Powered By Blogger

रविवार, 31 दिसंबर 2017

कोलाबा रेलवे स्टेशन - 31 दिसंबर 1930 को रात 12 बजे बंद हुआ था

31 दिसंबर 1930 को रात 12 बजे बंद हुआ था कोलाबा रेलवे स्टेशन

पश्चिम रेलवे की लोकल गाड़ियों से यात्रा करने वाले लाखों यात्रियों को पता नहीं होगा कि क़रीब 87-88 साल पहले चर्चगेट पश्चिम रेलवे का अंतिम स्टेशन नहीं था। चर्चगेट से आगे भी एक स्टेशन थाजिसका नाम कोलाबा था। जिसे तत्कालीन द बॉम्बे, बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडिया रेलवे (बीबी एंड सीआई रेलवे) ने 57 साल तक चलाकर सन् 1930 में आज ही के दिन रात 12 बजे बदे कर दिया।


आज जहां चर्चगेट रेलवे स्टेशन है, उसे पंद्रहवी सदी तक लिटिल कोलाबा या वूमन आईलैंड कहा जाता था। उसके दक्षिण में कोलाबा द्वीप था तो उत्तर में बॉम-बे (जिसे बाद में बॉम्बे कहा गया) था। 16 अप्रैल 1853 को बोरीबंदर और ठाणे के बीच मुंबई में एशिया की पहली रेलगाड़ी शुरू होने पर अंग्रेजों ने अरब सागर के समानांतर रेलसेवा शुरू करने का फैसला किया। इसी परिकल्पना के तहत 2 जुलाई 1855 को बीबी एंड सीआई रेलवे की स्थापना की गई।, जिसे आजकल पश्चिम रेलवे कहते हैं। इसके बाद कोलाबा से विरार तक रेल सेवा चलाने की संभावना पर विचार होने लगा। 1867 में ग्रांट रोड और मरीन लाइंस के पास बॉम्बे बैकबे रेलवे स्टेशन बनाया गया। बहराल, 12 अप्रैल, 1867 के दिन पश्चिम रेलवे की लोकल सेवा बॉम्बे बैकबे और विरार के बीच शुरू हो गई, लेकिन रेल सेवा को कोलाबा तक विस्तारित करने की योजना थी।


जैसा कि सर्वविदित है मुंबई पहले सात द्वीपों का समूह था। पांच द्वीपों बॉम्बे, मझगांवपरेलवर्ली और माहिम पहले समुद्र को पाटकर (रिक्लेम) आपस में मिला दिए। वूमैंन्स आइलैंड यानी छोटा कोलाबा बॉम्बे आईलैंड के बहुत पास थालेकिन सबसे दक्षिण का कोलाबा द्वीप पूरी तरह कटा हुआ था। केवल नाव से ही वहां जाया जा सकता था। 1835 में कोलाबा को छोटा कोलाबा और बॉम्बे द्वीप से काजवे से जोड़ा गया थाजिसे आजकल शहीद भगत सिंह मार्ग कहा जाता है। बहरहाल बैकबे रिक्लेमेशन कंपनी ने समुद्र को पाटकर पहले छोटा कोलाबा को बॉम्बे से जोड़ा और उसके बाद काजवे के आसपास के समुद्र को पाटकर समतल बना दिया। यह जमीन बीबी एंड सीआई रेलवे को दे दी गई। इसके बाद रिक्लेमेशन का काम युद्धस्तर पर होता रहा। रिक्लेमेशन का काम पूरा होने पर सरकार ने 1872 में लंबी जद्दोजहद के बाद बीबी एंड सीआई रेलवे (अब पश्चिम रेलवे) को ज़मीन दे दी। जैसे जैसे रेलवे को ज़मीन मिलती गई, रेलवे पटरी बिछाई जाती रही। एक साल के भीतर रेल पटरी बिछाने का काम पूरा करके 1873 में कोलाबा स्टेशन शुरू कर दिया गया। रेलवे लाइन को बैकबे बॉम्बे के आगे चर्चगेट होकर कोलाबा तक बढ़ा दिया गया इसके बाद एक्प्रेस, लोकल और माल गाड़ियां बॉम्बे बैकबे से आगे चर्चगेट होती हुई कोलाबा तक जाने लगी थीं। पहले का कोलाबा स्टेशन लकड़ी का अस्थाई शेड के रूप में बना था। 1996 में नया स्टेशन की नई इमारत बनाई गईतब तक रोजाना 24 ट्रेन चलाने लगी थीं इतना ही नहीं 19वी सदी के अंत से पहले कोलाबा रेलवे यार्ड भी बनाया गया था। जहां आजकल बधवार पार्क हैवहां पहले कोलाबा रेलवे स्टेशन का यार्ड था। 


इस बीच यह महसूस किया जाने लगा कि कोलाबा में ज़मीन नहीं रह गई है। लिहाज़ा, कॉटन डिपो को शिवड़ी में स्थानांतरित कर दिया गया। 18 दिसंबर 1930 को बंबई सेंट्रल स्टेशन अस्तित्व में आया। इसके बाद बहुत बड़ा फ़ैसला लेते हुए रेलवे ने बंबई सेंट्रल को एक्सप्रेस टर्मिनस और चर्चगेट को लोकल टर्मिनस बना दिया। 31 दिसंबर की रात कोलाबा से अंतिम ट्रेन बोरीवली के लिए रवाना हुई और उसके बाद कोलाबा स्टेशन इतिहास का हिस्सा बन गया।

   
कोलाबा को जानने के लिए बॉम्बे (अब मुंबई) का संक्षिप्त इतिहास भी जानना ज़रूरी है। दरअसल, यूं तो मुंबई का इतिहास पाषण काल (स्टोन एज) से शुरू होता है, जब इस भूभाग को हैप्टानेसिया कहा जाता था। कांदिवली के पास मिले प्राचीन अवशेष बताते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण 250 ईसा पूर्व तक मिलते हैं। ईसा पूर्व तीसरी सदी में अशोक महान के शासन में यह भूभाग मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था। वैसे इस पर सातवाहन साम्राज्य एवं इंडो-साइथियन वेस्टर्न सैट्रैप का भी नियंत्रण रहा। बाद में यहां 1343 तक हिंदू सिल्हारा वंश और 1534 तक गुजरात सल्तनत का शासन रहा। उनसे इस द्वीप समूह को पुर्तगालियों ने हथिया लिया और 1661 तक इस पर पुर्तगालियों का आधिपत्य रहा। इसी दौर में इस भूभाग को बॉम्बे नाम मिला। कान्हेरी, महाकाली एवं ऐलीफैंटा गुफाएं, वाल्केश्वर मंदिर, हाजी अली दरगाह, पुर्तगीज चर्च अशोक से पुर्तगाल के क़रीब 18 सौ से ज़्यादा के शासन के प्रमाण हैं।


