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गुरुवार, 25 अगस्त 2016

नवाब अकबर बुगती का आज़ाद बलूचिस्तान का सपना क्या साकार होगा ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में जब से पाकिस्तान के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब सूबा बलूचिस्तान का ज़िक्र किया है, तब से पाकिस्तान की ओर से ज़बरदस्त नाराजगी देखने को मिल रही है। बलूचिस्तान विवाद और वहां मानवाधिकार का हनन अचानक लाइम लाइट में आ गया है। इससे ज़ाहिर तौर पर पाकिस्तानी लीडरशिप का बौखलाना लाजिमी है। इस तरह कहा जा सकता है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने वाक़ई पड़ोसी देश की दुखती रग पर हाथ रख दिया है।

इत्तिफाकन, 26 अगस्त को बलूचिस्तान के शीर्ष राष्ट्रवादी नेता नवाब मोहम्मद अकबर शाहबाज़ खान बुगती की दसवीं पुण्यतिथि है। पाकिस्तान के राष्ट्रवादी लोग नवाब बुगती को बाग़ी और ग़द्दार कहते थे। 26 अगस्त 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के आदेश पर पाकिस्तानी सेना ने क्वैटा से 150 किलोमीटर पूरब कोहलू जिले में नवाब बुगती के ठिकाने पर हमला कर दिया और गुफा के अंदर उनके ठिकाने को विस्फोटक से उड़ा दिया, जिसमें नवाब बुगती के अलावा उनका पोता, 37 छापामार सैनिक और 21 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।

हालांकि नवाब बुगती पर सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने और देश के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध करने वाले गुरिल्लों की सेना तैयार करने के आरोप लगाने वाली पाकिस्तानी सेना ने उस समय दावा था कि बुगती ने गिरफ़्तारी से बचने और अदालत का सामना करने के डर से खुद को विस्फोटक से उड़ा लिया था। उनकी हत्या का पूरे बलूचिस्तान में भारी विरोध हुआ। जम्हूरी वतन पार्टी के लोग विरोध प्रदर्शन करते रहे। इससे राज्य में महीने भर आंदोलन चलता रहा। इतना ही नहीं बलोच नेशनल फ्रंट की अपील पर सूबे के अधिकांश हिस्सों में महीने भर हड़ताल रही। कोन्टा और अंदरूनी बलूचिस्तान के अनेक बड़े शहर पूर्ण बंद रहे। सरकारी दफ़्तरों में भी कर्मचारियों की संख्या न के बराबर थी। बलोच बार एसोसिएशन की अपील पर वकीलों ने भी पूरे राज्य में अदालतों का बहिष्कार किया था।

बहरहाल, 25 दिनों की जद्दोजहद के बाद एक सितंबर 2006 को बुगती को डेरा बुगती के कब्रिस्तान में उनके बेटे और भाई की कब्र के पास दफना दिया गया। उनका परिवार क़्वैटा में सार्वजनिक तौर पर सुपुर्द-ए-ख़ाक के पक्ष में था, लिहाज़ा अंतिम संस्कार समारोह में शामिल नहीं हुआ। उस समय सैन्य शासक मुशर्रफ़, पाकिस्तान सरकार और सेना को लगा था कि बुगती को मार देने से बलूच मामला शांत हो जाएगा, लेकिन हुआ इसके उलट। सन् 2007 से ही 26 अगस्त को बलूचिस्तान के लोग काला दिन के रूप में मनाने लगे। अब तो यह दिन बलोच जनता के लिए पृथक बलूचिस्तान राष्ट्र के लिए एकता दिवस बन गया है। हर साल इस दिन भारी विरोध प्रदर्शन होता है और आज़ादी की मांग की जाती है।

बहरहाल, बाद में नवाब बुगती की हत्या का आदेश देने वाले जनरल मुशर्रफ़, पूर्व प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज़ और पूर्व गवर्नर ओवैसी अहमद गनी को 13 जून 2013 को गिरफ्तार कर लिया गया। बुगती हत्याकांड के मुक़दमा सिबी की पाकिस्तानी ऐंटी-टेररिज़्म कोर्ट ने मुशर्रफ़ और दूसरे लोगों को बरी कर दिया था, लेकिन उस फ़ैसले को चुनौती दी गई है और ऊपरी अदालत में अपील विचाराधीन है।

बलूचिस्तान के बरखान में 12 जुलाई 1927 को जन्मे अकबर बुगती की मां बलोच आदिवासी उपजाति खेतरान की थी, जबकि अब्बा जान नबाव मेहराब ख़ान बुगती आदिवासी समुदाय के मुखिया थे। बुगती के दादा सर शाहबाज़ ख़ान अंग्रेज़ी शासन में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बड़े ओहदे पर रहे और उन्हें सर की उपाधि मिली थी। बुगती की शिक्षा दीक्षा लाहौर के ऐचिसन कॉलेज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने समुदाय के तमामदार बनाए गए थे। ब्रिटिश पत्रकार और लेखिका सिल्विया माथेसन ने नवाब बुगती का इंटरव्यू लेकर उनके जीवन पर ‘टाइगर ऑफ बलूचिस्तान’ नाम की किताब लिखी है।

नवाब बुगती बलूचिस्तान की बहुसंख्यक बलोच समुदाय के नेता थे। 1970 के दशक में वह बलूचिस्तान राज्य के मुख्यमंत्री और गवर्नर भी रहे थे। अपने देश को पाकिस्तान ने अवैध क़ब्ज़े से आज़ाद कराने के लिए उन्होंने निजी सेना बनाई थी और पाकिस्तान के साथ डेरा बुगती की पहाड़ियों से छापामार युद्ध कर रहे थे। पूर्व नेवी अफसर और बलूचिस्तान मामलों के जानकार कैप्टन आलोक बंसल की किताब ‘बलूचिस्तान इन टरमॉइल : पाकिस्तान ऐट क्रॉसरोड्स’ के मुताबिक विद्रोही सेना बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) 1970 के दशक से पाकिस्तान सेना से लड़ रही है। अब सवाल यही है कि क्या आज़ाद बलूचिस्तान का नवाब बुगती का सपना साकार होगा? पाकिस्तान बनने के बाद बलूचिस्तान के लोग आज़ादी की मांग करते हुए अनेक बार विद्रोह कर चुके हैं।

