हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में जब से पाकिस्तान के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब सूबा बलूचिस्तान का ज़िक्र किया है, तब से पाकिस्तान की ओर से ज़बरदस्त नाराजगी देखने को मिल रही है। बलूचिस्तान विवाद और वहां मानवाधिकार का हनन अचानक लाइम लाइट में आ गया है। इससे ज़ाहिर तौर पर पाकिस्तानी लीडरशिप का बौखलाना लाजिमी है। इस तरह कहा जा सकता है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने वाक़ई पड़ोसी देश की दुखती रग पर हाथ रख दिया है।
इत्तिफाकन, 26 अगस्त को बलूचिस्तान के शीर्ष राष्ट्रवादी नेता नवाब मोहम्मद अकबर शाहबाज़ खान बुगती की दसवीं पुण्यतिथि है। पाकिस्तान के राष्ट्रवादी लोग नवाब बुगती को बाग़ी और ग़द्दार कहते थे। 26 अगस्त 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के आदेश पर पाकिस्तानी सेना ने क्वैटा से 150 किलोमीटर पूरब कोहलू जिले में नवाब बुगती के ठिकाने पर हमला कर दिया और गुफा के अंदर उनके ठिकाने को विस्फोटक से उड़ा दिया, जिसमें नवाब बुगती के अलावा उनका पोता, 37 छापामार सैनिक और 21 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।
हालांकि नवाब बुगती पर सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने और देश के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध करने वाले गुरिल्लों की सेना तैयार करने के आरोप लगाने वाली पाकिस्तानी सेना ने उस समय दावा था कि बुगती ने गिरफ़्तारी से बचने और अदालत का सामना करने के डर से खुद को विस्फोटक से उड़ा लिया था। उनकी हत्या का पूरे बलूचिस्तान में भारी विरोध हुआ। जम्हूरी वतन पार्टी के लोग विरोध प्रदर्शन करते रहे। इससे राज्य में महीने भर आंदोलन चलता रहा। इतना ही नहीं बलोच नेशनल फ्रंट की अपील पर सूबे के अधिकांश हिस्सों में महीने भर हड़ताल रही। कोन्टा और अंदरूनी बलूचिस्तान के अनेक बड़े शहर पूर्ण बंद रहे। सरकारी दफ़्तरों में भी कर्मचारियों की संख्या न के बराबर थी। बलोच बार एसोसिएशन की अपील पर वकीलों ने भी पूरे राज्य में अदालतों का बहिष्कार किया था।
बहरहाल, 25 दिनों की जद्दोजहद के बाद एक सितंबर 2006 को बुगती को डेरा बुगती के कब्रिस्तान में उनके बेटे और भाई की कब्र के पास दफना दिया गया। उनका परिवार क़्वैटा में सार्वजनिक तौर पर सुपुर्द-ए-ख़ाक के पक्ष में था, लिहाज़ा अंतिम संस्कार समारोह में शामिल नहीं हुआ। उस समय सैन्य शासक मुशर्रफ़, पाकिस्तान सरकार और सेना को लगा था कि बुगती को मार देने से बलूच मामला शांत हो जाएगा, लेकिन हुआ इसके उलट। सन् 2007 से ही 26 अगस्त को बलूचिस्तान के लोग काला दिन के रूप में मनाने लगे। अब तो यह दिन बलोच जनता के लिए पृथक बलूचिस्तान राष्ट्र के लिए एकता दिवस बन गया है। हर साल इस दिन भारी विरोध प्रदर्शन होता है और आज़ादी की मांग की जाती है।
बहरहाल, बाद में नवाब बुगती की हत्या का आदेश देने वाले जनरल मुशर्रफ़, पूर्व प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज़ और पूर्व गवर्नर ओवैसी अहमद गनी को 13 जून 2013 को गिरफ्तार कर लिया गया। बुगती हत्याकांड के मुक़दमा सिबी की पाकिस्तानी ऐंटी-टेररिज़्म कोर्ट ने मुशर्रफ़ और दूसरे लोगों को बरी कर दिया था, लेकिन उस फ़ैसले को चुनौती दी गई है और ऊपरी अदालत में अपील विचाराधीन है।