बहरहाल, 1668 तक यह भूभाग सात द्वीपों कोलाबा (कोलाबा, कफपरेड, लिटिल कोलाबा (चर्चगेट, नरीमन पाइंट), बॉम्बे (डोंगरी, गिरगांव, चर्नीरोड, ग्रांट रोड, मलबार हिल, मुंबई सेंट्रल क्षेत्र) मझगांव (मझगांव, रे रोड,), परेल (लालबाग, भायखला) वर्ली (वर्ली, प्रभादेवी) और माहिम (सायन, माहिम, धारावी) के रूप में फैला था। इन शासकों द्वारा बनाए गए स्मारकों, मंदिरों, मस्जिदों और चर्च के अलावा बीरानगी ही थी। कहीम कोई विकास नहीं हुआ था। 1661 में पुर्तगाल ने राजकुमारी कैथरीन की चार्ल्स द्वितीय से शादी के बाद इस भूभाग को अंग्रेज़ों को दहेज के रूप में दे दिया। सन् 1668 के साल ने बॉम्बे की तकदीर बदल दी। उसी साल अंग्रज़ों बॉम्बे को 10 पाउंड के वार्षिक किराए पर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया। 1687 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना मुख्यालय सूरत से बॉम्बे स्थानांतरित कर दिया और ये बॉम्बे प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। उसी समय धीरे-धीरे सातों द्वीपों को एक दूसरे से जोड़ने का उपक्रम शुरू हुआ जो सवा सौ साल तक चलता रहा। सातों द्वीपों को पूरी तरह तो नहीं, आंशिक तौर पर ज़रूर एक कर दिया गया। बाद में बड़े पैमाने पर सिविल कार्य हुए, जिनमें कोलाबा और छोटा कोलाबा को छोड़कर सभी द्वीपों को कनेक्ट करने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो 1845 में पूरी हुई। मुंबई अब विश्वस्तरीय कॉमर्शियल सिटी बनने की ओर अग्रसर थी।




मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

कांग्रेस में जान फूंक सकते हैं राहुल गांधी

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुमकिन है आप इस हेडिंग को पढ़ कर हंस दें। यह आपका अधिकार है। किसी भी लेख को पढ़कर उस पर प्रतिक्रिया देने का नैसर्गिक अधिकार। वैसे कांग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी के बारे में पिछले तीन-साढ़े तीन साल के दौरान नकारात्मक बातें बहुत ज़्यादा लिखी और बोली गईं। राहुल को अब भी ऐसा अरिपक्व नेता बताया जाता हैजो अपनी मां पर निर्भर रहा है। इस तरह की सामग्री जो लोग पढ़ते या सुनते रहे हैंउनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई कि राहुल वाक़ई नकारा औलाद हैं। राहुल के बारे में हुई निगेटिव रिपोर्टिंग का नतीजा यह हुआ कि जो कभी उनसे नहीं मिलाया जो उन्हें जानता भी नहींवह भी मानता है कि राहुल गांधी-परिवार के अयोग्य उत्तराधिकारी हैं।

यक़ीन कीजिएयह सच निष्कर्ष बिल्कुल नहीं है। दरअसलयह निष्कर्ष नकारात्मक पब्लिसिटी पर आधारित है। सौ फ़ीसदी सच तो यह है कि अगर राहुल गांधी एकदम से सक्रिय हो जाएं और सार्वजनिक जीवन में अपने आपको उसी तरह समर्पित कर देंजिस तरह नरेंद्र मोदी ने 2013 में बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद अपने आपको पूरी तरह समर्पित कर दिया था। दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल एवं दून स्कूलहावर्ड यूनिवर्सिटी के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से स्नातक और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज से एमफिल करने वाले राहुल गांधी अगर कांग्रेस संगठन को पर्याप्त समय दें और गैरचुनावी मौसम में भी हर हफ्ते कम से कम देश के किसी भी कोने में रैली ज़रूर करते रहें तो वह निश्चित रूप से कांग्रेस में जान फूंक सकते हैं।

राहुल गांधी के पक्ष में यह बात जाती है कि उनमें विपक्षी नेता बनने के नैसर्गिक गुण हैं। सत्ता पक्ष में राहुल भले सफल नहीं हुएलेकिन विपक्ष में वह बेहद सफल हो सकते हैंक्योंकि उनका तेवर ही विपक्षी नेता का है यानी उनका नैसर्गिक टेस्ट सिस्टम विरोधी है। याद कीजिए2013 की घटना जब राहुल ने अजय माकन की प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचकर सबके सामने अध्यादेश को फाड़ दिया था। वस्तुतः केंद्र ने भ्रष्टाचार में फंसे नेताओं के लिए चुनाव लड़ने का रास्ता खोलने के लिए अध्यादेश लाया थाक्योंकि लालू यादव और रशीद मसूद उसी समय जेल भेजे गए थे। तब राहुल ने कहा था कि अध्यादेश सरासर बकवास है और इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए'। राहुल के कृत्य को सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए सरकार की बेइज्जती माना गया था  हालांकि राहुल की इस मुद्दे पर तारीफ ही हुई थी।

दरअसलमनमोहन सरकार के दौर में अकसर राहुल ऐसे-ऐसे बयान देते रहते थेजिससे आम लोगों को भ्रम होता था कि कहीं वह सरकार के विरोधी यानी विपक्ष में तो नहीं हैं। इस तरह का प्योर सिस्टम-विरोधी नेता किसी भी पार्टी का एसेट होना चाहिए थालेकिन दिग्भ्रमित कांग्रेस के नेता राहुल को बोझ मानने लगे थे। राहुल जैसा नेता जो किसी भी विपक्षी पार्टी की पहली पसंद हो सकता थावही नेता कांग्रेस में इतने लंबे समय तक एकदम हाशिए पर रहा। खैर कांग्रेस ने बहुत देर से ही सही भूल सुधार कर लिया है और उसे उसका लाभ भी मिल सकता है।

वैसे कई लोगों का मानना है कि सोनिया गांधी ने राहुल को अध्यक्ष बनाने में बहुत देर कर दीलेकिन इन पंक्तियों का लेखक ऐसे लोगों से इत्तिफाक नहीं रखता। अभी इतनी देर नहीं हुई है कि जहां से वापसी न हो सके। फिलहाल इस देश में अच्छेकुछ गंभीर और थोड़ी जुमलेबाज़ी करने वाले विपक्षी नेता के लिए ज़बरदस्त स्कोप है। विपक्षी नेता विहीन हो चुके इस देश में राहुल ही इकलौते नेता हैंजो भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकते हैं और अगर जमकर मेहनत कीतो कांग्रेस को पुनर्जीवित भी कर सकते हैं।

इतना ही नहीं राहुल में वह भी मैटेरियल है जो उन्हें सीधे जनता से जोड़ता है. मसलन आम आगमी के घर जाकर उसका हालचाल पूछना। सांसद रहते हुए सन् 2008 में राहुल महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त यवतमाल जिले के जालका गांव पहुंच गए थे और आत्महत्या करने वाले किसान की विधवा कलावती से मिलकर उनका दुखदर्द सुना था। उन्होंने किसानों की आत्महत्या का दर्द समझाने के लिए कलावती का जिक्र संसद में किया। राहुल का वह भाषण भी लंबे समय तक मीडिया में चर्चा में रहा। राहुल के इस बयान के बाद पूरा देश कलावती को जान गया। राहुल ने इस तरह के वाहवाही बटोरने वाले कई दौरे किए। इस तरह की खूबी बहुत कम नेताओं में होती है। राहुल के पिता राजीव गांधी में यह ख़ूबी कूट-कूट कर भरी थी।