बलूचिस्तान के भूभाग पर पाकिस्तान के अलावा ईरान और अफगानिस्तान का भी क़ब्ज़ा है। सूबे की सीमाएं ईरान और अफ़गानिस्तान से लगती हैं। उत्तर-पूर्व में पाकिस्तान के क़बाइली इलाक़े और दक्षिण में अरब सागर है। दक्षिण पश्चिम में बड़ा हिस्सा सिंध और पंजाब से जुड़ा है। सिल्क रूट से कारोबारियों और यूरोप से आने वाले हमलावरों के लिए अफ़गानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता बलूचिस्तान से होकर गुज़रता है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल पूरे पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 43 फ़ीसदी है, मगर आबादी पांच फ़ीसदी से भी कम है।

सूबे में बलोच के अलावा पख़्तून, सिंधी, पंजाबी, हजारा से लेकर उज्बेक़ और तुर्कमेनियाई समुदाय के लोग रहते हैं। यह राज्य प्राकृतिक संसाधन के मामले में बहुत ज़्यादा समृद्ध है। यहां ज़मीन के नीचे कोयला और खनिजों का खज़ाना भरा पड़ा है। पाकिस्तान को यहां से तेल का बड़ा हिस्सा मिलता है। इस्लामाबाद में बैठी सरकार खनिज और तेल की कमाई तो लेती है लेकिन बदले में क्षेत्र को कुछ देती नहीं। इस उपेक्षा के चलते राज्य की क़रीब सवा करोड़ जनता और पूरा सूबा बदहाली, ग़रीबी और उपेक्षा का शिकार है। इसीलिए कई दशक से स्थानीय लोग आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

दरअसल, जब भारत पाकिस्तान आज़ाद हुए तो बलूचिस्तान का स्वतंत्र अस्तित्व था। यह कलाट सूबे के रूप में सदियों से आज़ाद था। कई विद्वान मानने हैं कि बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर ही सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ। यह भी माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे। हालांकि इस कथन की पुष्टि के लिए कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। दरअसल, सिंधु घाटी की लिपि को अभी तक न पढ़े पाने से ही यह संशय बना हुआ है। यह भी सच है कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष फ़िलहाल बलूचिस्तान में कम मिलते हैं। हालांकि लोकल बलूची जनता का मानना है कि उनके पूर्वज मूल निवास सीरिया के थे और वहीं से यहां आए थे। लिहाजा उनका मूल अफ़्रो-एशियाटिक है। हालांकि हिंद महासागर उपमहाद्वीप में बड़े शासकों का इस भूभाग पर हमेशा आधिपत्य रहा। यह मुगल साम्राज्य की स्थापना होने पर यह मुगलों के अधीन रहा और ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ों की अधीन। सन् 1944 में बलूचिस्तान के स्वतंत्रता का विचार अंग्रेज़ अफ़सर जनरल मनी के मन में आया था पर वह इसे अमली जामा नहीं पहना सके।

बहरहाल, 1948 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाक़त अली ने जब कलाट के शासक पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव बनाया तो वहां की संसद ने प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान में शामिल होने का आग्रह ठुकरा दिया। संसद ने साफ़-साफ़ कहा कि केवल मुस्लिम राष्ट्र होने के नाते बलूचिस्तान पाकिस्तान में शामिल नहीं हो सकता। कई लोग दावा करते हैं कि बलूचिस्तान के शासक खान ऑफ कलाट ने भारत में विलय की इच्छा जताई थी।

एक समाचार एजेंसी ने भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित वीपी मेनन का एक बयान जारी किया था, जिसमें मेनन ने कहा था, “बलूचिस्तान के शासक - किंग ऑफ कलाट मीर अहमदयार ख़ान अपने देश का भारत में विलय चाहते हैं, लेकिन भारत को इससे कुछ लेना देना नहीं है।“ बहरहाल, बाद में मेनन के बयान का गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खंडन कर दिया। हालांकि कई इतिहासकार दावा करते हैं कि बलूचिस्तान भारत में विलय के पक्ष में था, लेकिन खान ऑफ़ कलाट के प्रस्ताव को नेहरू ने ही अस्वीकार कर दिया था।

बहरहाल, मार्च 1948 में पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर हमला बोल दिया और अंदर घुसकर कई ठिकानों को नियंत्रण में ले लिया। लियाक़त अली बराबर सैन्य ऑपरेशन की निगरानी करते रहे। कमाडिंग ऑफिसर मेजर जनरल मोहम्मद अकबर ख़ान और सातवीं बलूच रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल गुलज़ार के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने 27 मार्च 1948 को कलाट और मकरान पर क़ब्ज़ा कर लिया। अगले दिन 28 मार्च को भारी दबाव के चलते बलूच शासक खान ऑफ कलाट को अनिच्छा से अपने देश के पाकिस्तान में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने पड़े। चूंकि बलोच जनता विलय के पक्ष में नहीं थी, लिहाज़ा वहां के लोग बाग़ी हो गए। सूबे में पहला सशस्त्र विद्रोह 1958 में हुआ और आज तक जारी है।

1973 में तो बलूचिस्तान की विद्राही सेना और पाकिस्तानी सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा विद्रोही मारे गए, लेकिन ईरान से सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान को भी तीन हजार सैनिकों की मौत की हानि उठानी पड़ी थी। इसके बाद 1977 में भी विद्रोह हुआ जिसे पाकिस्तानी सेना ने दबा दिया। विद्रोही सूई हवाई अड्डे पर भी हमला कर चुके हैं और रेल पटरी, पुल, गैस पाइप लाइन और दूसरे विकास कार्यों पर हमला करते रहते हैं।

सरकार ने बलूचिस्तान समस्या को हल करने के लिए संसदीय कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने भी माना कि वहां जनता के साथ पाक हुक्मरानों ने इंसाफ नहीं किया। सेना या सरकारी नौकरियों में बलोच जनता का रिप्रज़ेंटेशन नहीं के बराबर है। जिस तरह चीन तिब्बत पर क़ब्ज़ा करके वहीं चीनी लोगों को बसा रहा है ताकि तिब्बती लोगों की आबादी चीनी लोगों से कम हो जाए। ठीक उसी तरह पाकिस्तान बलूचिस्तान में बाहरी लोगों को बसाकर सूबे में बलोच जनता को अल्पसंखक करने के अभियान में जुटा हुआ है।

