क्या अब सत्ता का केंद्र नहीं रहा मातोश्री?
हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की आज सातवीं बरसी है। क्या यह संयोग है कि उनकी बरसी ऐसे समय पड़ रही है, जब शिवसेना हिंदुत्व की बजाय राग सेक्यूलर गाने लगी है। हालांकि मौजूदा राजनीतिक हलचल के बीच एक सवाल उठ रहा है कि क्या बाल ठाकरे के बंगले मातोश्री की महत्ता अब कम होने लगी है? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि जहां बाल ठाकरे हर किसी से केवल और केवल मातोश्री में मिलते थे, वहीं उनके पुत्र और उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के दौर में लोग वार्ता के लिए मातोश्री आने की बजाय शिवसेना प्रमुख को मातोश्री से बाहर बुलाने लगे हैं।
दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने के अटल अभियान में जुटे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार के साथ पिछले 11 नवंबर को मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बांद्रा बैंडस्टैंड के ताज़ लैंड्स इंड होटल में जाना चर्चा का विषय बना हुआ है। अभी यह चर्चा चल ही रही थी कि उद्धव ठाकरे और दो दिन बाद कांग्रेस मैनेजर्स अहमद पटेल, केसी वेणुगोपाल और मल्लिकार्जुन खड़गे से भी मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बीकेसी के होटल ट्राइडेंट गए तो लोग मातोश्री का रुतबा कम होने की अटकल लगाने लगे।
दरअसल, मातोश्री मुंबई के बांद्रा पूर्व उपनगर में कलानगर का एक महज आलीशान बंगला ही नहीं, बल्कि बाल ठाकरे के दौर में सत्ता का सिंबल रहा। मातोश्री बंगला पिछले चार दशक से अधिक समय से महाराष्ट्र की राजनीति का एक प्रमुख केंद्र रहा। मुंबई में इस बंगले की महत्ता वर्षा और राजभवन से भी ज़्यादा नहीं, तो कभी कम भी नहीं रही है। मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश दुनिया का कोई भी व्यक्ति अगर शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे से मिलना या उनके साथ किसी तरह की बातचीत करना चाहता था, तो उसे मातोश्री ही जाना पड़ता था।
मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा एक रोचक प्रसंग से सहज ही लगाया जा सकता है। 1995 में शिवसेना-भाजपा की भगवा गठबंधन सत्ता में थी और वरिष्ठ शिवसेना नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। उस समय एनरॉन के साथ बिजली संबंधी डील का मामला सुर्खियों में था। उसी सिलसिले में एनरॉन की तत्कालीन प्रमुख स्टाइलिश रेबेका मार्क-जस्बैश की मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से मुलाकात होने वाली थी, लेकिन उस दिन जोशी को वेटिंग मोड पर डालकर रेबेका बाल ठाकरे के दरबार मातोश्री पहुंच गईं। मज़ेदार बात यह रही कि उसके बाद सरकार ने उनका कार्य कर भी दिया।
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेंद्र मोदी, जसवंत सिंह, नितिन गडकरी, गोपीनाथ मुंडे ही नहीं, बल्कि शरद पवार, प्रणव मुखर्जी और विलासराव देशमुख जैसे धुरंधर राजनेता भी बाल ठाकरे में मिलने के लिए मातोश्री का ही रुख करते थे। सुनील दत्त तो नियमित रूप से मातोश्री में मत्था टेकते थे, क्योंकि कहा जाता है कि 1993 में बम धमाके में शामिल रहे संजय दत्त को जमानत दिलाने में बाल ठाकरे का अहम किरदार था। इसी तरह अमिताभ बच्चन भी अकसर बाल ठाकरे से मिलने मातोश्री जाते थे।