राहुल गांधी के संसद या संसद से बाहर दिए गए भाषणों पर अगर गौर करें तो पाएंगे कि वह भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ते। यानी लोगों को संबोधित करने की नैसर्गिक परिपक्वता उनमें आ गई हैजो किसी बड़े नेता के लिए बहुत ज़रूरी है। राहुल ने कुछ साल पहले कई न्यूज़ चैनलों को इंटरव्यू भी दिया थाजिसमें उन्होंने परिपक्व नेता की तरह बड़ी बेबाकी से हर मुद्दे पर अपना विचार रखा था। इसका मतलब यह कि राहुल का होमवर्क ठीकठाक ही नहींदेश के कई प्रमुख नेताओं के मुक़ाबले बहुत ही अच्छा है। एकाध फ्लंबिंग को छोड़ देंतो कम से कम वह बोलते समय ब्लंडर नहीं करते और जेंटलमैन की तरह अपनी बात रखते हैं। वह जब भी बोलते हैंअच्छा बोलते हैं। भाषण भी अच्छा और प्रभावशाली देते हैं। लोकसभा में कई बार उन्होंने यादगार भाषण दिया भी है।

ऐसे में लोगख़ासकर राजनीतिक टीकाकारअकसर हैरान होते हैं कि कांग्रेस अपने इस अतिलोकप्रिय नेता के पर्फॉरमेंस को लेकर इतने दिन तक आख़िर आश्वस्त क्यों नहीं रहीपार्टी अपने इस फायरब्रांड नेता को लेकर शुरू से ही असमंजस में क्यों रहीउन्हें आगे करने में अनावश्यक हिचकिचाहट क्यों दिखाती रहीख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले उन्हें फ्रंट पर खड़ा करने में। वैसे 19 जून 1970 को जन्मे राहुल गांधी अब बच्चे या युवा नहीं रहेवह 47 साल के हो गए हैं। इस उम्र में तो उनके पिता राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल भी पूरा कर चुके थे। बहरहालराहुल 2004 से अपने माता-पिता और चाचा संजय गांधी के संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश अमेठी से लगातार तीसरी बार लोकसभा के सदस्य हैं।

राहुल गांधी के पक्ष में एक और बात जाती है कि वह गांधी वंशवाद के प्रतिनिधि हैं। 38 साल तक देश को प्रधानमंत्री देने वाले नेहरू-गांधी खानदान के वह पुरुष वारिस हैं। भारत के लोग वंशवाद पर भी फिदा रहते हैं। मुलायम सिंह यादवलालूप्रसाद यादवरामविलास पासवानशरद पवारबाल ठाकरेमुंडेसिंधिया परिवारअब्दुल्ला और सोरेन फैमिली,पटनायक और करुणानिधि परिवार जनता की इसी मानसिकता के कारण फलते फूलते रहे हैं। ये नेता जनता की इसी कमज़ोरी को भुनाकर अपने परिवार के लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेजते रहे हैं। दरअसलसदियों से खानदानी हिंदू राजाओं या मुस्लिम शासकों के शासन में सांस लेने के कारण यहां की जनता ग़ुलाम मानसिकता की हो गई है। इस मूढ़ जनता को वंशवाद शासन बहुत भाता है। लिहाज़ाइस तरह की भावुक जनता के लिए राहुल गांधी सबसे फिट नेता हैं।

दरअसलसोनिया गांधी और राजीव गांधी का पुत्र होने के नाते भी राहुल को फ्रंट पर रहना चाहिए था। लेकिन ऐसा लगता हैकांग्रेस में एक ऐसा खेमा भी रहा हैजो नहीं चाहता था कि राहुल जैसा बेबाक बोलने वाला नेता पार्टी में फ्रंट पर आए और उन लोगों की जमी जमाई दुकानदारी ही चौपट कर दे। लिहाज़ायह खेमा 10 जनपथ को सलाह देता रहा कि राहुल अभी परिपक्व नहीं हुए हैंलिहाज़ा अभी उन्हें बड़ी ज़िम्मदारी देने का सही समंय नहीं आया है। इसी बिना पर राहुल को मई 2014 में 44 सांसदों के बावजूद लोकसभा में कांग्रेस का नेता नहीं बनाया। उनकी जगह क़ायदे से हिंदी न बोल पाने वाले कर्नाटक के मल्लिकार्जुन खरगे को लोकसभा में नेता बना दिया। यह कांग्रेस का ब्लंडर थाउसे राहुल को कांग्रेस का नेता बनाना चाहिए थाताकि वह भविष्य में देश का नेतृत्व करने के लिए तैयार होते। लेकिन पार्टी ने वह मौक़ा गंवा दिया था।

अगर कहें कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक दल कांग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह अच्छी जुमलेबाज़ी करने लगे हैंतो कोई अतिशयोक्ति या हैरानी नहीं होनी चाहिए। अभी गुजरात विधान सभा चुनाव में उन्होंने जीएसटी को 'गब्बर सिंह टैक्सकहा। इस तरह की जुमलेबाज़ी अब तक नरेंद्र मोदी ही करते आए हैं। मोदी के जुमले पर तो इस देश की जनता आज भी फिदा है। आजकल राहुल भी उसी तरह की जुमलेबाज़ी करने लगे हैंजिस तरह की जुमलेबाज़ी से जनता मंत्रमुग्ध होती रही है। यानी जुमलेबाज़ी के मुद्दे पर भी राहुल मोदी के सामने गंभीर चुनौती पेश करते हैं।

एक बात औरसत्तारूढ़ बीजेपी भली-भांति जानती हैकि राष्ट्रीय स्तर पर उसे मुलायम-लालूपटनायक-नायडूममता-मायावती से कोई ख़तरा नहीं। भगवा पार्टी को ख़तरा केवल राहुल गांधी से है। अगर भविष्य में नरेंद्र मोदी को चुनौती मिली तो राहुल से ही मिलेगी। इसीलिए मोदी समर्थकों के निशाने पर सबसे ज़्यादा राहुल गांधी ही रहते हैं। राहुल को उपहास का पात्र बनाने का कोई मौक़ा मोदी के समर्थक नहीं चूकते। फेसबुकट्विटर और व्हासअप जैसे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर राहुल के बारे में थोक के भाव में चुटकुले रचे जाते हैं और यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि राहुल नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरते हैजबकि हक़ीकत है कि राहुल गांधी बहुत उदार और जेंटलमैन हैं और सबको लेकर चलने वाले नेता हैं। इसके बावजूद लंबे समय तक राहुल कांग्रेस में फ्रंट पर नहीं रहेयह यह कांग्रेस का दुर्भाग्य था। बहरहाल अब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। इसका मतलब यह भी हुआ कि 2019 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी होगाक्योंकि अभी दो महीने पहले राहुल ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्नियाबर्कले में पहली बार सार्वजनिक तौर पर कहा था कि पार्टी अगर उन्हें जिम्मेदारी देगी तो वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनेंगे।

बुधवार, 15 नवंबर 2017

क्या नाइंसाफ़ी हुई थी नाथूराम गोडसे के साथ?