2005 से एक बार फिर बलूचिस्तान में विद्रोह की आग धधकने लगी है। पाकिस्तान के इस अशांत सूबे में फ़िलहाल कुल तीन प्रमुख छापामार गुट संघर्ष कर रहे हैं। पहला गुट है बलूचिस्तान रिपब्लिकन आर्मी जिसके नेता ब्रम्हदाग़ ख़ान बुगती जो नवाब अकबर बुगती के पोते हैं। दूसरा गुट है मारी कबाइली का बलोचिस्तान लिबरेशन आर्मी जिसके नेता हैरबर मारी है और तीसरा गुट है डॉ. अल्ला नज़र का बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट। इन तीनों गुटों ने पाकिस्तानी सेना और जनरलों की नींद हराम करके रखी है।

फरवरी 2012 में अमेरिकी प्रतिनिधि सबा में बलूचिस्तान का मामला उठा था। अमेरिकी कांग्रेसमैन डाना रोहरबाकर ने एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि राज्य में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में पाकिस्तान से सवाल जवाब किया जाना चाहिए। रोहराबाकर के प्रस्ताव का प्रतिनिधि सभा में लुई गोहमर्ट और स्टीव किंग ने समर्थन किया था। प्रस्ताव में कहा गया था कि पाकिस्तान के बनने के बाद से ही बलोच लोग मुसीबत झेल रहे हैं। लगातार विद्रोह दर्शाता है कि बलोच जनता इस्लामाबाद के शासन के विरुद्ध है, क्योंकि इस्लामाबाद ने उनके लिए कुछ नहीं किया जिससे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत समृद्ध होने के बावजूद बलोच जनता बहुत ग़रीब है।

सूबे में सेना और विद्रोहियों के संघर्ष के चलते लाखों की तादाद में लोग लापता हैं। ग़ायब हुए लोगों के परिजन सेना पर ही अगवा करने का आरोप लगाते हैं और सड़कों पर उतर कर विरोध करते रहते हैं। बहरहाल, अब भारत अगर अंतरराष्ट्रीय मंच पर बलूचिस्तान में मानवाधिकार के उल्लंघन का मामला उठाता है तो यह देश की विदेश नीति में बड़ा बदलाव होगा। पहली बार भारत आधिकारिक तौर पर बलूचिस्तान के मामले में रुचि ले रहा है। अन्यथा 1946 से ही बलूचिस्तान पर कोई स्टैंड न लेने की कांग्रेस की नीति रही है। आज़ादी से पहले खान ऑफ कलाट ने सहायता के लिए महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल के पास अपने दूत भेजे थे लेकिन कांग्रेस नेताओं को कोई रुचि ली थी।
हिंदुस्तान टाइम्स की मार्च 1946 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1946 में खान ऑफ कलाट ने बलूचिस्तान को स्वतंत्र रखने की कोशिश की थी और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य शमद खान को बलूचिस्तान की मदद करने के लिए नियुक्त किया था। उस समय मौलाना अबुल कलाम कांग्रेस के अध्यक्ष थे। ख़ान का समर्थन बाद में बलूचिस्तान के गवर्नर बनने वाले मीर गौस बक्श बिज़ेंजो ने भी किया था, लेकिन कांग्रेस ने इस विषय में कोई रुचि नहीं ली।

बहरहाल, बलूचिस्तान के मामले में पहली बार भारत के स्टैंड लेने ले पूरा समीकरण ही बदलता दिख रहा है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने भारतीय प्रधानमंत्री के बयान का स्वागत किया है। बलूचिस्तान के लोगों ने भी नरेद्र मोदी का आभार जताया है और उम्मीद जताई है कि बलूचिस्तान में पाकिस्तान सेना के अत्याचार और मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले को भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाएगा।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

दही-हांडी - क्या अदालती दखल और सख़्ती से ख़त्म हो जाएगी की रोमांचकारी परंपरा ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन धूमधाम से मटकी फोड़ने वाले दही-हांडी यानी गोविंदा त्यौहार से ठीक सप्ताह भर पहले ऐसा फ़ैसला दे दिया कि सदियों पुरानी बेहद रोमांचक और लोकप्रिय गोविंदा परंपरा का अस्तित्व ही संकट में दिखने लगा है। ज़ाहिर सी बात है, इस त्यौहार को सही मायने में मनाने वाले जेनुइन लोग निराश हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस बात पर बहस भी छिड़ गई है कि सुप्रीम कोर्ट की दही-हांडी पर सख़्ती कहीं भारतीय संस्कृति पर हमला तो नहीं है?

अपने फ़ैसले में देश की सबसे बड़ी अदालत नें साफ़ कर दिया कि मटकी फोड़ने के लिए बनाए जाने वाले पिरामिड में 18 साल से कम उम्र के बच्चे हिस्सा नहीं ले सकेंगे और न ही मटकी की ऊंचाई 20 फीट से ज़्यादा होगी। लब्बोलुआब देश की सबसे बड़ी अदालत ने बॉम्बे हाईकोर्ट के पिछले साल के फ़ैसले को ही बरकरार रखा है।

पिछले साल बॉम्बे हाईकोर्ट ने ऐसे इंतज़ामात करने के निर्देश दिए थे, जिन पर अमल करना मुश्किल भरा ही नहीं, क़रीब-क़रीब असंभव है। मसलन, हाईकोर्ट ने कहा था कि मटकी-स्थल के आसपास ज़मीन पर गद्दे बिछाए जाएं। चूंकि गोविंदा पर्व बारिश में पड़ता है, ऐसे में खुले आसमान के नीचे गद्दे नहीं बिछाए जा सकते। इससे गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है। यह आयोजकों के लिए भी व्यवहारिक नहीं। हाईकोर्ट ने गोविंदाओं के लिए सुरक्षात्मक कवच और हेलमेट का इंतज़ाम करने और मटकी सड़क या रास्ते पर न टांगने की भी निर्देश दिया था। यह भी व्यवहारिक नहीं था। लिहाज़ा, इन आदेशों का पालन करना बहुत ही मुश्किल भरा होगा। अब सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले को ओके कर दिया।

राज्य की देवेंद्र फड़नवीस सरकार के पास पुलिस को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सख़्ती से पालन का निर्देश देने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था। इसीलिए कई लोग आशंका जताने लगे हैं कि कहीं अदालत के दख़ल और राज्य सरकार के कोर्ट का फ़ैसला लागू करवाने की मजबूरी के चलते भारतीय संस्कृति की यह रोमांचकारी परंपरा सदा के लिए ख़त्म न हो जाए। दरअसल, अदालत की ओर से दही-हांडी के जो तरीक़े बताए गए हैं, वे प्राइमा फ़ेसाई इतने अव्यवहारिक हैं कि उन पर अमल करने से बेहतर होगा, यह पर्व ही न मनाया जाए।

