शिवसेना का ट्रांसफॉर्मेशन – पहले कट्टर मराठीवाद, फिर कट्टर हिंदुत्व और अब सेक्युलर शिवसेना
हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र की राजनीति के अगर मौजूदा हालात पर नज़र डालें तो साफ़ है कि अगर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस ने शिवसेना का समर्थन किया तो शिवसेना का राज्य में अपना मुक्यमंत्री बनाने का सपना तीसरी बार और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की मौत के बाद पहली बार साकार कर सकती है। जो भाजपा के साथ गठबंधन में रहते संभव नहीं था। हालांकि इसके लिए इस भगवा पार्टी को भगवा राजनीति की ही तिलांजलि देनी होगी, जो उसकी अब तक पहचान रही है।
भारत में क़रीब सात दशक के लोकतांत्रिक इतिहास में कई दलों ने अपनी विचारधारा में समय के साथ बदलाव किए। इसकी जीती जागती मिसाल शिवसेना है। अपने जन्म के समय से मराठी मानुस का नारा देकर पहले दक्षिण भारतीयों फिर उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर उगलने वाली शिवसेना बाद में कट्टर हिदुत्ववाद का रास्ता अख़्तियार कर लिया और अब भगवा की पैरोकार यह राजनीतिक पार्टी राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा वाले दो दलों एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन लेने जा रही है।
दरअसल, शिवसेना का जन्म 19 जून 1966 को कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने कांग्रेस नेता महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक की शह पर किया था। बाद में कांग्रेस ने शिवसेना का इस्तेमाल मुंबई ट्रेड यूनियान्स खासकर मिलों में कम्युनिस्टों के वर्चस्व को ख़त्म करने लगी। इससे बाल ठाकरे की ताक़त बढञने लगी। इसी बीच ठाकरे की कांग्रेस से मतभेद हो गया और शिवसेना कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित हुई। बहराहल, पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक में शिवसेना ने मराठी मानुस का नारा दिया और दक्षिण भारतीयों के खिलाफ हमले की आक्रामक मुहिम शुरू की। इसके बाद शिवसेना के निशाने पर उत्तर भारतीय खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग आ गए। शिवसेना के लोग उनको परप्रांतीय कहकर उन पर हमला करने लगे। उत्तर भारतीयों पर शिवसेना के हमले की बात उत्तर भारतीय अभी तक नहीं भूले हैं।
बहराहल, अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर के लिए राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद सहसा शिवसेना में बदलाव आया। उसके लिए कट्टर मराठीवाद से भी ऊपर कट्टर हिंदुत्वाद हो गया। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने घोषित तौर पर कट्टर हिदुत्व का रास्ता अपना लिया। इसके बाद कई मामलों में शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर भाजपा से भी ज़्यादा आक्रामक रही। सीनियर ठाकरे और उनका मुखपत्र सामना देश के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते रहे। इसीलिए महाराष्ट्र ही नहीं देश के हिंदू उनके नाम के आगे ‘हिदुं हृदय सम्राट’ का अलंकरण लगाया जाने लगा। बाल ठाकरे तो यहां तक दावा करते रहे कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को कारसेवा में गए शिवसेना कार्यकर्ताओं ने ही ढहाया था। इसके बाद से ही देश में शिवसेना हिंदुत्व की प्रतिनिधि दल रहा है। लोग शिवसेना को भाजपा से ज्यादा कट्टर हिदुत्ववाली पार्टी मानते थे।
बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उनके बेटे उद्धव ठाकरे भी कट्टर हिंदुत्व के रास्ते पर ही चलते रहे। वह भाजपा पर राम मंदिर निर्माण की राह में आई बाधाओं के जानबूझकर दूर न करने का भी आरोप लगाते रहे। इतना ही नहीं उद्धव ने अपने बेटे आदित्य ठाकरे के साथ अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर जोर देने के लिए पिछले वर्ष अयोध्या का दौरा किया। उनके उस दौरे को खूब हाइप भी मिला, क्योंकि ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार महाराष्ट्र के बाहर निकला था।
यह संयोग ही है कि जब अयोध्या विवाद का सैद्धांतिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने हल कर दिया और रामलला के विवादित स्थल को हिंदुओं को राम मंदिर बनाने के लिए सौंप दिया, ठीक उसी समय शिवसेना उस मुकाम पर पहुंच गई जब उसे कट्टर हिंदुत्व या अपना महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री दोनों में से एक का चयन करना है। एनसीपी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने पर निश्चित तौर पर शिवसेना को कट्टर हिंदुत्व का मार्ग छोड़ना पड़ेगा। शिवसेना अब अपने उस नारे को भी छोड़ना पड़ेगा, जिसमें वह अब तक अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बात करती रही है।
इस तरह भाजपा और शिवसेना के बीच 1980 के दशक के अंत से चला आ रहा गठबंधन रविवार की शाम भाजपा के राज्य में सरकार न बनाने के फ़ैसले के साथ टूट गया। इसीलिए भाजपा ने राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी को बताया कि शिवसेना के कथित बेईमानी और गठबंधन का धर्म निभाने से इनकार करने के कारण वह राज्य में सरकार नहीं बनाने का फैसला किया है। इसके बाद राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी शिवसेना से पूछा कि क्या वह राज्य में सरकार के गठन के लिए इच्छुक है और इसके लिए उसके पास विधायक बल है?