हरिगोविंद विश्वकर्मा

आजकल राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या का प्रकरण एक बार फिर से चर्चा में हैं। अभिनव भारत के एक कार्यकर्ता ने महात्मा गांधी हत्याकांड को रिओपन करने की मांग की है, हालांकि महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी इसका विरोध कर रहे हैं। इस बीच एक सवाल यह भी है कि क्या बीसवीं सदी में मोहम्मद अली जिन्ना से भी बड़ा खलनायक करार दिए गए महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे और कथित तौर पर उनका साथ देने वाले उनके मित्र नारायण आपटे के साथ न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की तरफ़ से गहरी नाइंसाफी हुई थी?

अगर नाथूराम और नारायण के साथ वाक़ई नाइंसाफी हुई तो कह सकते हैं कि आज का दिन शोक का दिन है। हरियाणा के अंबाला में आज यानी 15 नवंबर 1949 को ग़म का माहौल था। सारा शहर शोक के सागर में डूबा था। आज ही के दिन सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी की सज़ा दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने अपनी दुकानें बंद रखीं। गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को शाम पांच बजकर सत्रह मिनट पर हुई थी और हत्या के 645 दिन बाद यानी एक साल 10 महीने और 15 दिन में ही दोनों आरोपियों को फ़ांसी के फंदे पर लटका दिया गया।

भारतीय न्यायालय ने गांधी हत्याकांड से जुड़े मुक़दमे में जितनी तेज़ी दिखाई, वैसी मिसाल भारतीय न्यायपालिका के पूरे इतिहास में देखने को नहीं मिलती। इस पूरे प्रकरण का जो भी निष्पक्षता से और विचारपूर्वक अध्ययन करेगा, उसे निश्चित रूप से संदेह होगा है कि संभवतः भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों - न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका - ने 30 जनवरी 1948 को ही तय कर लिया था कि महात्मा गांधी की जान लेने वाले अपराधियों को जितने जल्दी हो सके फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। यानी इन तीनों स्तंभों ने उस दिन साज़िश रची थी कि हत्यारे को मृत्युदंड से कम सज़ा नहीं देनी है और जल्दी से जल्दी देनी है। वरना निचली अदालत, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय (तब प्रिवी काउंसिल थी क्योंकि तब तक सुप्रीम कोर्ट का गठन नहीं हुआ था) ने डेढ़ साल से भी कम समय में फ़ांसी की सज़ा को अंतिम स्वीकृति दे दी।

गौरतलब है कि नाथूराम गोडसे ने पहले दिन ही कह दिया था कि उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या की है, एक इंसान की जान ली है, इसलिए उन्हें दंडस्वरूप  फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उन्होंने अपनी सज़ा के ख़िलाफ हाई कोर्ट में अपील न करने का फ़ैसला किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि गांधी की हत्या का काम उन्होंने अकेले किया है, इसलिए उनके अपराध का दंड उनसे जुड़े दूसरे लोगों को नहीं मिलना चाहिए। इसीलिए जब जुलाई में प्रिवी काउंसिल ने बाकी आरोपियों की अपील को अस्वीकार कर दिया तब उसके सप्ताह भर के भीतर नाथूराम और नारायण आपटे को 15 नवंबर 1949 को फ़ांसी देने की तारीख़ मुकर्रर कर दी गई। तमाम जन भावना की अनदेखी करते हुए 15 नवंबर 1949 को अंबाला कारागार में नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे को फ़ांसी के फंदे पर लटका दिया गया।

दरअसल, गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या नई दिल्ली के बिड़ला हाउस परिसर में 30 जनवरी 1948 को शाम पांच बजकर सत्रह मिनट पर की थी। पेट्रोलिंग कर रहे तुगलक रोड थाने के इंस्पेक्टर दसौंधा सिंह और पार्लियामेंट थाने के डीएसपी जसवंत सिंह 5.22 बजे बिड़ला हाउस गेट पर पहुंचे। वहां अफरा-तफरी का माहौल था। गांधी के अनुयायी रो रहे थे। पुलिस वालों को पता चला किसी ने गांधीजी को गोली मार दी और ख़ुद को स्वेच्छा से जनता के हवाले कर दिया। गांधी को गोली मारने के बाद अपराधी व्दारा ख़ुद को जनता के हवाले करने की बात सुनकर पुलिस हैरान हुई। बहरहाल, तब तक गांधीजी का शव अंदर ले जाया जा चुका था। लिहाजा, दसौंधा सिंह और कुछ पुलिस वाले जसवंत सिंह के आदेश पर नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे बापू की हत्या की एफ़आईआर लिखी गई। इसे लिखा था थाने के दीवान-मुंशी दीवान डालू राम ने। उस वक्त थाने में दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस डीवी संजीवी और डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल डीडब्ल्यू मेहता भी मौजूद थे। इसके बाद नाथूराम औपचारिक रूप से अंडर अरेस्ट हो गए।

दिल्ली पुलिस की प्रताड़ना और डर के चलते दिगंबर बड़गे सरकारी गवाह बन गया। कहा जाता है कि वह बहुत कपटी स्वभाव का था भी। बहरहाल, अंततः महात्मा गांधी हत्याकांड की सुनवाई 27 मई 1949 को शुरू हुई। उसी दिन सभी 9 आरोपियों को लाल किला में बनाई गई विशेष अदालत में लाया गया और दिल्ली पुलिस ने हत्याकांड की जांच करके 8 आरोपियों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाखिल किया। 21 जून को सभी पर आरोप तय कर दिए गए और अदालत की कार्यवाही शुरू हुई।

10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के न्यायाधीश आत्माचरण ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे उर्फ नाना को फ़ांसी की सज़ा और पांच आरोपियों विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे, शंकर किस्तैया और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। यानी हत्या के एक साल 11 दिन बाद सज़ा हो गई। इस केस में अदालत ने विनायक दामोदर सावरकर को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया और एक अन्य आरोपी दिगंबर बड़गे सरकारी गवाह बन गया था।

ईस्ट पंजाब हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अमरनाथ भंडारी, जस्टिस अच्छरूराम और जस्टिस गोपालदास खोसला की पूर्ण पीठ ने 23 मई 1949 को सुनवाई शुरू की। हाईकोर्ट ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की फ़ांसी की सज़ा और विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे और शंकर किस्तैया की उम्र क़ैद  की सज़ा को बरकरार रखा और डॉ. दत्तात्रय परचुरे को रिहा कर दिया। सबसे अहम् बात हाई कोर्ट का फ़ैसला 22 जून 1949 को यानी एक महीने से एक दिन कम में ही आ गया।