दही-हांडी का रोचक पर्व भारत में दशकों नहीं, कई सदियों से धूमधाम से मनाया जाता रहा है। महाराष्ट्र में यह सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रहा है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन होने वाले इस उत्सव में युवाओं के साथ-साथ किशोर और बच्चे भी उत्साह से शिरकत करते रहे हैं। किशोरों और बच्चों को इस पर्व में इसलिए शामिल किया जाता रहा है क्योंकि, उनका वजन कम होता है, लिहाज़ा, मटकी फोड़ते के लिए पिरामिड बनाते समय उन्हें आसानी से कंधे पर बिठाकर मटकी तक पहुंचा जा सकता है। यह काम कोई वयस्क आदमी नहीं कर सकता।

वस्तुतः दही-हांडी में मिट्टी (अब ताबां या पीतल) की मटकी में दही, मक्खन, शहद, फल और कैश धनराशि रखे जाते हैं। इस मटकी को धरती से काफी ऊपर तक टांगा जाता है। प्रायः रुपए की लड़ी रस्से से बांधी जाती है। इसी रस्से से वह बर्तन भी बांधा जाता है। बच्चे, किशोर और नवयुवक लड़के–लड़कियां पुरस्कार जीतने के लिए समारोह में हिस्सा लेते हैं और एक–दूसरे के कंधे पर चढ़कर पिरामिड बनाते हैं। जिससे सबसे ऊपर पहुंचकर आसानी से मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है। इस धनराशि को मानव पिरामिड में भाग लेने वाले सभी सहयोगियों में बांट दिया जाता है।

यह कहना न तो ग़लत होगा और न ही अतिरंजनापूर्ण कि दही-हांडी मूलतः बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का ही का खेल रहा है। इस रोमांचकारी भारतीय परंपरा का आरंभ भगवान कृष्ण के बाल्यकाल में गोपियों की मटकी से माखन चुराने की घटनाओं से माना जाता है। बालक कन्हैया गोपियों की मटकी फोड़कर माखन चुरा लेते थे। बड़े होने पर श्रीकृष्ण ने मटकी नहीं फोड़ी बल्कि वह कंस को मारने के लिए गोकुल को ही छोड़ दिया था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि गोविंदा त्यौहार केवल और केवल बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का ही है। इसमें बड़ों को शामिल नहीं होना चाहिए।

दही-हांडी की मटकी असल में सबसे ऊपर का बच्चा फोड़ता है। उसे पिरामिड में शामिल नवयुवक अपने कंधे पर बिठाकर सहारा देते हैं और मटकी तक पहुंचाते हैं। इसलिए यह कहने में कतई हर्ज़ नहीं कि इस त्यौहार का अट्रैक्शन ही बच्चे हैं। लिहाज़ा बच्चों की भागीदारी के बिना यह अधूरा सा लगेगा। इसमें केवल वयस्क युवक ही भाग लेंगे तब यह और जोख़िम भरा हो सकता है। 18 साल का होते होते औसत इंसान का वज़न 60 किलोग्राम पार कर जाता है। अगर पिरमिड में सबसे ऊपर इतने वज़नदार व्यक्ति को चढ़ाया गया तो नीचे के गोविंदाओं के दबने का ख़तरा रहेगा।

अब शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने नेतागण देश की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले पर ख़ेद जता रहे हैं। राज ठाकरे ने तो तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है, “दही हांडी उत्सव को कोर्ट ने नियमों में उलझा दिया है। तो क्या अब स्टूल पर खड़े होकर दही हांडी फोड़ी जाए?” ज़ाहिर है ऐसे कमेंट इन नेताओं की अपरिपक्वता ही दर्शाते हैं। अब खेद जताने से क्या फ़ायदा। यह तो वही बात हुई कि अब पछताए का होत जब चिड़िया चुग गई खेत।

ज़ाहिर सी बात है, अदालत का दख़ल रातोरात नहीं हुआ है। हाल के वर्षों ख़ासकर टीवी चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट और इस त्यौहार को प्रॉडक्ट बेचने का ज़रिया बना देने से इस पर्व का बड़ा घाटा हुआ। दही-हांडी की प्राचीन परंपरा को नेताओं और बाज़ारवादियों ने अपने निजी लाभ के लिए हाईजैक कर लिया था। इसे पब्लिसिटी का माध्यम बना दिया था। इसका पूरी तरह कॉमर्शियलाइज़ेशन हो गया था। इस पर्व में करोड़ों के वारे-न्यारे होने लगे थे। गोविंदा मंडल भी पेशेवर हो गए थे, जिससे गलाकाट स्पर्धा शुरू हो गई थी। इसके चलते मटकी की ऊंचाई और इनामी राशि भयानक रूप से बढ़ने लगी थी। बाज़ारीकरण के चलते ही यह त्यौहार हंगामें वाला पर्व बन गया, इस कारण एक बड़ा तबक़ा इन आयोजनों से चिढ़ने लगा था। कहा जा सकता है कि आयोजकों और बाज़ार को संचालित करने वाली कंपनियों द्वारा इसे मुनाफ़े का जरिया बना देने से ही इस त्यौहार का बंटाधार हुआ।

गोविंदा इतना ज़्यादा स्पर्धात्मक हो गया था कि विदेशों से पेशवर गोविंद मंडल मटकी फोड़ने के लिए आने लगे थे। आज ख़ेद जताने वाले लोगों को उसी समय सक्रिय होकर गोविंदा की परंपरा को नष्ट कर रहे लोगों को रोकना चाहिए था। जब स्पर्धा बढ़ने से पिरामिड में शामिल गोविंदाओं को मटकी फोड़ने के दौरान मौत होने लगी तो मजबूरन कुछ लोगों ने महसूस किया कि इस त्योहार को विद्रुप रूप देने का विरोध होना चाहिए, उस पर अंकुश लगना चाहिए। हादसों को रोकने के लिए ही हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गईं।

