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शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

मी नाथूराम गोडसे बोलतोय !


हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक सभ्य, सहिष्णु, सहनशील और क्षमाशील देश है। यहां अपराधी को माफ़ कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। इसी परंपरा के तहत लोग मौत के बदले मौत यानी फ़ांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। जिस हत्यारे को माफ़ी नहीं मिल पाती, फ़ांसी पर लटकाने के बाद लोग उसे माफ़ कर देते हैं। भारतीय इतिहास में केवल और केवल एक हत्यारा ऐसा है, जिसे मौत की नींद सुलाने के बाद भी क्षमा नहीं किया गया। वह हत्यारा है नाथूराम विनायक गोडसे। प्रखर वक्ता, लेखक-पत्रकार और दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक। जिसने किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या की। इसीलिए पूरे देश के लिए तो नहीं, एक बड़े तबक़, जिन्हें गांधीवादी कहा जा सकता है, के लिए गोडसे से ज़्यादा घृणित व्यक्ति शायद ही धरती पर मिलेगा। ऐसे में अगर कोई उसी हत्यारे गोडसे को देशभक्त कह दे तो बवाल मचना स्वाभाविक है।

यह बवाल भोपाल से भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के लोकसभा में गोडसे को देशभक्त कह देने से मचा है। साध्वी को केंद्र सरकार ने रक्षा मामलों की संसदीय समिति से बाहर कर दिया है और उनके संसदीय बैठक में भाग लेने पर रोक लगा दी गई है। मामला इतने से नहीं बना तो साध्वी से लोकसभा में माफ़ी मंगवाई गई। हालांकि, माफी मांगते समय उन्होंने एक सवाल भी उठा दिया कि कोर्ट का फ़ैसला आने से पहले उन्हें आतंकवादी कहना क्या उचित है? पिछली गर्मियों में भी साध्वी के गोडसे को देशभक्त कहने से भूचाल आ गया था। तब चुनाव चल रहा था, लिहाज़ा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं करने की बात कही थी। अहम बात यह कि गोडसे को देशभक्त कहने वाली उसी साध्वी को भोपाल की जनता ने लोकसभा सदस्य चुन लिया और नाथूराम को हत्यारा कहने वाले दिग्विजय सिंह को नकार दिया।
नाथूराम गोडसे देशभक्त था या नहीं, यह गंभीर बहस का विषय है। इस विषय पर अध्ययनशील बहस की जरूरत है। 30 जनवरी 1948 से पहले के उसके कार्यों, उसके व्यक्तित्व और उसके समाज के प्रति व्यवहार पर चर्चा होनी चाहिए। बतौर पत्रकार उसके लेखन की चर्चा होनी चाहिए। लेकिन इस देश में समस्या यह है कि गोडसे का नाम भर लेने से एक तबक़ा, जो ख़ुद को सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष कहता आ रहा है, असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। दरअसलइस देश में एक गोडसे-ग्रंथि पैदा हो गई है। जिसके कारण गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही लोग आक्रामक हो जाते हैं और नाम लेने वाले को ही अनाप-शनाप ही नहीं बोलते बल्कि उसके कैरेक्टर का भी पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं। ऐसी सोच को सभ्य समाज तालिबानी सोच कहता हैजहां विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि यह कल्चर सहिष्णु और उदार माने जाने वाले भारतीय समाज में अस्तित्व में है और उन लोगों में है, जो ख़ुद को गांधीवाद का पैरोकार कहते हैं।

