वे कहते हैं मैं अच्छा पाकिस्तानी नहीं : हामिद मीर
Friday, 02 April 2010 19:01 हरिगोविंद विश्वकर्मा भड़ास4मीडिया - कहिन
अपने खिलाफ मुहिम चलाने वाले पाकिस्तानियों को करारा जवाब दिया चर्चित पत्रकार हामिद मीर ने : दक्षिण एशियाई देशों के पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और लेखकों की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था 'फ़ाउंडेशन ऑफ़ सार्क राइटर्स ऐंड लिटरेचर' ने पिछले दिनों पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा। मीर पाकिस्तान के शीर्ष पत्रकारों में हैं।
हामिद मीर फलीस्तीन, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, लेबनान, चेचन्या, बोस्निया और श्रीलंका में युद्ध की कवरेज कर चुके हैं। इसके अलावा मीर अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद ओसामा बिन लादेन का इंटरव्यू भी ले चुके हैं। हामिद मीर को पुरस्कृत करने का दुनिया भर के पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने स्वागत किया लेकिन पाकिस्तान में प्रेस के एक तबके द्वारा मीर की जमकर आलोचना हो रही है और उनके ख़िलाफ़ इंटरनेट पर मुहिम चल रही है। मीर को पाकिस्तान का दुश्मन बताया जा रहा है।
इसी के जवाब में मीर साहिब ने 26 मार्च को एक लेख लिखा। लेख तो केंद्रित है बांग्लादेश पर लेकिन इसी बहाने हामिद मीर ने अपने दुश्मनों के चरित्र का भी खुलासा कर दिया है। हामिद मीर के इस जबर्दस्त लेख को भारत के पत्रकार ख़ासकर हिंदी ख़बरनवीस भी पढ़ सकें, इसलिए हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। अनुवाद किया है फोकस टीवी और हमार टीवी के मुंबई ब्यूरो चीफ हरिगोविंद विश्वकर्मा ने। -एडिटर
पाकिस्तान का क्षमादिन
हामिद मीर, पाकिस्तान
पाकिस्तान में कुछ लोग मुझसे बहुत नफ़रत करते हैं। ये लोग मुझसे इसलिए नफ़रत करते हैं क्योंकि 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा बांग्लादेश में किए गए ज़ुल्म के लिए, मैंने दो साल पहले, इस्लामाबाद प्रेस क्लब में बंगाली समुदाय से माफ़ी मांग ली थी। ये लोग मुझसे इसलिए भी नफ़रत करते हैं क्योंकि मार्च 1971 में बंगालियों के संहार के लिए मैं पाकिस्तानी सरकार से आधिकारिक रूप से बंगाल की जनता से माफ़ी मांगने की मांग कर चुका हूं। वे कहते हैं कि बांग्लादेश के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। वे तो यह भी कहते हैं कि मैं एक अच्छा पाकिस्तानी नहीं हूं।
वे लोग यह भी कहते हैं कि 1971 में मैं बालक था और इसीलिए मैं उस समय की हक़ीक़त से अनजान हूं। जबकि मैं कहता हूं; हां, मैं 1971 में केवल स्कूल जाने वाला बालक था लेकिन बांग्लादेश में हुए जनसंहार के बारे में मैंने बहुत कुछ सुना और पढ़ा है। अपने स्वर्गीय पिता, प्रोफेसर वारिस मीर, की बात को मैं कैसे झुठला सकता हूं जिन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों के प्रतिनिधिमंडल के साथ अक्टूबर 1971 में ढाका का दौरा किया। मेरे पिता पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर में पत्रकारिता के प्राध्यापक थे। विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनसे छात्रसंघ के पदाधिकारियों की तुर्की यात्रा आयोजित करने का निर्देश दिया लेकिन मेरे पिता छात्रों की सहमति से उन्हें ढाका लेकर गए। दरअसल, लोग जानना चाहते थे कि ढाका में क्या कुछ हो रहा है।