बलूचिस्तान के बरखान में 12 जुलाई 1927 को जन्मे अकबर बुगती की मां बलोच आदिवासी उपजाति खेतरान की थी, जबकि अब्बा जान नबाव मेहराब ख़ान बुगती आदिवासी समुदाय के मुखिया थे। बुगती के दादा सर शाहबाज़ ख़ान अंग्रेज़ी शासन में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बड़े ओहदे पर रहे और उन्हें सर की उपाधि मिली थी। बुगती की शिक्षा दीक्षा लाहौर के ऐचिसन कॉलेज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने समुदाय के तमामदार बनाए गए थे। ब्रिटिश पत्रकार और लेखिका सिल्विया माथेसन ने नवाब बुगती का इंटरव्यू लेकर उनके जीवन पर ‘टाइगर ऑफ बलूचिस्तान’ नाम की किताब लिखी है।
नवाब बुगती बलूचिस्तान की बहुसंख्यक बलोच समुदाय के नेता थे। 1970 के दशक में वह बलूचिस्तान राज्य के मुख्यमंत्री और गवर्नर भी रहे थे। अपने देश को पाकिस्तान ने अवैध क़ब्ज़े से आज़ाद कराने के लिए उन्होंने निजी सेना बनाई थी और पाकिस्तान के साथ डेरा बुगती की पहाड़ियों से छापामार युद्ध कर रहे थे। पूर्व नेवी अफसर और बलूचिस्तान मामलों के जानकार कैप्टन आलोक बंसल की किताब ‘बलूचिस्तान इन टरमॉइल : पाकिस्तान ऐट क्रॉसरोड्स’ के मुताबिक विद्रोही सेना बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) 1970 के दशक से पाकिस्तान सेना से लड़ रही है। अब सवाल यही है कि क्या आज़ाद बलूचिस्तान का नवाब बुगती का सपना साकार होगा? पाकिस्तान बनने के बाद बलूचिस्तान के लोग आज़ादी की मांग करते हुए अनेक बार विद्रोह कर चुके हैं।
बलूचिस्तान के भूभाग पर पाकिस्तान के अलावा ईरान और अफगानिस्तान का भी क़ब्ज़ा है। सूबे की सीमाएं ईरान और अफ़गानिस्तान से लगती हैं। उत्तर-पूर्व में पाकिस्तान के क़बाइली इलाक़े और दक्षिण में अरब सागर है। दक्षिण पश्चिम में बड़ा हिस्सा सिंध और पंजाब से जुड़ा है। सिल्क रूट से कारोबारियों और यूरोप से आने वाले हमलावरों के लिए अफ़गानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता बलूचिस्तान से होकर गुज़रता है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल पूरे पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 43 फ़ीसदी है, मगर आबादी पांच फ़ीसदी से भी कम है।
सूबे में बलोच के अलावा पख़्तून, सिंधी, पंजाबी, हजारा से लेकर उज्बेक़ और तुर्कमेनियाई समुदाय के लोग रहते हैं। यह राज्य प्राकृतिक संसाधन के मामले में बहुत ज़्यादा समृद्ध है। यहां ज़मीन के नीचे कोयला और खनिजों का खज़ाना भरा पड़ा है। पाकिस्तान को यहां से तेल का बड़ा हिस्सा मिलता है। इस्लामाबाद में बैठी सरकार खनिज और तेल की कमाई तो लेती है लेकिन बदले में क्षेत्र को कुछ देती नहीं। इस उपेक्षा के चलते राज्य की क़रीब सवा करोड़ जनता और पूरा सूबा बदहाली, ग़रीबी और उपेक्षा का शिकार है। इसीलिए कई दशक से स्थानीय लोग आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
दरअसल, जब भारत पाकिस्तान आज़ाद हुए तो बलूचिस्तान का स्वतंत्र अस्तित्व था। यह कलाट सूबे के रूप में सदियों से आज़ाद था। कई विद्वान मानने हैं कि बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर ही सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ। यह भी माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे। हालांकि इस कथन की पुष्टि के लिए कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। दरअसल, सिंधु घाटी की लिपि को अभी तक न पढ़े पाने से ही यह संशय बना हुआ है। यह भी सच है कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष फ़िलहाल