दरअसल, पिछले साल सबसे पहले मुंबई पुलिस के तत्कालीन प्रमुख राकेश मारिया ने बच्चों का सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 12 साल उम्र तक के बच्चों के दही-हांडी के पिरामिड में भाग लेने पर रोक लगा दी थी। मुंबई के पुलिस प्रमुख ने यह क़दम बाल मज़दूरी उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के दबाव में उठाया था। यहां तक तो थोड़ी खैरियत थी, लेकिन रही सही कसर अदालत के आदेश ने पूरी कर दी। ऐसे में राज्य सरकार को निर्देश दिया जाना चाहिए कि गोविंदा को कॉमर्शियलाइज़ेशन बनाने से रोका जाए, न कि इस पर अव्यवहारिक बंदिशे लगाकर।

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

लोकसभा चुनाव 2019 नए हाईटेक मुख्यालय से लड़ेगी बीजेपी

हरिगोविंद विश्वकर्मा

ग्यारह करोड़ कार्यकर्ताओं वाली दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी अपना मुख्यालय बदलने जा रही है। सब कुछ निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक़ हुआ तो पार्टी सन् 2019 का लोकसभा चुनाव अपने नए मुख्यालय से लड़ेगी। बीजेपी का नया मुख्यालय नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास मिंटो रोड से निकलने वाले पं. दीनदयाल मार्ग पर बनने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रक्षाबंधन के दिन नए मुख्यालय की प्रस्तावित का आधारशिला रखी।

बीजेपी के नये कार्यालय की अत्याधुनिक तकनीक से सज्जित हाईटेक इमारत का प्लान मुंबई के मशहूर आर्किटेक्ट अरविंद नांदापुरकर, ओमकार नांदापुरकर और श्रीमती ग्रीष्मा नांदापुरकर और उनके सभी सहयोगी आर्किटेक्ट्स और इंजीनियर्स ने तैयार किया है। बीजेपी के नए मुख्यालय में देश-दुनिया के लोगों से सीधे वीडियो और ऑडियो संपर्क की आधुनिका सुविधा उपलब्ध रहेगी। सबसे बड़ी बात देश में सबसे ज़्यादा हाईटेक और आधुनिक पोलिटिकल ऑफिस होगा। यह कार्यालय दिल्ली में बीजेपी के संसद भवन के पास के अशोक रोड कार्यालय की जगह लेगा, जहां से पार्टी का कामकाज राष्ट्रीय कार्यालय पिछले पांच दशक से ज़्यादा समय से हो रहा है।

अरविंद नांदापुरकर कहते हैं, “बीजेपी शुरू से पार्टी कार्यालय को पार्टी की आत्मा मानती रही है। लिहाज़ा, ग्राम पंचायत, तहसील, जिला और राज्य के कार्यकर्ताओं से केंद्रीय कार्यालय का सीधा संपर्क ज़रूरी है, क्योंकि समर्पित कार्यकर्ता ही पार्टी की असली पूंजी हैं। इनके ज़रिए ही आम जनता बीजेपी से जुड़ती है। पार्टी और कार्यकर्ताओं के इस बंधन को और मज़बूत करने के लिए ही राष्ट्रीय अध्यक्ष माननीय अमित शाह ने केंद्रीय कार्यालय के रूप में अत्याधुनिक और हाईटेक स्मार्ट ऑफिसकी परिकल्पना की है।

यह संयोग है कि बीजेपी को नए कार्यालय के लिए ज़मीन का आवंटन पार्टी संस्थापक पं दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर हुआ है। प्रस्तावित मुख्यालय सड़क के दोनों ओर दो फेज़ में बनेगा। पहले फ़ेज़ में पार्टी का प्रशासनिक एवं संगठन कार्यालय होगा, जबकि दूसरे फ़ेज़ में संगठन संकुल होगा। प्रस्तावित कार्यालय की इमारत का विशाल परिसर दो एकड़ भूखंड पर फैला होगा। यह ख़ूबसूरत जगह चारों तरफ़ से खुली है। बीजेपी कार्यालय की इमारत का निर्माण प्रधानमंत्री, बीजेपी अध्यक्ष की परिकल्पना के अनुरूप होगा।

प्रशासनिक एवं संगठन कार्यालय की इमारत के बग़ल में दो एकड़ ज़मीन पर पार्क बनाया जाएगा। पूरे परिसर को दो हिस्सों में बांटा गया है। पहला, सामने का फ्रंट ओपन स्पेस है और दूसरा अंदर का कोर्टयार्ड। सुरक्षा को ध्यान में रखकर इमारत में तीन प्रवेश द्वार बनाए जाएंगे। पहला और दूसरा प्रवेश बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए होगा, जबकि तीसरा प्रवेश द्वार मीडिया के लिए। जनता का प्रवेश फ्रंटओपन स्पेस के बाद बनी सीढ़ियों से होगा। दो बेसमेंट फ्लोर वाली प्रस्तावित छहग मंज़िली इमारत चरणबद्ध तरीक़े से बनाई जाएगी।

इमारत का खुला हुआ बाहरी हिस्सा लंबी सीढ़ियों के कारण स्टेडियम का लुक देगा, जहां दो से तीन हज़ार कार्कयर्ताओं की सभा की जा सकेगी। इमारत इस तरह डिज़ाइन की गई है कि सालभर अंदरूनी कमरों में रोशनी आती रहेगी। इससे कृत्रिम प्रकाश पर निर्भरता कम होगी। इसी तरह दिन में बीच के कोर्टयार्ड के 80 फ़ीसदी हिस्से में सूरज के प्रचंड होने पर भी शीतल छाया रहेगी। इसलिए यह हिस्सा अपेक्षाकृत दूसरे खुले हिस्से के मुक़ाबले ज़्यादा ठंडा रहेगा और यहां कभी भी सभा वगैरह की जा सकेगी। कॉरीडोर और वेटिंग एरिया को भी इस तरह डिजाइन किया गया है, जिससे हरियाली के साथ-साथ नैसर्गिक प्रकाश पहुंचता रहेगा। जिससे यहां की आबोहवा आगंतुक अच्छा लगे।

