हरिगोविंद
विश्वकर्मा
चंद रोज़ बाद
अभिनेता संजय दत्त सलाखों के पीछे चले जाएंगे। कुल 42 महीने के लिए। यह ख़बर फिर
सुर्खियां बटोरेगी। इस बात पर चर्चा होगी कि क्या संजय ने अपराध जान-बूझ किया या उनसे
अनजाने में हो गया। जब संजय ने मुंबई बमकांड के मास्टर माइंड और मुख्य आरोपी दाऊद
इब्राहिम कासकर के भाई अनीस से अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने के लिए एके-56
मंगवाई थी, तब उनकी उम्र 33 साल थी यानी उन्हें बालिग हुए 15 साल बीत चुका था। मज़ेदार
पहलू यह है कि संजय बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां तो
दंगा हुआ ही नहीं। मुंबई के दंगे (इन पंक्तियों के लेखक ने तब ‘जनसत्ता’ के लिए दंगों की रिपोर्टिंग की थी) पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य
क्षेत्रों में हुए थे। सो संजय का अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की दुहाई देना
सरासर बेमानी है। यानी उस समय कम से कम संजय या उनके परिवार के लिए किसी तरह के
ख़तरे का सवाल ही नहीं पैदा होता था। दंगा, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से ही शुरू हुआ
और उस मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा।
दरअसल, 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की
तरह मुंबई में भी दंगो भड़क उठा था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर
1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई जिसमें 257
लोग मारे गए और घायल हुए। हालांकि दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के
मुताबिक दंगों में कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) दंगे की मारे गए। कहने
का तात्पर्य संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56
राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाया था।
सच पूछो तो, 1993
में मुंबई बम विस्फोट से पहले तक माफिया डॉन दाऊद केवल वांछित ख़तरनाक अपराधी था,
इसलिए बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उनके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसके
लिए उन्हें अच्छा नज़राना मिल जाता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो
मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। नब्बे के दशक में कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री
नहीं होगा, जिसने दाऊद के दरबार में ठुमके न लगाया हो। तब दुबई एक महफ़ूज़ ऐशगाह
था। लिहाज़ा, संजय दत्त भी दाऊद ऐंड कंपनी के ग्लैमर से ख़ुद को नहीं बचा पाए। मुंबई
पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार वे अनीस के संपर्क में आए तो दोनों की अच्छी
ट्यूनिंग हो गई। उनमें अकसर बातचीत होने लगी। संजय अनीस से पर्सनल इशूज़ भी शेयर
करने लगा। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद या उससे जुड़े अपराधियों से
ताल्लुक़ात रखने के ख़तरे का अहसास 12 मार्च 1993 को मुंबई में तबाही के बाद हुआ।
अगर संजय दत्त मुंबई धमाकों के बाद अनीस से जान-पहचान ख़त्म कर लेते तो इस बात में
थोड़ा दम रहता कि उनसे अनजाने में ग़लती हुई है और वे भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन
बमकांड का आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उनकी उम्र 42 साल थी) ने छोटा शकील
से फिर बातचीत की और उससे अभिनेता गोविंदा को सबक सीखाने का आग्रह किया। जिसे
मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय दत्त ने अपनी गलतियों से कुछ भी नहीं
सीखा। इसलिए उन्हें अपने किए की सज़ा भुगतनी ही चाहिए। उच्च पदों पर बैठे लोग माफी
या सज़ा कम करने की अपील पर विचार करते समय इस तथ्य को ज़ेहन ज़रूर रखना चाहिए।
