हरिगोविंद विश्वकर्मा
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिल्ली में अपने कॉउंटरपार्ट अरविंद
केजरीवाल के साथ मंच साझा करते हुए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा और बिहार को
विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर दी। नीतीश ने कहा है कि बिहार का काम अब
विशेष पैकेज से नहीं चलने वाला है। इस पिछड़े राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया ही
जाना चाहिए, ताकि यहां उद्योग वगैरह लगाए जा सकें और रोज़गार पैदा किए जा सकें। नीतीश का
बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार को सवा लाख करोड़ रुपये का पैकेज और 40
करोड़ अतिरिक्त यानी कुल 1.65 लाख करोड़ रुपए का विशेष पैकेज देने की घोषणा के बाद
आया है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आज़ादी के बाद बिहार इतना कैसे पिछड़ गया कि उसे
विशेष पैकेज और विशेष दर्जा ज़रूरत पड़ रही है। आख़िर बिहार का देश के दूसरे राज्यों
की तरह नैसर्गिक विकास क्यों नहीं हो पाया। इसके लिए कौन-कौन लोग ज़िम्मेदार हैं?
अगर प्राचीनकाल में जाएं तो बिहार का भूभाग मगध साम्राज्य नाम से मशहूर था।
मगध सबसे शक्तिशाली और संपन्न साम्राज्यों में से एक था। यहीं से मौर्य वंश,
गुप्तवंश और अन्य
कई राजवंशों ने देश के अधिकांश हिस्सों पर राज किया। उसी आधार पर इस भूभाग की
संस्कृति गौरवशाली कही जाती थी। 12वीं सदी में बख़्तियार खिलजी ने बिहार पर
आधिपत्य जमा लिया। कई सदियों तक यह क्षेत्र हुमायूं, शेरशाह सूरी, अकबर के अधीन रहा। अकबर
ने बिहार का बंगाल में विलय कर दिया। बाद में सत्ता बंगाल के नवाबों के पास चली
गई। कुल मिलाकर अगर इतिहास पर यक़ीन किया जाए तो बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है।
आख़िर प्राचीनकाल और मध्यकाल में इतना समृद्ध रहा भूभाग समय के साथ विकास की रेस
में पिछड़ क्यों गया? प्राचीन और मध्यकाल को अगर छोड़ दें तो आधुनिक काल यानी आज़ादी मिलने के बाद 68
साल में इस राज्य का आर्थिक विकास दूसरे राज्यों की तरह क्यों नहीं हो पाया?
आज़ाद भारत में बिहार को उसकी जनसंख्या के मुताबिक केंद्र से उसी तरह मदद
मिलती रही जिस तरह दूसरे राज्यों को। हर साल योजना आयोग (जो अब ख़त्म किया जा चुका
है) पचास के दशक से अच्छी ख़ासी रकम बिहार को विकास के लिए देता रहा है। बिहार को
दी जाने वाली रकम में हर साल उसी तरह बढ़ोतरी की गई जिस तरह दूसरे राज्यों की। यह
बात योजना आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी से साबित हो जाती है। वेबसाइट के मुताबिक
बिहार को केंद्र से वित्तीय वर्ष 2007-08 में 10200 करोड़ रुपए, 2008-09 में 14500
करोड़ रुपए, 2009-10 में 16000 करोड़ रुपए, 2010-11 में 20000 करोड़ रुपए, 2011-12 में 24000 करोड़ रुपए और
2013-14 में 34000 करोड़ रुपए मिले। इस साल यह राशि 40 हज़ार करोड़ की जा चुकी है।
इसके अलावा बैकवर्ड रीजन ग्रांट फंड के रूप में अतिरिक्त 12000 करोड़ रुपए मिले थे