बलूचिस्तान में कम मिलते हैं। हालांकि लोकल बलूची जनता का मानना है कि उनके पूर्वज मूल निवास सीरिया के थे और वहीं से यहां आए थे। लिहाजा उनका मूल अफ़्रो-एशियाटिक है। हालांकि हिंद महासागर उपमहाद्वीप में बड़े शासकों का इस भूभाग पर हमेशा आधिपत्य रहा। यह मुगल साम्राज्य की स्थापना होने पर यह मुगलों के अधीन रहा और ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ों की अधीन। सन् 1944 में बलूचिस्तान के स्वतंत्रता का विचार अंग्रेज़ अफ़सर जनरल मनी के मन में आया था पर वह इसे अमली जामा नहीं पहना सके।
बहरहाल, 1948 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाक़त अली ने जब कलाट के शासक पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव बनाया तो वहां की संसद ने प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान में शामिल होने का आग्रह ठुकरा दिया। संसद ने साफ़-साफ़ कहा कि केवल मुस्लिम राष्ट्र होने के नाते बलूचिस्तान पाकिस्तान में शामिल नहीं हो सकता। कई लोग दावा करते हैं कि बलूचिस्तान के शासक खान ऑफ कलाट ने भारत में विलय की इच्छा जताई थी।
एक समाचार एजेंसी ने भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित वीपी मेनन का एक बयान जारी किया था, जिसमें मेनन ने कहा था, “बलूचिस्तान के शासक - किंग ऑफ कलाट मीर अहमदयार ख़ान अपने देश का भारत में विलय चाहते हैं, लेकिन भारत को इससे कुछ लेना देना नहीं है।“ बहरहाल, बाद में मेनन के बयान का गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खंडन कर दिया। हालांकि कई इतिहासकार दावा करते हैं कि बलूचिस्तान भारत में विलय के पक्ष में था, लेकिन खान ऑफ़ कलाट के प्रस्ताव को नेहरू ने ही अस्वीकार कर दिया था।
बहरहाल, मार्च 1948 में पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर हमला बोल दिया और अंदर घुसकर कई ठिकानों को नियंत्रण में ले लिया। लियाक़त अली बराबर सैन्य ऑपरेशन की निगरानी करते रहे। कमाडिंग ऑफिसर मेजर जनरल मोहम्मद अकबर ख़ान और सातवीं बलूच रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल गुलज़ार के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने 27 मार्च 1948 को कलाट और मकरान पर क़ब्ज़ा कर लिया। अगले दिन 28 मार्च को भारी दबाव के चलते बलूच शासक खान ऑफ कलाट को अनिच्छा से अपने देश के पाकिस्तान में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने पड़े। चूंकि बलोच जनता विलय के पक्ष में नहीं थी, लिहाज़ा वहां के लोग बाग़ी हो गए। सूबे में पहला सशस्त्र विद्रोह 1958 में हुआ और आज तक जारी है।
1973 में तो बलूचिस्तान की विद्राही सेना और पाकिस्तानी सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा विद्रोही मारे गए, लेकिन ईरान से सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान को भी तीन हजार सैनिकों की मौत की हानि उठानी पड़ी थी। इसके बाद 1977 में भी विद्रोह हुआ जिसे पाकिस्तानी सेना ने दबा दिया। विद्रोही सूई हवाई अड्डे पर भी हमला कर चुके हैं और रेल पटरी, पुल, गैस पाइप लाइन और दूसरे विकास कार्यों पर हमला करते रहते हैं।
सरकार ने बलूचिस्तान समस्या को हल करने के लिए संसदीय कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने भी माना कि वहां जनता के साथ पाक हुक्मरानों ने इंसाफ नहीं किया। सेना या सरकारी नौकरियों में बलोच जनता का रिप्रज़ेंटेशन नहीं के बराबर है। जिस तरह चीन तिब्बत पर क़ब्ज़ा करके वहीं चीनी लोगों को बसा रहा है ताकि तिब्बती लोगों की आबादी चीनी लोगों से कम हो जाए। ठीक उसी तरह पाकिस्तान बलूचिस्तान में बाहरी लोगों को बसाकर सूबे में बलोच जनता को अल्पसंखक करने के अभियान में जुटा हुआ है।
