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गुरुवार, 20 अगस्त 2015

बिहार को विशेष पैकेज या विशेष दर्जा क्यों?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिल्ली में अपने कॉउंटरपार्ट अरविंद केजरीवाल के साथ मंच साझा करते हुए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर दी। नीतीश ने कहा है कि बिहार का काम अब विशेष पैकेज से नहीं चलने वाला है। इस पिछड़े राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया ही जाना चाहिए, ताकि यहां उद्योग वगैरह लगाए जा सकें और रोज़गार पैदा किए जा सकें। नीतीश का बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार को सवा लाख करोड़ रुपये का पैकेज और 40 करोड़ अतिरिक्त यानी कुल 1.65 लाख करोड़ रुपए का विशेष पैकेज देने की घोषणा के बाद आया है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आज़ादी के बाद बिहार इतना कैसे पिछड़ गया कि उसे विशेष पैकेज और विशेष दर्जा ज़रूरत पड़ रही है। आख़िर बिहार का देश के दूसरे राज्यों की तरह नैसर्गिक विकास क्यों नहीं हो पाया। इसके लिए कौन-कौन लोग ज़िम्मेदार हैं?

अगर प्राचीनकाल में जाएं तो बिहार का भूभाग मगध साम्राज्य नाम से मशहूर था। मगध सबसे शक्तिशाली और संपन्न साम्राज्यों में से एक था। यहीं से मौर्य वंश, गुप्तवंश और अन्य कई राजवंशों ने देश के अधिकांश हिस्सों पर राज किया। उसी आधार पर इस भूभाग की संस्कृति गौरवशाली कही जाती थी। 12वीं सदी में बख़्तियार खिलजी ने बिहार पर आधिपत्य जमा लिया। कई सदियों तक यह क्षेत्र हुमायूं, शेरशाह सूरी, अकबर के अधीन रहा। अकबर ने बिहार का बंगाल में विलय कर दिया। बाद में सत्ता बंगाल के नवाबों के पास चली गई। कुल मिलाकर अगर इतिहास पर यक़ीन किया जाए तो बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है। आख़िर प्राचीनकाल और मध्यकाल में इतना समृद्ध रहा भूभाग समय के साथ विकास की रेस में पिछड़ क्यों गया? प्राचीन और मध्यकाल को अगर छोड़ दें तो आधुनिक काल यानी आज़ादी मिलने के बाद 68 साल में इस राज्य का आर्थिक विकास दूसरे राज्यों की तरह क्यों नहीं हो पाया?

आज़ाद भारत में बिहार को उसकी जनसंख्या के मुताबिक केंद्र से उसी तरह मदद मिलती रही जिस तरह दूसरे राज्यों को। हर साल योजना आयोग (जो अब ख़त्म किया जा चुका है) पचास के दशक से अच्छी ख़ासी रकम बिहार को विकास के लिए देता रहा है। बिहार को दी जाने वाली रकम में हर साल उसी तरह बढ़ोतरी की गई जिस तरह दूसरे राज्यों की। यह बात योजना आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी से साबित हो जाती है। वेबसाइट के मुताबिक बिहार को केंद्र से वित्तीय वर्ष 2007-08 में 10200 करोड़ रुपए, 2008-09 में 14500 करोड़ रुपए, 2009-10 में 16000 करोड़ रुपए, 2010-11 में 20000 करोड़ रुपए, 2011-12 में 24000 करोड़ रुपए और 2013-14 में 34000 करोड़ रुपए मिले। इस साल यह राशि 40 हज़ार करोड़ की जा चुकी है। इसके अलावा बैकवर्ड रीजन ग्रांट फंड के रूप में अतिरिक्त 12000 करोड़ रुपए मिले थे जिसमें से, नरेंद्र मोदी के अनुसार 8282 करोड़ रुपए बाकी पड़े हैं। यानी बिहार के नेता और नौकरशाह इतने नकारा और भ्रष्ट रहे कि विकास के लिए मिले पैसे से कुछ नहीं कर सके। अगर आयकर विभाग के डेटा को देखे तो 2013-14 के दौरान बिहार में टैक्स कलेक्शन 28 फ़ीसदी बढ़ गया जबकि राष्ट्रीय औसत 19 फ़ीसदी था। इसका मतलब बिहार के नेता, नौकरशाह, पुलिस और प्रथम श्रेणी के सरकारी अफसरान समेत संपन्न तबक़ा अच्छा ख़ासा कमा रहा है। कारोबारियों को छोड़ दें तो नेताओं और नौकरशाहों की आमदनी का स्रोत केंद्र से विभिन्न मद पर मिलने वाले धन में हेराफेरी है। यानी यह बात सही है कि केंद्र से मिलने वाले पैसे का 85-90 फ़ीसदी हिस्सा नेता-नौकरशाह और उनके आदमी ख़ुद हजम करते रहे हैं। लेकिन राज्य और राज्य की बदनसीब जनता पिछड़ती रही है। आज ज़रूरत है, इस बात की जांच की कि बिहार के किसी नेता की हैसियत राजनीति में आने से पहले कैसी थी और आज कैसी है। इसी तरह नौकरशाहों, पुलिस के आला अफ़सरों और प्रथम श्रेणी के सरकारी अफ़सरों की संपत्ति की भी उनके आय के स्रोतों से मिलान की जानी चाहिए।