दरअसल, नाथूराम और नारायण को हत्या के दो साल से भी कम समय में फ़ांसी दे दी गई। जबकि आज के दौर में हत्या की वारदात के 15-15 साल ही नहीं 20-20 साल और कहीं कहीं 25 साल तक फांसी की सज़ा पाए आरोपी को मृत्युदंड नहीं दिया जाता। अभी तीन साल पहले पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फांसी की सज़ा सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए उम्रक़ैद में बदल दी क्योंकि उसकी दया याचिका पर फ़ैसला लेने में राष्ट्रपति ने कुछ ज़्यादा देरी कर दी। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि मृत्युदंड पाए अपराधियों की दया याचिका पर अनिश्चितकाल की देरी नहीं की जा सकती और देरी किए जाने की स्थिति में उनकी सजा को कम किया जा सकता है। इसी बिना पर 2013 में देश की सबसे बड़ी अदालत ने 22 पुलिसवालों की लैंड माइन ब्लास्ट कर हत्या करने वाले  चंदन तस्कर वीरप्पन के 15 सहयोगियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने का आदेश दिया। इसी तरह 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तानी आतंकी देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। सुप्रीम कोर्ट में कहा कि भुल्लर की फांसी माफी की याचिका स्वीकार की जा सकती है। दया याचिका निपटाने में देरी के आधार पर फांसी पाने वाले अपराधी को माफ़ी की मांग करने का हक देने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मसले पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।

भारत में पिछले 70 साल के दौरान अधिकारिक सरकारी आंकड़ों के अनुसार स्वतंत्रता के बाद अब तक केवल 52 लोगों को फांसी की सजा दी गई है। हालांकि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के अनुसार भारत में 1947 से अब तक कुल 755 लोगों की मृत्युदंड की सज़ा पर अमल किया गया है। वैसे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज अपने एक शोध में दावा करता है कि देश में फ़ांसी पर लटकाए गए लोगों की संख्या इन आंकड़ो से भी ज़्यादा है। पीयूसीएल के अनुसार केवल 1953 से 1963 के बीच यह संख्या 1422 है। बहरहाल, यह भी ग़ौरतलब है कि आज़ाद भारत में फ़ांसी पर लटकाए जाने वाले नाथूराम पहले अपराधी थे।

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के ही शोध के अनुसार भारत में सन् 2000 से अब तक निचली अदालतें कुल 1617 क़ैदियों को मौत की सज़ा सुना चुकी हैं, जिनमें से केवल 71 क़ैदियों को मृत्युदंड की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट व्दारा की गई है। पिछले दो दशक से तो भारत में फ़ांसी की सज़ा पर एक तरह से अमल ही नहीं हो रहा है, क्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के बाद 5 अपराधियों को मौत की सज़ा दी है। इस सहस्त्राब्दि में तो केवल 4 लोगों को फांसी हुई, उनमें 3 मोहम्मद अजमक कसाब (21 नवंबर 2012, पुणे की यरवदा जेल), मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु (9 फरवरी 2013, तिहाड़ा जेल) और याक़ूब मेमन (30 जुलाई 2015, नागपुर सेंट्रल जेल) तो आतंकवादी गतिविधियों में दोषी पाए गए थे। इससे पहले धनंजय चटर्जी को एक बच्ची से बलात्कार करके उसकी हत्या करने के अपराधी में 14 अगस्त 2004 को कोलकाता के अलीपुर जेल में फ़ांसी दे दी गई थी।

निचली अदालत ने मुकेश, पवन, विनय शर्मा और अक्षय कुमार सिंह को मौत की सज़ा सुनाई थी जिसे दिल्ली हाई कोर्ट ने बरकरार रखा था। इस साल 5 मई को सुप्रीम कोर्ट  भी उस सज़ा पर अपनी मुहर लगा चुका है। उस फ़ैसले को छह महीने से ज़्यादा बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक अपराधी ज़िंदा हैं। 
कहने का मतलब भारतीय न्यायपालिका शुरू से लचर रही है। कोई भी केस हो, उसे टालने की परंपरा रही है। ऐसे में किसी किसी एक केस में अदालतों के साथ पूरे सिस्टम का कुछ ज़्यादा सक्रिय होकर आनन-फानन में फ़ैसला देना मन में संदेह पैदा करता है।

रविवार, 5 नवंबर 2017

दस्तावेज - मोहम्मद अली जिन्ना का तन कराची और मन मुंबई में था

हरिगोविंद विश्वकर्मा
पाकिस्तान के संस्थापक और क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना भले ही वहां हीरो हों, लेकिन भारत में आज भी इतिहास के सबसे बड़े खलनायक माने जाते हैं। आम भारतीय उनसे बहुत ज़्यादा नफ़रत करता है और देश के विभाजन के लिए केवल और केवल उन्हीं को ज़िम्मेदार मानता है। इसीलिए जब भी कोई जिन्ना के बारे में सकारात्मक बातें करता है तो सबकी भृकुटी तन जाती है। पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने जब 2005 में जिन्ना को सेक्यूलर कह दिया तो पूरे देश में उनकी आलोचना हुई। उनको केवल अपना बयान ही वापस नहीं लेना पड़ा था, बल्कि बीजेपी अध्यक्ष का पद भी छोड़ना पड़ा था।

यह जिन्ना के प्रति लोगों के नफ़रत का ही परिणाम है कि आजकल जिन्ना के मुंबई आवास जिसे 'जिन्ना हाउस' और 'साउथ कोर्ट' कहा जाता है, को तोड़ने की बातें हो रही हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच कड़वे रिश्तों के मौजूदा दौर में लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि जिन्ना मुंबई से बेइंतहां प्यार करते थे और मुंबई में ही रहना चाहते थे। पाकिस्तान के निर्माण के बाद कराची जाते समय वह सामान यहीं छोड़ गए। वह देश के बंटवारे के कुछ अरसा बाद तक यही सोच रहे थे कि दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहतर होंगे और उनका मुंबई आना-जाना लगा रहेगा और वह अपने शानदार बंगले में आकर सुकून से रहा करेंगे। कई इतिहासकार कहते हैं कि इसीलिए वह कराची जाते समय मुंबई का अपना मकान पूरी तरह खाली करके नहीं गये थे। यह भी विडंबना ही है कि जिन्ना की एकमात्र संतान दीना ने पाकिस्तान बनने के बाद पिता के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। जिन्ना की प्रिय पत्नी रुतिन की मज़ार मुंबई में ही है। पाकिस्तान जाने से पूर्व जिन्ना ने मुंबई में उस कब्र पर अपना अंतिम गुलदस्ता रखा और हमेशा के लिए भारत छोड़कर चले गये।

प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना के क़रीबी रहे पाकिस्तान में भारत के पहले हाई कमिश्नर श्री श्रीप्रकाश ने, ‘हिंदुस्तान टाइम्समें अर्ली मेमरीज़ ऑफ पाकिस्तानसे एक लेखमाला लिखी थी जिसमें गवर्नर जनरल के रूप में जिन्नालेख (23 अप्रैल 1963 अंक) में उन्होंने बंबई के जिन्ना हाउसप्रकरण का जिक्र किया था। उस प्रसंग का यहां जिक्र करना समीचीन होगा। एक बार नेहरू ने पाकिस्तान में भारतीय हाई कमिश्नर श्रीप्रकाश को फोन करके उनसे कहा कि जिन्ना हाउसभारत सरकार के लिए परेशानी का सबब बन रहा है। जिन्ना से मिलकर पूछिए कि उनकी क्या इच्छा है और वह कितना किराया चाहते हैं। नेहरू का संदेश सुनकर जिन्ना ने करीब-करीब चिरौरी करते हुए कहा – “श्रीप्रकाश, मेरा दिल न तोड़ो, जवाहरलाल को कहो मेरा दिल न तोड़ें। मैंने इस मकान को एक-एक ईंट जोड़कर बनवाया है। इसके बरामदे कितने शानदार हैं। यह एक छोटा-सा मकान है जो किसी यूरोपियन परिवार या सुरुचिसंपन्न हिंदुस्तानी प्रिंस के रहने लायक है। आप नहीं जानते मैं मुंबई को कितना चाहता हूं। मैं अभी भी वहां वापस जाने की बाट जोह रहा हूं।श्रीप्रकाश ने कहा – “सच, मिस्टर जिन्ना, आप मुंबई जाना चाहते हैं। मैं जानता हूं कि मुंबई आपकी कितनी देनदार है और आपने इस शहर की कितनी सेवा की है। क्या मैं प्रधानमंत्री को यह बताऊं कि आप वहां वापस जाना चाहते हैं।जिन्ना ने जवाब दिया – “हां आप कह सकते हैं।


