हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट ने जज बीएच लोया की मौत की एसआईटी जांच से इनकार क्या किया,
वामपंथी विचारकों और मुस्लिम
बुद्धिजीवियों की भृकुटी ही तन गई है। इन लोगों ने सामूहिक रूप से देश की सबसे
बड़ी अदालत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। भारतीय न्याय पालिका के इतिहास में
संभवतः पहली बार सुप्रीम कोर्ट के किसी फ़ैसले के ख़िलाफ़ इतना ज़्यादा हो हल्ला
मच रहा है। अदालत को इससे पहले किसी ने इतना खुलकर पक्षपाती करार नहीं दिया था,
जितना पक्षपाती अपने को
सेक्यूलर कहने वाले कट्टरपंथी जमात के लोग आजकल कह रहे हैं। कांग्रेस की अगुवाई
में विपक्ष के निशाने पर सीधे देश के मुख्य न्यायधीश जस्टिस दीपक मिश्रा हैं।
जस्टिस दीपक मिश्रा के करीयर पर नज़र डालें तो साफ़ पता चलता है कि उन्हें जज
नियुक्त करने से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भेजने तक सब कुछ कांग्रेस के
ही कार्यकाल में हुआ है। जज बनने से पहले वह वकालत करते थे। पीवी नरसिंह राव के
कार्यकाल में उन्हें 17 फरवरी 1996 को उड़ीसा हाईकोर्ट में अतिरिक्त जज बनाया गया।
मनमोहन सिंह के शासन में वह 2009 में पटना हाईकोर्ट एवं 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट
के मुख्य न्यायाधीश बने। इतना ही नहीं, 10 अक्टूबर 2011 को कांग्रेस के कार्यकाल में उन्हें एलिवेट
करके सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया गया। बीजेपी के शासन में पिछले साल 28 अगस्त को वह
सीनियारिटी के आधार पर 14 महीने के लिए मुख्य न्यायाधीश बनाए गए। अब उनको जज बनाने
वाली कांग्रेस उन्हें किसी भी कीमत पर हटाना चाहती है। कारण यह है कि उन्होंने जज
लोया की मौत की जांच एसआईटी से कराने का आदेश देने से इनकार कर दिया।
कांग्रेस की नज़र में जस्टिस दीपक मिश्रा तब आए जब उन्होंने याक़ूब मेमन की
फ़ांसी पर रोक लगाने वाली सभी याचिकाओं को आधी रात को निरस्त कर दिया, जिससे मुंबई सीरियल ब्लास्ट
के मास्टरमाइंड अपराधी को फांसी पर लटकाया जा सका। कांग्रेस ने पहली बार महसूस
किया कि इस जज की निष्ठा कम से कम कांग्रेस में तो बिलकुल नहीं है। कांग्रेस को शक
था कि यह जज यह राष्ट्र को सेक्युलरिज़्म से ऊपर मानता है। जस्टिस दीपक मिश्रा ने
जब देश के सिनेमाघरों में राष्ट्रगान ज़रूरी करने का आदेश दिया, तब कांग्रेस का शक हक़ीक़त
में बदल गया। कांग्रेस ने मान लिया कि यह जज पक्का राष्ट्रवादी है। इतना ही नहीं,
जब जस्टिस ने जज लोया के केस
की एसआईटी जांच से मना कर दिया तो कांग्रेस ने पक्के तौर उन्हें न्यायाधीश नहीं,
बल्कि भाजपा का आदमी मान
लिया।
लिहाज़ा, देश की सबसे पुरानी पार्टी जस्टिस दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाकर उन्हें पद से
हटाना चाहती है। इसीलिए आनन फानन में राज्यसभा के 54 सदस्यों के हस्ताक्षर वाला
महाभियोग नोटिस उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू को दिया गया। नोटिस में कुछ महीने
पहले सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर न्यायाधीशों की प्रेस कॉन्फ्रेंस का हवाला किया
गया, जिसमें इन चारों
जजों ने कहा कि लोकतंत्र ख़तरे में है, क्योंकि महत्वपूर्ण मुक़दमे इनको नहीं दिए जा रहे हैं। मतलब
अगर किसी जज को उसकी पसंद का मुक़दमा नहीं दिया जाएगा तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़
जाएगा। इतना ही नहीं, महाभियोग नोटिस में पॉसिबली, लाइकली (संभवतः) और मे बी, कैन बी (हो सकता है) जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया था। विधि विशेषज्ञों की
मदद से नोटिस पर विचार करने के बाद ही उपराष्ट्रपति ने उसे ख़ारिज़ किया, क्योंकि नोटिस में दिए गए
तथ्य महाभियोग चलाने लायक नहीं थे। किसी भी क़ीमत पर जस्टिस दीपक मिश्रा को हटाने
पर आमादा वामपंथी विचारक और मुस्लिम बुद्धिजीवी उपराष्ट्रपति के फ़ैसले पर भी सवाल
उठा रहे हैं।
बहरहाल, सवाल यहां यह उठता है कि अगर जस्टिस दीपक मिश्रा जज लोया के मामले में
कांग्रेस के अनुकूल फ़ैसला देते तब क्या वह कांग्रेस के गुडविल लिस्ट में रहते?