बिहार के राजनेता इतने भ्रष्ट है कि पूरा राज्य ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूब गया है। भ्रष्टाचार के बारे में हर सर्वे और हर स्टडी में आमतौर पर बिहार नंबर एक राज्य रहता है। यानी अब तक जो पैसे विकास के लिए मिले उसे नेता और नौकरशाह मिलकर खा गए। हरियाणा के बाद बिहार देश का दूसरा राज्य है जहां पूर्व मुख्यमंत्री को ही भ्रष्टाचार के मामले में सज़ा हो चुकी है। बिहार के कुख्यात चारा घोटाले में सज़ायाफ़्ता लालूप्रसाद यादव फिलहाल ज़मानत पर जेल से बाहर है और नीतीश कुमार के साथ चुनाव प्रचार कर रहे हैं। जिस राज्य का मुखिया ही भ्रष्टाचार में सज़ायाफ़्ता हो उस राज्य को विशेष पैकेज या विशेष दर्जा देने पर भी वह विकास नहीं कर सकता, क्योंकि विकास के लिए मिले पैसे को ख़र्च करने वाले भ्रष्ट हैं। प्रधानमंत्री ने राज्य को सवा लाख करोड़ विशेष पैकेज और 40 हज़ार करोड़ रुपए का जिस पैकेज का ऐलान किया है। ज़ाहिर है, बिहार के भ्रष्ट और घाघ नेता और नौकरशाही इस धनराशि को भी उसी तरह डकार जाएंगे जिस तरह अब तक डकारते रहे हैं।

बिहार बंगाल के रूप में ब्रिटिश इंडिया का वैसे ही हिस्सा था, जैसे दूसरे राज्य थे। अंग्रेज़ों ने 1912 में बंगाल का विभाजन कर दिया और बिहार नाम का अलग राज्य अस्तित्व में आ गया। 1935 में इसका एक हिस्सा अलग करके उसका नाम उड़ीसा रख दिया गया। हालांकि स्वतंत्रता संग्राम में बिहार तो उत्तर प्रदेश से भी ज़्यादा सक्रिय रहा। अफ्रीका से स्वदेश लौटकर महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने आंदोलन के श्रीगणेश के लिए बिहार की धरती का चयन किया और सन् 1917-18 चंपारण नील आंदोलन शुरू किया। चंपारण सत्याग्रह में महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद के अलावा ब्रजकिशोर प्रसाद (जयप्रकाश नारायण के ससुर) और मुज़रूल हक़ समेत सैकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हिस्सा लिया। इसके बाद सब के सब महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े थे। बिहार में लोग फ्रीडम स्ट्रगल में कितने ज़्यादा सक्रिय थे कि तीन साल पहले अगस्त 2012 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार में उस साल (आज़ादी के 65 साल बाद) 23 हज़ार से ज़्यादा फ्रीडम फाइटर थे, जिन्हें सरकार विधिवत पेंशन और दूसरी सुविधाएं दे रही थी। इतने फ्रीडम फाइटर किसी दूसरे राज्य में नहीं थे। इन ढेर सारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को देश के आज़ाद होने का लाभ पेंशन और रेलवे में मुफ़्त एसी पास के रूप में मिल रहा था, लेकिन हक़ मारा गया तो मासूम जनता का।