अपने संदेश में श्रीप्रकाश ने जिन्ना के जवाब से नेहरू को अवगत कराया। इसके बाद केंद्र सरकार ने जिन्ना हाउसको शत्रु संपत्ति घोषित नहीं किया। कुछ माह बाद, श्रीप्रकाश को नेहरू का एक ज़रूरी टेलीफोन संदेश आया जिसमें उन्होंने कहा कि मकान को अछूता छोड़ देने पर सरकार को लोगों की तीखी आलोचना सहनी पड़ रही है। सरकार अब और अधिक समय तक इसे सह नहीं सकती। इस मकान का अधिग्रहण करना ही होगा। नेहरू चाहते थे कि जिन्ना को इसकी सूचना दे दी जाए और उनसे पूछ लिया जाये कि वह मकान का कितना किराया लेना चाहेंगे। उन दिनों जिन्ना की तबीयत ठीक नहीं थी। वह बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के पास हिल स्टेशन जियारत में स्वास्थ लाभ कर रहे थे। श्रीप्रकाश ने उन्हें तत्काल चिट्ठी भेजी, जिसके जवाब में जिन्ना ने लिखा कि उन्हें 3000 रुपए मासिक किराए की पेशकश की गयी है। उन्हें उम्मीद है कि किरायेदार के रूप में उनकी भावनाओं का ख्याल रखा जाएगा। मकान ब्रिटिश डिप्टी हाई कमिश्नर को किराये पर दे दिया गया। उनका छोटा सा परिवार था। इसके साथ यह भी तय हुआ कि जब कभी जिन्ना अपने निजी उपयोग के लिए चाहेंगे किराएदार तुरंत मकान खाली कर देगा। श्रीप्रकाश के अनुसार उन्हें यह जानकर बड़ा विचित्र लगा कि जिन्ना ने अपना मकान किसी यूरोपियन या हिंदुस्तानी राजकुमार को देना पसंद किया, लेकिन मुंबई के मुसलमानों को देने का विचार भी नहीं किया। दरअसल, जिन्ना हिंदुस्तानी मुसलमानों ख़ासकर कट्सेटरपंथियों और मौलवियों से बहुत चिढ़ते थे और उन पर तनिक भी खरोसा नहीं करते थे।

98 साल की उम्र में शुक्रवार (3 नवंबर 2017) को न्यूयॉर्क में प्राण त्यागने वाली दीना वाडिया दरअसल, जिन्ना अपनी दूसरी पत्नी रुतिन की बेटी थीं। रुतिन जिन्ना की दूसरी पत्नी थीं और उनसे जिन्ना बेइंतहां मोहब्बत करते थे।  जिन्ना का अपने पारसी व्यापारी मित्र दिनशॉ पेटिट के यहां बहुत ज़्यादा आना जाना था। इसी दौरान उनकी मुलाकात और बातचीत दिनशा की 16 साल की बेहद खूबसूरत बेटी रुतिन से होती थी। नियमित मुलाकात और बातचीत के बाद रुतिन अपने पिता की उम्र के 40 वर्षीय जिन्ना की विद्वता से इस कदर प्रभावित हुई कि उन्हें दिल दे बैठी। अजीत जावेद की किताब 'सेक्यूलर ऐंड नेशनलिस्ट जिन्ना' के मुताबिक एक दिन दिनशा से जिन्ना ने पूछा, "अंतर्धार्मिक विवाह को आप कैसा मानते हैं?" तो दिनशा ने कहा कि इससे राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलती है। उसी समय जिन्ना ने तपाक से कहा, "मैं आपकी बेटी रुतिन से शादी करना चाहता हूं।" लेकिन दिनशा तैयार नहीं हुए। दो साल के अफेयर के बाद जिन्ना ने रुतिन के 18 साल का होते ही शादी कर ली। दिनशा ने जिन्ना पर बेटी के अपहरण का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई, तो मुकदमे की सुनवाई के दिन रुतिन ने अदालत में जाकर कहा, "जिन्ना ने मेरा अपहरण नहीं किया बल्कि मैंने जिन्ना का अपहरण किया।" मुकदमा खारिज हो गया।

24 साल छोटी रुतिन से जिन्ना की शादी परंपरापंथी जमाने में बहुत विवादित रही। मौलवी जिन्ना की शादी को बर्दाश्त नहीं कर सके। लेकिन जिन्ना मौलवियों को भाव नहीं देते थे। रुतिन फैशनेबल लड़की थीं। उन्होंने कभी बुर्का या हिजाब जैसी मुस्लिम पोशाक नहीं पहनी, बल्कि यूरोपियन महिलाओं की तरह लो कटलिबास में रहती थीं। रुतिन से जिन्ना की इकलौती संतान दीना थी। उन्होंने भी मुसलमान से शादी न करके अपनी मां के पारसी समाज के नेविल वाडिया (वाडिया इंडस्ट्रीज़, ‘बॉम्बे डाइंगके चेयरमैन नुस्ली वाडिया के पिता) से शादी की थी। सबसे अहम् रुतिन परदे की जगह लो कटलिबास में मुस्लिम लीग की बैठकों में शिरकत करती थीं, जो कट्टर मुसलमानों को बहुत ज़्यादा नागवार गुजरता था। बहरहाल, 1929 में 29 साल की उम्र में रुतिन का निधन हो गया। जिन्ना रुतिन की जुदाई सहन नहीं कर पाए, उन्हें गहरा सदमा लगा। उस समय देश में राजनीतिक अस्थिरता थी, लिहाजा, जिन्ना 1930 में लंदन चले गए और वहां प्रीवी काउंसिल में प्रैक्टिस करने लगे।


