हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश में दिनोंदिन गैंगरेप की बढ़ती वारदातों से हर शरीफ आदमी
चिंतित है। वह समझ नहीं पा रहा है कि आधी आबादी पर हो रहा यह जुल्म आख़िर रुक
क्यों नहीं रहा है। सख़्त क़ानून का डर बलात्कारी महसूस नहीं क्यों रहे हैं। आख़िर
महिलाओं को हवस की निगाह से देखने के इस तरह के माइंडसेट की मूल वजह क्या है? सबसे दुर्भाग्य की बात यह है कि इस मुद्दे पर तो बहस ही
नहीं चल रही है। आंदोलन, धरना-प्रदर्शन में असली मुद्दा गौण हो गया है।
जगह-जगह जो बहस चल रही है। वह मुद्दे से भटकाने वाली ही है।
गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह यही भटकाने
वाला मुद्दा छाया हुआ है। कहीं तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में वेटेनरी डॉक्टर
से गैंगरेप करने वाले चारों आरोपियों के इनकाउंटर को सही बताया जा रहा है तो कहीं
ग़लत। मतलब सज़ा देने के अमानवीय, अलोकतांत्रिक और तालिबानी तरीक़े ज़्यादातर लोग
समर्थन कर रहे हैं। जबकि कुछ लोग इस तरह की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। इस
विरोध और समर्थन में मूल मुद्दा ग़ायब है।
हैदराबाद रोप में ‘न्याय होने’ के बाद लोग उसी तरह की
सज़ा की मांग उन्नाव गैंगरेप के आरोपियों के लिए कर रहे हैं। आक्रोशित लोग धरना-प्रदर्शन
के ज़रिए रेपिस्ट को जल्द से जल्द सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी कर रहे हैं।
कहीं-कहीं रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर है, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे
हैं कि अगर उनका बस चले तो रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें।
समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन ने तो राज्यसभा में यहां तक कह दिया कि
बलात्कारियों की मॉब लिंचिंग कर दी जाए। यानी उनको भीड़ के हवाले कर दिया जाए और
भीड़ उन्हें पीट-पीट कर मार डाले।
यह भी संभव है कि देश में अचानक बन रहे माहौल के दबाव में
केंद्र सरकार बलात्कारियों को जल्दी से सज़ा देने वाला कोई बिल संसद में पेश कर दे
और वह क़ानून भी बन जाए। अगर बलात्कारियों का जल्दी फ़ांसी सुनिश्चित करने वाला क़ानून
बना तो निश्चित रूप से यह ऐतिहासिक होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या संभावित
सख़्त क़ानून से रेप जैसे वीभत्स और हैवानियत भरे अपराध पर पूरी तरह अंकुश लग
पाएगा? यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 2013 में नया रेप क़ानून बनने के बाद
रेप की वारदातें रुकने की बजाय और बढ़ गईं हैं।
बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने से रेप की वारदात पर विराम
लगने की गारंटी आख़िर कौन देगा? क्या हत्या के लिए मौत की सज़ा के प्रावधान से हत्या रुक गई?
इसके लिए
फ़ांसी की सज़ा होने के बाद भी हत्याएं क्यों हो रही हैं? इसका मतलब यह है कि जैसे
फ़ांसी की सज़ा हत्याएं रोकने में नाकाम रही, वैसे ही कैपिटल पनीश्मेंट
रेप को रोकने में कामयाब होगा, इस पर पूर्ण भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब पुरुष पर
वहशीपन या हैवानियत सवार होता है तो वह क्वांटम ऑफ़ पनीश्मेंट के बारे में सोचता
ही नहीं, अगर सोचता तो अपराध ही न करता। लिहाज़ा, ऐसे क़ानून के अस्तित्व में आने
के बाद भी रेप का सिलसिला जारी रह सकता है।
दरअसल, हिंदुस्तानी बहुत भावुक किस्म के होते हैं। भावुकता में
इंसान का विवेक और उसकी तर्क-क्षमता कुंद हो जाती है। वह संतुलित एवं संयमित ढंग
से सोच ही नहीं पाता। कोरी भावुकता इंसान को समस्या की जड़ तक पहुंचने ही नहीं
देती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि भावुकता सही मायने में समस्या को
आइडेंटीफ़ाई करने में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक इंसान भावुक होकर सोचेगा, किसी समस्या का
सही हल नहीं कर सकेगा। इसलिए यह वक़्त भावुक होने की नहीं, बल्कि इस बात पर विचार करने
का है कि रेप जैसे अपराध को रोका कैसे जाए। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में
आती है। अगर कुछ ऐसा प्रावधान हो जाएं कि रेप जैसा अपराध ही नियंत्रित हो जाए तो
दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
अगर इस बिंदु पर ग़ौर करेंगे तो सवाल उठेगा कि आख़िर
बलात्कार जैसा जघन्य अपराध होता ही क्यों हैं। क्यों पुरुष औरत को एकांत में देखकर
अपना विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, भूल जाता है और वहशी और हैवान बन जाता है? क्यों वह
यौन-भुखमरी (सेक्स स्टारवेशन) का शिकार हो जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी
चाहिए, क्यों वहशी पुरुष के लिए भोग की वस्तु बन जाती है? यानी क्यों किसी जगह स्त्री
की कम संख्या से पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साथ मनमानी करने लगते हैं।
इस विषय पर गंभीरता और संयम से विचार करने के बाद लगता है कि रेप ही नहीं, महिलाओं के
ख़िलाफ़ होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए हमारे समाज का ताना-बाना ही मुख्य
तौर पर ज़िम्मेदार है।
हमारे समाज का तानाबाना बुरी तरह मेल-डॉमिनेटेड है। ऐसे
समाज में स्त्री चाहकर भी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती, क्योंकि यह ढांचा स्त्री को
दोयम दर्जे की नागरिक यानी सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद
जब से मौजूदा समाज प्रचलन में आया है, तब से स्त्री दोयम दर्जे की ही नागिरक रही है।
शहरों में लड़कियों को जींस-टीशर्ट में देखकर हम कुछ समय के लिए भले ख़ुश हो लें
कि समाज में महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं, लेकिन सच तो यह है कि
स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई। यह एक स्त्री से बेहतर और कोई नहीं
