हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश के शक्तिशाली
प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ऑफ़िस में एक साल का कार्यकाल पूरा कर रहे
हैं। लिहाज़ा, उनके कार्यकाल का आंकलन
होने लगा है। हालांकि, किसी नेता की सफलता या असफलता का आकलन एक साल में नहीं किया
जा सकता लेकिन एक साल यह पता लगाने के लिए पर्याप्त होता है कि वह नेता किस “लाइन ऑफ़ ऐक्शन” की ओर जा रहा है. वैसे सत्ता की
बाग़डोर संभालने के बाद से ही मोदी जिस तरह विश्व-भ्रमण कर रहे हैं, राजनीतिक हलक़ों में अटकलें लगाई जाने लगी हैं कि कहीं उनकी
इच्छा विश्वनेता बनने की तो नहीं है? कई जानकार कहने लगे
हैं कि मोदी की विदेश यात्राओं से तो यही लगता है कि पांच साल में वह अपने को
विश्वनेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, और, फिलहाल उसी मिशन पर काम कर रहे हैं।
हां, इस बात पर दो राय नहीं कि साल भर में मोदी ने विदेश यात्राओं के तमाम रिकॉर्ड
तोड़ चुके हैं। वस्तुतः प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद भूटान यात्रा से विदेश
दौरे जो सिलसिला शुरू हुआ, वह फ़िलहाल जारी है। अब तक
मोदी अमेरिका, जापान, फ्रांस, चीन, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे
बड़े देशों और नेपाल, फ़िज़ी, मॉरीशस और मंगोलिया जैसे छोटे देशों की यात्रा कर चुके हैं।
कह सकते हैं कि मोदी अफ्रीका को छोड़कर सभी महाद्वीपों के 18 देशों के दौरे पर जा
चुके हैं। सिंगापुर तो मोदी वहां के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे ली कुआन
येव के अंतिम संस्कार में चले गए थे।
मज़ेदार बात यह है कि जैसे
पिछले साल आम चुनाव के दौरान मोदी भारत के हर शहर को गुजरात से जोड़ देते थे,
उसी तरह हर देश को आजकल वह भारत से जोड़ रहे हैं। नवीनतम
जानकारी यह है कि मोदी ने 18 मई को मंगोलिया की संसद को
संबोधित करते हुए कहा कि भारत और मंगोलिया का बहुत प्राचीन “आध्यात्मिक रिश्ता“ रहा है। कहने का मतलब,
मोदी हर देश के साथ भारत का रिश्ता गढ़ ही लेते हैं। कई
टीकाकार मोदी की इस ख़ासियत के क़ायल भी हैं। वैसे, मोदी अपनी हर विदेश यात्रा की
जमकर मार्केटिंग भी करते हैं। विदेश यात्राओं की ऐसी रिपोर्टिंग करवाते हैं कि
सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर व्यक्ति सोचने लगता है कि मोदी का क्रेज़ जिस तरह
पिछले चुनाव में देश में था, अब वही क्रेज़ अब विदेशों
में है। मोदी की जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया
यात्रा इस तरह की मार्केटिंग की मिसाल है, जैसे जापान में ढोल
बजाया था वैसे ही मोदी ने मंगोलिया में वहां के वाद्य को बजाने की कोशिश की। इस
स्पेशल रिपोर्ट दिखाई भी गई और लिखी भी।
पिछले साल नरेंद्र मोदी के
शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तान समेत दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क)
के सभी सदस्य देश के राष्ट्राध्यक्ष आमंत्रित किए गए थे। मोदी की वह पहल राजनयिक
स्तर पर काफी सराही गई थी। विदेशी मामलों में दख़ल रखने टीकाकारों ने कहा था,
कट्टर हिंदूवादी नेता के प्रधानमंत्री बनने की घटना को