आज़ादी मिलने के बाद देश का पहला प्रधानमंत्री अगर उत्तर प्रदेश ने जवाहरलाल नेहरू के रूप में दिया तो राष्ट्रपति पद बिहार के खाते में गया और डॉ. राजेंद्र प्रसाद पहले राष्ट्रपति बने। आज़ादी के बाद दिल्ली की सत्ता पर आसीन होने वाली हर सरकार में बिहार को भरपूर प्रतिनिधित्व मिलता रहा। बाबू जगजीवनराम, सत्यनारायण सिन्हा, रामसुभाग सिंह, ललित नारायण मिश्र, केदार पांडेय, बलिराम भगत, जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव, लालूप्रसाद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, यशवंत सिन्हा, चतुरानन मिश्र, रघुवंशप्रसाद सिंह, रविशंकर प्रसाद और शाहनवाज़ हुसैन जैसे धुरंधर नेता केंद्र में मंत्री रहे। अगर राज्य के शासन की बात करें तो कृष्णा सिंह आज़ादी मिलने से पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री थे और वह सन् 1961 तक सीएम रहे। उसके बाद 54 साल में 22 नेता सीएम बने। इनमें 15 साल लालूप्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी के साथ मिलकर शासन किया, मौजूदा सीएम नीतीश कुमार क़रीब 10 साल राज्य सरकार के मुखिया रहे। जगन्नाथ मिश्र के हाथ में भी शासन की बाग़डोर 6 साल तक रही। बाक़ी 19 लोग ने क़रीब 22 साल राज किया। सत्ता सुख भोगने वाले सभी नेता जनता का हितैषी होने का दावा करते रहे। इसके बावजूद राज्य का दूसरे राज्यों की तरह विकास नहीं हुआ। सवाल यह है कि फिर ये नेता शासन में रहकर कर क्या रहे थे कि राज्य विकास की दौड़ में इतना ज़्यादा पिछड़ गया कि उसे विशेष पैकेज या विशेष दर्जे की ज़रूरत पड़ रही है।

आज़ादी के बाद से ही राज्य विकास की दौड़ में पिछड़ गया और लगातार पिछड़ता ही चला गया। इस पिछड़ेपन के लिए ज़ाहिर तौर पर जो लोग चीफमिनिस्टर हुए, वहीं सब ज़िम्मेदार हैं। विकास की दौड़ में पिछड़ने का नतीजा यह हुआ कि बिहार के लोग रोज़ी-रोटी कमाने के लिए मजबूरन दूसरे राज्यों में जाते हैं और वहां तमाम उत्तर भारतीय लोगों की तरह वे भी तरह-तरह के अपमान सहते हैं। हालांकि प्राकृतिक रूप से बिहार बेहद संपन्न राज्य है, क्योंकि गंगा राज्य के बीचोबीच बहती है। ज़्यादातर क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों के आसपास होने के कारण बेहद उर्वर और उपजाऊ हैं। बिहार सरकार के कृषि विभाग की वेबसाइट के अनुसार राज्य का भौगोलिक क्षेत्र लगभग 93.60 लाख हेक्‍टेयर है जिसमें से केवल 56.03 लाख हेक्‍टेयर पर ही खेती होती है। हालांकि राज्‍य में क़रीब 80 लाख हेक्‍टेयर भूमि कृषि योग्‍य है। अगर सिंचाई के साधनों की बात करें तो महज़ 43.86 लाख हेक्‍टेयर भूमि पर ही सिंचाई सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। इस कृषि प्रधान राज्य में शतप्रतिशत सिंचाई सुविधा होनी चाहिए थी, जो नहीं हैं। यह भी राज्य के पिछड़ने की मुख्य वजह रही। लोगों का मुख्य आय स्रोत कृषि है, लिहाज़ा कृषि के उपेक्षित होने से लोग दूसरी जगह पलायन करते हैं।

बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। बिहार के 10.41 करोड़ लोग 38 जिलों के 45103 गांवों में रहते हैं। पीआईबी की वेबसाइट के मुताबिक़ प्रधानमंत्री ने विशेष पैकेज में सबसे ज़्यादा पैसे 54713 करोड़ रुपए सड़क बनाने के लिए दिया है। सवाल यह है कि सरकारी पैसा हजम करने के आदी हो चुके नैशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के इंजीनियर सत्येंद्र दुबे (आईआईटी प्रोडक्ट) के हत्यारे राज्य में अच्छी सड़क बनने देंगे? गौरतलब है दुबे अच्छी सड़क बनावाने की कोशिश कर रहे थे कि 2003 में गया में उनकी हत्या कर दी गई। इस लूट-खसोट के चलते आज बिहार में खासकर देहाती इलाक़ो में कायदे की सड़कें तक नहीं हैं। ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम ख़स्ताहाल है। उस पर माफियाओं का क़ब्ज़ा है। पश्चिमी बिहार से लोग इलाज के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सर सुंदरलाल अस्पताल में आते हैं। यानी 68 साल में वहां हेल्थ का भी बुनियादी ढांचा खड़ा नहीं किया जा सका। फिर पोलिकल लीडरशिप ने किया क्या?