वस्तुतः 1934 में चार साल के राजनीतिक वनवास से लौटने के बाद जिन्ना ने मुंबई के सबसे भव्य और पॉश इलाके दक्षिण मुंबई के मलाबार में समुद्र के किनारे तीन एकड़ जमीन पर अपने सपनों का घर बनाने का फैसला किया। इस भवन का डिजाइन मशहूर ब्रिटिश वास्तुकार क्लाउड बेटली ने यूरोपीय शैली में तैयार की। उनकी ही देखरेख में इसका निर्माण शुरू हुआ। निर्माण के समय खुद जिन्ना नियमित यहां आते थे और पूरे निर्माण कार्य की व्यक्तिगत निगरानी करते थे। सन् 1936 में जिन्ना हाउस बनकर तैयार हो गया। दो मंजिले (ग्राउंड प्लस फर्स्ट फ्लोर) इमारत में तीन कांफ्रेंस हॉल और 14 कमरे हैं। इसके निर्माण पर तब दो लाख रुपए का खर्च आया था। इसमें अखरोट की महंगी लकड़ियों की पैनलिंग की गई है और इटैलियन संगमरमर के इस्तेमाल से शानदार बुर्ज व खूबसूरत खंभे हैं। कभी बेहद खूबसूरत रहे इस बंगले की खिड़कियों से समुद्र का नज़ारा साफ दिखाई देता है। माउंट प्लेज़ेंट रोड(अब भाउसाहब हीरे मार्ग) पर यूरोपियन स्टाइल में बना जिन्ना हाउस अब खंडहर हो चुका है मगर जब ये  बना था तब पहली नजर में ही देखने वालों को मोहित कर लेता था।

एसके धांकी की पुस्तक 'लाला लाजपत राय एंड इंडियन नेशनलिज्म' के मुताबिक, सरोजनी नायडू गांधी के बाद जिन्ना की बहुत इज्जत करती थीं और उन्हें महान धर्मनिरपेक्ष नेता और हिंदू मुस्लिम एकता का राजदूत कहती थी। जिन्ना से मिलने के लिए जिन्ना हाउस में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे बड़े नेता आते थे। पूर्व वित्तमंत्री जसवंत सिंह की चर्चित किताब "जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन इनडेपेंडेंस" के मुताबिक जिन्ना पाकिस्तान जाकर कभी सुकून से नहीं रहे। उनसे जो ब्लंडर हुआ था, उसको लेकर पछताते थे। जिन्ना मुंबई आकर रुतिन की मजार पर जाना चाहते थे। एमएच सईद की किताब 'द साउंड एंड फ्यूरी - ए पोलिटिकल स्टडी ऑफ मोहम्मद अली जिन्ना' के मुताबिक कट्टर मुसलमान रुतिन से शादी करने के लिए जिन्ना को जीवन भर माफ नहीं कर पाए और उन्हें काफिर कहने लगे थे। जिन्ना के कायदे आजम बनने के बाद पाकिस्तान में यह शेर बड़ा प्रचलित हुआ-
इक काफिरा के वास्ते इस्लाम को छोड़ा,
यह कायदे आजम है या काफिरे आजम।

अपने देहांत से कुछ पूर्व मृत्यु शय्या पर पड़े जिन्ना का पाकिस्तान निर्माण के प्रति पूरी तरह मोह भंग हो गया था। उन्हें देश के बंटवारे की महागलतीका एहसास हो चुका था, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और जिन्ना भारतीय इतिहास के सबसे बड़े खलनायक बन चुके थे।


बुधवार, 1 नवंबर 2017

सरदार पटेल को क्या गृहमंत्री पद से हटाना चाहते थे महात्मा गांधी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा


क्या आपको पता है, कि मरणोपरांत राष्ट्रपिता का दर्जा पाने वाले मोहनदास कर्मचंद गांधी यानी महात्मा गांधी देश के पहले उपप्रधानमंत्री लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल की नीतियों से बिल्कुल इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। इसीलिए उन्होंने सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इसके बाद कश्मीर पर हमले करने वाले पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए के भुगतान जब पटेल ने को रोक दिया तब गांधी ने आमरण अनशन की धमकी दे डाली। गांधी के आगे झुकती हुई भारत सरकार ने इसके बाद पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। दरअसल, उस समय एक बार तो नौबत यहां तक आ गई कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो एक दो दिन में सरदार पटेल के इस्तीफे की ख़बर आ जाती।

नवजीवन प्रकाशन मंदिर की ओर से प्रकाशित गांधी की दिल्ली डायरी में लिखित बयान के अनुसार गांधीजी जनवरी के पहले हफ़्ते में लिखा, "कोई बड़ा फ़ैसला लेने से पहले पटेल अब मुझसे कुछ नहीं पूछते, अब वह मेरी उपेक्षा करते हैं।" जब पटेल ने घोषणा कर दी कि जब तक पाकिस्तान अपनी सेना कश्मीर से वापस नहीं बुला लेता तो हम 55 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं करेंगे। बकौल सरदार पटेल "कश्मीर पर निर्णय हुए बिना हम कोई रुपया पाकिस्तान को देना स्वीकार नहीं करेंगे।" गांधी की दिल्ली डायरी के अनुसार, गांधी ने 12 जनवरी 1948 की शाम अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा, "ऐसा भी मौक़ा आता है जब अहिंसा का पुजारी किसी अन्याय के सामने विरोध प्रकट करने के लिए उपवास करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसा मौक़ा मेरे लिए आ गया है।"

गांधी की दैनिक डायरी पढ़ें तो पता चलता है कि अगर गांधीजी की हत्या न हुई होती तो निश्चित रूप से सरदार पटेल को जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल से अलग होना पड़ सकता था। दरअसल, गांधी के ब्रम्हचर्य का प्रयोग जैसे प्रपंच से पटेल ख़ासे नाराज़ थे। पटेल को ब्रम्हचर्य के प्रयोग के दौरान गांधी का मनु, आभा, सुशीला और आश्रम की दूसरी महिलाओं के साथ नग्न सोना बहुत नागवर लगता था। इससे पटेल उनसे और चिढ़ने लगे थे। इसलिए कोई भी बड़ा फ़ैसला लेने से पहले उन्होंने गांधी की सलाह लेना कम कर दिए थे। हालांकि जब गांधी दिल्ली में होते थे तब पटेल उनसे शुभेच्छा भेंट करने ज़रूर आते थे। 30 जनवरी की शाम गांधी की हत्या से कुछ मिनट पहले पटेल उनसे मिलने आए थे। मुलाकात के कारण ही गांधी को प्रर्थनास्थल पर पहुंचने में विलंब हो गया था।

जिस तरह गांधी का संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर से मतभेद थे, उसी तरह उनका पटेल से सांप्रदायिक मसले पर गंभीर मतभेद था। ख़ासकर जब पाकिस्तान की ओर से कश्मीर पर हमला किया गया तो पटेल ने बयान जारी करके पाकिस्तान को दिए जाने वाले 75 करोड़ रुपए में से 55 करोड़ रुपए (20 करोड़ रुपए का भुगतान पहले ही किया जा चुका था) की अंतिम किश्त रोकने की घोषाणा कर दी। मगर गांधी को पटेल का फ़ैसला बिल्कुल रास नहीं आया। बताया जाता है कि इसके बाद गांधी पटेल के और विरोधी हो गए। गांधी के साथ पटेल के गंभीर मतभेद के चलते ही गांधी की हत्या होने के बाद यह भी सवाल उठने लगे कि कहीं गांधी की हत्या के पीछे पटेल का तो हाथ नहीं।

