हरिगोविंद विश्वकर्मा
अपनी पूरी पत्रकारिता के दौरान शक्तिशाली संपादक रहे एमजे अकबर को अगर पता होता कि जिन महिलाओं के साथ वह कथिततौर पर यौनचेष्टा, जैसा कि आरोप है, कर रहे हैं, वही महिलाएं कभी हैशटैग मीटू मुहिम के जरिए उनके कुकृत्य को दुनिया के सामने ला देंगी, जिसके चलते समाज में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाएगा, उनका मान-सम्मान और प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी, उन्हें ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ के शर्मनाक अंदाज़ में केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना पड़ेगा, तो वह निश्चित रूप से किसी की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ यौनचेष्टा नहीं करते। कहने का मतलब हैशटैग मीटू ने लंपट टाइप पुरुषों के लिए एक 'टेरर क्रिएट' तो कर ही दिया। इस टेरर में जो इंपैक्ट है, वह भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और 354 में भी नहीं है। कहने का मतलब हैशटैग मीटू के रूप में महिलाओं को एक कारगर रक्षा कवच मिल गया है। इस बिना पर तो हैशटैग मीटू को मुहिम न कह कर एक क्रांति कहा जाना चाहिए।
पुरुष वर्ग में जिस तरह की घबराहट और बेचैनी हैशटैग मीटू क्रांति के बारे में देखी जा रही है, उसका यही तात्पर्य है कि इसके निश्चित रूप से दूरगामी परिणाम होंगे। यौन-शोषण पर अंकुश लगाने की दिशा में यह मील का पत्थर साबित होगा। यह हर महिला के लिए रक्षा कवच बनकर घर ही नहीं कार्यस्थल पर उसकी हिफाजत करेगा। वहशी स्वभाव के पुरुष हैशटैग मीटू के डर से महिलाओं की ओर देखने का दुस्साहस नहीं करेंगे। अभी कुछ सेलिब्रेटीज और बड़ी महिला पत्रकार सामने आई हैं। आगे आम महिलाएं सामने आने वाली हैं, क्योंकि मीटू क्रांति अब देश के कोने-कोने में पहुंच रही है। यह भी कह सकते हैं कि मीटू यौन शोषण के ख़िलाफ़ महिलाओं के संघर्ष का सबसे सशक्त माध्यम बन गया है। यह निश्चित तौर हर स्त्री को आज़ादी और गरिमा के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा। वे आज़ाद पक्षी की तरह खुले आसमान में उड़ सकेंगी।
अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के हिम्मत की दाद देनी होगी। सबसे पहले खुले तौर पर तनु ने ही मीटू के ज़रिए अभिनेता नाना पाटेकर पर 'ग़लत तरीक़े से छूने' का आरोप लगाया था। उसके बाद से तो रोज़ाना नए-नए और सनसनीखेज़ मामले सामने आ रहे हैं। इनमें कई तो रोंगटे खड़े करने वाले हैं। महिलाओं के अनुभव पढ़कर हर कोई सोचने लगता है कि कोई पुरुष इतना वहशी भी हो सकता है, वह इतना भी नीचे गिर सकता है। कम से कम एमजे अकबर की हरकत तो इसी कैटेगरी में आती है। उन पर अब तक एक दो नहीं, पूरे दो दर्जन महिलाओं ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। सभी महिलाओं के आरोप बेहद संगीन हैं। इसीलिए उनका मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा ले लिया गया। यक़ीनन इस तरह के चाल-चरित्र वाले व्यक्ति के लिए सरकार में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। सबसे अहम् बात, नाना और अकबर को छोड़ भी दें तो भी हैशटैग मीटू अभियान के चपेट में ऐसे नामचीन लोग आ रहे हैं, जिनकी समाज में बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मानित छवि रही है। इन अभियान के चलते ऐसे लोग रातोंरात आसमान से फ़र्श पर गिर रहे हैं।
इसमें दो राय नहीं कि सोशल मीडिया पर इन दिनों हैशटैग मीटू के चलते पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पुरुषों का विद्रूप चेहरा सामने आ रहा है। दरअसल, सदियों से स्त्री के साथ पुरुष जानवर जैसा व्यवहार करता रहा है। पुरुष की यौनचेष्टाओं को महिलाएं चुपचाप सहती आ रही हैं और ऊफ तक भी नहीं करती हैं। जो एकाध विरोध करती हैं, उन्हें बलात दबा दिया जाता है। यह मामला इसलिए भी सामने नहीं आ पाता है, क्योंकि सारा तंत्र ताक़तवर पुरुष के पक्ष में होता है। लिहाज़ा, हिम्मत करने वाली महिला पर तरह तरह के लांछन लगा दिए जाते है। हैशटैग मीटू के साथ भी यही हो रहा है। होना तो यह चाहिए था कि पुरुष प्रधान समाज और उसके पैरोकार सहिष्णुता का परिचय देते और आप-बीती सुनाने वाली महिलाओं के पक्ष में खड़े होते। उनके साहस की सराहना करते, लेकिन ये लोग यह भी सहन नहीं कर पाया। अब इनकी ओर से इस क्रांति के बारे में नकारात्मक बातें कही जा रही हैं। तरह-तरह के जोक्स बनाए जा रहे हैं। 21वी सदी में भी नारी को चरणों की दासी के रूप में देखने की इच्छा रखने वाले पुरुष तो विरोध कर ही रहे हैं, कई पितृसत्तावादी महिलाएं भी इसका यह कहकर विरोध कर रही हैं कि जब यौन शौषण हो रहा था, तब क्यों चुप रहीं। यह भी कहा जा रहा है कि काम निकालने के लिए अमुक महिला ने ही उस पुरुष को उकसाया होगा और काम निकल जाने के बाद अब आरोप लगा रही है। कई लोग कह रहे हैं, जब काम था तब ‘स्वीटू’ काम निकल गया तब ‘मी टू’।
