हरिगोविंद
विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट
देश की सबसे बड़ी अदालत है,
इसलिए उसका फ़ैसला सर्वोच्च और सर्वमान्य है।
चूंकि भारत में अदालतों को अदालत की अवमानना यानी कॉन्टेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट की नोटिस
जारी करने का विशेष अधिकार यानी प्रीवीलेज हासिल है, इसलिए कोई आदमी
या अधिकारी तो दूर न्यायिक संस्था से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा व्यक्ति भी
अदालत के फैसले पर टीका-टिप्पणी नहीं कर सकता। इसके बावजूद निचली अदालत से लेकर
देश की सबसे बड़ी न्याय पंचायत तक,
कई फ़ैसले ऐसे आ जाते हैं, जो आम आदमी को
हज़म नहीं होते। वे फ़ैसले आम आदमी को बेचैन करते हैं। मसलन, किसी
भ्रष्टाचारी का जोड़-तोड़ करके निर्दोष रिहा हो जाना या किसी ईमानदार का जेल चले
जाना या कोई ऐसा फैसला जो अपेक्षित न हो।
चूंकि जज भी
इंसान हैं और इंसान काम,
क्रोध,
लोभ,
मोह और अहंकार जैसे पांच विकारों या अवगुणों
के चलते कभी-कभार रास्ते से भटक सकता है। ऐसे में इंसान होने के नाते जजों से
कभी-कभार गलती होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस दलील पर एकाध स्वाभाविक गलतियां
स्वीकार्य हैं, हालांकि उन गलतियों का दुरुस्तीकरण भी होना चाहिए, लेकिन कई फैसले
ऐसे होते हैं, जिनमें प्रभाव,
पक्षपात या भ्रष्टाचार की बहुत तेज़ गंध आती
है। कोई बोले भले न,
पर उसकी नज़र में फ़ैसला देने वाले जज का
आचरण संदिग्ध ज़रूर हो जाता है। किसी न्यायाधीश का आचरण जनता की नज़र में संदिग्ध
हो जाना, भारतीय न्याय-व्यवस्था की घनघोर असफलता है।
न्यायपालिका को
अपने गिरेबान में झांक कर इस कमी को पूरा करना होगा, वरना धीरे-धीरे
उसकी साख़ ही ख़त्म हो जाएगी,
जैसे बलात्कार के आरोपी अखिलेश सरकार में
मंत्री रहे गायत्री प्रजापति की ज़मानत मंजूर करके जिला एवं सत्र न्यायधीश जस्टिस
ओपी मिश्रा ने न्यायपालिका की साख़ घटाई। दो साल पहले बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस
अभय थिप्से ने अभिनेता सलमान ख़ान को हिट रन केस में कुछ घंटे के भीतर आनन-फानन
में सुनवाई करके ज़मानत दे दिया और जेल जाने से बचा लिया था। इसी तरह कर्नाटक
हाईकोर्ट के जस्टिस सीआर कुमारस्वामी ने महाभ्रष्टाचारी जे जयललिता को निर्दोष
करार देकर फिर उसे मुख्यमंत्री बना दिया था। ऐसे फ़ैसले न्यायपालिका को ही कठघरे
में खड़ा करते हैं।
हाल ही में दो
बेहद चर्चित जज न्यायिक सेवा से रिटायर हुए। मई में गायत्री को बेल देने वाले जज
ओपी मिश्रा ने अवकाश ग्रहण किया,
जून में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज जस्टिस सीएस
कर्णन। कर्णन की चर्चा बाद में पहले जज ओपी मिश्रा का ज़िक्र। गायत्री पर एक महिला
और उसकी नाबालिग बेटी से बलात्कार करने का आरोप था, इसके बावजूद जज
मिश्रा ने ज़मानत दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट की रिपोर्ट में पता चला है कि जज मिश्रा
ने गायत्री से 10 करोड़ रुपए लेकर ज़मानत पर रिहा कर दिया था। करोड़ों रुपए डकारने के बावजूद जज
मिश्रा और दूसरे रिटायर्ड जज आराम से सेवानिवृत्त जीवन जी रहे हैं।
दूसरी ओर जस्टिस
कर्णन पर कभी भी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा, फिर भी वह जेल
की हवा खा रहे हैं। यह भी गौर करने वाली बात है कि जस्टिस कर्णन दलित समुदाय के
हैं और दुर्भाग्य से भारतीय न्यायपालिका में दलित और महिला समाज का रिप्रजेंटेशन