अमिताभ के मातोश्री जाने से एक रोचक प्रसंग जुड़ा है। मुंबई के सांप्रदायिक दंगों पर 1995 में मणि रत्नम ने 'बॉम्बे' नाम से एक फ़िल्म बनाई थी। फ़िल्म में शिवसैनिक मुसलमानों को मारते-लूटते हुए दिखाए गए थे। अंत में बाल ठाकरे जैसा किरदार हिंसा पर दुख प्रकट करता दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने फ़िल्म का विरोध किया और इसे मुंबई के सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं होने देने का एलान किया। अमिताभ बच्चन ठाकरे की कंपनी फ़िल्म की वितरक थी। अमिताभ मातोश्री गए और पूछा कि फिल्म का विरोध क्यों? तो बाल ठाकरे ने कहा, “फिल्म में मेरा किरदार निभाने वाला व्यक्ति दंगों पर दुख प्रकट कर रहा है। यह मुझे मंज़ूर नहीं। मैं कभी किसी चीज़ पर दुख नहीं प्रकट करता।"
दरअसल, 19 जून 1966 को अपने दादर के आवास श्रीकृष्णा सदन में शिवसेना की स्थापना करने वाले बाल ठाकरे का जन्म पुणे में हुआ और बचपन भिवंडी में गुज़रा। बाद में उनके पिता केशव ठाकरे (प्रबोधनकार ठाकरे) काला तालाव आ गए। साठ के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक ने कलाकारों के लिए बांद्रा पूर्व में मीठी नदी के पास एक कालोनी बनाई और उसका नाम कलानगर रखा। वहां सभी कलाकारों-साहित्यकारों और पत्रकारों को एक रुपए प्रति फुट के भाव से प्लॉट दिया। बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट थे और ‘मार्मिक’ पत्रिका का प्रकाशन करते थे। लिहाज़ा उनको भी एक प्लॉट मिला और 1969 में पत्नी मीनाताई और बेटों समेत मातोश्री बंगले में आ गए थे। पहले मातोश्री एक मंजिला साधारण बंगला था।
साहित्यकार डॉ. पुष्पा भारती बताती हैं, ‘1969 में जब बालासाहेब रहने के लिए आए तो एक दिन डॉ. धर्मवीर भारती से मिलने के लिए हमारे घर आए। डॉक्टर साहब की लाइब्रेरी में एक से एक दुर्लभ किताबें देखकर वे बहुत खुश हुए और डॉक्टर साहब से कहा कि मुझे किताब पढ़ने के लिए नियमित आने की अनुमति दीजिए। इसके बाद कई बार वह कई बार मेरे यहां आए। 1995 में जब शिवेसना-भाजपा गठबंधन सत्ता महाराष्ट्र में आई तो मातोश्री बंगले में सुधार करके उसे तीन मंजिला कर दिया गया। उसके बाद ही यह बंगला धीरे-धीरे राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया और अंत में शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित हो गया।
दरअसल, बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे ने अपने पिता की बनाई ‘मातोश्री परंपरा’ को जारी रखने की भरसक कोशिश की। वह लोगों से मातोश्री में ही मिलते थे। अमित शाह भी उनसे मिलने एक बार मातोश्री गए थे। ठाकरे परिवार को जानने वाले राजनीतिक पत्रकारों का मानना है कि उद्धव ठाकरे में बाल ठाकरे जैसा करिश्मा उनमें नहीं दिखा। इसका असर कालांतर में दिखने भी लगा। वस्तुतः जब शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन किया था तो शिवसेना बड़े भाई के किरदार में थी, लेकिन आज दृश्य पूरी तरह बदल गया है।