बिल्डिंग के फ्रंट व्यू पर एक बड़ी स्क्रीन लगाने का प्रस्ताव है। स्क्रीन पर बीजेपी से जुड़ी हुई गतिविधियों या कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण यानी लाइव टेलिकास्ट चलता रहेगा। उदाहरण के तौर पर, बीजेपी की कोई सभा देश के किसी भी हिस्से में हो रही है, तो उसका लाइव फूटेज इस स्क्रीन पर दिखेगा। इमारत में इसकी क्षमता के अनुसार लोगों के मूवमेंट को आसान बनाने की पूरी कोशिश की गई है। इस बात को ध्यान में रखकर उच्च टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल करने का प्रस्ताव है। लोगों के एक मंज़िल से दूसरी मंजिल पर जाने या आने के लिए चार स्टेयरकेस और दो स्केलेटर होंगे। इसके अलावा सात लिफ्ट भी लगाए जाएंगे। इससे लोगों को ऊपरी मंज़िल पर आने-जाने में अनावश्यक इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। सिक्योरिटी के नज़रिए से यह डिज़ाइन सर्वोत्तम है।

मुख्य प्रवेश पर डबल हाइटेड लॉबी डिज़ाइन की गई है। इसकी दीवार पर भारतीय संस्कृति से जुड़ी कलाकृतियां लगाई जाएंगी। इमारत की तल मंज़िल की छत को एक साइड में थोड़ा आगे बढ़ा दिया गया है। इससे पैदल आने-जाने वालों को सुरक्षित रास्ता मिलेगा और वहां से गुज़रने वाले वाहनों के कारण किसी तरह की असुविधा नहीं होगी। भारतीय संस्कृति और समृद्ध वास्तु परंपराओं को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली यह इमारत देश की राजधानी दिल्ली में एक धरोहर के रूप में भी अपनी जगह बनाएगी।

छठी मंज़िल राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए आरक्षित रहेगी। यहां अध्यक्ष की केबिन के साथ ऐंटीचेंबर भी होगा। यहां 25 लोगों के बैठने के लिए वेटिंग एरिया भी बनाया जाएगा। अध्यक्ष की देश, विदेश या शहर में किसी से लाइव बातचीत के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग रूम की सुविधा उपलब्ध रहेगी। अध्यक्ष के निजी सहायकों और उनके पूरे स्टॉफ के लिए कक्ष होंगे। महासचिव, उपाध्यक्ष और सचिव और दूसरे पदाधिकारियों के दफ़्तर आधुनिक बुनियादी सुविधाएं एवं एनीमिटीज़ सज्जित रहेगा। जहां उनके पीए और उनके पूरे स्टाफ बैठेंगे। इसके आलावा पार्टी के महिला, युवा, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, किसान और ओबीसी मोर्चे, प्रकोष्ठ और दूसरे सहयोगी संगठनों के मुख्यालय यही होंगे। हर दफ्तर के पास वोटिंग एरिया और कॉन्फ्रेंस हॉल होगा।

बीजेपी के नए मुख्यालय में लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी के नेताओं और उनके स्टाफ का भी कार्यालय और कॉन्फ्रेंस रूम बनाने का भी प्रस्ताव है। कार्यकर्ताओं और नवनिर्वाचित विधायकों या सांसदों को प्रशिक्षण वगैरह देने के लिए 50 कार्यकर्ताओं के बैठने की क्षमता वाले दो हाईटेक ट्रेनिंग हॉल, जो ज़रूरत पड़ने पर एक हाल में तब्दील किए जा सकेंगे। इमारत में ग्राउंड फ्लोर पर 400 सीटों की क्षमता वाला एक दो मंज़िला हाईटेक सभागृह बनाने का प्रस्ताव है, जिसमें हर सीट पर माइक लगी रहेगी। इसमें स्क्रीनिंग की सुविधा रहेगी। ग्राउंड फ्लोर पर ही कैंटीन भी बनाने का प्रस्ताव है। यहां कम से कम 70 लोग एक साथ बैठकर खाना खा सकेंगे या जलपान कर सकेंगे। कैंटीन में देश के हर राज्य के व्यंजन उपलब्ध रहेंगे।

भारतीय जनता पार्टी पूर्व अध्यक्ष की दो केबिन बनाई जाएगी। इसके अलावा पार्टी कोषाध्यक्ष का दफ़्तर भी इसी मंज़िल पर होगा। कोषाध्यक्ष के पीए समेत उनका पूरा स्टॉफ जिनमें तीन अकाउंट्स हेड्स होंगे, इसी मंज़िल पर बैठेंगे। यहां चेस्टरूम, स्टाफ की भी सुविधा होगी। टैरेस पर रूफटॉप म्यूज़ियम और लाइब्रेरी विकसित करने का प्रस्ताव है। जहां बीजेपी का 65 साल का गौरवशाली इतिहास समाहित रहेगा। यहां आर्काइव और देर तक बैठने की सुविधा भी उपलब्ध रहेगा। यहां लंच और डिनर के लिए टैरेस गार्डन देने का भी प्रस्ताव है।

हर राजनीतिक दल के लिए मीडिया खासा अहमियत रखता है। नए मुख्यालय में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों के लिए कवरेज की हाईटेक व्यवस्था होगी। इसके लिए स्टेट-ऑफ-आर्ट मीडिया सेंटर बनाया जा रहा है, जहां प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए हाईटेक मीडिया हॉल होगा। जहां तक़रीबन हर छोटे-बड़े और देसी-विदेशी अख़बारों और टीवी न्यूज़ चैनल्स के 150 पत्रकारों के बैठने और ख़बर भेजने की सुविधा होगी। टीवी कैमरे लगाने की विशेष व्यवस्था की जाएगी ताकि किसी को समाचार संकलन में कोई असुविधा न हो। यहां 10 हाईटेक लाइव केबिन बनाए जा रहे हैं, जहां प्रवक्ताओं और दूसरे नेताओं के साथ इंटरव्यू या लाइव चैटिंग की जा सकेगी। टीवी के ओबी वैन के सिगनल्स कनेक्टिविटी की सुविधा अत्याधुनिक माध्यमों से करने का भी प्रस्ताव है। दो अत्याधुनिक सुविधांओं से युक्त स्टूडियो बनाए जाएंगे और उन दोनों के हेड की केबिन भी इसी मंज़िल पर बनाई जाएगी। यहां बीजेपी का आईटी सेक्शन भी होगा। परिसर में दो सौ कारों की पार्किंग बेसमेंट में दो मंजिले पार्किंग स्पेस में होगा। इमारत का भूमिपूजन रक्षाबंधन क दिन सुबह तमाम सीनियर बीजेपी लीडर्स की मौजूदगी में प्रधानमंत्री ने ख़ुद किया। इस मौके पर प्लान पर बनाई गई 15 मिनट की फिल्म दिखाई गई, जिसका स्क्रिप्ट इन पंक्तियों के लेखक ने तैयार किया था। यह इमारत दिसंबर 2018 तक पूरा करने की योजना है। उसके बाद अशोक रोड का मुख्यालय यहां शिफ्ट हो जाएगा।