2005 से एक बार फिर बलूचिस्तान में विद्रोह की आग धधकने लगी है। पाकिस्तान के इस अशांत सूबे में फ़िलहाल कुल तीन प्रमुख छापामार गुट संघर्ष कर रहे हैं। पहला गुट है बलूचिस्तान रिपब्लिकन आर्मी जिसके नेता ब्रम्हदाग़ ख़ान बुगती जो नवाब अकबर बुगती के पोते हैं। दूसरा गुट है मारी कबाइली का बलोचिस्तान लिबरेशन आर्मी जिसके नेता हैरबर मारी है और तीसरा गुट है डॉ. अल्ला नज़र का बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट। इन तीनों गुटों ने पाकिस्तानी सेना और जनरलों की नींद हराम करके रखी है।
फरवरी 2012 में अमेरिकी प्रतिनिधि सबा में बलूचिस्तान का मामला उठा था। अमेरिकी कांग्रेसमैन डाना रोहरबाकर ने एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि राज्य में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में पाकिस्तान से सवाल जवाब किया जाना चाहिए। रोहराबाकर के प्रस्ताव का प्रतिनिधि सभा में लुई गोहमर्ट और स्टीव किंग ने समर्थन किया था। प्रस्ताव में कहा गया था कि पाकिस्तान के बनने के बाद से ही बलोच लोग मुसीबत झेल रहे हैं। लगातार विद्रोह दर्शाता है कि बलोच जनता इस्लामाबाद के शासन के विरुद्ध है, क्योंकि इस्लामाबाद ने उनके लिए कुछ नहीं किया जिससे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत समृद्ध होने के बावजूद बलोच जनता बहुत ग़रीब है।
सूबे में सेना और विद्रोहियों के संघर्ष के चलते लाखों की तादाद में लोग लापता हैं। ग़ायब हुए लोगों के परिजन सेना पर ही अगवा करने का आरोप लगाते हैं और सड़कों पर उतर कर विरोध करते रहते हैं। बहरहाल, अब भारत अगर अंतरराष्ट्रीय मंच पर बलूचिस्तान में मानवाधिकार के उल्लंघन का मामला उठाता है तो यह देश की विदेश नीति में बड़ा बदलाव होगा। पहली बार भारत आधिकारिक तौर पर बलूचिस्तान के मामले में रुचि ले रहा है। अन्यथा 1946 से ही बलूचिस्तान पर कोई स्टैंड न लेने की कांग्रेस की नीति रही है। आज़ादी से पहले खान ऑफ कलाट ने सहायता के लिए महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल के पास अपने दूत भेजे थे लेकिन कांग्रेस नेताओं को कोई रुचि ली थी।
हिंदुस्तान टाइम्स की मार्च 1946 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1946 में खान ऑफ कलाट ने बलूचिस्तान को स्वतंत्र रखने की कोशिश की थी और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य शमद खान को बलूचिस्तान की मदद करने के लिए नियुक्त किया था। उस समय मौलाना अबुल कलाम कांग्रेस के अध्यक्ष थे। ख़ान का समर्थन बाद में बलूचिस्तान के गवर्नर बनने वाले मीर गौस बक्श बिज़ेंजो ने भी किया था, लेकिन कांग्रेस ने इस विषय में कोई रुचि नहीं ली।
