हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले
में एक 13 जुलाई 2016 को 15 साल की नाबालिग युवती से तीन लोगों ने रेप किया और उसकी हत्या कर दी। इसी
महीने ख़बर आई थी कि देश की राजधानी दिल्ली से महज 60 किलोमीटर दूर हरियाणा के रोहतक में एक दलित युवती से उन्हीं आरोपियों ने
दोबारा इसलिए गैंगरेप किया क्योंकि लड़की ने इन्हीं लड़को द्वारा 2013 में किए पहले गैगरेप का केस वापस नहीं लिया. अभी साल भर
पहले नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक देश में रोज़ाना 100 से ज़्यादा महिलाए बलात्कर की शिकार होती हैं।
अहम बात यह है कि बलात्कार
की घटनाएं कम होने की बजाय हर साल बढ़ ही रही हैं। ख़ासकर जबसे नया रेप क़ानून के
अस्तित्व में आने के बाद तो रेप की घटनाएं कई गुना बढ़ गई हैं। इसका मतलब है कि
डर्टी सोचवालों को क़ानून का ख़ौफ़ ही नहीं। क़ानून कितना भी कठोर कर दिया जाए,
डर्टी सोचवाले महिलाओं पर ज़ुल्म बदस्तूर जारी रखेंगे। इसका
मतलब यह भी हुआ कि महिलाओं पर हो रहे इस ज़ुल्म को रोकना तो दूर कम करना भी मौजूदा
सेटअप में मुमकिन नहीं।
राज ठाकरे जैसे लोंगो कितने
भी सख़्त क़ानून बनाने की बात करें। रेप की घटनाएं जारी रहने वाली हैं। गौरतलब है
कि राज ने अहमदनगर में रेप विक्टिम परिवार से मिलने के बाद कहा कि देश में
बलात्कार को रोकने के लिए शरीयत जैसे क़ानून की ज़रूरत है. दरअसल, हमारा समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है। जब तक इसे
बदला नहीं जाता रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का
ही क़ानून क्यों न बना दिया जाए। पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक
बना देता है।
दरअसल, कठोर रेप लॉ के
बावजूद रेप की वारदाते साबित कर रही हैं कि देश के क़ानून-निर्माता अब भी असली समस्या
को समझ पाने में नाकाम रहे हैं। या तो उनकी सोच उस स्तर तक पहुंच ही नही रही है कि
उसे पहचान कर उसे हल करने की दिशा में क़दम उठाएं या फिर वे इतने शातिर हैं कि
समस्या को हल ही नहीं करना चाहते। यह भावुक होकर अनाप-शनाप बयान देने या बेवकूफ़ी
करने का वक़्त नहीं, बल्कि पहले यह पता करने का वक़्त है कि रेप जैसे क्राइम रोके कैसे जाएं।
रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसे प्रावधान हो जाएं कि रेप
जैसे अपराध हो ही न तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सवाल
उठता है कि आख़िर रेप जैसे जघन्य अपराध हो ही क्यों रहे हैं। आख़िर क्यों औरत को अकेले
या एकांत में देखकर पुरुष अपना विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, खो देता है और हैवान बन जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के
लिए आदरणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी चाहिए, क्यों अविवेकी इंसान के लिए “भोग की वस्तु” बन जाती है?
दिमाग़ पर ज़ोर देने पर लगता है कि स्त्रियों की कम संख्या देखकर पुरुष उसे
कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साथ मनमानी करने का दुस्साहस करते हैं। दरअसल, रेप ही
नहीं, महिलाओं पर होने
वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए समाज का मैल-डॉमिनेटेड तानाबाना ही ज़िम्मेदार है।
ऐसे समाज में स्त्री कम से कम पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती क्योंकि यह सेटअप
स्त्री को सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा
समाज प्रचलन में आया, तब से यहां स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक रही है। बॉलीवुड
अभिनेत्रियों या शहरों की लड़कियों को देखकर कुछ क्षण के लिए ख़ुश हुआ जा सकता है
कि महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि स्त्री कभी पुरुष
की बराबरी कर ही नहीं पाई। इस सच को स्त्रियों से बेहतर और कौन समझ सकता है। दरअसल, पुरुष-प्रधान मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी नहीं देती।
आज ज़रूरत उन प्रावधानों पर अमल करने की है जो सही मायने में स्त्री को बराबरी
के मुकाम तक लाएं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। रेप या गैंगरेप पर आंसू बहाने
वाले क्या अपने घर में स्त्री या लड़कियों को बराबरी का दर्जा देते हैं। क्या घर
में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? विकसित और बड़े परिवारों में स्त्री के साथ ख़ुला पक्षपात होता
है, उसे एहसास दिलाया जाता है कि वह दोयम दर्जे की नागरिक है। ऐसे में पिछड़े और
दूर-दराज़ के समाज में स्त्री की क्या पोज़िशन होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। पुरुष-प्रधान संसद और
राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण मिलेगा, अब इसकी संभावना नहीं
के बराबर है। ज़ाहिर हैं जो नेता माइनर रेप पर आंसू बहा रहे हैं, वे लोगों को
बेवकूफ़ बना रहे हैं। इन नेताओं का, दरअसल, स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देने में
कोई दिलचस्पी नहीं।
अगर लोग सचमुच महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती और अभिलाषी हैं तो सबसे
पहले राजनीतिक दलों के अलावा केंद्र और राज्य सरकार में 50 फ़ीसदी पद महिलाओं को
दिया जाना चाहिए। यानी देश की हर सरकार में महिला-मंत्रियों की तादाद पुरुषों के
बराबर हो। इसी तरह विधायिका यानी संसद (लोकसभा-राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं में
महज़ 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित होनी चाहिए।
महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी ही क्यों?