इस देश में विशेष पैकेज और विशेष दर्जा देने का अनुभव बहुत बुरा है। 1948 में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया था। देश तब से कश्मीर को विशेष पैकेज ही दे रहा है और कश्मीर का बहुमत अपने को देश का हिस्सा ही नहीं मानता। विशेष पैकेज पर जीने की आदी हो चुकी जम्मू-कश्मीर सरकार इतनी निकम्मी है कि अपने कर्मचारियों का वेतन भी नहीं दे पाती। देश से अलग होने की मांग करने वाले इस राज्य में सरकारी कर्मचारियों के वेतन में राज्य सरकार का अंशदान केवल 14 फ़ीसदी होता है जबकि 86 फीसदी हिस्सा केंद्र देता है जो पूरे देश से वसूला जाता है, लेकिन वही देशवासी कश्मीर के विशेष दर्जे के चलते वहां ज़मीन तक ख़रीद नहीं सकता। इसलिए किसी भी राज्य को विशेष पैकेज या विशेष राज्य का दर्जा देने से पहले विचार किया जाना चाहिए कि वह राज्य विकास की दौड़ में क्यों पिछड़ गया। इसके पीछे कौन-कौन लोग ज़िम्मेदार रहे। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री की घोषणा पर तंज कसते हुए कहा कि आवाम से झूठे वादे करने के बाद अब मोदी बिहार की जनता को सब्ज़बाग़ दिखा रहे हैं। राहुल को सीरियसली लिया जाए या नहीं, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन यह सवाल उठना लाजिमी है कि बिहार को विशेष आर्थिक पैकेज क्यों दिया जाए?

समाप्त

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

क्या बाल ठाकरे की याकूब मेमन से तुलना ठीक है?

क्या बाल ठाकरे की याकूब मेमन से तुलना ठीक है?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे की तुलना फ़ांसी पर लटकाए गए मुंबई सीरियल ब्लास्ट के अपराधी याकूब मेमन से करने पर देश में ख़ासा बवाल मच गया है। देश में आए दिन सेक्युलर जमात के बुद्धिजीवी इस्लामिक टेररिज़्म की तुलना कथित रूप से हिंदू टेररिज़्म से करते रहे हैं। उसी फिलॉसफी के तहत बाल ठाकरे की तुलना याकूब मेमन से की गई है। प्रथमदृष्ट्या यह तुलना निष्पक्षता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, क्योंकि याकूब को इस देश के सिस्टम और क़ानून (जो निष्पक्ष कहा जाता है) ने
257 लोगों की हत्या का दोषी माना और उसे आतंकवादी मानकर मृत्युदंड दिया। दूसरी ओर ठाकरे के ऊपर कई सीरियस आरोप लगते रहे, लेकिन सिस्टम और क़ानून ने उन्हें कभी दोषी नहीं माना। लिहाज़ा, याकूब और ठाकरे की तुलना अतिरंजनापूर्ण लगती है।

हालांकि, टेक्निकली ठाकरे भी एक तरह से हिंसा के समर्थक और उसके संरक्षक रहेउनको भगवान मानने वाले अनयायी उनके शब्दों को ही आदेश मानते थे। लिहाज़ा, भाषण या संपादकीय लिखते तो ठाकरे थे, लेकिन उसे एक्ज़िक्यूट शिवसैनिक करते थे। जिससे सार्वजनिक संपत्ति या मानव जीवन का नुक़सान होता था। फिर, जिस तरह की हिंसा के ठाकरे पैरोकार रहे, वह हिंसा आतंकवाद की भी जननी मानी जाती है। दरअसल, हिंसा में जब देश को निशाना बनाया जाने लगता हैं, यानी हिंसा करने वाले जब देश को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश करने लग है, तब वह देश उस हिंसा को आतंकवाद यानी टेररिज़्म की संज्ञा दे देता है। हिंसा के पैरोकार ठाकरे अपने को हिंदुओं का संरक्षक और पक्का देशभक्त मानते थे। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी उनके मुसलमानों क बारे में किए गए अशोभनीय कमेंट का यह कहते हुए संज्ञान नहीं लिया कि ठाकरे का कमेंट देश के प्रति साज़िश करने वालों के लिए है।

एक बार बाल ठाकरे से इंटरव्यू में पूछा गया था कि वह भारतीय मुसलमानों की इतनी ख़िलाफ़त क्यों करते हैं? तब ठाकरे ने कहा था, “मैं सारे मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं हूं, लेकिन यह पता लगाना बड़ा मुश्किल है कि किस मुसलमान के दिल में हिंदुस्तान है और किसके दिल में पाकिस्तान बसा है? हां, हिंदुस्तान में रहकर पाकिस्तान को दिल में रखने वालों के बेशक मैं ख़िलाफ़ हूं और यह बात कहने से डरता नहीं हूं। क्रिकेट या हॉकी मैच में भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की जीत पर ख़ुशियां मनाने वाले मुसलमान मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं।