दरअसल, गांधी के पटेल से मतभेद की वजह मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर डायरेक्ट ऐक्शन में नोआखली में हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार करवाने वाले बंगाल के शासक हुसैन शहीद सुहरावर्दी थे। पटेल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन गांधी पटेल के विरोध को उचित नहीं मानते थे। वस्तुतः गांधी नेहरू के मुकाबले पटेल को कट्टरपंथी मानते थे। उनको लगता था आगे चल कर पटेल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के मुकाबले नेहरू की नरम और लचीली नीति देश के लिए ज़्यादा सफल होगी। पर छुपा हुआ सत्य यह भी था कि गांधी की मर्जी के ख़िलाफ़ एक बार सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद से गांधी कांग्रेस पर अपनी पकड़ को लेकर आश्वस्त नहीं थे। उन्हें लगता था कि अगर पटेल ने अपना नाम वापस नहीं लिया तो नेहरू हार जाएंगे जिसे उनकी हार मानी जाएगी। साथ ही उन्हें यह भी पता था कि पटेल उनके कहने पर अपना नाम वापस ले लेंगे लेकिन नेहरू ऐसा नहीं करेंगे।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी 'इंडिया विन्स फ्रीडम' में लिखा था, "सरदार पटेल के नाम का समर्थन ना करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर 1946 में पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय कैबिनेट मिशन प्लानको वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।"

31 अक्टूबर 1875 को जन्मे पटेल ने सी राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनने से रोक दिया था इसके बावजूद राजगोपालाचारी ने लिखा, “इस में कोई संदेह नहीं कि बेहतर होता अगर पटेल प्रधानमंत्री और नेहरू विदेशमंत्री बनाए गए होते। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं भी ग़लत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज़्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं। पटेल के प्रति यह झूठा प्रचार किया गया था कि वह मुस्लिमों के प्रति कठोर थे। अफ़सोस कि यह ग़लत तथ्य होने के बावजूद इसका प्रचार किया जा रहा था।"

दरअसल, सन् 1946 के चुनाव में भारी समर्थन मिलने के बावजूद गांधी ने पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कांग्रेस अध्यक्ष ही आज़ादी मिलने पर देश का प्रधानमंत्री बनता और गांधी की पहली पसंद जवाहरलाल नेहरू थे। इसलिए उन्होंने पटेल से चुनाव मैदान से हटने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया। सन् 1946 में सभी को विश्वास था कि आजादी मिलने वाली है। दूसरा वर्ल्ड वॉर खत्म हो चुका था और अंग्रेज भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के बारे में विचार-विमर्श करने लगे थे। कांग्रेस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उस साल चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें मिली थीं। अचानक कांग्रेस अध्यक्ष पद की ओर सभी की निगाह चली गई थी। पटेल की कर्मठ जीवन शैली, कामयाब प्रशासक और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता की छवि के कारण कांग्रेस में आम कार्यकर्त्ता ही नहीं वरिष्ठ नेता भी उनको प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे।

भारत छोडो आंदोलन के कारण कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता जेल में थे। इस कारण 6 साल से चुनाव नहीं हो सका था। लिहाज़ा, 6 साल से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। वह भी अध्यक्ष पद के चुनावों में भाग लेने के इच्छुक थे क्योंकि उनकी भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी। किंतु गांधी ने उन्हें बता दिया कि अध्यक्ष पद का फिर से उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। आज़ाद ने अध्यक्ष बनने का इरादा त्याग दिया। यही नहीं, गांधी ने साफ तौर अपना समर्थन नेहरू को दिया था। उनकी नज़र में उस समय कांग्रेस की बागडोर संभालने के लिए नेहरू से बढ़कर कोई उम्मीदवार नहीं था।

अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की अंतिम तिथि 29 अप्रैल 1946 थी। नामांकन 15 राज्यों की कांग्रेस की क्षेत्रीय कमेटियों द्वारा किया जाना था। हैरत की बात कि गांधी के खुले समर्थन के बावजूद नेहरू को एक भी राज्य की कांग्रेस कमेटी का समर्थन नहीं मिला, जबकि 15 में से 12 राज्यों से सरदार पटेल का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। बाकी 3 राज्यों ने किसी का भी नाम आगे नहीं आया। स्पष्ट है कि पटेल के पास निर्विवाद समर्थन हासिल था जो उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए पर्याप्त था। इसे गांधी ने चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने जेबी कृपलानी पर दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को नेहरू के नाम का प्रस्ताव करने के लिए राजी करें। आश्चर्य की बात कि गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के पास यह अधिकार था ही नहीं कि वह नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखते क्योकि यह अधिकार कांग्रेस के संविधान के अनुसार केवल राज्यों की इकाइयों के पास ही था।

बहरहाल, सच तो यह है कि सरदार पटेल ने ही भारत को विभाजित करने के मंसूबों पर पानी फेरा था। आज जो विकासशील भारत हैं, वद 70 साल पहले भारत-श्रेष्ठ भारत के मिशन की कमान संभालने वाले सरदार पटेल की ही देन है। वस्तुतः स्वतंत्रता मिलने से पहले भारत में दो तरह के शासक थे। भारत का एक हिस्सा वह था जिस पर अंग्रेजों का सीधा शासन था, दूसरा हिस्सा वह था जिस पर 562 से ज्यादा रियासते और रजवाड़े थे। रियासतदार और रजवाड़े अंग्रेजों के अधीन शासन कर रहे थे।

विभाजित के समय अंग्रेजों ने चालाकी से रजवाड़ों के सामने दो विकल्प रखा। पहला विकल्प भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय था और दूसरा विकल्प आजाद देश के रूप में वजूद कायम रखना। यह पटेल का कमाल था कि उन्होंने सूझबूझ और कूटनीति से बिना किसी खूनखराबे के भारत को एक किया। 6 मई 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों और रजवाड़ों का भारत में विलय का मुश्किल मिशन शुरू किया। विलय के बदले रियासतों के वशंजों को प्रिवी पर्सेज के जरिए नियमित आर्थिक मदद का प्रस्ताव रखा। साथ ही रियासतों से उन्होंने देशभक्ति की भावना से फैसला लेने को कहा। 15 अगस्त 1947 तक भारत में शामिल होने की समय सीमा भी तय कर दी। साम-दाम-दंड-भेद की पटेल की इस कूटनीति ने जल्दी ही रंग दिखाना शुरू कर दिया।

आखिरकार 15 अगस्त 1947 को जब लाल किले में तिरंगा फहराया गया तब-तब भारत एक मुल्क के रूप में दुनिया के नक्शे पर वजूद में आया लेकिन जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया। जम्मू-कश्मीर के राजा हिंदू थे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, जबकि जूनागढ़ और हैदराबाद के शासक मुस्लिम थे, लेकिन उनकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में इन्हें लेकर कोई भी गलत फैसला बड़ी आफ़त बन सकता था।

87 फीसदी हिंदू आबादी वाले हैदराबाद का नवाब उस्मान अली खान विलय के पक्ष नहीं था, उसके इशारे पर वहां की सेना हैदराबाद की जनता पर अत्याचार कर रही थी। 13 सितंबर 1948 को पटेल ने भारतीय फौज को हैदराबाद पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया। ऑपरेशन पोलो के तहत सेना ने दो ही दिन में हैदराबाद पर क़ब्ज़ा कर लिया।


नोट - व्यस्ता के कारण इसे कल यानी 31 अक्टूबर 2017 को पूरा नहीं कर पाया था, आज पूरा हुआ और पोस्ट कर रहा हूं।