जिसमें से, नरेंद्र मोदी के अनुसार 8282 करोड़ रुपए बाकी पड़े हैं। यानी बिहार के नेता और नौकरशाह
इतने नकारा और भ्रष्ट रहे कि विकास के लिए मिले पैसे से कुछ नहीं कर सके। अगर आयकर
विभाग के डेटा को देखे तो 2013-14 के दौरान बिहार में टैक्स कलेक्शन 28 फ़ीसदी बढ़
गया जबकि राष्ट्रीय औसत 19 फ़ीसदी था। इसका मतलब बिहार के नेता, नौकरशाह, पुलिस और
प्रथम श्रेणी के सरकारी अफसरान समेत संपन्न तबक़ा अच्छा ख़ासा कमा रहा है।
कारोबारियों को छोड़ दें तो नेताओं और नौकरशाहों की आमदनी का स्रोत केंद्र से
विभिन्न मद पर मिलने वाले धन में हेराफेरी है। यानी यह बात सही है कि केंद्र से
मिलने वाले पैसे का 85-90 फ़ीसदी हिस्सा नेता-नौकरशाह और उनके आदमी ख़ुद हजम करते
रहे हैं। लेकिन राज्य और राज्य की बदनसीब जनता पिछड़ती रही है। आज ज़रूरत है,
इस बात की जांच की
कि बिहार के किसी नेता की हैसियत राजनीति में आने से पहले कैसी थी और आज कैसी है।
इसी तरह नौकरशाहों, पुलिस के आला अफ़सरों और प्रथम श्रेणी के सरकारी अफ़सरों की
संपत्ति की भी उनके आय के स्रोतों से मिलान की जानी चाहिए।
बिहार के राजनेता इतने भ्रष्ट है कि पूरा राज्य ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूब
गया है। भ्रष्टाचार के बारे में हर सर्वे और हर स्टडी में आमतौर पर बिहार नंबर एक
राज्य रहता है। यानी अब तक जो पैसे विकास के लिए मिले उसे नेता और नौकरशाह मिलकर
खा गए। हरियाणा के बाद बिहार देश का दूसरा राज्य है जहां पूर्व मुख्यमंत्री को ही
भ्रष्टाचार के मामले में सज़ा हो चुकी है। बिहार के कुख्यात चारा घोटाले में
सज़ायाफ़्ता लालूप्रसाद यादव फिलहाल ज़मानत पर जेल से बाहर है और नीतीश कुमार के
साथ चुनाव प्रचार कर रहे हैं। जिस राज्य का मुखिया ही भ्रष्टाचार में सज़ायाफ़्ता
हो उस राज्य को विशेष पैकेज या विशेष दर्जा देने पर भी वह विकास नहीं कर सकता,
क्योंकि विकास के
लिए मिले पैसे को ख़र्च करने वाले भ्रष्ट हैं। प्रधानमंत्री ने राज्य को सवा लाख
करोड़ विशेष पैकेज और 40 हज़ार करोड़ रुपए का जिस पैकेज का ऐलान किया है। ज़ाहिर
है, बिहार के भ्रष्ट और घाघ नेता और नौकरशाही इस धनराशि को भी उसी तरह डकार जाएंगे
जिस तरह अब तक डकारते रहे हैं।
बिहार बंगाल के रूप में ब्रिटिश इंडिया का वैसे ही हिस्सा था, जैसे दूसरे
राज्य थे। अंग्रेज़ों ने 1912 में बंगाल का विभाजन कर दिया और बिहार नाम का अलग
राज्य अस्तित्व में आ गया। 1935 में इसका एक हिस्सा अलग करके उसका नाम उड़ीसा रख
दिया गया। हालांकि स्वतंत्रता संग्राम में बिहार तो उत्तर प्रदेश से भी ज़्यादा
सक्रिय रहा। अफ्रीका से स्वदेश लौटकर महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने
आंदोलन के श्रीगणेश के लिए बिहार की धरती का चयन किया और सन् 1917-18 चंपारण नील
आंदोलन शुरू किया। चंपारण सत्याग्रह में महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद के
अलावा ब्रजकिशोर प्रसाद (जयप्रकाश नारायण के ससुर) और मुज़रूल हक़ समेत सैकड़ों