जान सकता। पुरुष-प्रधान समाज की मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी
नहीं देती।
आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में वे तमाम प्रावधान किए
जाएं जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाते हैं। इसके लिए
शुरुआत घर से करनी होगी। जो लोग गैंगरेप की मुख़ालफ़त कर रहे हैं, क्या वे अपने
घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़
नहीं करते? संसद में भावुक होने वाले नेता क्या स्त्री के प्रति बायस्ड नहीं हैं? राजनीति में
एकाध अपवाद को छोड़ दें, तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभालता है? पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यही दर्शाता है कि बड़े
राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात होता है।
जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी इसलिए बन सकीं, क्योंकि नेहरू को पुत्र नहीं था। आज भी उन्हीं एडवांस
फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बनती हैं, जहां पुत्र नहीं होते। जब
विकसित परिवारों में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे का बर्ताव हो,
तो दूर-दराज़
और पिछड़े इलाक़ों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, सहज कल्पना की जा सकती है।
संसद ने महिलाओं को आरक्षण देने वाला बिल पास ही नहीं किया। यह मुद्दा मौजूदा
सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी एजेंडे में नहीं है। फिर ये लोग गैंगरेप पर क्यों चिंता
जता रहे हैं? ज़ाहिर है, इनका स्त्रीप्रेम छद्म है, हक़ीक़त से परे है। महिला
आरक्षण पर इनका मौन इन्हें पुरुष-प्रधान समाज का पैरोकार ही नहीं बनाता, बल्कि यह
भी दर्शाता है कि इनका महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने में कोई
दिलचस्पी नहीं। सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं।
अगर सचमुच ये लोग महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के
हिमायती हैं तो संसद और विधान सभाओं समेत हर जनपंचायत में 33 फ़ीसदी नहीं, बल्कि
50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित करने की पहल करें। देश में महिलाओं की
आबादी क़रीब-क़रीब फ़िफ़्टी परसेंट है तो आरक्षण 33 फ़ीसदी क्यों? एक बात और,
महिला आरक्षण
का लाभ केवल एडवांस्ड परिवारों की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न कर लें,
बल्कि इसका लाभ
सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, आदिवासी, दलित, पिछड़े और
मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
चूंकि देश में आधी जनसंख्या महिलाओं की है, लिहाज़ा उनके
लिए हर जगह 50 फ़ीसदी जगह आरक्षित की जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका
यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों, मसलन पुजारियों
की संख्या में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर होनी चाहिए। सरकारी और निजी
संस्थान की नौकरियों में आधी जगह महिलाओं को दी जानी चाहिए। बैंक हो, यूनिवर्सिटी हो
या अन्य संस्थान हर जगह आधी जगह महिलाएं हों। महिलाएं घर में क्यों बैठें? वे काम पर
क्यों न जाएं?
अगर 50 फ़ीसदी महिलाएं काम पर जाएंगी तो बाहर उनकी
विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होगी। यानी हर सावर्जनिक जगह पर इक्का-दुक्का महिला
की बजाय बड़ी संख्या में महिलाएं दिखेंगी। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। सड़क,
बस, ट्रेन और दफ़्तरों
में महिलाओं की बराबर मौजूदगी से किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि उसकी ओर बुरी
निग़ाह डाले। महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों का हौसला बढ़ाती है। इस मुद्दे पर
ईमानदारी से सोचने वाला व्यक्ति इसका समर्थन करेगा। महिलाओं को अबला या कमज़ोर
होने से बचाने के लिए उनका इम्पॉवरमेंट ही एकमात्र विकल्प है। यही हर समस्या का स्थाई
हल भी है। जब संसद में 770 सदस्यों में से 385 महिलाएं होंगी, केंद्र और
राज्य-मंत्रिमंडल में महिला-पुरुष बराबर होंगे, ब्यूरोक्रेसी में आधी
संख्या में स्त्री होगी, अदालतों में 50 फ़ीसदी जज महिलाएं होंगी, पुलिस थानों
में पुलिस वर्दी में आधी लड़कियां होंगी तो अपने आप महिला पुरुष की बराबरी कर
लेगी। वह क़ानून की बैसाखी के बिना भी सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेगी।
लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या नारी को अबला और वस्तु
मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? सबसे बड़ा सवाल
यही है। इसमें परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की
ज़रूरत है। अगर हम सही मायने में महिलाओं को पुरुष के बराबर खड़ा करना है तो उन
सभी ग्रंथों-किताबों को पुनर्परिभाषित करना होगा जो पति को ‘परमेश्वर’ और पत्नी को
‘चरणों की दासी’ मानते हैं। हमें उन त्यौहारों को प्रमोट करने से बचना होगा,
जिसमें पति की
सलामती के लिए पत्नी व्रत रखती है। स्त्री को घूंघट या बुरके की नारकीय परिपाटी से
मुक्ति दिलानी होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो
बदलाव की शुरुआत तुरंत करनी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप पर घड़ियाली आंसू बहाने का क्या
औचित्य, क्योंकि वस्तुतः यह समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज
में रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का क़ानून बना
दिया जाए। यानी पुरुष प्रधान समाज है, रेप होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह
समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।
(समाप्त)
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