हरिगोविंद विश्वकर्मा
नाथूराम विनायक गोडसे। दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक और राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी का हत्यारा। बीती सदी का सबसे बड़ा विलेन। भारतीय भूमि पर पाकिस्तान नाम के देश का निर्माण करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना से भी बड़ा खलनायक। इतना बड़ा खलनायक कि लोग सार्वजनिक तौर पर उसके लिए सम्मानजनक संबोधन करने में भी हिचकते हैं। कोई उसे क़ातिल कहता है तो कोई आतंकवादी। कई लोग तो उसे आज़ाद भारत का पहला दहशतगर्द भी कहते हैं। कोई उसकी तुलना ओसामा बिन लादेन से करता है तो कोई अबु बकर अल बग़दादी से। दरअसल, इस सहिष्णु देश में एक बड़ा तबका नाथूराम गोडसे का नाम सुनते ही असहिष्णु हो जाता है। कह सकते हैं कि इस देश में नाथूराम गोडसे को लेकर एक ग्रंथि पैदा हो गई है। जिसके कारण लोग गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही आक्रामक हो जाते हैं और नाम लेने वाले को ही अनाप-शनाप बोलने लगते हैं। हालांकि, एक तरह से इस तरह की सोच को तालिबानी सोच कहते हैं, जहां विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि फ़िलहाल यह कल्चर भारतीय समाज में अस्तित्व में है।
आपको याद होगा, पिछली गर्मियों में लोकसभा चुनाव के दौरान बतौर भाजपा उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के चुनाव प्रचार के दौरान नाथूराम गोडसे को देशभक्त कह देने से पूरे देश में भूचाल-सा आ गया था। एक बार तो भाजपा भी टेंशन में आ गई थी कि कहीं साध्वी के बयान से उसका राजनीतिक खेल तो गड़बड़ नहीं हो जाएगा। लिहाज़ा, भाजपा की ओर से प्रज्ञा को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया। इतना ही नहीं, सर्वोच्च भाजपा नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्पष्टीकरण देना पड़ा। उन्होंने कहा कि इस बयान के लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं कर सकेंगे। विपक्ष तो साध्वी की उम्मीदवारी को ही खारिज़ करने की मांग कर रहा था। अंततः ‘गोडसे आतंकवादी नहीं देशभक्त थे’ बोलने वाली साध्वी प्रज्ञा को भारी दबाव के चलते अनमने ढंग से माफ़ी मांगनी पड़ी। इसके बावजूद भोपाल की जनता ने साध्वी को ही अपना प्रतिनिधि यानी लोकसभा सदस्य चुन लिया।
वैसे स्वस्थ लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी सभ्य समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंजाइश होती है। भारत में यह गुंजाइश है भी। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को एक अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष में या विपक्ष में अपना विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसी को अभिव्यक्ति की आजादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहे, भले ही वह प्रथमदृष्ट्या गोडसे के पक्ष में ही लगता प्रतीत हो, तो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क या साक्ष्य दे रहा है।
यह सच है और साबित भी हो चुका है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को सरेआम गोली मार दी थी जिससे घटनास्थल पर ही बापू की मौत हो गई थी। यानी गोडसे ने एक इंसान ही नहीं, बल्कि इस देश को आज़ादी दिलाने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महात्मा गांधी की जीवनलीला ख़त्म कर दी थी। यानी वह राष्ट्रपिता की जान लेने वाला हत्यारा था। इसके लिए उसे क़ानून के अनुसार सज़ा मिलनी चाहिए। उसे क़ानून के अनुसार सज़ा देने के लिए उसके ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा चलाया गया। उसे निचली अदालत ने दोषी क़रार दिया और फ़ांसी की सज़ा सुनाई। जिसे गोडसे ने स्वीकार किया। चूंकि बाक़ी आरोपियों ने फ़ैसले को चुनौती दी, जिससे नाथूराम की भी शिमला हाईकोर्ट में पेशी हुई। हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान दूसरे आरोपियों की तरह गोडसे को भी अपना बचाव करने का पूरा अवसर दिया। इसका लाभ उठाकर गोडसे ने अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराने के लिए बहुत लंबा बयान दिया था। अंत में हाईकोर्ट ने भी दोषी माना और मौत की सज़ा को बरक़रार रखा। अंत में गोडसे और कथित तौर पर उसका साथ देने वाले उसके सहयोगी नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी दे दी गई।
लेकिन यह भी सच है कि गोडसे को सज़ा देने में जांच दल और अदालतों द्वारा असाधारण तेज़ी दिखाई गई और हत्या के एक साल 10 महीने और 15 दिन भीतर गोडसे और आप्टे को फ़ांसी पर लटका दिया गया। भारत में स्वतंत्रता के बाद 70 साल के दौरान अधिकारिक सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 52 लोगों को फ़ांसी की सजा दी गई है। हालांकि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के अनुसार 1947 से अब तक कुल 755 लोगों की मृत्युदंड दिया गया है। सबसे अहम अपराध के बाद न्यूनतम पांच साल से पहले किसी को सज़ा नहीं दी गई। हत्या के 15-15 साल ही नहीं 20-20 साल और कहीं कहीं 25 साल बाद तक आरोपी को फ़ांसी नहीं दी जाती। विलंब के कारण कई ग़ुनाहग़ारों की मौत की सज़ा को उम्रक़ैद में तब्दील हो गई। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फ़ांसी की सज़ा सुप्रीम कोर्ट ने उम्रक़ैद में बदल दी, क्योंकि दया याचिका पर फ़ैसला लेने में राष्ट्रपति ने कुछ ज़्यादा देर कर दी। 2013 में 22 पुलिसकर्मियों के हत्या करने वाले चंदन तस्कर वीरप्पन के 15 साथियों की फ़ांसी को उम्रक़ैद में बदल दिया गया। 2014 में खालिस्तानी आतंकी देवेंद्रपाल सिंह भुल्लर की फ़ांसी उम्रक़ैद हो गई।
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आख़िर क्यों नाथूराम और नाना को हत्या की वारदात के दो साल से भी कम समय में फ़ांसी दे दी गई? क्या गोडसे और आप्टे के साथ न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की तरफ़ से घोर नाइंसाफी हुई थी? भारतीय पुलिस और भारतीय न्यायालयों ने महात्मा गांधी हत्याकांड के मुक़दमे की सुनवाई में जितनी तेज़ी दिखाई, वैसी मिसाल भारतीय न्यायपालिका के संपूर्ण इतिहास में देखने को नहीं मिलती। इस प्रकरण का जो भी निष्पक्ष और विचारपूर्वक अध्ययन करेगा, उसे निश्चित रूप से संदेह होगा है कि संभवतः भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों - न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका - ने 30 जनवरी 1948 को ही तय कर लिया था कि गांधी के हत्यारों को जल्दी से जल्दी फ़ांसी पर लटकाना है। यानी तीनों स्तंभों ने उसी दिन साज़िश रच दी थी कि हत्यारों को मृत्युदंड से कम सज़ा नहीं देनी है और यथाशीघ्र देनी है। वरना निचली अदालत, हाईकोर्ट और प्रिवी काउंसिल (तब तक सुप्रीम कोर्ट का गठन नहीं हुआ था) ने डेढ़ साल से भी कम समय में फ़ांसी की सज़ा को अंतिम स्वीकृति दे दी थी।
वस्तुतः नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या करने के बाद ही अपने ज़ुर्म का इक़बाल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण हरण किया है। एक ज़िंदगी को ख़त्म की है। लिहाज़ा, उसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। अपने इसी तर्क के चलते उसने अपनी सज़ा के ख़िलाफ हाईकोर्ट में अपील नहीं की। उसने यह भी कहा था कि गांधी की हत्या के कार्य को उसने अकेले अंजाम दिया है, इसलिए उसके अपराध की सज़ा उससे संबंधित दूसरे लोगों को कतई नहीं मिलना चाहिए। यही बात कहने वह हाईकोर्ट गया था। इसीलिए जब जुलाई में प्रिवी काउंसिल ने बाक़ी आरोपियों की अपील को ख़ारिज़ किया तो सप्ताह भर के भीतर गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फ़ांसी देने की तारीख़ मुक़र्रर कर दी गई। तमाम जन भावना की अनदेखी करते हुए उस दिन अंबाला जेल में दोनों को फ़ांसी के फंदे पर लटका दिया गया।
गोडसे ने नई दिल्ली के गांधीजी की हत्या बिड़ला हाउस परिसर में 30 जनवरी 1948 को शाम पांच बजकर सत्रह मिनट पर की थी। जब पेट्रोलिंग कर रहे तुगलक रोड थाने के इंस्पेक्टर दसौंधा सिंह और पार्लियामेंट थाने के डीएसपी जसवंत सिंह 5.22 बजे बिड़ला हाउस गेट पर पहुंचे, तो वहां अफरा-तफरी का माहौल था। गांधी के अनुयायी रो-चिल्ला रहे थे। किसी से पुलिस अधिकारियों को पता चला किसी ने गांधीजी को गोली मार दी और ख़ुद को जनता के हवाले कर दिया है। गांधीजी को गोली मारने के बाद अपराधी द्वारा ख़ुद को जनता के हवाले करने की बात सुनकर दोनों पुलिस अफसर हैरान हुए। तब तक गांधीजी का शव अंदर उनके कमरे में ले जाया जा चुका था। लिहाज़ा, जसवंत सिंह के आदेश पर दसौंधा सिंह और कुछ पुलिस वाले नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे थाने के दीवान-मुंशी डालू राम ने हत्या की एफ़आईआर लिखी। उस वक्त थाने में दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस डीवी संजीवी और डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल डीडब्ल्यू मेहता भी मौजूद थे। इसके बाद नाथूराम औपचारिक रूप से अंडर अरेस्ट हो गया।