बात सही भी है, बाल ठाकरे के दौर में शिवसेना की उंगली पकड़ कर चलने वाली भाजपा उद्धव ठाकरे के दौर में, ख़ासकर राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उदय के बाद धीरे-धीरे कब शिवसेना से आगे निकल गई उद्धव को पता ही नहीं चला। 2014 के विधान सभा चुनाव तक शिवसेना की ताकत घट गई थी, लेकिन इस सच को स्वीकार करने के लिए उद्धव ठाकरे तैयार नहीं थे। लिहाज़ा, गठबंधन में शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने की शर्त रख दी। बातचीत के लिए भाजपा नेता मातोश्री जाने के लिए तैयार नहीं हुए तो उद्धव ठाकरे ने आदित्य ठाकरे और सुभाष देसाई को भाजपा नेताओं से मिलने भेजा। इसके बाद दोनों का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। चुनाव प्रचार में उद्धव की भाषा भाजपा नेताओं खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बेहद तल्ख़ रही।
बहरहाल, महाराष्ट्र की जनता के जनादेश ने साबित कर दिया कि शिवसेना को अगर गठबंधन में रहना है तो छोटे भाई के रूप में ही रहना होगा, क्योंकि अकेले चुनाव लड़कर भाजपा 2009 के 46 सीट से 2014 में 122 सीट तक पहुंच गई, जबकि शिवसेना 45 से 63 तक ही सीमित रह गई। भाजपा को सरकार बनाने के लिए केवल 23 विधायकों की ज़रूरत थी। उद्धव पोस्ट-इलेक्शन गठबंधन नहीं करना चाहते थे, लेकिन शिवसेना विधायकों के दबाव और विद्रोह की आशंका के चलते उनको मजबूरी में सरकार में शामिल होना पड़ा।
बड़ा भाई से छोटा भाई बन जाने के अपमान के घूंट को उद्धव ठाकरे ने पी तो लिया, लेकिन उसे दिल से स्वीकार नहीं कर पाए। इसीलिए इस बार पहले बेटे आदित्य ठाकरे को देवेंद्र फड़णवीस की महाजनादेश यात्रा के समांतर विजय संकल्प मेलावा पर भेजा और उन्हें ‘नया महाराष्ट्र’ बनाने का आह्वान करने का निर्देश दिया। इस दौरान उनके निर्देश पर उनके लेफ़्टिनेंट संजय राउत आदित्य ठाकरे को राज्य का चीफ मिनिस्टर बनाने की बात करते रहे। उसी समय लग गया था, शिवसेना भाजपा और देवेंद्र फड़णवीस के लिए भस्मासुर साबित होने जा रही है।
हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की आज सातवीं बरसी है। क्या यह संयोग है कि उनकी बरसी ऐसे समय पड़ रही है, जब शिवसेना हिंदुत्व की बजाय राग सेक्यूलर गाने लगी है। हालांकि मौजूदा राजनीतिक हलचल के बीच एक सवाल उठ रहा है कि क्या बाल ठाकरे के बंगले मातोश्री की महत्ता अब कम होने लगी है? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि जहां बाल ठाकरे हर किसी से केवल और केवल मातोश्री में मिलते थे, वहीं उनके पुत्र और उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के दौर में लोग वार्ता के लिए मातोश्री आने की बजाय शिवसेना प्रमुख को मातोश्री से बाहर बुलाने लगे हैं।
दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने के अटल अभियान में जुटे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार के साथ पिछले 11 नवंबर को मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बांद्रा बैंडस्टैंड के ताज़ लैंड्स इंड होटल में जाना चर्चा का विषय बना हुआ है। अभी यह चर्चा चल ही रही थी कि उद्धव ठाकरे और दो दिन बाद कांग्रेस मैनेजर्स अहमद पटेल, केसी वेणुगोपाल और मल्लिकार्जुन खड़गे से भी मातोश्री में बातचीत करने की बजाय बीकेसी के होटल ट्राइडेंट गए तो लोग मातोश्री का रुतबा कम होने की अटकल लगाने लगे।