भारत के इतिहास में ठाकरे को हिंसा और ख़ौफ़ की राजनीति करने वाला नेता माना जाता है। उनकी राजनीति शैली का बारीक़ी से विश्लेषण करें, तो वह कमोबेश उसी तरह की राजनीति करते लगते हैं, जिस तरह की राजनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते रहे हैं। वह शैली है, विरोधियों के मन में ख़ौफ़ पैदा करना। हिंदू नेताओं की यह शैली मुसलमानों को कभी रास नहीं आई। ठाकरे या मोदी भी अपवाद नहीं रहे। वैसे ठाकरे के मुक़ाबले मोदी ज़्यादा परिपक्व और डिप्लोमेटिक रह हैं। इसीलिए बहुत ज़्यादा बोलने की इमैज रखने के बावजूद अधिक सेंसेटिव इश्यूज़ पर मोदी ने चुप रहने क नीति अपनाई। इस नीति ने उनके लिए हमेशा ढाल का काम किया। वहीं ठाकरे कभी अपने भाषणों से, तो कभी शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय से सीधे विवाद में आ जाते थे। उनके 1987 के चुनावी भाषण के चलते ही 1999 में निर्वाचन आयोग ने उनका वोटिंग राइट छह साल के लिए छीन लिया था।

दरअसल, ठाकरे की क़रीब पांच दशक की राजनीति मूलतः हिंसा पर ही आधारित रही है। संयोग से नहीं बल्कि सुनियोजित तरीक़े से वह हिंसक पृष्ठिभूमि वाले मराठी युवकों को पार्टी से जोड़ते थे। उन्हें शाखा प्रमुख या पार्टी के दूसरे पद देते थे। बताया जाता है कि 1966 में पहली रैली में गए कार्यकर्ताओं ने शिवाजी पार्क दादर के एक दक्षिण भारतीय होटल में तोड़फोड़ की थी। उस समय ठाकरे की आक्रामक शैली के चलते ही वसंतराव नाइक ने मुंबई की मिलों में सक्रिय कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ उनका इस्तेमाल किया। जल्दी ही ठाकरे कांग्रेस को ही आंख दिखाने लगे। सत्तर के दशक के आरंभ में उनके निशाने पर दक्षिण भारतीय रहे। शिवसेना के पहले मेनिफेस्टों में शहर की हर समस्या के लिए दक्षिण के लोगों को जिम्मेदार ठहराया गया। दक्षिण भारतीयों की अवमामना करते हुए ठाकरे उन्हें 'येंडुगेंडुवाला कहते थे। बाद में व मुंबई की हर समस्या को लिए उत्तर भारतीयों को ज़िम्मेदार मानने लगे। इतना ही नहीं उत्तर भारतीयों के मुंबई आने पर रोक लगाने की असंवैधानिक मांग करने लगे। अपनी ख़ौफ़ पैदा करने की नीति के तहत ही ठाकरे इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन करते थे। हालांकि इसका फायदा उनको मिला और शिवसेना प्रतिबंध से बच गई। ठाकरे सार्वजनिक मंचों से हिटलर क भी प्रशंसा करते थे। मुंबई के इतिहास में जितना सफल बंद शिवसेना कराती रही है, उतनी दूसरी पार्टी नहीं करा सकती। इसीलिए कहा जाता है कि जिस बंद का समर्थन ठाकरे या शिवसेना कर दें, उसे सफल होना ही है। यह किसी आतंक से कम नहीं था।