नहीं के बराबर है। दलित या महिला समुदाय के किसी जज को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट
को जज बनाया गया यह विरला ही सुनने को मिलता है। फिर जस्टिस कर्णन ऐसे समय बिना
गुनाह (इसे आगे बताया गया है) के जेल की हवा खा रहे हैं, जब किसी दलित
व्यक्ति को देश का प्रथम नागरिक बनाकर सर्वोच्च सम्मान देने की होड़ मची है और
दलित समाज के दो शीर्ष नेता रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार राष्ट्रपति पद का चुनाव
लड़ रहे हैं।
जस्टिस कर्णन को
सजा देने का फैसला भी किसी एक जज ने नहीं किया, बल्कि सुप्रीम
कोर्ट के सात सीनियर मोस्ट जजों की संविधान पीठ ने किया है। संविधान पीठ ने जस्टिस
कर्णन को सर्वोच्च न्यायिक संस्था की अवमानना का दोषी पाया और एकमत से सज़ा सुनाई।
सुप्रीम कोर्ट के सात विद्वान जजों की पीठ के दिए इस फैसले की न तो आलोचना की जा
सकती है और न ही उसे किसी दूसरे फोरम में चुनौती दी जा सकती है। इतना अवश्य कहा जा
सकता है कि जस्टिस कर्णन प्रकरण बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। भारतीय न्याय-व्यवस्था
में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ जब किसी सेवारत जज को जेल की सजा हुई हो।
जबसे जस्टिस
कर्णन गिरफ़्तार करके जेल भेजे गए हैं। आम आदमी के मन में यह सवाल बुरी तरह गूंज
रहा है कि आख़िर कर्णन का अपराध क्या है?
क्या उन्होंने कोई संगीन अपराध किया? उत्तर - नहीं।
क्या उन्होंने कोई ग़लत फ़ैसला दिया?
उत्तर - नहीं। क्या उन्होंने किसी से पैसे
लिए या कोई भ्रष्टाचार किया?
उत्तर - नहीं। क्या उन्होंने कोई ऐसा आचरण
किया जो किसी तरह के अपरोक्ष भ्रष्टाचार की ही श्रेणी में आता है? उत्तर - नहीं।
मतलब न कोई अपराध किया,
न ग़लत फ़ैसला दिया और न ही कोई भ्रष्टाचार
किया, फिर भी हाईकोर्ट का जज जेल में है। लिहाजा, आम आदमी के मन
में सवाल उठ रहा है कि फिर जस्टिस कर्णन जेल में क्यों हैं? उत्तर -
उन्होंने कथित तौर पर कई भ्रष्ट जजों के नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दे दिए
थे।
दरअसल, जस्टिस कर्णन ने
23 जनवरी 2017 को पीएम मोदी को लिखे खत में सुप्रीम कोर्ट
और मद्रास हाई कोर्ट के दर्जनों जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। कर्णन ने
अपनी चिट्ठी में 20
जजों के नाम लिखते हुए उनके खिलाफ जांच की
मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कर्णन के इस आचरण को कोर्ट की अवमानना क़रार
दिया और उन्हें अवमानना नोटिस जारी कर सात जजों की बेंच के सामने पेश होने का आदेश
दिया। इसके बाद जस्टिस कर्णन और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो कुछ हुआ या हो रहा है, उसका गवाह पूरा
देश है। भारतीय न्याय-व्यवस्था में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ जब किसी कार्यरत जस्टिस
को जेल की सज़ा हुई हो।
यह मामला सिर्फ़
एक व्यक्ति बनाम न्यायपालिका तक सीमित नहीं रहा। इस प्रकरण का विस्तार हो गया है
और यह देश के लोकतंत्र के 80
करोड़ से ज़्यादा स्टैकहोल्डर्स यानी मतदाओं
तक पहुंच गया है। देश का मतदाता मोटा-मोटी यही बात समझता है कि जेल में उसे होना
चाहिए जिसने अपराध किया हो। जिसने कोई अपराध नहीं किया है, उसे जेल कोई भी
नहीं भेज सकता। सुप्रीम कोर्ट भी नहीं। इस देश के लोग भ्रष्टाचार को लेकर बहुत
संजीदा हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार की बीमारी से हर आदमी परेशान है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर
देश के लोगों ने भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाली एक नई नवेली पार्टी को
सिर-आंखों पर बिठा लिया था।
बहरहाल, भारत का संविधान
हर व्यक्ति को अपने ख़िलाफ़ हो रहे अन्याय,
पक्षपात या अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन
के खिलाफ़ बोलने की आज़ादी देता है। अगर कर्णन को लगा कि उनके साथ अन्याय और
पक्षपात हो रहा है,
तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना उनका मौलिक
अधिकार था। इतना ही नहीं,
उन्होंने जजों के ख़िलाफ़ आरोप प्रधानमंत्री
को लिखे पत्र में लगाए थे। उस प्रधानमंत्री को जिसे देश के सवा सौ करोड़ जनता का
प्रतिनिधि माना जाता है। लिहाज़ा,
अवमानना नोटिस जारी करने से पहले जस्टिस
कर्णन के आरोपों को सीरियली लिया जाना चाहिए था, उसमें दी गई
जानकारी की निष्पक्ष जांच कराई जानी चाहिए थी। उसके बाद अगर जस्टिस कर्णन गलत पाए
जाते तो उनके ख़िलाफ़ ऐक्शन होना चाहिए था। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।
सुप्रीम कोर्ट
देश की सबसे बड़ी अदालत है। लिहाज़ा,
उसका ध्यान उन मुद्दों पर सबसे पहले होना
चाहिए, जिसका असर समाज या देश पर सबसे ज़्यादा होता है। मसलन, देश की विभिन्न
अदालतों में दशकों से करोड़ों की संख्या में विचाराधीन केसों का निपटान कैसे किया
जाए, लेकिन ऐसा नहीं हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत सबसे ज़्यादा शिथिल है। इसकी एक
नहीं कई कई मिसालें हैं,
जिनसे साबित किया जा सकता है कि सुप्रीम
कोर्ट संवेदनशील केसेज़ को लेकर भी उतनी संवेदनशील नहीं है, जितना उसे होना
चाहिए।
उदाहरण के रूप
में दिसंबर 2012 के दिल्ली गैंगरेप केस को ले सकते हैं। जिस
गैंगरेप से पूरा देश हिल गया था। सरकार ने जस्टिस जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता
में आयोग गठित किया। उन्होंने दिन रात एक करके रिपोर्ट पेश की। आनन-फानन में संसद
का विशेष अधिवेशन बुलाया गया और अपराधिक क़ानून में बदलाव किए गए। उस केस की
सुनवाई के लिए फॉस्टट्रैक कोर्ट गठित की गई जिसने महज 173 दिन यानी छह
महीने से भी कम समय में सज़ा सुना दी थी और दिल्ली हाईकोर्ट ने भी केवल 180 दिन यानी छह
महीने के अंदर फांसी की सज़ा पर मुहर लगा दी थी, लेकिन उसे
सुप्रीम कोर्ट ने लटका दिया और उसे फैसला सुनाने में तीन साल (1145 दिन) से ज़्यादा
का समय लग गया।
देश का आम आदमी
हैरान होता है कि करोड़ों की संपत्ति बनाने वाली जयललिता को निचली अदालत के जज
माइकल चून्हा ने 27
सितंबर 2014 को चार साल की
सज़ा सुनाई, जिससे उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी और जेल जाना पड़ा। उनका
राजनीतिक जीवन ही ख़त्म हो गया। लेकिन आठ महीने बाद 11 मई 2015 को कर्नाटक
हाईकोर्ट के कुमारस्वामी ने जया को निर्दोष करार दे दिया। वह फिर मुख्यमंत्री बन
गई और जब मरी तो अंतिम संस्कार राजा की तरह हुआ। जबकि क़रीब दो साल बाद सुप्रीम
कोर्ट को ही कुमारस्वामी का फ़ैसला रद्द करना पड़ा और जयललिता की सहयोगी शशिकला को जेल भेजना पड़ा। देश की सबसे बड़ी अदालत के
न्यायाधीशों की नज़र में कुमारस्वामी का आचरण क्यों नहीं आया। अगर उन्होंने ग़लत
फ़ैसला न सुनाया होता तो एक भ्रष्टाचारी महिला दोबारा सीएम न बन पाती और उसकी
समाधि के लिए सरकारी ज़मीन न देनी पड़ती। इससे पता चलता है कि कुमारस्वामी ने
कितना बड़ा अपराध किया,