यानी वह कह देते कि जज लोया
हार्टअटैक से नहीं मरे, बल्कि एक साज़िश के तहत उनकी हत्या की गई है, लिहाज़ा उनकी मौत की एसआईटी या उससे भी बड़ी एजेंसी
से जांच होनी चाहिए, ताकि लोया के हत्यारों की शिनाख़्त की जा सके, तब शायद कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष को उनका
भ्रष्टाचार न दिखता। सवाल यहां यह भी है कि कांग्रेस को जस्टिस दीपक मिश्रा का
भ्रष्टाचार उनको जज बनाते समय क्यों नहीं दिखा? कांग्रेस इस सवाल का भी जवाब नहीं देगी कि अगर उनका
आचरण इतना संदिग्ध था तब उन्हें हाईकोर्ट का जज क्यों बनाया गया? क्या हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट
के जज की चयन प्रक्रिया इतनी लचर और कमज़ोर है कि भ्रष्टाचार करने वाला व्यक्ति भी
जज बन सकता है।
बहरहाल, अगर न्यायाधीशों के कथित भ्रष्टाचार की बात करें तो इतिहास गवाह है कि
कांग्रेस कई जजों के भ्रष्टाचार पर आंख मूंदती रही है। 1989-91 में देश के मुख्य
न्यायाधीश रहे जस्टिस रंगनाथ मिश्रा (जस्टिस दीपक मिश्रा के चाचा) कांग्रेस को
बहुत प्रिय रहे। उन्होंने 1984 के सिख दंगों के मामले में कांग्रेस के नेताओं को
क्लीन चिट दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज के रूप में उन्होंने सिख की
हत्या की जांच करने वाले आयोग की अध्यक्षता की। पूछताछ और जांच की कार्यवाही
अत्यधिक पक्षपातपूर्ण तरीक़े से निपटाया और कांग्रेस नेताओं को क्लीन चिट दे दिया।
जबकि आधिकारिक जांच रिपोर्ट और सीबीआई जांच में कांग्रेस के नेताओं के ख़िलाफ़
गंभीर साक्ष्य मिले थे। बहरहाल, कांग्रेस ने रंगनाथ मिश्रा को पुरस्कृत करते हुए राज्यसभा के लिए मनोनीत कर
दिया।
कांग्रेस को 1991 में 18 दिनों के लिए मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति कमल
नारायण सिंह कभी भ्रष्टाचारी नहीं दिखे। उन पर आरोप लगा कि जैन एक्सपोर्ट्स और
उसकी सिस्टर कन्सर्न जैन शुद्ध वनस्पति के पक्ष में फ़ैसला देते समय जज साहब
अप्रत्याशित रूप से बेहद उदार हो गए। उनके आदेश से कंपनी ने औद्योगिक नारियल का
तेल आयात किया था, जबकि उस पर प्रतिबंध लगा था। कंपनी पर कस्टम विभाग के लगाए 5 करोड़ रुपए के
ज़ुर्माने को भी जस्टिस सिंह ने अपने आदेश में घटाकर 35 फ़ीसदी कम कर दिया। बाद
में न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया ने उस आदेश को रद्द कर दिया और टिप्पणी भी की,
"मैं वर्तमान
हलफ़नामे पर टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं लेकिन मैं न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार के
आरोपों के बारे में चिंतित हूं।"
राजनीतिक दलों को सन् 1994-1997 के दौरान मुख्य न्यायाधीश रहे एएम अहमदी का
पक्षपात या भ्रष्टाचार नहीं दिखा, जब अहमदी ने भोपाल गैस त्रासदी में हज़ारों नागरिकों को इंसाफ़ से वंचित कर
दिया। उन्होंने हत्या के लिए ज़िम्मेदार यूनियन कार्बाइड कंपनी के ख़िलाफ़ अपराधी
हत्या के आरोप को ही खारिज कर दिया। उनके फ़ैसले पर भी गंभीर टिप्पणी हुई कि न्याय
के साथ विश्वासघात किया गया। सबसे मज़ेदार बात यह रही अहमदी ने बाद में यूनियन
कार्बाइड अस्पताल ट्रस्ट मंडल का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं अहमदी
ने पर्यावरण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अंगूठा दिखाते हुए बड़खल और सूरजकुंड
झील के पांच किलोमीटर के दायरे में कांत एनक्लेव, फरीदाबाद में अपना शानदार घर बनवाया। 1998 में
मुख्य न्यायाधीश रहे एमएम पुंछी का वह फ़ैसला किसी को पक्षपात या भ्रष्टाचार के
दायरे में नहीं लगा, जब उन्होंने शिकायतकर्ता से समझौता करने के आरोप में जेल की सज़ा भुगत रहे एक
प्रभावशाली व्यक्ति को अपने मन से बरी कर दिया। जबकि यह नॉर्म का खुल्मखुल्ला
उल्लंघन था।
मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर तो फ़र्ज़ी हलफ़नामे से ज़मीन
हथियाने के एक नहीं तीन-तीन गंभीर आरोप लगे। जस्टिस आनंद पर आरोप था कि उन्होंने
जम्मू कश्मीर के होटल व्यापारी के पक्ष में फ़ैसला दिया, बदले में व्यापारी ने उनकी बेटी को औने-पौने दाम पर
भूखंड दे दिया। जस्टिस आनंद सेन ने तो अपने ख़िलाफ़ घोटाले को प्रकाशित करने वाले