दरअसल, मातोश्री मुंबई के बांद्रा पूर्व उपनगर में कलानगर का एक महज आलीशान बंगला ही नहीं, बल्कि बाल ठाकरे के दौर में सत्ता का सिंबल रहा। मातोश्री बंगला पिछले चार दशक से अधिक समय से महाराष्ट्र की राजनीति का एक प्रमुख केंद्र रहा। मुंबई में इस बंगले की महत्ता वर्षा और राजभवन से भी ज़्यादा नहीं, तो कभी कम भी नहीं रही है। मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश दुनिया का कोई भी व्यक्ति अगर शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे से मिलना या उनके साथ किसी तरह की बातचीत करना चाहता था, तो उसे मातोश्री ही जाना पड़ता था।
मातोश्री की हैसियत का अंदाज़ा एक रोचक प्रसंग से सहज ही लगाया जा सकता है। 1995 में शिवसेना-भाजपा की भगवा गठबंधन सत्ता में थी और वरिष्ठ शिवसेना नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। उस समय एनरॉन के साथ बिजली संबंधी डील का मामला सुर्खियों में था। उसी सिलसिले में एनरॉन की तत्कालीन प्रमुख स्टाइलिश रेबेका मार्क-जस्बैश की मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से मुलाकात होने वाली थी, लेकिन उस दिन जोशी को वेटिंग मोड पर डालकर रेबेका बाल ठाकरे के दरबार मातोश्री पहुंच गईं। मज़ेदार बात यह रही कि उसके बाद सरकार ने उनका कार्य कर भी दिया।
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेंद्र मोदी, जसवंत सिंह, नितिन गडकरी, गोपीनाथ मुंडे ही नहीं, बल्कि शरद पवार, प्रणव मुखर्जी और विलासराव देशमुख जैसे धुरंधर राजनेता भी बाल ठाकरे में मिलने के लिए मातोश्री का ही रुख करते थे। सुनील दत्त तो नियमित रूप से मातोश्री में मत्था टेकते थे, क्योंकि कहा जाता है कि 1993 में बम धमाके में शामिल रहे संजय दत्त को जमानत दिलाने में बाल ठाकरे का अहम किरदार था। इसी तरह अमिताभ बच्चन भी अकसर बाल ठाकरे से मिलने मातोश्री जाते थे।
अमिताभ के मातोश्री जाने से एक रोचक प्रसंग जुड़ा है। मुंबई के सांप्रदायिक दंगों पर 1995 में मणि रत्नम ने 'बॉम्बे' नाम से एक फ़िल्म बनाई थी। फ़िल्म में शिवसैनिक मुसलमानों को मारते-लूटते हुए दिखाए गए थे। अंत में बाल ठाकरे जैसा किरदार हिंसा पर दुख प्रकट करता दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने फ़िल्म का विरोध किया और इसे मुंबई के सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं होने देने का एलान किया। अमिताभ बच्चन ठाकरे की कंपनी फ़िल्म की वितरक थी। अमिताभ मातोश्री गए और पूछा कि फिल्म का विरोध क्यों? तो बाल ठाकरे ने कहा, “फिल्म में मेरा किरदार निभाने वाला व्यक्ति दंगों पर दुख प्रकट कर रहा है। यह मुझे मंज़ूर नहीं। मैं कभी किसी चीज़ पर दुख नहीं प्रकट करता।"
दरअसल, 19 जून 1966 को अपने दादर के आवास श्रीकृष्णा सदन में शिवसेना की स्थापना करने वाले बाल ठाकरे का जन्म पुणे में हुआ और बचपन भिवंडी में गुज़रा। बाद में उनके पिता केशव ठाकरे (प्रबोधनकार ठाकरे) काला तालाव आ गए। साठ के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक ने कलाकारों के लिए बांद्रा पूर्व में मीठी नदी के पास एक कालोनी बनाई और उसका नाम कलानगर रखा। वहां सभी कलाकारों-साहित्यकारों और पत्रकारों को एक रुपए प्रति फुट के भाव से प्लॉट दिया। बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट थे और ‘मार्मिक’ पत्रिका का प्रकाशन करते थे। लिहाज़ा उनको भी एक प्लॉट मिला और 1969 में पत्नी मीनाताई और बेटों समेत मातोश्री बंगले में आ गए थे। पहले मातोश्री एक मंजिला साधारण बंगला था।
