सुप्रीम कोर्ट भी उस सज़ा पर अपनी मुहर लगा चुका है। लेकिन अभी तक अपराधी ज़िंदा हैं। कहने का मतलब भारतीय न्यायपालिका शुरू से लचर रही है। कोई भी केस होउसे टालने की परंपरा रही है। ऐसे में किसी किसी एक केस में अदालतों के साथ पूरे सिस्टम का कुछ ज़्यादा सक्रिय होकर आनन-फानन में फ़ैसला देना मन में संदेह पैदा करता है। अगर गोडसे और आप्टे के साथ वाक़ई नाइंसाफी हुई तो कह सकते हैं कि 15 नवंबर का दिन शोक का दिन है। कहते हैं, हरियाणा के अंबाला शहर में 15 नवंबर 1949 को ग़म का माहौल था भी। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा थातो सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखीं।

दरअसल, देश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करेंताकि वह बता सकें कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन गए थे। गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहींबल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” दरअसलगोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता थाइसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार थेलेकिन उन्हें जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादियों आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थीलेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधी की हत्या पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।