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रविवार, 29 सितंबर 2019

अततः ठाकरे परिवार की तीसरी पीढ़ी उतरी चुनावी राजनीति में


हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र में होने वाले विधान सभा चुनाव में एक बात पहली बार हो रही है। वह बात है आदित्य ठाकरे के विधान सभा चुनाव लड़ने की। शिवसेवना ने आधिकारिक रूप से घोषणा कर दी है कि ठाकरे परिवार की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि आदित्य ठाकरे चुनावी राजनीति में शिरकत करेंगे और ऐसा करने वाले ठाकरे परिवार के वह पहले सदस्य होंगे। महाराष्ट्र के तक़रीबन छह दशक के इतिहास में ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार जनता से वोट मांगेगा।

इस बार विधान सभा चुनाव में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी एक साथ होंगे। इसकी अभी तक औपचारिक घोषणा मंगलवार को होने की संभावना है, अगर मौजूदा फ़ॉर्मूले को दोनों पक्ष मान लेते हैं, तो भाजपा और शिवसेना क्रमशः 144 और 124 सीट पर चुनाव लड़ सकती हैं। हालांकि शिवसेना में एक तबका बराबर सीट मांग रहा था और मुख्यमंत्री पद भी ढाई-ढाई साल करने पर ज़ोर दे रहा था। इन दो बिंदुओं पर गठबंधन टूटने की भी संभावना बन गई थी, लेकिन अब सब दोनों पक्ष साथ में चुनाव मैदान में उतरने पर सहमत हो गए हैं। अगर भगवा गठबंधन की सत्ता में वापसी हुई तो भाजपा की ओर से देवेंद्र फड़णवीस मुख्यमंत्री और जूनियर ठाकरे उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकते हैं।

हालांकि पिछली बार जब भाजपा और शिवसेना के बीच पोस्ट-इलेक्शन अलायंस बना, तब मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को उपमुख्यमंत्री पद देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन इस पर विचार नहीं किया गया। लिहाजा, शिवसेना की ओर से कोई नेता उपमुख्यमंत्री नहीं बन सका। लेकिन लगता है, अब शिवसेना चाहती है कि भविष्य में राजनीति में सफलता हासिल करने के लिए आदित्य का सरकार में शामिल होना ज़रूरी है। इसी रणनीति के तहत उनको नई सरकार में उप मुख्यमंत्री बनाने की बात हो रही है।

आदित्य ठाकरे के लिए शिवसेना ने दक्षिण मुंबई की वरली विधान सभा सीट चुना है। यहां से फ़िलहाल शिवसेना के सुनील शिंदे विधायक हैं। लिहाजा, यह सीट सुरक्षित है, क्योंकि 2014 के विधान सभा चुनाव में सुनील शिंदे को 60,625 वोट मिले थे, जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस उम्मीदवार और माफिया डॉन अरुण गवली के भतीजे सचिन अहीर, जो सरकार में राज्यमंत्री भी थे, को 37,613 वोट मिले थे। इस तरह शिंदे 23 हजार से ज़्यादा वोट से जीते थे। अब सचिन अहीर ख़ुद शिवसेना में शामिल हो चुके हैं।

अगर ठाकरे परिवार के चुनावी राजनीति की बात करें, तो 31 मई, 2014 को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने मुंबई के सोमैया ग्राउंड में विधान सभा चुनाव लड़ने क ऐलान करते हुए कहा था कि अगर बहुमत मिला तो सत्ता संभालेंगे। यानी राज ने खुद को सीएम पद का प्रत्याशी उम्मीदवार कर दिया था। इससे एमएनएस कार्यकर्ताओं में जोश का संचार हो गया था, एक बार लगा कि मुमकिन है एमएनएस शिवसेना की जगह ले ले। लेकिन बाद में राज ने अपन क़दम पीछे खींच लिए और एमएनएस का एक तरह से अस्तित्व ही ख़त्म हो गया। राजनीति विश्लेषकों का मानना है कि राज ठाकरे में जो भी अपरिपक्वता है, वह चुनाव न लड़ने के कारण है।

दरअसल, किसी भी नेता या पब्लिक लाइफ़ में उतरने वाले व्यक्ति को उस हर पंचायत का अनुभव होना चाहिए, जहां डिबेट होता है। यानी उसे हर ऐसी जगह बोलना या भाषण देना चाहिए, जहां विरोध करने वाले लोग भी बैठे हों। ऐसे में नेता के भाषण का बारीक़ विश्लेषण होता है और उसे तार्किक जबाव मिलता है। तब नेता भी ख़ुद महसूस करता है कि उसने क्या ग़लत बोला या कहां उसका वक्तव्य सही नहीं था। अपने तर्क कटने से वह सावधान होता है और सीखता है। अगली बार और तैयारी एवं अध्ययन के साथ ही अपनी बात रखता है। इस प्रक्रिया से गुज़रने से नेता धीरे-धीरे परिपक्व यानी सीज़न्ड हो जाता है। इसलिए, हर नेता को विधानसभा या लोकसभा चुनाव ज़रूर लड़ना चाहिए। अगर उसे हारने का डर सता रहा हो तो वह विधान परिषद या राज्यसभा में जा सकता है। लेकिन उसे वाद-विवाद वाले फ़ोरम का मंच ज़रूर शेयर करना चाहिए।

