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रविवार, 10 नवंबर 2019

क्या शिवसेना कांग्रेस- एनसीपी के साथ जाने के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़ देगी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच 1980 के दशक के अंत से शुरू हुए रोमांस का शिवसेना की हठधर्मिता के चलते क़रीब-क़रीब अंत हो गया है। इसीलिए भाजपा ने राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी को रविवार की शाम बता दिया कि महागठबंधन के प्रमुख सहयोगी शिवसेना के गठबंधन का धर्म निभाने से इनकार करने के कारण वह राज्य में सरकार बनाने की स्थिति में फिलहाल नहीं है। इस साथ ही भाजपा नेताओं ने शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के संभावित गठबंधन को शुभकामनाएं दी।

भाजपा के सरकार बनाने से असमर्थता जताने के तुरंत बाद शिवसेना प्रवक्ता और उद्धव ठाकरे के लेफ़्टिनेंट संजय राऊत ने कहा कि अगर उद्धव ठाकरे बोले हैं कि महाराष्ट्र का अगला मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा तो मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा ही। यानी भाजपा के सरकार बनाने से इनकार करने के बाद शिवसेना के लिए अपना मुख्यमंत्री बनाने की स्वर्णिम मौका है। लेकिन उसके पास केवल 56 विधायक हैं। यानी सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 88 विधायक एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन के होंगे। 

इसका मतलब शिवसेना को अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपने दो परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों एनसीपी और काग्रेस का समर्थन लेना पड़ेगा। ऐसे में यहां अब सवाल यह उठता है कि हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के अनुवाई में सत्ता के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़ देगी और सेक्यूलर शब्द को ‘छद्म’ कहने वाली शिवसेना सेक्यूलर रास्ता अख़्तियार करेगी? अगर शिवसेना सत्ता के लिए कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़कर ‘सेक्यूलर शिवसेना’ में ट्रांसफॉर्म होगी तो यह महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन होगा।

राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने कट्टर हिदुत्व का रास्ता अपना लिया था। बाल ठाकरे तो यहां तक दावा करते रहे कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को शिवसेना कार्यकर्ताओं ने ही ढहाया। इसके बाद से ही शिवसेना देश में हिंदुत्व की प्रतिनिधि दल रहा है। कई मामलों में शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी से भी ज़्यादा आक्रमाक रही है। सीनियर ठाकरे और उनका मुखपत्र सामना देश के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते रहे। इसीलिए महाराष्ट्र ही नहीं देश के हिंदू उनके नाम के आगे ‘हिदुं हृदय सम्राट’ का अलंकरण लगाया जाने लगा।

ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव भी कट्टर हिंदुत्व के रास्ते पर चलते रहे। वह भाजपा पर राम मंदिर निर्माण की राह में आई बाधाओं के जानबूझकर दूर न करने का भी आरोप लगाते रहे। इतना ही नहीं उद्धव अपने बेटे के साथ अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर जोर देने के लिए पिछले वर्ष अयोध्या का दौरा किया। उनके उस दौरे को खूब हाइप भी मिला, क्योंकि ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार महाराष्ट्र के बाहर निकला था।

यह संयोग ही है कि जब अयोध्या विवाद का सैद्धांतिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने हल कर दिया और रामलला के विवादित स्थल को हिंदुओं को राम मंदिर बनाने के लिए सौंप दिया, ठीक उसी समय शिवसेना उस मुकाम पर पहुंच गई जब उसे कट्टर हिंदुत्व या अपना महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री दोनों में से एक का चयन करना है। एनसीपी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने पर निश्चित तौर पर शिवसेना को कट्टर हिंदुत्व का मार्ग छोड़ना पड़ेगा। शिवसेना अब अपने उस नारे को भी छोड़ना पड़ेगा, जिसमें वह अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बात करती रही है।