वैसे सभ्य, स्वस्थ एवं स्वाधीन लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी उदार समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंज़ाइश होती है। यह गुंज़ाइश भारत में है भी। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष या विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहेभले ही वह प्रथमदृष्ट्या उसके पक्ष में ही लगता प्रतीत होतो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क या साक्ष्य दे रहा है।
हत्या बेहद अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात है। हत्या किसी भी की नागरिक की हो, उसकी भर्त्सना होती है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील इंसान को विचलित करती है। हर सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोचकर ही दहल उठता है। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशक़ीमती जान चली जाती है। हत्या को इसीलिए इंसान के जीने के अधिकार का हनन माना जाता है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में विभिन्न कारणों से रोज़ाना अनगिनत हत्याएं होती हैं। सभी में तो नहीं, कुछ हत्याओं में हत्यारे को दंड स्वरूप फ़ांसी पर लटका दिया जाता है और लोग उसे क्षमा करके आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन गोडसे को लेकर भारतीय समाज आज भी 1940 के दशक में ठहरा हुआ है। यहां सवाल यह भी है कि क्या भारत में हर हत्यारे को लेकर इतनी ही घृणा और नफ़रत है या केवल नाथूराम गोडसे के लिए ही? अगर नहीं तो गोडसे से अतिरिक्त घृणा इसलिए कि उसने राष्ट्रपिता की हत्या की। आम तौर पर देखा जाता है कि हत्या करने वाला शख़्स बचने का प्रयास करता है। लिहाज़ा, हत्या की वारदात को अंज़ाम देने के बाद घटना स्थल से भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर मुक़दमें की सुनवाई के दौरान बचने की हर संभव कोशिश करता है और अच्छे वकील की मदद लेता है। अदालतों द्वारा राहत न मिलने पर वह राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष दया की गुहार लगाते हुए मर्सी पिटीशन तक दाख़िल करता है।

इस मामले में अगर नाथूराम की बात करें, तो वस्तुतः उसने गांधीजी की हत्या करने के बाद ही अपना ज़ुर्म क़बूल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण हरण किया है। एक जीती-जागती ज़िंदगी को ख़त्म किया है। लिहाज़ाउसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उसने हत्या करने के बाद भागने की बजाय ख़ुद को लोगों के हवाले कर दिया। वह चाहता तो भाग सकता था, क्योंकि उसके रिवॉल्वर में और गोलियां थीं। लेकिन उसने दंड पाने के लिए इक़बाल-ए-ज़ुर्म करके ख़ुद को क़ानून के हवाले करना उचित समझा ताकि उस पर मुक़दमा चले और उसे दंड दिया जा सके। इसलिए जब 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाई तो उसने उसे बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया और ऊपरी अदालत में अपील न करने का फ़ैसला कर लिया। उसे सज़ा देने के लिए देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका कितनी हड़बड़ी में थी कि इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां भारत में 20-20 साल तक हत्यारों को फ़ांसी नहीं दी जाती वहीं, हत्या के 656 वें दिन गोडसे और दूसरे आरोपी नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी पर लटका दिया गया।

यह देश इतने पर ही नहीं रुका, गोडसे से जुड़ी हर वस्तु पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि अदालती कार्यवाही से जुड़े दस्तावेज़ के साथ-साथ अदालत में दिए गए गोडसे को बयान को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। उधर 15 नवंबर 1949 के दिन हरियाणा के अंबाला शहर में ग़म का माहौल था। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा थातब अंबाला जेल में सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दे दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखीं। कहने का मतलब उस समय भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जिसकी सहानुभूति गोडसे के साथ थी, क्योंकि इनमें ज़्यादातर लोग विभाजन के बाद अपना घर-परिवार गंवाकर पाकिस्तान से भारत आए थे। ये लोग विभाजन के बाद गांधीजी के रवैये से असंतुष्ट थे।

दरअसलदेश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करेंताकि वह बता सकें कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहींबल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” 

दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता थाइसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थेलेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थीलेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

कई लोगों का मानना है कि आज बाल ठाकरे अगर ज़िंदा होते तो ज़रूर भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के पक्ष में खड़े हो जाते। दरअसल, इस देश का एक बड़ा तबका नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानता है। ऐसे लोग भाजपा और शिवसेना का समर्थन करते रहे हैं। भाजपा को दो लोकसभा चुनाव में जो जनादेश मिला है, वह धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उसका दुरुपयोग करने के विरोध में मिला है। ऐसे में इसम बात में दो राय नहीं, कि अगर भाजपा साध्वी के ख़िलाफ़ अधिक सख़्त होगी तो उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है।


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