वस्तुतः औपचारिक रूप से शिवसेना की स्थापना 19 जून 1966 को हुई, लेकिन ठाकरे परिवार के किसी सदस्य ने अब तक चुनाव नहीं लड़ा। मतलब, पूरा ठाकरे परिवार अब तक डिबेटिंग फोरम के एक्सपोज़र से वंचित रहा है। ठाकरेज (सभी ठाकरे) के भाषणों में इससे वह मैच्यौरिटी नहीं दिखती, जो सीज़न्ड पॉलिटिशियन्स में होती है। यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के बाद बाल ठाकरे महाराष्ट्र की धरती पर पैदा होने वाले सबसे लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता रहे। उनकी बड़ी हसरत थी कि प्रधानमंत्री बनें, लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने कभी लोकसभा या विधान सभा चुनाव नहीं लड़ा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हिटलर और इंदिरा गांधी के समर्थक बाल ठाकरे अगर चुनाव लड़े होते तो महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश का राजनीतिक परिदृश्य अलग हो सकता था। मुमकिन था शिवसेना तब राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभर सकती थी। ठाकरे के आलोचक भी कहते हैं कि अगर ठाकरे राष्ट्रीय राजनीति में उतरे होते तो मुमकिन था महाराष्ट्र से भी कोई देश का प्रधानमत्री बनने का गौरव पा जाता।

बहरहाल, विधान सभा या लोकसभा की बहसों के अनुभव से वंचित ठाकरे अकसर विवादित, असंवैधानिक और लोगों को नाराज़ करने वाले बयान दे देते थे, जो उनके लिए ही आफ़त बन जाता था। एक विवादित भाषण के चलते, एक बार उनकी नागरिकता छह साल के लिए छीन ली गई थी। छह साल तक वह वोट ही नहीं दे पाए थे। इसी तरह एक बार उन्होंने सभा में तत्कालीन टाडा जज को भला-बुरा कह दिया था, जिसके लिए उन्हें बाद में ख़ेद जताना पड़ा। उनके ख़िलाफ़ अकसर मानहानि के मुक़दमे दायर किए जाते थे। अगर वह चुनाव लड़े होते तो शायद यह सब न होता। कमोबेश यही अवगुण बाद में राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे में भी दिखा।

राज ठाकरे का मराठी मानुस का पूरा दर्शन ही असंवैधानिक था। उनके ख़िलाफ़ अब तक सख़्त कार्रवाई नहीं हुई, इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने जो कुछ बोला वह संविधान के दायरे में था। महाराष्ट्र या मुंबई में केवल मराठी लोगों को प्रवेश देने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। संविधान में साफ़-साफ़ लिखना होगा कि दूसरे प्रांत के लोग रोज़ी-रोटी के लिए दूसरे राज्य में नहीं जा सकते हैं। तब ही कोई नेता कह सकता है कि दूसरे प्रांत के लोग उसके राज्य में क़दम न रखें। जब तक संविधान में परिवर्तन नहीं होता किसी को किसी भारतीय नागरिक को देश के किसी कोने में जाने या रोज़ी-रोटी कमाने से रोकने का कोई हक़ नहीं है।

दरअसल, ठाकरेज़ की समस्या यह भी रही कि कम उम्र या वाद-विवाद का सामना किए बिना पार्टी के मुखिया बना दिए जाते रहे हैं। शिवसेना का जन्म होने पर मुखिया बने बाल ठाकरे 40 साल के भी नहीं थे। उन्होंने कोई चुनाव भी नहीं लड़ा था। ऐसी पृष्ठिभमि का नेता जब किसी दल का सर्वेसर्वा बनता है तो वह चमचों से घिर जाता है। चमचे किसी भी राजनेता के व्यक्तित्व के विकास में सबसे बड़ी बाधा होते हैं। दरअसल, चमचे नेता के सही को सही तो कहते ही है, नेता के ग़लत को भी डर के मारे सही कहने लगते हैं। इससे नेता अपनी कही हुई ग़लत बात को भी सही मानने लगता है। यहीं से उसका वैचारिक पतन शुरू हो जाता है। बाल ठाकरे के साथ यही हुआ। चमचों ने उन्हें वैचारिक रूप से अपरिपक्व बना दिया। अगर वह चुनाव लड़े होते। लोकसभा का अनुभव लिए होते तो निश्चित तौर पर सदन की बहस उन्हें परिपक्व करती और तब वह शर्तिया देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते थे। ठाकरे में वह क़ाबिलियत तो थी ही जो राष्ट्रीय नेता में होनी चाहिए।

बहरहाल, इसी कारण राजनीतिक हलक़ों में कहा जा रहा है कि ठाकरे परिवार सही मायने में राजनीति में अब उतर रहा है। आदित्य ने भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखकर सही फ़ैसला किया है। इस साल गर्मियों में अपनी विजय संकल्प मेलावा यात्रा में वह ‘नया महाराष्ट्र’ बनाने का आह्वान कर भी रहे थे। शिवसेना तो आदित्य का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए आगे कर रही थी। उद्धव ठाकरे की तीव्र अभिलाषा है कि उनका बेटा राज्य में शासन की बाग़डोर संभाले। मगर अभी थोड़ी जल्दी है। जल्दी ही शिवसेना को एहसास हो गया कि अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद पैदा हुए हालात में भाजपा बीस पड़ रही है। लिहाज़ा, शिवसेना के लिए भाजपा के साथ रहना फायदेमंद है। इस तरह कह सकते हैं कि अगर भगवा गठबंधन सत्ता में वापस लौटता है तो आदित्य नई सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं। हालांकि भाजपा में एक तबक़ा उपमुख्यमंत्री पद देने का भी विरोध कर रहा है।

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