अगर 2014 के महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ठाकरे के भाषण को फिर से सुने तो यह साफ हो जाएगा कि उनके मन में भाजपा और भाजपा नेताओं के खिलाफ बहुत अधिक विष भरा है, जिसे वह जब भी मौका मिलेगा तो उगल देंगे। इसीलिए जब इस बार विधान सभा चुनाव में भाजपा पिछली बार की 23 की तुलना में 40 सीट पिछड़ गई तो उद्धव को 2014 के चुनाव और उसके बाद छोटे भाई का दर्जा स्वीकार करने के अपमान का बदला लेने का मौका मिल गया।

शिवसेना दरअसल, 2014 के बाद से ही मौका तलाश रही थी, चूंकि भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में पहुंच गई थी, लिहाज़ा, वह वेट एंड वॉच के मोड में रही। मौके की तलाश में ही 2014 में छोटे भाई ‘भाजपा’ को 127 सीट से अधिक देने को तैयार न होने वाली शिवसेना 2019 में 144 की बजाय 124 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गई।

शिवसेना जानती थी कि भाजपा के साथ गठबंधन बनाकर लड़ने पर ही वह विधान सभा में सम्मानजनक सीट हासिल कर सकती है। उसके सामने 2014 का उदाहरण था, जब चुनाव में पूरी ताक़त लगाने के बावजूद शिवसेना 63 सीट से आगे नहीं बढ़ पाई, जबकि भाजपा उसके लगभाग दोगुना यानी 122 सीट जीतने में सफल रही, इसीलिए फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले की बात करने वाले उद्धव और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत 124 सीट मिलने पर चुप रहे।

दरअसल, शिवसेना नेता जानते थे कि कांग्रेस एनसीपी का गठबंधन हो गया है, लिहाजा, उसके लिए भाजपा के साथ लड़ना लाभदायक होगा। अन्यथा वह बहुत ज्यादा घाटे में जा सकती है। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान, जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेता बोल रहे थे कि इस बार चुनाव देवेंद्र फडवीस के नेतृत्व मे लड़ा जा रहा है और वहीं अगले पांच साल मुख्यमत्री रहेंगे, तब भी पिता-पुत्र ने खामोश रहने में अपना हित समझा।

24 अक्टूबर का दिन उद्धव ठाकरे और उनके लेफ़्टिनेंट संजय राऊत के लिए बदला लेने का दिन था। चुनाव परिणाम में भाजपा की 18 सीट कम होने से दोनों नेता अचानक से फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूले का राग आलापने लगे और ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री और सरकार में बराबर मंत्रालय की मांग करने लगे। वह जानते थे कि भाजपा पिछली बार की तरह मजबूत पोजिशन में नहीं है, वह शिवसेना के समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकती। अचानक से शिवसेना की बारगेनिंग पावर बहुत बढ़ गई।


महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन में ‘बड़ा भाई’ बनने की हसरत पाले उद्धव ठाकरे की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। इसीलिए मुंबई की वरली सीट से आदित्य ठाकरे चुनाव मैदान में उतारे और विधायक चुने गए। प्रमुख उद्धव ठाकरे बार-बार हवाला दे रहे हैं कि उन्होंने अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को वचन दिया है कि महाराष्ट्र में एक न एक दिन शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर ही रहेंगे।

दरअसल, 1988-89 में जब प्रमोद महाजन और बाल ठाकरे ने भाजपा और शिवसेना के बीच गठबंधन का फैसला किया तब भाजपा को राज्य में कोई ख़ास जनाधार नहीं था। उस समय शिवसेना बड़े भाई और भाजपा छोटे भाई के किरदार में थी। 1995 में जब भगवा गठबंधन की सरकार बनी तब शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री और भाजपा के गोपीनाथ मुंडे उपमुख्यमंत्री बने थे। यह सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव तक जारी रहा, लेकिन 2014 के विधान सभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा बड़े भाई के किरदार में आ गई। इस अदला-बदली को उद्धव मन से कभी स्वीकार नहीं कर सके। अब भाजपा से बदला लेने का मौका मिल तो अवसर क्यों चूकते। यानी पहले मराठी मानुस, फिर कट्टर हिंदुत्व की राह पर चलने वाली शिवसेना अब एनसीपी और कांग्रेस के साथ धर्मनिरपेक्ष हो जाएगी।

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