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हिस्सा लिया। इसके बाद सब के सब महात्मा गांधी के
नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े थे। बिहार में लोग फ्रीडम स्ट्रगल
में कितने ज़्यादा सक्रिय थे कि तीन साल पहले अगस्त 2012 में आई एक रिपोर्ट के
मुताबिक़, बिहार में उस साल (आज़ादी के 65 साल बाद) 23 हज़ार से ज़्यादा फ्रीडम फाइटर थे,
जिन्हें सरकार
विधिवत पेंशन और दूसरी सुविधाएं दे रही थी। इतने फ्रीडम फाइटर किसी दूसरे राज्य
में नहीं थे। इन ढेर सारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को देश के आज़ाद होने का
लाभ पेंशन और रेलवे में मुफ़्त एसी पास के रूप में मिल रहा था, लेकिन हक़ मारा गया
तो मासूम जनता का।
आज़ादी मिलने के बाद देश का पहला प्रधानमंत्री अगर उत्तर प्रदेश ने जवाहरलाल
नेहरू के रूप में दिया तो राष्ट्रपति पद बिहार के खाते में गया और डॉ. राजेंद्र
प्रसाद पहले राष्ट्रपति बने। आज़ादी के बाद दिल्ली की सत्ता पर आसीन होने वाली हर
सरकार में बिहार को भरपूर प्रतिनिधित्व मिलता रहा। बाबू जगजीवनराम, सत्यनारायण सिन्हा,
रामसुभाग सिंह,
ललित नारायण मिश्र,
केदार पांडेय,
बलिराम भगत,
जॉर्ज फर्नांडिस,
शरद यादव, लालूप्रसाद यादव,
नीतीश कुमार,
रामविलास पासवान,
यशवंत सिन्हा,
चतुरानन मिश्र,
रघुवंशप्रसाद सिंह,
रविशंकर प्रसाद और
शाहनवाज़ हुसैन जैसे धुरंधर नेता केंद्र में मंत्री रहे। अगर राज्य के शासन की बात
करें तो कृष्णा सिंह आज़ादी मिलने से पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री थे और वह सन् 1961
तक सीएम रहे। उसके बाद 54 साल में 22 नेता सीएम बने। इनमें 15 साल लालूप्रसाद यादव
ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी के साथ मिलकर शासन किया, मौजूदा सीएम नीतीश कुमार क़रीब 10
साल राज्य सरकार के मुखिया रहे। जगन्नाथ मिश्र के हाथ में भी शासन की बाग़डोर 6
साल तक रही। बाक़ी 19 लोग ने क़रीब 22 साल राज किया। सत्ता सुख भोगने वाले सभी
नेता जनता का हितैषी होने का दावा करते रहे। इसके बावजूद राज्य का दूसरे राज्यों
की तरह विकास नहीं हुआ। सवाल यह है कि फिर ये नेता शासन में रहकर कर क्या रहे थे
कि राज्य विकास की दौड़ में इतना ज़्यादा पिछड़ गया कि उसे विशेष पैकेज या विशेष
दर्जे की ज़रूरत पड़ रही है।
आज़ादी के बाद से ही राज्य विकास की दौड़ में पिछड़ गया और लगातार पिछड़ता ही
चला गया। इस पिछड़ेपन के लिए ज़ाहिर तौर पर जो लोग चीफमिनिस्टर हुए, वहीं सब
ज़िम्मेदार हैं। विकास की दौड़ में पिछड़ने का नतीजा यह हुआ कि बिहार के लोग
रोज़ी-रोटी कमाने के लिए मजबूरन दूसरे राज्यों में जाते हैं और वहां तमाम उत्तर
भारतीय लोगों की तरह वे भी तरह-तरह के अपमान सहते हैं। हालांकि प्राकृतिक रूप से
बिहार बेहद संपन्न राज्य है, क्योंकि गंगा राज्य के बीचोबीच बहती है। ज़्यादातर क्षेत्र
गंगा और उसकी सहायक नदियों के आसपास होने के कारण बेहद उर्वर और उपजाऊ हैं। बिहार
सरकार के कृषि विभाग की वेबसाइट के अनुसार राज्य का भौगोलिक क्षेत्र लगभग 93.60