बहरहाल, बलूचिस्तान के मामले में पहली बार भारत के स्टैंड लेने ले पूरा समीकरण ही बदलता दिख रहा है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने भारतीय प्रधानमंत्री के बयान का स्वागत किया है। बलूचिस्तान के लोगों ने भी नरेद्र मोदी का आभार जताया है और उम्मीद जताई है कि बलूचिस्तान में पाकिस्तान सेना के अत्याचार और मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले को भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में जब से पाकिस्तान के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब सूबा बलूचिस्तान का ज़िक्र किया है, तब से पाकिस्तान की ओर से ज़बरदस्त नाराजगी देखने को मिल रही है। बलूचिस्तान विवाद और वहां मानवाधिकार का हनन अचानक लाइम लाइट में आ गया है। इससे ज़ाहिर तौर पर पाकिस्तानी लीडरशिप का बौखलाना लाजिमी है। इस तरह कहा जा सकता है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने वाक़ई पड़ोसी देश की दुखती रग पर हाथ रख दिया है।
इत्तिफाकन, 26 अगस्त को बलूचिस्तान के शीर्ष राष्ट्रवादी नेता नवाब मोहम्मद अकबर शाहबाज़ खान बुगती की दसवीं पुण्यतिथि है। पाकिस्तान के राष्ट्रवादी लोग नवाब बुगती को बाग़ी और ग़द्दार कहते थे। 26 अगस्त 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के आदेश पर पाकिस्तानी सेना ने क्वैटा से 150 किलोमीटर पूरब कोहलू जिले में नवाब बुगती के ठिकाने पर हमला कर दिया और गुफा के अंदर उनके ठिकाने को विस्फोटक से उड़ा दिया, जिसमें नवाब बुगती के अलावा उनका पोता, 37 छापामार सैनिक और 21 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।
हालांकि नवाब बुगती पर सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने और देश के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध करने वाले गुरिल्लों की सेना तैयार करने के आरोप लगाने वाली पाकिस्तानी सेना ने उस समय दावा था कि बुगती ने गिरफ़्तारी से बचने और अदालत का सामना करने के डर से खुद को विस्फोटक से उड़ा लिया था। उनकी हत्या का पूरे बलूचिस्तान में भारी विरोध हुआ। जम्हूरी वतन पार्टी के लोग विरोध प्रदर्शन करते रहे। इससे राज्य में महीने भर आंदोलन चलता रहा। इतना ही नहीं बलोच नेशनल फ्रंट की अपील पर सूबे के अधिकांश हिस्सों में महीने भर हड़ताल रही। कोन्टा और अंदरूनी बलूचिस्तान के अनेक बड़े शहर पूर्ण बंद रहे। सरकारी दफ़्तरों में भी कर्मचारियों की संख्या न के बराबर थी। बलोच बार एसोसिएशन की अपील पर वकीलों ने भी पूरे राज्य में अदालतों का बहिष्कार किया था।
बहरहाल, 25 दिनों की जद्दोजहद के बाद एक सितंबर 2006 को बुगती को डेरा बुगती के कब्रिस्तान में उनके बेटे और भाई की कब्र के पास दफना दिया गया। उनका परिवार क़्वैटा में सार्वजनिक तौर पर सुपुर्द-ए-ख़ाक के पक्ष में था, लिहाज़ा अंतिम संस्कार समारोह में शामिल नहीं हुआ। उस समय सैन्य शासक मुशर्रफ़, पाकिस्तान सरकार और सेना को लगा था कि बुगती को मार देने से बलूच मामला शांत हो जाएगा, लेकिन हुआ इसके उलट। सन् 2007 से ही 26 अगस्त को बलूचिस्तान के लोग काला दिन के रूप में मनाने लगे। अब तो यह दिन बलोच जनता के लिए पृथक बलूचिस्तान राष्ट्र के लिए एकता दिवस बन गया है। हर साल इस दिन भारी विरोध प्रदर्शन होता है और आज़ादी की मांग की जाती है।
बहरहाल, बाद में नवाब बुगती की हत्या का आदेश देने वाले जनरल मुशर्रफ़, पूर्व प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज़ और पूर्व गवर्नर ओवैसी अहमद गनी को 13 जून 2013 को गिरफ्तार कर लिया गया। बुगती हत्याकांड के मुक़दमा सिबी की पाकिस्तानी ऐंटी-टेररिज़्म कोर्ट ने मुशर्रफ़ और दूसरे लोगों को बरी कर दिया था, लेकिन उस फ़ैसले को चुनौती दी गई है और ऊपरी अदालत में अपील विचाराधीन है।