संसद में (लोकसभा-545 और
राज्यसभा-245) में 890 सदस्यों में से किसी भी सूरत में 445 सदस्य महिलाएं होनी ही चाहिए।
एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस-फ़ैमिलीज़ यानी राजनीतिक परिवार (गांधी,
पवार, बादल, या मुलायम जैसे परिवार की महिलाएं) की लड़कियां या महिलाएं हाईजैक न
कर लें, जैसा कि अमूमन होता
रहा है। दरअसल, पॉलिटिकल क्लास की महिलाएं अपने पति, पिता, ससुर या बेटे की पुरुष प्रधान मानसिकता को रिप्रज़ेंट करती
हैं। लिहाज़ा, रिज़र्वेशन का लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम जमात की महिलाओं को मिले, यह भी
सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, न्यायपालिका, पुलिस, आर्मफोर्स, बैंक, मीडिया और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं
की होनी ही चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों, स्कूल- कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य शिक्षण-संस्थानों में 50 प्रतिशत पोस्ट
महिलाओं को दी जानी चाहिए। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 परसेंट महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर
उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होगी। यानी हर जगह जितने पुरुष होंगे उतनी ही
महिलाएं भी। अपने समाज की ज़्यादा संख्या शर्तिया महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा।
कल्पना कीजिए, जब गली, सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, पुलिस स्टेशन, अदालत और स्कूल-कॉलेज में
महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह किसी
महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे। महिलाओं की कम संख्या ही लंपट पुरुषों को
प्रोत्साहित करती हैं। सो महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें
इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है। जिस दिन केंद्रीय और राज्य कैबिनेट, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं में पुरुष-वर्चस्व
ख़त्म हो जाएगा और महिलाएं बराबर की संख्या में मौजूद रहेंगी, उस दिन हालात एकदम
बदल जाएगा। ऑफ़िस या थाने में आधी आबादी महिलाओं की होने पर महिलाएं रिलैक्स्ड
फ़ील करेगी और बेहिचक शिकायत लेकर वहां जाएंगी। जब लड़कियों को बड़ी तादाद में सरकारी
और प्राइवेट नौकरी मिलेगी तो उनमें सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को “पराश्रित” और “वस्तु” समझने की मानसिकता से बाहर निकलेंगी। वे पति या पिता रूपी पुरुष पर निर्भर
नहीं रहेंगी बल्कि स्वावलंबी होंगी। तब वे माता-पिता पर बोझ नहीं होंगी। उनकी शादी
माता-पिता के लिए बर्डन या रिस्पॉन्सिबिलिटी नहीं होगी। तब प्रेगनेंसी के दौरान
सेक्स-डिटरमिनेशन टेस्ट की परंपरा ख़त्म हो जाएगी। घर में लड़की के जन्म पर उसी
तरह ख़ुशी मनाई जाएगी जैसे पुत्र के आगमन पर मनाई जाती है। लोग केवल पुत्र की
कामना नहीं करेंगे। यक़ीन मानिए तब 1000 लड़कों के मुक़ाबले 1000 लड़कियां होंगी।
समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।
मगर यक्ष-प्रश्न यह है कि क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान
समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती परंपराएं और संस्कृति सबसे
बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए। यानी ‘ढोल, गंवार शूद्र पशु
नारी, ये सब ताड़न के
अधिकारी’ चौपाई रचने वाले
तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा। तुलसी के
महाकाव्य ‘रामचरित मानस‘
को संशोधित करना होगा। जहां पत्नी
की अग्निपरीक्षा लेने और गर्भावस्था में उसे घर से बाहर निकालकर जंगल में भेजने वाले
पति राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ माना गया है। हमें उस महाकाव्य ‘महाभारत‘ और उसके लेखक व्यास की सोच को भी सुधारनी होगी जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले
जुआड़ी पति युधिष्ठिर को ‘धर्मराज’ मानता है। हमें उन सभी परंपराओ और ग्रंथो में नये सिरे से संशोधित या परिभाषित
करनी होगा जहां पुरुष (पति) को ‘परमेश्वर’ और स्त्री (पत्नी) को ‘चरणों की दासी’ माना गया है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए
केवल स्त्री के व्रत रखने का प्रावधान है, पत्नी की सलामती के लिए पति के व्रत रखने का कोई प्रावधान
नहीं है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरका पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय
परंपराओं भी छोड़ना होगा। इतना ही नहीं लड़कियों को पिता की संपत्ति में बराबर की
हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए और उस पर सख़्ती से अमल किया जाना चाहिए। अब
सवाल खड़ा होता है, क्या यह पुरुष-प्रधान समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर ‘हां‘ तो बदलाव की शुरुआत तुरंत होनी चाहिए।
समाज में महिलाओं की बहुत कम विज़िबिलिटी ही एकमात्र समस्या है। घर के बाहर
महिलाएं दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो बहुत कम तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों में उनकी प्रज़ेंस
नाममात्र की होती है। मुंबई और दिल्ली जैसे डेवलप्ड सिटीज़ में भी महिलाओं की
विज़िबिलिटी दस फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। देश के बाक़ी हिस्सों में तो हालत
भयावह है। चूंकि महिलाओं की आबादी पुरुषों के बराबर है तो उनकी मौजूदगी भी उसी
अनुपात में होनी चाहिए। अगर विज़िबिलिटी की इस समस्या को हल कर लिया गया तो
महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। तब महिलाएं
बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेंगी। रेप की समस्या को हमेशा के लिए
हल कर लिया जाएगा।
(नोटः इस लेख को रिराइट किया गया है इसे दिल्ली गैंग रेप के समय क्रिएट किया
गया है।)