सोमवार, 1 अगस्त 2016

राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस आश्वस्त क्यों नहीं...?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अगर कहें कि कांग्रेस के लोकप्रिय नेता और उपाध्यक्ष राहुल गांधी जुमलेबाज़ी करने में माहिर हो चुके हैं, तो तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। राहुल उसी तरह की जुमलेबाज़ी करने लगे हैं, जिस तरह की जुमलेबाज़ी से भारत की जनता मंत्रमुग्ध होती रही है। इतिहास गवाह है कि इस देश में पिछले सात दशक से केवल जुमलेबाज़ी ही हो रही है। यहां लोगों को जुमलेबाज़ी बहुत ज़्यादा पसंद है। तभी तो जुमलेबाज़ नेताओं के पीछे लोग पागल हो जाते हैं। उन्हें सिर-आंखों पर ही नहीं बिठाते हैं, बल्कि उन्हें आंख मूंदकर वोट देते हैं। कहना न होगा, इसी जुमलेबाज़ी के चलते पिछले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी जनता के प्रिय नेता बनकर उभरे और प्रधानमंत्री भी बन गए। नरेंद्र मोदी के विदेश से कालाधन लाने और हर भारतीय खाते में 15 लाख जमा कराने के बयान को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने ख़ुद एक चुनावी जुमलेबाज़ी माना।

बहरहाल, चर्चा हो रही है कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की। अभी मॉनसून सत्र में लोकसभा में महंगाई के मुद्दे पर चर्चा के दौरान राहुल का भाषण जुमले से भरपूर रहा। उन्होंने सीज़न्ड पॉलिटिशियन्स की तरह नरेंद्र मोदी की ही स्टाइल में उनकी जमकर ख़बर ली। बीजेपी सांसदों की टोकाटोकी के बीच राहुल ने दो साल कार्यकाल में संसद में अपनी 11वीं स्पीच अपने चिरपरिचित अंदाज़ में पूरी की। उनकी जुमलेबाज़ी से बीजेपी नेता एकदम तिलमिला उठे। सरकार की तरफ़ से ख़ुद वित्तमंत्री अरुण जेटली को मोर्चा संभालना पड़ा और उन्होंने दावा किया, पिछले कुछ महीनों में थोक महंगाई दर कम हुई है। महंगाई पर क़ाबू के लिए सरकार ने क़दम उठाए हैं। सोशल मीडिया पर मोदीभक्त और भी ज़्यादा तिलमिला उठे और अनाप-शनाप कमेंट करने लगे। इसका मतलब यह हुआ कि राहुल का तीर एकदम सही निशाने पर बैठा।

कांग्रेस उपाध्यक्ष ने नरेंद्र मोदी पर तंज करते हुए कहा, मोदीजी का चुनावी नारा था, ‘हर हर मोदी, घर घर मोदीलेकिन आजकल हर जगह एक ही नारा चल रहा है हर हर मोदी, अरहर मोदी राहुल इतने पर नहीं रुके, उन्होंने मोदी के चौकीदार वाले बयान की चुटकी लेते हुए कह दिया, “मोदीजी ख़ुद को देश का चौकीदार कहते रहे हैं, लेकिन चौकीदार की नाक के नीचे दाल चोरी हो रही है, लेकिन चौकीदार कुछ नहीं कर रहा है।कांग्रेस के युवराज ने दो क़दम और आगे बढ़ते हुए कहा, ”सरकार ने दो साल का जश्न धूमधाम से मनाया। बहुत सारे सितारों को बुलाया, लेकिन इस पूरे फंक्शन में मोदीजी ने महंगाई पर एक भी शब्द नहीं बोला।

इससे पहले इसी साल गर्मियों में राहुल गांधी ने 'फेयर एंड लवली' वाला बहुचर्चित जुमला देते हुए कहा था, मौजूदा एनडीए सरकार ने काले धन को सफ़ेद बनाने के लिए एक 'फेयर एंड लवली' योजना शुरू की है। राहुल की जुमलेबाज़ी से उस समय भी बीजेपी के नेतागण ख़ासे बैखलाए और तब भी अरुण जेटली संकटमोटक बने और उन्हें ही आधिकारिक रूप से कहना पड़ा, “राहुल की टिप्पणी पोलिटकली इनकरेक्ट है। यह नस्ली मानसिकता दिखाता है। यह ऐसा मुहावरा है जिससे पूरी दुनिया के लोग क्रोध करते हैं लेकिन मैं इसे नज़रंदाज़ करूंगा, क्योंकि यह अज्ञानता है।"

पूरा देश जानता है और गवाह भी है कि जुमलेबाज़ी की यह स्टाइल नरेंद्र मोदी की रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी रैलियों में वह बार-बार वह दिल्ली में मां-बेटे की सरकारतो उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बाप-बेटे की सरकार’ ‘उनको साठ साल दिया मुझे साठ महीने दीजिएऔर कभी 50 करोड़ की गर्लफ्रेंडजैसे जुमले पेश करके अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं से ताली और वाहवाही लूटते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेंद्र मोदी की जुमलेबाज़ी जारी रही। वह मैं मैं प्रधानमंत्री नहीं प्रधानसेवक हूं, मैं तो चौकीदार हूं’, ‘मैं 65 साल का कचरा साफ़ कर रहा हूंऔर न खाऊंगा न खाने दूंगाके जुमले से अपने भक्तों का दिल जीतते रहे हैं।

बहरहाल, अगर राहुल गांधी के संसद या संसद से बाहर दिए गए भाषणों पर गौर करें तो वह लिखा हुआ नहीं पढ़ते। नरेंद्र मोदी का तरह वह भी बिना लिखित भाषण के ही बोलते हैं। राहुल ने कुछ साल पहले कई न्यूज़ चैनलों को इंटरव्यू भी दिया था, जिसमें उन्होंने परिपक्व नेता की तरह बड़ी बेबाकी से हर मुद्दे को तरह रखा था। इसका मतलब यह कि राहुल का होमवर्क भी ठीकठाक ही नहीं, देश के कई प्रमुख नेताओं के मुक़ाबले बहुत ही अच्छा है। कम से कम वह बोलते समय ब्लंडर नहीं करते और जेंटलमैन की तरह अपनी बात रखते हैं। भले ही वह कभी-कभार ही बोलते हैं, लेकिन बोलते अच्छा हैं। अच्छा और प्रभावशाली भाषण देते हैं। लोकसभा में कई बार उन्होंने यादगार भाषण दिया भी है।