बलूचिस्तान के बरखान में 12 जुलाई 1927 को जन्मे अकबर बुगती की मां बलोच आदिवासी उपजाति खेतरान की थी, जबकि अब्बा जान नबाव मेहराब ख़ान बुगती आदिवासी समुदाय के मुखिया थे। बुगती के दादा सर शाहबाज़ ख़ान अंग्रेज़ी शासन में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बड़े ओहदे पर रहे और उन्हें सर की उपाधि मिली थी। बुगती की शिक्षा दीक्षा लाहौर के ऐचिसन कॉलेज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने समुदाय के तमामदार बनाए गए थे। ब्रिटिश पत्रकार और लेखिका सिल्विया माथेसन ने नवाब बुगती का इंटरव्यू लेकर उनके जीवन पर ‘टाइगर ऑफ बलूचिस्तान’ नाम की किताब लिखी है।
नवाब बुगती बलूचिस्तान की बहुसंख्यक बलोच समुदाय के नेता थे। 1970 के दशक में वह बलूचिस्तान राज्य के मुख्यमंत्री और गवर्नर भी रहे थे। अपने देश को पाकिस्तान ने अवैध क़ब्ज़े से आज़ाद कराने के लिए उन्होंने निजी सेना बनाई थी और पाकिस्तान के साथ डेरा बुगती की पहाड़ियों से छापामार युद्ध कर रहे थे। पूर्व नेवी अफसर और बलूचिस्तान मामलों के जानकार कैप्टन आलोक बंसल की किताब ‘बलूचिस्तान इन टरमॉइल : पाकिस्तान ऐट क्रॉसरोड्स’ के मुताबिक विद्रोही सेना बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) 1970 के दशक से पाकिस्तान सेना से लड़ रही है। अब सवाल यही है कि क्या आज़ाद बलूचिस्तान का नवाब बुगती का सपना साकार होगा? पाकिस्तान बनने के बाद बलूचिस्तान के लोग आज़ादी की मांग करते हुए अनेक बार विद्रोह कर चुके हैं।
बलूचिस्तान के भूभाग पर पाकिस्तान के अलावा ईरान और अफगानिस्तान का भी क़ब्ज़ा है। सूबे की सीमाएं ईरान और अफ़गानिस्तान से लगती हैं। उत्तर-पूर्व में पाकिस्तान के क़बाइली इलाक़े और दक्षिण में अरब सागर है। दक्षिण पश्चिम में बड़ा हिस्सा सिंध और पंजाब से जुड़ा है। सिल्क रूट से कारोबारियों और यूरोप से आने वाले हमलावरों के लिए अफ़गानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता बलूचिस्तान से होकर गुज़रता है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल पूरे पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 43 फ़ीसदी है, मगर आबादी पांच फ़ीसदी से भी कम है।
सूबे में बलोच के अलावा पख़्तून, सिंधी, पंजाबी, हजारा से लेकर उज्बेक़ और तुर्कमेनियाई समुदाय के लोग रहते हैं। यह राज्य प्राकृतिक संसाधन के मामले में बहुत ज़्यादा समृद्ध है। यहां ज़मीन के नीचे कोयला और खनिजों का खज़ाना भरा पड़ा है। पाकिस्तान को यहां से तेल का बड़ा हिस्सा मिलता है। इस्लामाबाद में बैठी सरकार खनिज और तेल की कमाई तो लेती है लेकिन बदले में क्षेत्र को कुछ देती नहीं। इस उपेक्षा के चलते राज्य की क़रीब सवा करोड़ जनता और पूरा सूबा बदहाली, ग़रीबी और उपेक्षा का शिकार है। इसीलिए कई दशक से स्थानीय लोग आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
दरअसल, जब भारत पाकिस्तान आज़ाद हुए तो बलूचिस्तान का स्वतंत्र अस्तित्व था। यह कलाट सूबे के रूप में सदियों से आज़ाद था। कई विद्वान मानने हैं कि बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर ही सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ। यह भी माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे। हालांकि इस कथन की पुष्टि के लिए कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। दरअसल, सिंधु घाटी की लिपि को अभी तक न पढ़े पाने से ही यह संशय बना हुआ है। यह भी सच है कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष फ़िलहाल बलूचिस्तान में कम मिलते हैं। हालांकि