साहित्यकार डॉ. पुष्पा भारती बताती हैं, ‘1969 में जब बालासाहेब रहने के लिए आए तो एक दिन डॉ. धर्मवीर भारती से मिलने के लिए हमारे घर आए। डॉक्टर साहब की लाइब्रेरी में एक से एक दुर्लभ किताबें देखकर वे बहुत खुश हुए और डॉक्टर साहब से कहा कि मुझे किताब पढ़ने के लिए नियमित आने की अनुमति दीजिए। इसके बाद कई बार वह कई बार मेरे यहां आए। 1995 में जब शिवेसना-भाजपा गठबंधन सत्ता महाराष्ट्र में आई तो मातोश्री बंगले में सुधार करके उसे तीन मंजिला कर दिया गया। उसके बाद ही यह बंगला धीरे-धीरे राजनीतिक हलचल का केंद्र बनता गया और अंत में शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित हो गया।
दरअसल, बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे ने अपने पिता की बनाई ‘मातोश्री परंपरा’ को जारी रखने की भरसक कोशिश की। वह लोगों से मातोश्री में ही मिलते थे। अमित शाह भी उनसे मिलने एक बार मातोश्री गए थे। ठाकरे परिवार को जानने वाले राजनीतिक पत्रकारों का मानना है कि उद्धव ठाकरे में बाल ठाकरे जैसा करिश्मा उनमें नहीं दिखा। इसका असर कालांतर में दिखने भी लगा। वस्तुतः जब शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन किया था तो शिवसेना बड़े भाई के किरदार में थी, लेकिन आज दृश्य पूरी तरह बदल गया है।
बात सही भी है, बाल ठाकरे के दौर में शिवसेना की उंगली पकड़ कर चलने वाली भाजपा उद्धव ठाकरे के दौर में, ख़ासकर राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उदय के बाद धीरे-धीरे कब शिवसेना से आगे निकल गई उद्धव को पता ही नहीं चला। 2014 के विधान सभा चुनाव तक शिवसेना की ताकत घट गई थी, लेकिन इस सच को स्वीकार करने के लिए उद्धव ठाकरे तैयार नहीं थे। लिहाज़ा, गठबंधन में शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने की शर्त रख दी। बातचीत के लिए भाजपा नेता मातोश्री जाने के लिए तैयार नहीं हुए तो उद्धव ठाकरे ने आदित्य ठाकरे और सुभाष देसाई को भाजपा नेताओं से मिलने भेजा। इसके बाद दोनों का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। चुनाव प्रचार में उद्धव की भाषा भाजपा नेताओं खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बेहद तल्ख़ रही।
बहरहाल, महाराष्ट्र की जनता के जनादेश ने साबित कर दिया कि शिवसेना को अगर गठबंधन में रहना है तो छोटे भाई के रूप में ही रहना होगा, क्योंकि अकेले चुनाव लड़कर भाजपा 2009 के 46 सीट से 2014 में 122 सीट तक पहुंच गई, जबकि शिवसेना 45 से 63 तक ही सीमित रह गई। भाजपा को सरकार बनाने के लिए केवल 23 विधायकों की ज़रूरत थी। उद्धव पोस्ट-इलेक्शन गठबंधन नहीं करना चाहते थे, लेकिन शिवसेना विधायकों के दबाव और विद्रोह की आशंका के चलते उनको मजबूरी में सरकार में शामिल होना पड़ा।
बड़ा भाई से छोटा भाई बन जाने के अपमान के घूंट को उद्धव ठाकरे ने पी तो लिया, लेकिन उसे दिल से स्वीकार नहीं कर पाए। इसीलिए इस बार पहले बेटे आदित्य ठाकरे को देवेंद्र फड़णवीस की महाजनादेश यात्रा के समांतर विजय संकल्प मेलावा पर भेजा और उन्हें ‘नया महाराष्ट्र’ बनाने का आह्वान करने का निर्देश दिया। इस दौरान उनके निर्देश पर उनके लेफ़्टिनेंट संजय राउत आदित्य ठाकरे को राज्य का चीफ मिनिस्टर बनाने की बात करते रहे। उसी समय लग गया था, शिवसेना भाजपा और देवेंद्र फड़णवीस के लिए भस्मासुर साबित होने जा रही है।
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