ऐतिहासिक महत्व की घटना साबित करने के लिए ही शपथग्रहण में सभी को न्यौता भेजकर
बुलवाया गया था, जो एक सकारात्मक शुरुआत थी।
मोदी ख़ुद अमेरिका गए और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी गणतंत्र दिवस के
मौक़े पर भारत बुलाने में सफल रहे। उनके साथ 'मन की बात' भी प्रस्तुत की।
मोदी की इन विदेश यात्राओं
का कितना फ़ायदा इस देश या देशवासियों को हुआ? इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना ज़रूर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो
विज़िबल हो। यानी विश्वमंच पर अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे उल्लेखनीय घटना कहा जा सके। यह दावा करना कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने
और धुआंधार विदेश यात्राओं से दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ गई है, सही नहीं होगा। ऐसा कहने वाले एक झूठे आशावाद की परिकल्पना
कर रहे हैं।
दरअसल, अमेरिका ही नहीं पश्चिम के क़रीब-क़रीब सभी देश चीन से
आशंकित रहते हैं क्योंकि अपना राष्ट्रीय हित साधने में चीन नंबर एक है। अपने
फ़ायदे के लिए बीजिंग कब क्या कर दे, कोई नहीं जानता? इसीलिए किसी को चीन पर
विश्वास नहीं रहता है। यहां तक कि चीन की पाकिस्तान से दोस्ती एक सोची समझी रणनीति
के तहत है। चीन अपने को सिर्फ़ अपने प्रति जिम्मेदार मानता है, इसीलिए यूरोप और अमेरिका को भारत में चीन का एक विकल्प
दिखता है। लिहाज़ा, विश्वमंच पर पीठ थपथपाने
वाला आशावादी बयान देकर नई दिल्ली को प्रोत्साहित करते रहते हैं। हमारे
प्रधानमंत्रीजी को भी विदेशों से वहीं प्रोत्साहन मिला है, और वे उसी से गद्गद् हैं।
अगर इतिहास पर नज़र डालें
तो विश्वनेता बनने की बीमारी भारतीय नेताओं में ख़ासी पुरानी रही है। पं. जवाहरलाल
नेहरू की विश्वनेता बनने की बड़ी हसरत थी। लिहाज़ा, उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन शुरू किया। विश्वनेता बनने की चाह में नेहरू ने
हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया, लेकिन उनकी आंख तब खुली,
जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण
कर दिया और अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बहुत बड़े भूभाग को हड़प लिया।
इंदिरा गांधी में भी यह
लालसा किसी से छिपी नहीं थी, इसीलिए वह भी गुटनिरपेक्ष
आंदोलन को खाद-पानी देती रहीं। हालांकि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध
ख़त्म होते ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन रूपी पौधा अपने आप सूख गया। इसी तरह राजीव गांधी
ने भी बतौर “मिस्टर क्लीन”कई देशों की धुआंधार यात्रा की। कई राष्ट्राध्यक्षों ने तो
प्रोटोकोल को धता-बताकर राजीव की आगवानी की। उसके बाद के नेता वस्तुतः अल्पमत
सरकारों के मुखिया रहे, लिहाज़ा, वे किसी तरह सरकार चलाने और
साथी दलों के नेताओ के नखरे झेलने में ही बिज़ी रहे।
कुल मिलाकर विश्वनेता बनने
के आकांक्षी भारतीय नेताओं की कोशिश चाहे रंग लाई हो या नहीं, लेकिन भारत की विश्वमंच पर आज भी वही औक़ात है, उसकी जो औक़ात स्वतंत्रता मिलने के समय थी। हां, देश का
प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति विदेश जिस देश की यात्रा करता है, वह देश संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई
सदस्यता का पब्लिकली समर्थन करता है। कई विश्वमंच पर अमेरिका भी भारत के दावे का
समर्थन कर चुका है। चीन और पाकिस्तान के छोड़ दें, तो दुनिया का हर छोटा-बड़ा देश मानता है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई
सीट मिलनी चाहिए, लेकिन सच यह है कि भारत को
वीटो पॉवर अभी तक नहीं मिल पाया है। देश को अभी कितना इंतज़ार करना होगा कोई नहीं
जानता। कभी-कभी तो लगता है कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य कभी नहीं बन
पाएगा। मोदी भी जिस देश के दौरे पर जा रहे हैं, उस देश की लीडरशिप भारत के दावे का समर्थन का ऐलान कर देते हैं जो पिछले कई
दशक से चल रहा है।
बहरहाल, राजनैतिक टीकाकार कहने लगे हैं कि मोदी जितना ध्यान विदेशी
निदेश पर लगा रहे हैं उसके आधा अगर देश के अंदरूनी मामले पर लगाए होते तो नतीजा
दिखने लगता, तब बलिया के बीजेपी सांसद
भरत सिंह को यह न कहना पड़ता कि इस सरकार ने एक साल में भाषण पिलाने के अलावा ऐसा
कुछ नहीं किया कि मतदाताओं को बताया जा सके। जहां तक निवेश की बात है तो भारत ने 1991 से अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक देशों के लिए खोल रखी है,
फिर भी विदेशी निवेश उतना नहीं आ रहा है, जितनी उम्मीद थी। जाहिर है, विदेशी निवेश किसी प्रधानमंत्री के कहने से नहीं बल्कि अपने सुविधा और फ़ायदे
के मुताबिक आएगा।
मोदी ने पिछले साल जब सत्ता
संभाली थी लोगों ने यह कयास लगाया था कि उनकी अगुवाई में देश कुछ ठोस क़दम उठाएगा।
मसलन, स्विस और दूसरे विदेशी बैंकों में जमा काला धन
भारत आएगा और भारत की छवि एक सशक्त देश की बनेगी, लेकिन एक साल में लफ़्फ़ाज़ी के सिवाय हुआ कुछ नहीं। काले धन पर तो बीजेपी के
एक सीनियर लीडर को कहना पड़ा कि मोदी के उस बयान को सीरियस न माना जाए, यानी मोदी ने चुनाव में कैजुअली कह दिया था कि उनकी सरकार
हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाएगी।
वैसे देखा जाए तो दूसरे मोर्चों पर भी मोदी के कार्यकाल कछ नहीं हुआ। कहीं-कहीं तो
वह मनमोहन से भी गए गुज़रे साबित हो रहे हैं।
पाकिस्तान की ओर से सीमा पर
अंधाधुंध फायरिंग चलती रहती है। मोहम्मद हाफिज़ सईद आए दिन भारत को धमकी देता रहता
है। इतना ही नहीं, मुंबई आतंकी हमले के
मास्टरमाइंड ज़किउर रहमान लखवी को रिहा कर दिया गया। भारत विरोध जताने के अलावा कुछ
नहीं कर पाया. दाऊद इब्राहिम के बारे में भारत अब भी प्रमाण देने में व्यस्त है कि
भारत में वांछित यह अपराधी पाकिस्तान में ही है। कुल मिलाकर इन तमाम मसलों पर मोदी
के पीरियड में भी भारत कुछ नहीं कर पाया है सिवाय विरोध जताने के। इससे भारत की
छवि दुनिया में “साफ़्ट नेशन”की बन गई है। साफ़्ट नेशन की यही इमैज विश्वमंच पर भारत की
भूमिका को सीमित कर देती है।
अटलबिहारी वाजपेयी ने
परमाणु विस्फोट करके इस इमैज से निकलने की कोशिश की थी, लेकिन बहुमत न होने से वह बैकफुट पर आ गए थे। मोदी के साथ ऐसी कोई मज़बूरी
नहीं थी। उन्हें महानायक बनने का मौक़ा मिला था, लेकिन उनके एक साल के कामकाज पर नज़र डालें तो यही लगता है, फिलहाल मोदी वह मौक़ा गंवा रहे हैं।