लोकल बलूची जनता का मानना है कि उनके पूर्वज मूल निवास सीरिया के थे और वहीं से यहां आए थे। लिहाजा उनका मूल अफ़्रो-एशियाटिक है। हालांकि हिंद महासागर उपमहाद्वीप में बड़े शासकों का इस भूभाग पर हमेशा आधिपत्य रहा। यह मुगल साम्राज्य की स्थापना होने पर यह मुगलों के अधीन रहा और ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ों की अधीन। सन् 1944 में बलूचिस्तान के स्वतंत्रता का विचार अंग्रेज़ अफ़सर जनरल मनी के मन में आया था पर वह इसे अमली जामा नहीं पहना सके।
बहरहाल, 1948 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाक़त अली ने जब कलाट के शासक पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव बनाया तो वहां की संसद ने प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान में शामिल होने का आग्रह ठुकरा दिया। संसद ने साफ़-साफ़ कहा कि केवल मुस्लिम राष्ट्र होने के नाते बलूचिस्तान पाकिस्तान में शामिल नहीं हो सकता। कई लोग दावा करते हैं कि बलूचिस्तान के शासक खान ऑफ कलाट ने भारत में विलय की इच्छा जताई थी।
एक समाचार एजेंसी ने भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित वीपी मेनन का एक बयान जारी किया था, जिसमें मेनन ने कहा था, “बलूचिस्तान के शासक - किंग ऑफ कलाट मीर अहमदयार ख़ान अपने देश का भारत में विलय चाहते हैं, लेकिन भारत को इससे कुछ लेना देना नहीं है।“ बहरहाल, बाद में मेनन के बयान का गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खंडन कर दिया। हालांकि कई इतिहासकार दावा करते हैं कि बलूचिस्तान भारत में विलय के पक्ष में था, लेकिन खान ऑफ़ कलाट के प्रस्ताव को नेहरू ने ही अस्वीकार कर दिया था।
बहरहाल, मार्च 1948 में पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर हमला बोल दिया और अंदर घुसकर कई ठिकानों को नियंत्रण में ले लिया। लियाक़त अली बराबर सैन्य ऑपरेशन की निगरानी करते रहे। कमाडिंग ऑफिसर मेजर जनरल मोहम्मद अकबर ख़ान और सातवीं बलूच रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल गुलज़ार के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने 27 मार्च 1948 को कलाट और मकरान पर क़ब्ज़ा कर लिया। अगले दिन 28 मार्च को भारी दबाव के चलते बलूच शासक खान ऑफ कलाट को अनिच्छा से अपने देश के पाकिस्तान में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने पड़े। चूंकि बलोच जनता विलय के पक्ष में नहीं थी, लिहाज़ा वहां के लोग बाग़ी हो गए। सूबे में पहला सशस्त्र विद्रोह 1958 में हुआ और आज तक जारी है।
1973 में तो बलूचिस्तान की विद्राही सेना और पाकिस्तानी सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा विद्रोही मारे गए, लेकिन ईरान से सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान को भी तीन हजार सैनिकों की मौत की हानि उठानी पड़ी थी। इसके बाद 1977 में भी विद्रोह हुआ जिसे पाकिस्तानी सेना ने दबा दिया। विद्रोही सूई हवाई अड्डे पर भी हमला कर चुके हैं और रेल पटरी, पुल, गैस पाइप लाइन और दूसरे विकास कार्यों पर हमला करते रहते हैं।
सरकार ने बलूचिस्तान समस्या को हल करने के लिए संसदीय कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने भी माना कि वहां जनता के साथ पाक हुक्मरानों ने इंसाफ नहीं किया। सेना या सरकारी नौकरियों में बलोच जनता का रिप्रज़ेंटेशन नहीं के बराबर है। जिस तरह चीन तिब्बत पर क़ब्ज़ा करके वहीं चीनी लोगों को बसा रहा है ताकि तिब्बती लोगों की आबादी चीनी लोगों से कम हो जाए। ठीक उसी तरह पाकिस्तान बलूचिस्तान में बाहरी लोगों को बसाकर सूबे में बलोच जनता को अल्पसंखक करने के अभियान में जुटा हुआ है।