चूंकि सुप्रीम कोर्ट
ने अभिनेता संजय दत्त को मोहलत देने से इनकार करते हुए उन्हें सरेंडर की सलाह दी
है। हालांकि इस सच को नहीं भूलना चाहिए कि संजू बाबा पर शुरू से हर कोई मेहरबान रहा
है। अब चूंकि उनका सज़ा की अवधि शुरू हो रही है सो आगे इस बात की पड़ताल की जा रही
है कि संजय को “रूलिंग क्लास का आदमी” होने का कहां-कहां फ़ायदा मिला और किस-किस ने उन पर मेहरबानी की बरसात की। 12
मार्च 1993 से 15 मई 2013 के दौरान संजय दत्त से जुड़े इस मामले पर ग़ौर करने के
बाद ये साफ़ हो जाता है कि अभिनेता पर मेहरबानियों की बरसात शुरू से हो रही है। यह
सिलसिला तब शुरू हुआ जब पहली बार उनका नाम बमकांड में सामने आया और यह अभी पिछले
महीने तक जारी रहा जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें चार हफ़्ते की मोहलत दे दी
थी।
पहली मेहरबानी मुंबई
पुलिस की ओर से तब हुई जब बमकांड में सज़ायाफ़्ता इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ
बाबा ने 3 अप्रैल 1993 को संजय का नाम लिया। बाबा ने ख़ुलासा किया कि इस साज़िश में
एक बहुत बड़ी मछली शामिल है जिसका नाम सुनकर लोगों के होश उड़ जाएंगे। जब बाबा ने
हैवीवेट कांग्रेस सांसद सुनील दत्त के बेटे संजय दत्त का नाम लिया तो विशेष जांच
टीम के मुखिया राकेश मारिया भी हतप्रद रह गए। किसी ने सोचा भी न था कि पदयात्रा
करने वाले “शांति के पुजारी” का बेटा बम धमाके की साज़िश का हिस्सेदार हो सकता
है। बहरहाल, मुन्नाभाई पर मेहरबानी हुई और तत्कालीन पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह
सामरा ने मारिया को संजय का घर रेड करने की इजाज़त नहीं दी। हालांकि बाद में
खुलासा हुआ कि इसके पीछे राजनीतिक वजह थी क्योंकि संजय के पिता कांग्रेस के लॉमेकर
थे। सूबे में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी। और काग्रेस के लोकप्रिय सांसद
सुनील दत्त की पार्टी के आला नेताओं से अच्छी ट्यूनिंग थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल
1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय गिरफ़्तार कर लिए गए। लेकिन गिरफ़्तारी के बाद
उनसे पुलिस बेहद शराफ़त से पेश आई। यह भी पुलिस की ओर से की गई मेहरबानी थी
क्योंकि रात में संजय को अफ़सर के केबिन में रखे सोफ़े पर सोने की इजाज़त दी गई।
उनको आरोपी की तरह नहीं, राजनेता के बेटे की तरह पूछताछ की यानी उनसे थर्ड डिग्री इंटरोगेशन
नहीं हुआ। हालांकि संजय ने “ईमानदारी” से एमएन सिंह (तत्कालीन
क्राइम ब्रांच प्रमुख) और मारिया को बता दिया कि दाऊद का भाई अनीस उनका दोस्त है
और दोनों की अकसर बातचीत होती रहती है। अनीस ने तीन एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स,
450 राउंड्स (गोली) और 20 हैंडग्रेनेड्स (हथगोले) का कन्साइनमेंट उनके पास भेजी।
संजय के मुताबिक प्रतिबंधित हथियारों की ख़ेप अनीस का आदमी अबू सालेम 16 जनवरी
1993 की सुबह उनके घर लेकर आया। सालेम के साथ समीर हिंगोरा और बाबा चौहान भी थे।
बहरहाल, तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के
साथ फिर संजय के घर आया और 2 एके-56 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां सालेम को
वापस लेकर गया। यानी संजय ने उसी आदमी (अनीस) से ग़ैरक़ानूनी तौर पर एके-56 राइफ़ल
मंगवाई जो बमकांड का मुख्य आरोपी था। दरअसल, दाऊद, आरोप पत्र के मुताबिक. ने 300
सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और संकड़ों की संख्या में ग्रेनेड,
मैगज़िन, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक पावडर आरडीएक्स 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993
के बीच कई खेप में रायगड़ के दिघी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई में भेजी। ये