राजनीतिक टीकाकारों को ठाकरे में बौद्धिक स्तर पर उतने स्पष्टवादी और परिपक्व नहीं लगे जितना होने चाहिए थे लेखक सुकेतु मेहता मुंबई पर चर्चित क़िताब मैक्सिमम सिटीः बॉम्बे लॉस्ट ऐंड फाउंडलिखने से पहले ठाकरे से मिले थे, लेकिन उनको ठाकरे अगंभीर नेता लगे दरअसल, ठाकरे महज 40 साल की उम्र में ही बिना किसी डिबेट से गुज़रे सीधे शिवसेना सुप्रीमो बन गए सुप्रीमो बनते ही वह चमचों से घिर गए। चमचे किसी भी नेता के व्यक्तित्व के विकास में बाधक होते हैं चमचे, नेता के सही को तो सही कहते ही हैं, उसके ग़लत को भी डर से सही कहने लगते हैं. इससे नेता अपनी ग़लत बात को भी सही मानने लगता है यह अप्रोच उसके बौद्धिक विकास में बाधक होता है। ठाकरे के साथ यही हुआ। चमचों ने उन्हें वैचारिक रूप से ग़रीब बनाए रखा। दरअसल, किसी भी नेता या पब्लिक लाइफ़ में उतरने वाले व्यक्ति को हर उस मंच का अनुभव होना ही चाहिए, जहां डिबेट होता है. यानी जहां उसका विरोध करने वाले लोग भी हों. ऐसे में नेता की बात का बारीक़ी से विश्लेषण होगा और उसे मुहतोड़ जबाव मिलेगा. तब नेता ख़ुद महसूस करेगा कि उसने कहां ग़लती की. कॉउंटर ल़जिक से वह सावधान होगा और अगली बार और होमवर्क करने के बाद अपनी बात रखेगा. इस प्रक्रिया से गुज़रते हुए वह नेता धीरे-धीरे परिपक्व यानी सीज़न्ड होता है. इसलिए, हर नेता का विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ना ज़रूरी होता है. अगर उसे हारने का डर हो तो वह विधानपरिषद या राज्यसभा में जा सकता है. लेकिन उसे वाद-विवाद वाल मंच ज़रूर शेयर करना चाहिए. ठाकरे अगर चुनाव लड़े होते, एसेंबली या पार्लियामेंट में डिबेट का अनुभव लिए होते तब ज़्यादा परिपक्व होते। उस दशा में वह शर्तिया देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते थे ठाकरे में हर वह क़ाबिलियत थी, जो राष्ट्रीय नेता में होनी चाहिए यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि भीमराव अंबेडकर के बाद महाराष्ट्र की धरती पर पैदा होने वाले ठाकरे अब तक के सबसे लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता रहे जैसे इस देश की जनता नरेंद्र मोदी पर यक़ीन कर लिया, एक बार बाल ठाकरे पर भी यक़ीन कर लेती तब शायद देश को प्रधानमंत्री देने का महाराष्ट्र के लोगों का सपना पूरा हो जाता।

दरअसल, इस देश में आज़ादी के बाद कांग्रेस की ग़लत पॉलिसी के कारण हिंदुओं का एक बहुत ही बड़ा वर्ग यह मानने लगा है कि उसके साथ पक्षपात हो रहा है। सेक्यूलिरज़्म के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पॉलिसी पर अमल किया जा रहा है। वामपंथियों के पतन की यही वजह रही। उस स्पेस को भरने का ठाकरे के पास सुनहरा मौक़ा था, लेकिन मराठी अस्मिता का क्षेत्रीय मुद्दा, चुनाव न लड़ने का बचकाना फ़ैसला और महाराष्ट्र से बाहर न जाने की उनकी नीति ने उन्हें सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता नहीं बनने दिया। इन तीनों मुद्दों के चलते ठाकरे महाराष्ट्र के नेता बन कर रह गए। जिस मौक़े को ठाकरे ने गंवाया, उसे मोदी ने लपक लिया और जब वह मैदान में उतरे तो हिंदुओं के इस नाराज़ तबके ने उन्हे सिर आखों पर बिठा लिया। यही वजह है कि मोदी ने वह कर दिखाया जो कोई हिंदूवादी नेता नहीं कर सका था।

बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि के विवादास्पद ठांचे को गिराए जाने के बाद मुंबई में दो खेप में हुए दंगे में ठाकरे की संदिग्ध भूमिका रही। जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ठाकरे की भूमिका पर उंगली उठाई थी। रिपोर्ट के मुताबिक़, ठाकरे किसी जनरल की तरह शिवसैनिकों को हमले का आदेश दे रहे थे। सामना में छपे उनके बयान दंगों की आग में घी का काम कर रहे थे। आयोग के मुताबिक दंगों में क़रीब 900 लोग मारे गए जिनमें 575 मुस्लिम और 275 हिंदू थे. घायल होने वालों की संख्या 2036 बताई गई थी। श्रीकृष्णा आयोग ने दंगों के लिए ठाकरे और सामना के अलावा मनोहर जोशी, मधुकर सरपोद्दार, गजानन कीर्तिकर, मराठी दैनिक नवाकाल और 31 पुलिस अफसरों को ज़िम्मेदार ठहराया था और 371 मामले फिर से खोलने और ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की सिफ़ारिश की थी। आयोग ने मुबंई पुलिस को भी कठघरें में खड़ा करते हुए कहा था कि पुलिस चाहती तो दंगों पर क़ाबू पा सकती थी। हालांकि शिवसेना-बीजेपी सरकार ने 1998 के बजट सत्र में रिपोर्ट को एसेंबली में पेश नहीं किया। तब के सीएम मनोहर जोशी ने रिपोर्ट मानसून अधिवेशन में पेश की और उसे नामंज़ूर कर दिया। हालांकि बाद में श्रीकृष्णा कमीशन रिपोर्ट इंप्लीमेंटेशन एक्शन कमेटी ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके रिपोर्ट के अनुसार कार्रवाई की मांग की गई। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। आयोग की रिपोर्ट पर कार्रवाई के आश्वासन पर कांग्रेस-एनसीपी 1999 में दोबारा सत्ता में लौटी पर रिपोर्ट पूरी तरह लागू ही नहीं की गई। अलबत्ता, ठाकरे को गिरफ़्ताज़रूर किया गया, लेकिन उन्हें फौरन ज़मानत मिल गई। मुंबई के एक अदालत के ठाकरे के ख़िलाफ़ मुक़दमे को ख़ारिज़ करने के बाद ऊंची अदालतों में मामला ले जाया गया। लेकिन बाद में यह मसला अप्रासंगिक और सेक्यूलर विचारधारा वालों का मुद्दा बनकर रह गया।