2005 से एक बार फिर बलूचिस्तान में विद्रोह की आग धधकने लगी है। पाकिस्तान के इस अशांत सूबे में फ़िलहाल कुल तीन प्रमुख छापामार गुट संघर्ष कर रहे हैं। पहला गुट है बलूचिस्तान रिपब्लिकन आर्मी जिसके नेता ब्रम्हदाग़ ख़ान बुगती जो नवाब अकबर बुगती के पोते हैं। दूसरा गुट है मारी कबाइली का बलोचिस्तान लिबरेशन आर्मी जिसके नेता हैरबर मारी है और तीसरा गुट है डॉ. अल्ला नज़र का बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट। इन तीनों गुटों ने पाकिस्तानी सेना और जनरलों की नींद हराम करके रखी है।
फरवरी 2012 में अमेरिकी प्रतिनिधि सबा में बलूचिस्तान का मामला उठा था। अमेरिकी कांग्रेसमैन डाना रोहरबाकर ने एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि राज्य में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में पाकिस्तान से सवाल जवाब किया जाना चाहिए। रोहराबाकर के प्रस्ताव का प्रतिनिधि सभा में लुई गोहमर्ट और स्टीव किंग ने समर्थन किया था। प्रस्ताव में कहा गया था कि पाकिस्तान के बनने के बाद से ही बलोच लोग मुसीबत झेल रहे हैं। लगातार विद्रोह दर्शाता है कि बलोच जनता इस्लामाबाद के शासन के विरुद्ध है, क्योंकि इस्लामाबाद ने उनके लिए कुछ नहीं किया जिससे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत समृद्ध होने के बावजूद बलोच जनता बहुत ग़रीब है।
सूबे में सेना और विद्रोहियों के संघर्ष के चलते लाखों की तादाद में लोग लापता हैं। ग़ायब हुए लोगों के परिजन सेना पर ही अगवा करने का आरोप लगाते हैं और सड़कों पर उतर कर विरोध करते रहते हैं। बहरहाल, अब भारत अगर अंतरराष्ट्रीय मंच पर बलूचिस्तान में मानवाधिकार के उल्लंघन का मामला उठाता है तो यह देश की विदेश नीति में बड़ा बदलाव होगा। पहली बार भारत आधिकारिक तौर पर बलूचिस्तान के मामले में रुचि ले रहा है। अन्यथा 1946 से ही बलूचिस्तान पर कोई स्टैंड न लेने की कांग्रेस की नीति रही है। आज़ादी से पहले खान ऑफ कलाट ने सहायता के लिए महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल के पास अपने दूत भेजे थे लेकिन कांग्रेस नेताओं को कोई रुचि ली थी।
हिंदुस्तान टाइम्स की मार्च 1946 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1946 में खान ऑफ कलाट ने बलूचिस्तान को स्वतंत्र रखने की कोशिश की थी और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य शमद खान को बलूचिस्तान की मदद करने के लिए नियुक्त किया था। उस समय मौलाना अबुल कलाम कांग्रेस के अध्यक्ष थे। ख़ान का समर्थन बाद में बलूचिस्तान के गवर्नर बनने वाले मीर गौस बक्श बिज़ेंजो ने भी किया था, लेकिन कांग्रेस ने इस विषय में कोई रुचि नहीं ली।
बहरहाल, बलूचिस्तान के मामले में पहली बार भारत के स्टैंड लेने ले पूरा समीकरण ही बदलता दिख रहा है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने भारतीय प्रधानमंत्री के बयान का स्वागत किया है। बलूचिस्तान के लोगों ने भी नरेद्र मोदी का आभार जताया है और उम्मीद जताई है कि बलूचिस्तान में पाकिस्तान सेना के अत्याचार और मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले को भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाएगा।