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सोमवार, 30 जून 2014

ग़ज़ल - कैसी है ज़िंदगी...?

कैसी है ज़िंदगी...?

बेतरतीब सा सफ़र है टुकड़ों में ज़िंदगी
देखना अभी कितनी बंटती है ज़िदगी.

लाख कोशिश की पर समेट नहीं पाया
हर क़दम पर देखो बिखरी है ज़िंदगी.

सोचा था मेहनत से गुज़र जाएगा जीवन
यहां तो उस तरह की है ही नहीं ज़िंदगी.

शर्तिया होगी मौत ऐसे जीवन से बेहतर
उसे भी आने नहीं देती कमबख़्त ज़िंदगी.

हे मां क्यों पढ़ा गई सतयुग का पाठ
देख तो हो गई है कैसी बदतर ज़िंदगी.

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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