हत्याकांड की जांच पूरी होने के बाद मुक़दमे की सुनवाई 27 मई 1949 को शुरू हुई। सभी नौ आरोपियों को लाल किला में बनाई गई विशेष अदालत में लाया गया और दिल्ली पुलिस ने हत्याकांड की जांच करके आठ आरोपियों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाख़िल किया। कहते हैं कि दिल्ली पुलिस की प्रताड़ना और डर के चलते नौवा आरोपी दिगंबर बड़गे सरकारी गवाह बन गया। बहरहाल, 21 जून को सभी पर आरोप तय कर दिए गए और अदालत की कार्यवाही शुरू हुई। 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फ़ांसी की सज़ा और पांच आरोपियों विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे, शंकर किस्तैया और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई और विनायक दामोदर सावरकर को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया गया। यानी हत्या के एक साल 11 दिन बाद फैसला आ गया।
नाथूराम के अलावा बाकी सभी आरोपियों ने निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ ईस्ट पंजाब हाईकोर्ट में अपील की। उसके बाद हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों जस्टिस अमरनाथ भंडारी, जस्टिस अच्छरूराम और जस्टिस गोपालदास खोसला की पूर्ण पीठ ने 23 मई 1949 को मुक़दमे की सुनवाई शुरू की। हाईकोर्ट ने गोडसे और आप्टे की फ़ांसी की सज़ा और विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे और शंकर किस्तैया की उम्र क़ैद की सज़ा को बरकरार रखा और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को रिहा कर दिया। सबसे अहम् बात हाईकोर्ट का फ़ैसला 22 जून 1949 को यानी एक महीने से एक दिन कम में ही आ गया। यहां अविश्वसनीय रूप से अदालत ने भी अभूतपूर्व तेज़ी दिखाई।
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के अनुसार भारत में सन् 2000 से अब तक निचली अदालतें कुल 1617 क़ैदियों को मौत की सज़ा सुना चुकी हैं, जिनमें से केवल 71 क़ैदियों को मृत्युदंड की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट व्दारा की गई है। पिछले दो दशक से तो भारत में फ़ांसी की सज़ा पर अमल ही नहीं हो रहा है, क्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के बाद 5 अपराधियों को मौत की सज़ा दी है। इस सदी में केवल 4 लोगों को फ़ांसी हुई, उनमें 3 मोहम्मद अजमक कसाब, मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु और याक़ूब मेमन तो आतंकवादी थे। एक बच्ची से बलात्कार करके हत्या करने के अपराधी धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को कोलकाता के अलीपुर जेल में फ़ांसी दे दी गई थी।
दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों को वारदात के छह साल बाद भी फ़ांसी नहीं दी जा सकी है। निचली अदालत ने पांचों को पहले ही सुना दी थी. उसे दिल्ली हाईकोर्ट ने बरकरार भी रखा। सुप्रीम कोर्ट भी उस सज़ा पर अपनी मुहर लगा चुका है। लेकिन अभी तक अपराधी ज़िंदा हैं। कहने का मतलब भारतीय न्यायपालिका शुरू से लचर रही है। कोई भी केस हो, उसे टालने की परंपरा रही है। ऐसे में किसी किसी एक केस में अदालतों के साथ पूरे सिस्टम का कुछ ज़्यादा सक्रिय होकर आनन-फानन में फ़ैसला देना मन में संदेह पैदा करता है। अगर गोडसे और आप्टे के साथ वाक़ई नाइंसाफी हुई तो कह सकते हैं कि 15 नवंबर का दिन शोक का दिन है। कहते हैं, हरियाणा के अंबाला शहर में 15 नवंबर 1949 को ग़म का माहौल था भी। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा था, तो सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखीं।
दरअसल, देश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह बता सकें कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन गए थे। गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता था, इसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार थे, लेकिन उन्हें जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादियों आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थी, लेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधी की हत्या पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।
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