काम एक अन्य मास्टर मांइंड टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा लेकर आए। हथियारों और
आरडीएक्स से भरा ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात रवाना हुआ।
कस्टम की टीम ने ट्रक को ट्रैप किया भी लेकिन आठ लाख रुपए रिश्वत मिलने पर उसे जाने
की इजाज़त दे दी। इस टीम के लोगों को टाडा के तहत सज़ा सुनाई गई है। बहरहाल, ट्रक
का सामान गुजरात के भरुच ज़िले में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में
छिपाया गया। यहां अंकलेश्वर में इस टीम में अबू सालेम शामिल हो गया। हथियारों को
पूर्व निर्धारित ठिकानों और लोगों तक पहुचाने की ज़िम्मेदारी सालेम को दी गई। 9
एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सड़क के रास्ते
मुंबई आया। सालेम ने अनीस के कहने पर उसी कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को
दी। यानी संजय ने 12 मार्च के धमाके के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़
नलवाला को मॉरीशस से फोन किया वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी।
इसके बावजूद, आतंकवाद
एवं विध्वंस निरोधक क़ानून (टाडा) जज ने संजय दत्त का वह क़बूलनामा स्वीकार कर
लिया जिसमें मुन्नाभाई ने कहा था कि वह असुरक्षित महसूस कर रहा था इसलिए उसने ये
घातक और ग़ैरक़ानूनी हथियार लिए। संजय दत्त और उनसे सहानुभूति रखने वाले शुरू से यह
तर्क दे रहे हैं कि मुंबई दंगों के समय उनको धमकियां मिल रही थी इसलिए संजय ने
अनीस से एके-56 मांगी। मतलब साफ़ है, जो लोग इन मुद्दे पर बेलौस टिप्पणी कर रहे हैं,
उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी ही नहीं। मतलब संजय के क़बूलनामे को स्वीकार
करना और मान लेना कि उनके परिवार को जानमाल का ख़तरा था, अभिनेता के लिए टाडा जज
की ओर से की गई अहम मेहरबानी थी।
दरअसल, गिरफ़्तार होने
के बाद संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बावजूद साल भर तक बेल नहीं मिली। ज़मानत
रद होने के बाद बेटे का जेल प्रवास साल भर से ज़्यादा खिंचने से सुनील दत्त विचलित
हो गए। वह हर पार्टी के नेता का चक्कर लगाने लगे। वह इसी दौरान धुर कांग्रेस
विरोधी शिवसेना नेता बाल ठाकरे के बंगले पर भी गए। उसी दौरान सेक्यूलर जमात लोगों
की ओर से यह शोर मचाया जाने लगा कि टाडा क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा
गया है कि टाडा क़ानून के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में सड़ रहे हैं
जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना भी नहीं। ऐसे लोगों के मामलों पर विचार करने के
लिए केंद्र सरकार ने नौकरशाहों और पुलिस अफ़सरों की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल
(अर्धन्यायिक) कमेटी का गठन किया गया। यहां संजय दत्त पर एक और बहुत बड़ी मेहरबानी
हुई। क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने सबसे पहले संजय को ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित” माना और उनके ज़मानत की सिफ़ारिश कर दी। लिहाज़ा संजय 18 महीने में ही जेल से
बाहर आ गए। जबकि इसी मामले में बाबा चौहान, मंज़ूर अहमद, यूसुफ़ नलवाला, समीर
हिंगोरा और हनीफ़ कड़ावाला जैसे लोगों को ज़मानत के लिए 5 साल या उससे अधिक
इंतज़ार करना पड़ा। इतना ही नहीं जिस 64 वर्षीय ज़ैबुन्निसा क़ादरी के घर में 2
एके-56 और हथियार 2 दिन रखे गए। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा और अदालत ने
उसे पांच साल की सज़ा सुनाई है। हालांकि कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर ज़ैबुन्निसा
ने तो उसे देखा तक नहीं जबकि संजय ने बॉक्स को खोला था और हथियार देखने के बाद
अनीस को फोन पर बताया भी कि “सामान” मिल गया। हैरानी वाली बात