दरअसल, 23 जनवरी 1926 को जन्मे केशव सीताराम ठाकरे उर्फ प्रबोधनकार ठाकरे की चार संतानों में दूसरे बाल ठाकरे ने आरके लक्ष्मण के साथ अंग्रेज़ी दैनिक फ्री प्रेस जर्नल में 1950 के दशक के अंत में कार्टूनिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू किया था, लेकिन 1960 में उन्होंने कार्टून साप्ताहिक मार्मिक की शुरुआत करके एक नए रास्ते की तरफ क़दम बढ़ाया। मार्मिक में ऐसी सामग्री हुआ करती थी, जो मराठी मानुस में अपनी पहचान के लिए संघर्ष करने का जज्बा भर देती थी और इसी से शहर में प्रवासियों की बढ़ती संख्या को लेकर आवाज बुलंद की गई। ठाकरे ने 19 जून 1966 को शिवसेना की स्थापना करने के बाद मराठियों की तमाम समस्याओं को हल करने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उन्होंने मराठियों के लिए नौकरी की सुरक्षा मांगी, जिन्हें गुजरात और दक्षिण भारत के लोगों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था। मराठी मानुस की नब्ज वह बहुत अच्छी तरह समझ थे। वह अपने अनुयायियों से ज़्यादा घुलना-मिलना पसंद नहीं करते थे, इसलिए अपने बांद्रा के आवास मातोश्री की बालकनी से समर्थकों को दर्शन ेते थे। दशहरा की उनकी रैलमें उनके जोशीले भाषण सुनने लाखों की भीड़ उमड़ती थी। दक्षिणपंथी विचारधारा के मराठी उन्हें बालासाहेब भी कहते थे। शिवसेना ने सामना के हिंदी सस्करण दोपहर का सामना अखबार भी निकाला। ंद्रसेनीय कायस्थ प्रभ परिवार के ठाकरे ने 17 नवंब2012 को मुंबई में दोपहर बाद 3 बजकर 33 मिनट पर अंतिम सास ली। उनकी अंताम यात्रा में 20 लाख लोग शामिल हुए

वैसे ठाकरे के अपने सैनिकों को हिंसा का सहारा लेने की सलाह देने को ग़लत न मानने वाले बहुत से मध्यवर्गीय मराठी भाषी लोग ठाकरे की तुलना याकूब से करने पर आपत्ति जताते हैं। ठाकरे की शैली की कॉपी करने की कोशिश करने वाले राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की ओर से ठाकरे-याकूब तुलना का वैधानिक तरीक़े से विरोध किया जा रहा है। हालांकि यह पार्टी इस तरह के विरोध के लिए नहीं हिंसक विरोध के लिए जानी जाती है।

समाप्त

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

क्या सचमुच भारत गुलाम था, जो आजाद हुआ?


पूरा देश बड़े ज़ोर-शोर और उत्साह से हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। जो भी नेता देश का प्रधानमंत्री होता है, वह लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहराकर टीवी देखने वाली जनता को एड्रेस करता है। उसका भाषण दूर-दराज के इलाक़ों में रेडियो पर सुना जाता है और जो लोग उससे भी वंचित रहते हैं, वे दूसरे दिन अख़बार में यह सब पढ़ते हैं। हर पीएम दरअसल आदर्शवादी बातें करता है। सबसे बड़ी बात, उसकी किसी घोषणा पर अमल नहीं होता और, अगर किसी पर होता भी है, तो उससे देश के आम लोगों को कोई फ़ायदा नहीं होता। 15 अगस्त, 1947 से यही सब चल रहा है। इतना ही नहीं देश में आज़ादी का जश्न मनाने के लिए हर साल अरबों-खरबों रुपए बहा दिए जाते हैं। लोगों को याद दिलाया जाता है कि हम कभी ग़ुलाम थे, अंग्रज़ों के ग़ुलाम। इसी दिन सवा दो सौ साल से ज़्यादा समय तक रही उस ग़ुलामी से आज़ाद हुए। कांग्रेस और सेक्यूलर विचारधारा के लोग इस आज़ादी का क्रेडिट महात्मा गांधी ऐंड कंपनी को देते हैं, तो अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले लोग सुभाषचंद्र बोस, सावरकर और भगत सिंह वगैरह को इसका श्रेय देते हैं।