मुझे आज भी याद है कि ढाका से वापस लौटने के बाद मेरे पिता जी बेहद दुखी थे और कई दिन तक रोते रहे। उन्होंने हम लोगों को वहां हो रहे ख़ून-ख़राबे के बारे में बताया। ये कहानियां मेरी मां की दारुण कथा की ही तरह थीं। जी हां, मेरी मां ने 1947 में जम्मू से पाकिस्तान विस्थापित होते समय अपना पूरा परिवार खो दिया। उनके भाइयों की उनकी आंखों के सामने जम्मू में हिंदुओं और सिखों ने हत्या कर दी। मेरी नानी का अपहरण कर लिया गया। मेरी मां ने अपने ही परिजनों की लाश के नीचे छिपकर किसी तरह अपनी जान बचाई। मुझे याद है, जब मेरे पिता ने बताया कि पाकिस्तानी सैन्य अफ़सरों ने बंगाली महिलाओं के साथ बलात्कार किया तो मेरी मां ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। मेरी मां ने कहा, “हमने अपने सम्मान की रक्षा के लिए बलिदान दिया लेकिन आज हम एक दूसरे को बेइज़्ज़्त क्यों कर रहे हैं।”
मेरे पिताजी हमेशा कहते रहे कि पाकिस्तान को बंगालियों ने बनाया और हम पंजाबियों ने पाकिस्तान को विभाजित कर दिया। एक बार तो उन्होंने कहा कि 23 मार्च पाकिस्तान दिवस है, 26 मार्च क्षमा दिवस होना चाहिए और 16 दिसंबर जवाबदेही दिवस होनी चाहिए। 1987 में पत्रकार बनने के बाद मैं अपने स्वर्गीय पिताजी के विचारों को समझने लगा।
जब मैंने हमुद-उर-रहमान आयोग की रिपोर्ट पहली बार पढ़ी तो मुझे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई। पाकिस्तानी आयोग की इस रिपोर्ट में बांग्लादेश में हत्या और बलात्कार की घटनाओं को स्वीकार किया गया है। इस दस्तावेजीय साक्ष्य के बावजूद आज भी ढेर सारे लोग हक़ीक़त से इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि शेख़ मुजीब देशद्रोही था जिसने भारत की मदद से मुक्तिवाहिनी संगठन को बनाया और कई निर्दोष पंजाबियों और बिहारियों की हत्या की। मैं कहता हैं कि शेख़ मुजीब पाकिस्तान मूवमेंट के एक कार्यकर्ता थे। 1966 तक वह फ़ातिमा जिन्ना (मौहम्मद अली जिन्ना की बहन) के समर्थक रहे। उन्होंने केवल प्रांतीय स्वायत्तता की मांग की थी लेकिन सेना के शासकों ने उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया। वास्तव में, पाकिस्तानी सेना के अधिकारी ही असली देशद्रोही रहे जिन्होंने अपनी ही माताओं और बहनों की अस्मत लूटी। यही लोग कहते हैं कि मैं झूठा और पाकिस्तान का दुश्मन हूं। आख़िर मैं पाकिस्तान का दुश्मन कैसे हो सकता हूं। मेरी मां ने पाकिस्तान के लिए अपने पूरे परिवार की आहुति दे दी। मेरी समस्या यह है कि मैं हक़ीक़त से मुंह नहीं मोड़ सकता। मैं सच्चाई से इनकार नहीं कर सकता।