ऐसे में लोग, ख़ासकर राजनीतिक टीकाकार, अकसर हैरान होते हैं कि कांग्रेस अपने इस अतिलोकप्रिय नेता के परफॉरमेंस को लेकर आख़िर आश्वस्त क्यों नहीं है? पार्टी अपने इस फायरब्रांड नेता को लेकर शुरू से क्यों असमंजस में है और अनावश्य हिचकिचाहट दिखाती रही है, ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले उन्हें फ्रंट पर खड़ा करने में। वैसे 19 जून 1970 को जन्मे राहुल गांधी अब बच्चे या युवा नहीं रहे, वह 46 साल के हो गए हैं। इस उम्र में तो उनके पिता राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल भी पूरा कर चुके थे। बहरहाल, राहुल 2004 से अपने माता-पिता और चाचा संजय गांधी के संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश अमेठी से लगातार तीसरी बार लोकसभा के सदस्य हैं।

सबसे बड़ी बात राहुल गांधी वंशवाद के प्रतिनिधि हैं। वह 38 साल तक देश को प्रधानमंत्री देने वाले नेहरू-गांधी खानदान के पुरुष वारिस हैं। भारत के लोग जुमलेबाज़ी के अलावा वंशवाद पर भी लट्टू रहते हैं। मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद पवार, बाल ठाकरे, सिंधिया परिवार, अब्दुल्ला और सोरेन फैमिली, पटनायक और करुणानिधि परिवार जनता की इसी मानसिकता के कारण फलते फूलते रहे हैं और अपने परिवार के लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेजते रहे हैं। दरअसल, सदियों से खानदानी हिंदू सम्राटों और मुस्लिम सुल्तानों के शासन में सांस लेने के कारण भारत की जनता ग़ुलाम मानसिकता की ओ गई है। इस मूढ़ जनता को वंशवाद शासन बहुत भाता है। लिहाज़ा, इस तरह की भावुक जनता के लिए राहुल गांधी सबसे फिट नेता हैं।

दरअसल, सोनिया गांधी और राजीव गांधी का पुत्र होने के नाते भी राहुल को फ्रंट पर ही रहना चाहिए था। लेकिन ऐसा लगता हैं, कांग्रेस में एक ऐसा खेमा है, जो नहीं चाहता कि राहुल बेबाक बोलने वाला पार्टी में फ्रंट पर आए और उन लोगों की जमी जमाई दुकानदारी ही चौपट कर दे। इसीलिए यह खेमा 10 जनपथ को सलाह देता रहता है कि राहुल गांधी अभी परिपक्व नहीं हुए हैं, लिहाज़ा अभी उन्हें बड़ी ज़िम्मदारी देने का सही और उचित नहीं आया है। इसी बिना पर राहुल को मई 2014 में 44 सांसदों के बावजूद लोकसभा में कांग्रेस का नेता नहीं बनाया। उनकी जगह कांग्रेस ने मनमोहन सिंह सरकार में रेल मंत्री रहे और क़ायदे से हिंदी न बोल पाने वाले कर्नाटक के मल्लिकार्जुन खरगे लोकसभा में नेता बना दिया। यह कांग्रेस की बड़ी भूल यानी ब्लंडर था, उसे राहुल गांधी को नेता बनाना चाहिए था, ताकि वह भविष्य में देश का नेतृत्व करने के लिए तैयार होते। लेकिन पार्टी ने वह मौक़ा गंवा दिया।

दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल और दून स्कूल, हावर्ड यूनिवर्सिटी के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से स्नातक और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज से एमफिल राहुल गांधी का नैसर्गिक टेस्ट सिस्टम विरोधी है। मनमोहन की सरकार थी, तब भी वह अकसर ऐसे-ऐसे बयान दे देते थे, जिससे भ्रम होता था कि कहीं वह सरकार के विरोधी यानी विपक्ष में तो नहीं हैं। 2013 में एक बार तो राहुल ने दाग़ी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए मनमोहन सरकार के अध्यादेश को ही फाड़ कर फेंक दिया था। इस तरह का सिस्टम-विरोधी नेता किसी भी पार्टी का एसेट होता है, लेकिन दिग्भ्रमित कांग्रेस के नेता राहुल को बोझ मानते हैं और प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने के लिए फरियाद करते रहे हैं, जबकि जानते हैं, प्रियंका के राजनीति में आते ही कथिततौर पर भ्रष्टाचार करने वाले रॉबर्ट वाड्रा मुख्य केंद्र में आ जाएंगे। बहरहाल, राहुल गांधी जैसा जो नेता किसी भी विपक्षी पार्टी की पहली पसंद होता, वही नेता कांग्रेस में एकदम हाशिए पर है।


बीजेपी जानती है, कि राष्ट्रीय स्तर पर उसे मुलायम-लालू, नीतीश, पटनायक, नायडू, मायावती, ममता, जयललिता से कोई ख़तरा नहीं है। इस भगवा पार्टी को ख़तरा केवल राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल से है। अगर भविष्य में नरेंद्र मोदी को चुनौती मिली तो इन्हीं दो नेताओं से मिलेगी। इसीलिए मोदीभक्तों के निशाने पर सबसे ज़्यादा राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ही रहते हैं। दोनों उपहास का पात्र बनाने का कोई मौक़ा भक्त नहीं चूकते। फेसबुक, ट्विटर और व्हासअप जैसे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर इन दोनों नेताओं के बारे में तरह तरह के चुटकुल रचे जाते हैं और यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि ये दोनों वाक़ई नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरते है, जबकि हक़ीकत है कि अरविंद केजरीवाल भले सुप्रीमो कल्चर में भरोसा करते हों और आम आदमी पार्टी में अकेले नेता बने रहना चाहते हों, लेकिन राहुल गांधी बहुत उदार और जेंटलमैन नेता हैं। वह सबको लेकर चलने वाले नेता हैं। फिर भी कांग्रेस में फ्रंट पर नहीं हैं। यह कांग्रेस का दुर्भाग्य है।