यह है कि 12 मार्च 1993 को सीरियल ब्लास्ट की ख़बर सुनकर मॉरीसश में शूटिंग कर रहे
संजय डर गए और अपने मित्र नलवाला को फोन करके कहा कि उनके घर (बेडरूम) में रखी एक
56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट कर दे।
बहरहाल, सीरियल
ब्लास्ट की जांच का ज़िम्मा संभालने के बाद सीबीआई ने जाने या अनजाने कई ऐसे
फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल और केवल संजय दत्त को मिला। मसलन संजय की अनीस से
बातचीत के कॉल्स डिटेल्स को आरोप पत्र से ही अलग कर दिया। मुंबई पुलिस ने इस जुटाने
में कड़ी मेहनत की थी लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में डाल दिया। इस दस्तावेज़ से
आसानी से सिद्ध हो रहा था कि संजय का अनीस से बहुत घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल
संजय को दी गई वह दाऊद द्वारा रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे गए कन्साइन्मेंट के
साथ देश में लाई गई थी। यानी संजय उस आतंकवादी साज़िश का सीधे सीधे साझीदार हो
जाते क्योंकि दाऊद का भाई संजय के “टच” में थे। सीबीआई ने दूसरी और सबसे बड़ी मेहरबानी संजय पर सालेम
के ट्रायल को बमकांड के मुक़दमे से अलग करके की। जी हां, सालेम को भारत लाए जाने
के बाद उसके केस को बमकांड से अलग कर दिया गया। सीबीआई की ओर से तर्क दिया गया कि इससे
मुक़दमे की सुनवाई में अनावश्यक देरी से बचने के लिए किया गया। दरअसल, संजय और
दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था जो पुष्ट कर देता कि कम से कम संजय एके-56
लाने की साज़िश में शामिल था। यह सीबीआई या कहे कांग्रेस (सीबीआई की असली बॉस) की
ओर से संजय पर बड़ी मेहरबानी थी जिसने उन्हें कम से कम 10 साल की सज़ा से बाल-बाल
बचा लिया। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी ने 2002 में संजय की छोटा शकील बातचीत का
संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद भी उसे अभिनेता की बेल रद करने के लिए कोर्ट
को अप्रोच करना चाहिए था। इसे सीबीआई की संजय के लिए एक और एक और मेहरबानी कहा जा
सकता है।
केस के ट्रायल के
दौरान भी संजय को मेहरबानी का प्रतिसाद मिलता रहा और सालेम द्वारा लाई गई एके-56
राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत लंबी सज़ा मिली लेकिन संजय केवल आर्म्स
ऐक्ट के तहत दोषी माने गए और 6 साल की सज़ा सुनाई गई। सीबीआई इसके बाद भी संजय पर मेहरबानी
की बारिश करती रही और टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं
दी गई। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट में भी किसी माननीय जस्टिस ने सीबीआई से पूछा भी
नहीं कि एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा
पाने वाले के ख़िलाफ़ अपील क्यों नहीं की गई। उलटे देश की सबसे बड़ी अदालत ने संजय
दत्त की सज़ा एक साल और कम कर दी। अगर सुपुरीम कोर्ट ने संजय के वकीलों के लिए जवाब देना आसान नहीं होता।
जस्टिस मार्कंडेय
काटजू की अगुवाई में लोग संजय दत्त को “मानवीय” आधार पर माफ़ कर देने की
पैरवी कर रहे हैं, उनकी अपील महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास विचाराधीन है। यानी
बॉलीवुड स्टार पर जेल की सलाखों के पीछे मेहरबानी की बरसात अभी होती रहेगी और
इन्हीं मेहरबानियों के चलते संजय दत्त सज़ा पूरी होने से पहले ही अगर जेल से बाहर
आ जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। संजय दत्त पारिवारिक और सामाजिक नागरिक बन चुके
हैं। बड़ी बेटी रिचा के अलावा मान्यता से दो छोटे बच्चों के पिता हैं लेकिन जो
ग़ुनाह उनसे हुआ है उसकी कीमत तो उन्हें चुकानी ही पडेगी।
समाप्त
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