लाख हेक्टेयर है जिसमें से केवल 56.03 लाख हेक्टेयर पर ही खेती होती है। हालांकि
राज्य में क़रीब 80 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। अगर सिंचाई के साधनों की
बात करें तो महज़ 43.86 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं। इस
कृषि प्रधान राज्य में शतप्रतिशत सिंचाई सुविधा होनी चाहिए थी, जो नहीं हैं। यह भी
राज्य के पिछड़ने की मुख्य वजह रही। लोगों का मुख्य आय स्रोत कृषि है, लिहाज़ा
कृषि के उपेक्षित होने से लोग दूसरी जगह पलायन करते हैं।
बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। बिहार के 10.41 करोड़ लोग 38 जिलों
के 45103 गांवों में रहते हैं। पीआईबी की वेबसाइट के मुताबिक़ प्रधानमंत्री ने विशेष
पैकेज में सबसे ज़्यादा पैसे 54713 करोड़ रुपए सड़क बनाने के लिए दिया है। सवाल यह
है कि सरकारी पैसा हजम करने के आदी हो चुके नैशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के
इंजीनियर सत्येंद्र दुबे (आईआईटी प्रोडक्ट) के हत्यारे राज्य में अच्छी सड़क बनने देंगे? गौरतलब है दुबे अच्छी सड़क बनावाने की कोशिश कर रहे थे कि 2003
में गया में उनकी हत्या कर दी गई। इस लूट-खसोट के चलते आज बिहार में खासकर देहाती
इलाक़ो में कायदे की सड़कें तक नहीं हैं। ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम ख़स्ताहाल है। उस
पर माफियाओं का क़ब्ज़ा है। पश्चिमी बिहार से लोग इलाज के लिए बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय के सर सुंदरलाल अस्पताल में आते हैं। यानी 68 साल में वहां हेल्थ का
भी बुनियादी ढांचा खड़ा नहीं किया जा सका। फिर पोलिकल लीडरशिप ने किया क्या?
इस देश में विशेष पैकेज और विशेष दर्जा देने का अनुभव बहुत बुरा है। 1948 में
जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया था। देश तब से कश्मीर को विशेष
पैकेज ही दे रहा है और कश्मीर का बहुमत अपने को देश का हिस्सा ही नहीं मानता।
विशेष पैकेज पर जीने की आदी हो चुकी जम्मू-कश्मीर सरकार इतनी निकम्मी है कि अपने
कर्मचारियों का वेतन भी नहीं दे पाती। देश से अलग होने की मांग करने वाले इस राज्य
में सरकारी कर्मचारियों के वेतन में राज्य सरकार का अंशदान केवल 14 फ़ीसदी होता है
जबकि 86 फीसदी हिस्सा केंद्र देता है जो पूरे देश से वसूला जाता है, लेकिन वही
देशवासी कश्मीर के विशेष दर्जे के चलते वहां ज़मीन तक ख़रीद नहीं सकता। इसलिए किसी
भी राज्य को विशेष पैकेज या विशेष राज्य का दर्जा देने से पहले विचार किया जाना
चाहिए कि वह राज्य विकास की दौड़ में क्यों पिछड़ गया। इसके पीछे कौन-कौन लोग
ज़िम्मेदार रहे। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री की घोषणा पर तंज
कसते हुए कहा कि आवाम से झूठे वादे करने के बाद अब मोदी बिहार की जनता को
सब्ज़बाग़ दिखा रहे हैं। राहुल को सीरियसली लिया जाए या नहीं, इस पर अलग-अलग राय हो
सकती है, लेकिन
यह सवाल उठना लाजिमी है कि बिहार को विशेष आर्थिक पैकेज क्यों दिया जाए?
समाप्त