मेरे वरिष्ठ सहयोगी जनाब अफ़ज़ल ख़ान अभी ज़िंदा हैं। वह 73 साल के हैं। उन्होंने एसोसिएटेड प्रेस ऑफ़ पाकिस्तान (एपीपी) में काम किया और वह 1980 से 1985 के दौरान पाकिस्तान फ़ेडरल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स (पीएफ़यूजे) के महासचिव भी रहे। 28 मार्च 1971 को उन्हें सैन्य अभियान (आर्मी ऑपरेशन) की कवरेज के लिए ढाका भेजा गया। उन्होंने मुझसे बातचीत के दौरान कई बार स्वीकार किया कि हां, मुक्तिवाहिनी ने ढेर सारे निर्दोष लोगों की जान ली लेकिन पाकिस्तानी सेना ने जो कुछ किया ऐसा कार्य किसी भी मुल्क की राष्ट्रीय सेना नहीं करती। एक बार अफ़ज़ल ख़ान खुलना में इस्पाहनी हॉउस में ठहरे थे तो सेना के एक मेजर ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वह चाहें तो लड़की के साथ रात गुज़ार सकते हैं। जब अफ़ज़ल ख़ान ने पूछा कि लड़की कौन है तो मेजर ने बताया कि स्थानीय पुलिस अफ़सर की बेटी है और उसे बंदूक दिखाकर इस्पाहनी हॉउस लाया जा सकता है। इस घटना के बाद मई 1971 में अफ़ज़ल ख़ान लाहौर वापस आ गए। वह कहते हैं कि बंगालियों की हत्या और बलात्कार के लिए जो भी कसूरवार हैं उन्हें पाकिस्तान में कभी सम्मान नहीं मिला।
जनरल याह्या ख़ान का नाम पाकिस्तान में आज भी गाली माना जाता है। उनके बेटे अली याह्या लोगों से छिपने की कोशिश करते हैं। जनरल टिक्का ख़ान को आज भी “बंगालियों का हत्यारा” माना जाता है। जनरल एएके नियाज़ी बंगाल के शेर बनना चाहते थे लेकिन उन्हें “बंगाल का सियार” के रूप में याद किया जाता है। आज भी अपने बंगाली भाइयों का ख़ून बहाने के लिए ज़िम्मेदार लोगों से पाकिस्तान में बहुमत में लोग नफ़रत करते हैं। यही वजह है कि उन सैन्य अफ़सरों के परिजन आज भी सार्वजनिक तौर पर इस बात का ज़िक्र नहीं करते कि उनके पिता कौन थे।
लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान में ऐसे लोग भी हैं जो अपनी उस भयानक भूल को आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। हालांकि इन लोगों की तादाद मुट्ठी भर है लेकिन ये लोग हैं बेहद ताक़तवर। मैं इन लोगों को पाकिस्तान का शत्रु मानता हूं जिसके लिए मेरी मां ने अपने परिवार का बलिदान दे दिया। आख़िर हम इन दुश्मनों का बचाव क्यों करते हैं? आख़िर लोकतांत्रिक सरकार आधिकारिक तौर पर बंगाली समाज से माफ़ी क्यों नहीं मांग लेती। यह माफ़ी पाकिस्तान को कतई कमज़ोर नहीं करेगी बल्कि यह माफ़ी पाकिस्तान को और मज़बूत करेगी।
मुझे पूरा विश्वास है कि पाकिस्तान बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। बहुत जल्द ही वह दिन आने वाला है जब पाकिस्तानी सरकार आधिकारिक तौर पर बंगालियों से माफ़ी मांगेगी और देशभक्त पाकिस्तानियों के लिए 26 मार्च क्षमा दिवस होगा। मैं यह माफ़ी इसलिए भी चाहता हूं क्योंकि बंगालियों ने ही पाकिस्तान का निर्माण किया। मैं यह माफ़ी इसलिए भी चाहता हूं क्योंकि जनरल अयूब ख़ान का विरोध करने वाली जिन्ना की बहन फ़ातिमा का बंगालियों ने समर्थन किया। मैं यह माफ़ी इसलिए भी चाहता हूं क्योंकि बांग्लादेश की जनता के साथ नया रिश्ता बनाना चाहता हूं। मैं अपने गंदे अतीत के साथ नहीं जीना चाहता। मैं तो साफ़-सुथरे भविष्य के साथ जीना चाहता हूं। मैं चाहता हूं केवल पाकिस्तान का ही उज्ज्वल भविष्य नहीं बल्कि बांग्लादेश का भी भविष्य उज्ज्वल हो। मैं यह माफ़ी इसलिए भी चाहता हूं क्योंकि मैं पाकिस्तान से प्यार करता हूं और मैं बाग्लादेश से भी प्यार करता हूं। मेरे बांग्लादेश के भाई-बहनों को स्वाधीनता दिवस की शुभकामनाएं।
1 टिप्पणी:
Thank you for bringing this nice article for us.
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