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनको कोई नोटिस जारी
नहीं किया। सबसे अहम कि कुमारस्वामी पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं।
इसी तरह हिट ऐंड
रन केस में अभिनेता सलमान ख़ान को 7
मई 2015
को निचली अदालत ने सज़ा सुनाई। आम आदमी को
ज़मानत लेने में महीनों और साल का समय लग जाता है, लेकिन बॉम्बे
हाई कोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से ने सलमान ख़ान को कुछ घंटों के भीतर बेल दे
दी। इतना ही नहीं जब पूरा देश उम्मीद कर रहा था कि सलमान को शर्तिया सज़ा होगी, तब बॉम्बे
हाईकोर्ट के जज जस्टिस एआर जोशी ने 10
दिसंबर 2015 को रिटायर होने
से कुछ पहले दिए गए अपने फ़ैसले में सलमान को बरी कर दिया। इस फ़ैसले से सरकार ही
नहीं देश का आम आदमी भी हैरान हुआ। साफ़ लगा कि अभिनेता ने न्यायपालिका को मैनेज
कर लिया। जब जज ओपी मिश्रा रिश्वत ले सकते हैं तो हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज
भी रिश्वत ले सकता है,
इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
बहरहाल, सलमान को रिहा करने की राज्य सरकार की अपील अब दो साल से सुप्रीम कोर्ट के पास
है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने सलमान को सज़ा दे दी तो क्या जस्टिस एआर जोशी के ख़िलाफ
कार्रवाई होगी, ज़ाहिर है नहीं,
क्योंकि इस तरह की कोई व्यवस्था संविधान में
नहीं हैं।
द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक, 17 सितंबर 2010 को पूर्व
क़ानून मंत्री और क़ानूनविद शाति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक अप्लीकेशन देकर कहा
था, “एकाध नहीं, आठ-आठ मुख्य ऩ्यायाधीश भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जा चुके
हैं। अगर देश की सबसे बड़ी अदालत के पास हिम्मत है तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करें।” इतना ही नहीं मुख्य ऩ्यायधीश रहे जस्टिस जगदीश शरण वर्मा और जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर तो भ्रष्टाचार के गंभीर
आरोप लगे थे। देश के चर्चित खोजी पत्रकार विनीत नारायण ने अपनी वीडियो मैगज़ीन ‘कालचक्र’ ने जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर ज़मीन घोटाले के आरोप लगाए थे। बदले में उन्हें
बहुत ज़्यादा प्रताड़ित किया गया था। अपने ही लॉ-इंटर्न के यौन उत्पीड़न के आरोपों से घिरे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस ए के गांगुली के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई हुई? सन् 2013 में कई महीने तक यह मामला सुर्खियों में रहा, लेकिन कुछ नहीं। गांगुली से केवल पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा मांगा गया था।
बहरहाल, अगर भ्रष्टाचार
से जुड़े मामले पर जस्टिस कर्णन ने पीएम को पत्र लिखा तो अवमानना नोटिस देने से
पहले कर्णन के आरोपों की गंभीरता और तथ्यपरकता की जांच होनी चाहिए थी। जिन पर
कर्णन ने आरोप लगाया,
उनका बाल भी बांका नहीं हुआ और आरोप लगाने
वाले कर्णन को उनके आरोप ग़लत साबित होने से पहले ही जेल भेज दिया गया।
न्यायपालिका के भीतर रहते हुए कोई उसकी व्यवस्था पर प्रश्न नहीं उठा सकता और उसके
बाहर होने पर भी आलोचना नहीं कर सकता। वह अवमानना का विषय बन जाएगा। यह तो
निरंकुशता हुई, जिसका समाधान जल्द से जल्द खोजा जाना चाहिए। इतना ही नहीं न्यायपालिका में
व्याप्त भ्रष्टाचार पर बहस करने का वक़्त आ गया है, ताकि इसमें लोगों की आस्था बनी
रहे।
समाप्त