पत्रकार विनीत नारायण को बहुत टॉर्चर किया था। उनको अब तक का सबसे भ्रष्ट मुख्य
न्यायाधीश कहें तो हैरानी नहीं। वह कितने ताक़तवर थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया
जा सकता है कि जब भ्रष्टाचार के बारे में आनंद से क़ानून मंत्री राम जेठमलानी ने
स्पष्टीकरण मांगा तो आनंद ने उनको क़ानूनमंत्री पद से हटवा दिया। उस समय कांग्रेस
या किसी दूसरे दल के किसी सांसद ने आनंद के ख़िलाफ़ महाभियोग लाना तो दूर, लाने की सोची भी नहीं। सबसे
अहम जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले कांग्रेस नेता कपिल
सिब्बल उस समय जस्टिस आनंद का बचाव कर रहे थे।
न्यायमूर्ति वाईके सभरवाल भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे। उन्होंने कुछ
बिल्डरों और न्यायाधीश के बेटों को फायदा पहुंचाने के लिए दिल्ली में कॉमर्शियल
गालों को सील करने का आदेश दिया। इसके बाद उनका बेटा भी रियल इस्टेट के कारोबार
में उतर गया और एक लाभ पाने वाले बिल्डर का पार्टनर बन गया। सबसे हैरानी वाली बात
यह रही कि उनके बेटे की कंपनी का पंजीकृत ऑफिस न्यायाधीश का सरकारी घर था। लेकिन
उनके ख़िलाफ़ किसी ने महाभियोग लाने के बारे में सोचा भी नहीं। इसके अलावा समय समय
पर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज ऐसे फ़ैसले देते रहे हैं, जिनसे फेवर और भ्रष्टाचार की
बू आती है, लेकिन कभी किसी जज
पर महाभियोग नहीं लाया गया।
विनीत नारायण की किताब 'भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार' में कहा गया कि हवाला कांड को मुख्य न्यायाधीश रहे जगदीश शरण वर्मा पर गंभीर
आरोप लगाया है। उनके मुताबिक जस्टिस वर्मा ने एक साज़िश के तहत बिना सघन जांच के
ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसी तरह तीन साल पहले बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस अभय
थिप्से ने अभिनेता सलमान ख़ान को हिट रन केस में कुछ घंटे के भीतर आनन-फानन में
सुनवाई करके ज़मानत दे दिया और जेल जाने से बचा लिया था। जस्टिस एआर जोशी ने अपने
रिटारमेंट से पहले सलमान खान को रिहा ही कर दिया। इसी तरह कर्नाटक हाईकोर्ट के
जस्टिस सीआर कुमारस्वामी ने महाभ्रष्टाचारी जे जयललिता को निर्दोष करार देकर फिर
उसे मुख्यमंत्री बना दिया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने वह फ़ैसला बदल दिया और
जयललिता तो नहीं उनकी सहेली शशिकला जेल में हैं। ज़ाहिर है, इस तरह के अप्रत्याशित फ़ैसलों के पीछे सुनियोजित
लेन-देन होता है।
अब तक भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में केवल एक न्यायाधीश के ख़िलाफ़ महाभियोग की कार्यवाही की
गई। 1993 में संसद में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी को एक जांच आयोग
की रिपोर्ट के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा। कपिल सिब्बल ने उस
वक़्त लोकसभा में रामास्वामी का जोरदार बचाव किया। नरसिंह राव सरकार के दौरान लाया
गया वह महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में पारित नहीं हुआ। हालांकि संसद में महाभियोग
का सामना करने वाले रामास्वामी इकलौते जज हैं।
जो भी हो, स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका,
विधायिका और न्यायपालिका की
मर्यादा और विश्वसनीयता को बनाए रखी जाए। देश की संवैधानिक संस्थाओं को राजनीति से
दूर रखने की ज़िम्मेदारी केवल सरकार या सत्तारूढ़ दल अथवा गठबंधन की नहीं, बल्कि हर राजनीतिक दल और हर
नेता की होती है। और राजनेता अगर संसद के किसी सदन लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य है
तो उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही कई गुना ज़्यादा बढ़ जाती है। इतना तो तय है कि
कांग्रेस ने जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाने का फ़ैसला सही समय पर
नहीं लिया। भारतीय समाज में न्यायपालिका को बहुत सम्मान से देखा जाता रहा है। जनता
का यह विश्वास अब तक इसलिए भी कायम रहा क्योंकि उसकी सत्ता स्वायत्ता और स्वतंत्र
रही। इसी कारण वह लोकतंत्र का अभिभावक रहा है। न्यायपालिका का राजनीतिकरण
जम्हूरियत की बुनियाद को कमज़ोर करेगा।
समाप्त