शिवसेना प्रवक्ता और उद्धव ठाकरे के लेफ़्टिनेंट संजय राऊत ने कहा कि पार्टी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के हवाले से कहा कि शिवसेना सरकार बनाएंगी। वैसे भी भाजपा के सरकार बनाने से इनकार करने के बाद शिवसेना के लिए
शिवसेना के पास केवल 56 विधायक हैं। यानी सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 88 विधायकों के समर्थन के लिए शिवसेना सेक्यूलर दलों एनसीपी -कांग्रेस पर निर्भर रहेगी। यानी शिवसेना को अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपने दो परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों एनसीपी और काग्रेस का समर्थन लेना पड़ेगा। ये दोनों दल शिवसेना को तभी समर्थन देंगे जब शिवसेना कट्टर हिदुत्ववाद के अपने एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल देगी।
इन परिस्थियों में यहां अब सवाल उठेगा कि बाल ठाकरे की शिवसेना उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के अनुवाई में सत्ता के लिए अपने कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता वाक़ई छोड़ देगी और सेक्यूलर शब्द को हमेशा ‘छद्म’ कहने वाली शिवसेना सेक्यूलर रास्ता अख़्तियार करेगी? शिवसेना सत्ता के लिए अगर कट्टर हिंदुत्ववाद का मार्ग छोड़कर ‘सेक्यूलर शिवसेना’ में ट्रांसफॉर्म होती है तो यह महाराष्ट्र ही नहीं देश की राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन होगा।
वैसे भाजपा और शिवसेना का गठबंधन अवसरवादिता की मिसाल रहा है। इसलिए भारत की राजनीति का यह सबसे कम भरोसेमंद गठबंधन रहा। जब यह गठबंधन शुरू हुआ तो शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी। जब तब बाल ठाकरे जिंदा थे, तब तक शिवसेना गठबंधन में बड़े भाई के ही किरदार में रही, लेकिन उनके निधन के बाद शिवसेना सिमटने लगी और 2014 के बाद भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई। इसे उद्धव ठाकरे कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाए।
अगर 2014 के महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ठाकरे के भाषण को फिर से सुनें, तो यह साफ लगता है कि उनके मन में भाजपा और भाजपा शीर्ष नेताओं के खिलाफ बहुत अधिक विष भरा हुआ है, जिसे वह जब भी मौका मिलेगा तो उगल देंगे। इसीलिए इस बार विधान सभा चुनाव में जब भाजपा पिछली बार की बहुमत से 23 की तुलना में 40 सीट पिछड़ गई, तो उद्धव को 2014 के चुनाव और उसके बाद छोटे भाई का दर्जा स्वीकार करने के अपमान का बदला लेने का स्वर्णिम मौका मिल गया।
शिवसेना दरअसल, 2014 के बाद से ही इस मौक़े को तलाश रही थी, चूंकि भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में पहुंच गई थी, लिहाज़ा, वह वेट एंड वॉच के मोड में रही। मौके की तलाश में ही 2014 में छोटे भाई ‘भाजपा’ को 127 सीट से अधिक देने को तैयार न होने वाली शिवसेना 2019 में खून का घूंट पीकर 144 की बजाय 124 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गई।
उद्धव ठाकरे और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत जानते थे कि कांग्रेस-एनसीपी साथ चुनाव लड़ रहे हैं, लिहाजा, भाजपा के साथ गठबंधन करके लड़ने पर ही वह विधान सभा में सम्मानजनक सीट हासिल कर सकती है। अन्यथा वह बहुत ज्यादा घाटे में जा सकती है। उसके सामने 2014 का उदाहरण था, जब चुनाव में पूरी ताक़त लगाने के बावजूद वह 63 सीट से आगे नहीं बढ़ पाई, जबकि भाजपा उसके लगभाग दोगुना यानी 122 सीट जीतने में सफल रही। इसीलिए फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले की बात करने वाले उद्धव और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत भाजपा से केवल 124 सीट मिलने पर चुप रहे। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान, जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेता बोल रहे थे कि इस बार चुनाव देवेंद्र फडवीस के नेतृत्व मे लड़ा जा रहा है और वहीं अगले पांच साल मुख्यमत्री रहेंगे, तब भी पिता-पुत्र ने खामोश रहने में अपना हित समझा।
24 अक्टूबर का दिन उद्धव ठाकरे और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत के लिए बदला लेने का दिन था। चुनाव परिणाम में भाजपा की 18 सीट कम होने से दोनों नेता अचानक से फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले का राग आलापने लगे और ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री और सरकार में बराबर मंत्रालय की मांग करने लगे। वह जानते थे कि भाजपा पिछली बार की तरह मजबूत पोजिशन में नहीं है, वह शिवसेना के समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकती। अचानक से शिवसेना की बारगेनिंग पावर बहुत बढ़ गई थी।
महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन में ‘बड़ा भाई’ बनने की हसरत पाले उद्धव ठाकरे की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। वह बार-बार हवाला दे रहे हैं कि उन्होंने अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को वचन दिया है कि महाराष्ट्र में एक न एक दिन शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर ही रहेंगे। हां इसके लिए उन्हें अपने कट्टर हिंदूत्वाद के एजेंडे को छोड़ना पड़ेगा जो शिवसेना की एक तरह से पहचान रही है।
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