इस तरह का कुतर्क करने वाले लोग भारतीय समाज में महिलाओं का वास्तविक स्थिति से या तो अनजान हैं या जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारतीय समाज में महिलाओं को सरवाइव करने के लिए घर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी तरह तरह के समझौते करने पड़ते हैं। महिलाएं अब तक इतनी सक्षम नहीं हैं कि बिना काम या नौकरी के घर की बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें। इसलिए मजबूरी में काम देने वाले, बॉस या प्रभावशाली सहकर्मी की उन हरकतों को भी सह लेती हैं, जिसे मजबूरी न होने पर कतई न सहतीं। कह सकते हैं कि पराश्रित बनाकर रखी गई महिलाएं यौन शोषण को ज़हर के घूंट की तरह पीकर चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती रही है। वस्तुतः समय के साथ ज़ुल्म और अत्याचार सहन करने की प्रवृत्ति उसके डीएनए में घुस गई और उसके भीतर विरोध करने का मैकेनिज़्म ख़त्म हो गया। इसके लिए भी हमारा समाज ही ज़िम्मेदार है। समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि छेड़छाड़ या यौन-उत्पीड़न या फिर इस तरह की किसी बात को सार्वजनिक करने पर पुरुष की नहीं, बल्कि महिला की ही बदनामी समझी जाती है। इसी अवधारणा के तहत बलात्कार या यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं का नाम तक गुप्त रखने की परंपरा है। ऐसे परिवेश में किसी स्त्री के लिए यौन-उत्पीड़न की घटना का सबूत पेश करना कितना दुष्कर है, यह इस समाज के ताने-बाने को समझना वाले ही समझ सकता है।
अगर रोज़ी-रोटी के लिए कोई महिला दूसरा रास्ता अपनाती या समझौते करती है अथवा बॉस या काम देने वाले उस पुरुष की यौनचेष्टा झेलती, जिसे वह दिल से पसंद नहीं करती, तो यह समाज के लिए और भी बड़ा कलंक है। मानव सभ्यता के इतने साल बाद भी हमने ऐसे समाज का सृजन कि किसी महिला को नौकरी या काम उसकी प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि उसके महिला होने, उसकी सूरत, उसकी फिज़िक और उसके कंप्रोमाइज़ करने के आधार पर मिलती है। यह किसी स्वस्थ समाज का लक्षण तो बिल्कुल नहीं है। यहां हैशटैग मीटू के बारे में एक बात समझना बहुत ज़रूरी है। महिलाओं का देर से मुंह खोलना मुद्दा ही नहीं है। इसलिए यह कहने के कोई मतलब नहीं कि यौन शोषण के समय मुंह क्यों नहीं खोला। यहां एकमात्र मुद्दा यह है कि अमुक पुरुष ने किसी महिला की इच्छा के विपरीत उसे हासिल करने की चेष्टा की, यानी उसने क़ानूनन अपराध किया है। कोई भी अपराध समय के साथ कम या ख़त्म नहीं हो जाता। लिहाज़ा, उन पुरुषों का भी अपराध बिल्कुल नहीं हुआ है, जिन पर यौनचेष्टा के आरोप लग रहे हैं। अब भी समय है कि इन लोगों के ख़िलाफ़ सुओ मोटो के तहत आपराधिक मामला दर्ज़ किया जाए और उनके अपराध के लिए कानून के मुताबिक उनको सज़ा दी जाए, अन्यथा ये लोग ऐसे यौन अपराध आगे भी करते रहेंगा। इनकी नीयत अगर औरतों के प्रति तब ठीक नहीं थी तो अब भी ठीक नहीं होगी, क्योंकि इंसान की आदत कभी नहीं बदलती है।
कई क़ानूनविद्, जिनमें कई नामचीन महिलाएं भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि मीटू के मामले सबूत मांगने वाली अदालतों में बिल्कुल नहीं ठहरेंगे, इसलिए इन मामलों में सज़ा मिलने की संभावना बहुत ही कम है। अगर सबूत मांगने वाली अदालत सज़ा नहीं दे सकी तो क्या हुआ, जिन-जिन लोगों के यौन अपराधों से परदा हटा है, उनकी हालत आज सज़ायाफ़्ता अपराधी से भी गई गुज़री हो गई है। हर जगह उन्हें संदेह की नज़र से देखा जा रहा है। यानी उनकी जीवन भर की कमाई उनसे छिन गई। इससे बड़ी सज़ा और कुछ हो ही नहीं सकती। इसका अर्थ यह ही कि यह अभियान बिल्कुल बेकार नहीं गया। सही मायने में अपराधी को सज़ा मिल रही है। वह जीवन भर इस ज़िल्लत से नहीं उबर पाएगा।