आज़ादी-आज़ादी चिल्लाने और इतना तामझाम करने से आम आदमी के मन में कभी-कभी सवाल उठता है कि क्या सचमुच भारत ग़ुलाम था? क्या वाक़ई अंग्रेज़ अत्याचारी थे? क्या वास्तव में हिंद महासागर की करोड़ों जनता, जैसा कि देशभक्ति थीम पर बनने वाली फिल्मों में दिखाया जाता है, को अंग्ज़ों ने ग़ुलाम यानी बंधक बना रखा था? सबके हाथ में हथकड़ी और पैर में बेड़ी डाल रखी थी। और 15 अगस्त को अचानक सब के सब आज़ाद हो गए। सच पूछो तो 14 अगस्त 1947 की रात सत्ता-हस्तांतरण हुआ था, न कि आज़ादी की घोषणा। हां, सत्ता-हस्तांतरण में ब्रिटिश इंडिया के दो टुकड़े कर दिए गए। विश्व मानचित्र पर इंडिया यानी भारत और पाकिस्तान नाम के दो राष्ट्र अस्तित्व में आए। ऐसे में सत्ता-हस्तांतरण को आज़ादी कहना क्या सही है? संतुलित सोचने और इतिहास की मामूली समझ रखने वाला आदमी हैरान होता है कि आख़िर अंग्रेज़ों के शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? आज भी सारा सिस्टम, पुलिस, ब्यूरोक्रेसी, ज्यूडिशियरी और क़ानून, आर्मी और गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही बनाया हुआ है, तब उनका शासन ग़ुलामी की प्रतीक कैसे हो सकता है?

यह भी सर्वविदित है कि अंग्रेज़ों का शासन ऐय्याश हिंदू सम्राटों-नरेशों और वहशी मुस्लिम सुल्तानों की तुलना में ज़्यादा सिविलाइज़्ड, लॉ-ओरिएंटेड और लॉ-अबाइडिंग था। जलियांवाला में फायरिंग की वारदात को अगर छोड़ दें, तो दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जब अंग्रेज़ों ने आम जनता पर कोई अत्याचार किया हो। हालांकि जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की 'हाउस ऑफ़ कॉमंस' ने निंदा की थी। विंस्टन चर्चिल की पहल पर हंटर कमीशन ने जांच की और ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत (डिमोट) करके कर्नल बना दिया गया था। उसे भारत में पोस्ट न देने का भी निर्णय लिया गया था। कहने का मतलब, अंग्रेज़ हर घटना के लिए किसी न किसी की जवाबदेही तय करते थे, जिसका स्वतंत्र भारत में नामोनिशान नहीं दिखता। फिर अंग्रेज़ी हुकूमत में सभी आदेशों का पालन यहां के स्थानीय लोग ही करवाते थे, जैसे आजकल पुलिस या सरकारी कर्मचारी करते हैं। यानी जिस शासन में स्थानीय लोगों की भागीदारी हों, उस शासन को ग़ुलामी कैसे कहा जा सकता है?

अंग्रेज़ी शासन में सामाजिक परिस्थितियों का बारीक़ी से विश्लेषण करने पर साफ़ लगता है कि गोरों के सवा दो सौ साल की अवधि में हालात उतने ख़राब नहीं थे, जितने हिंदू-मुस्लिम शासकों के दो से ढाई हज़ार साल के शासनकाल में थे। मसलन, सभ्य समाज के लिए कलंक सती प्रथा चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से जारी थी। सती के नाम पर हर साल लाखों महिलाओं को उनके मृत पतियों की चिता पर ज़बरी ज़िंदा जला दिया जाता था। अंग्रेज़ सभ्य थे। उनको सती प्रथा नागवार और बर्बर लगी। स्त्री को इसलिए ज़िंदा जला देना, क्योंकि उसका पति मर गया, क्रूरतम घटना थी। यह जिसके भी शासन में हुआ, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता। इस जंगली प्रथा को अंग्रेज़ों ने सन् 1829 में पहले बंगाल में फिर अगले साल पूरे ब्रिटिश इंडिया के दूसरे हिस्से में क़ानून बनाकर बंद कर दिया। भारत की संस्कृति को गौरवशाली कहने वाले कुछ लोगों ने बेशर्मी का प्रदर्शन करते हुए सती प्रथा को रोकने के सरकार के फ़ैसले को प्रिवी कॉउंसिल में चुनौती दी, लेकिन प्रिवी कॉउंसिल के सदस्यों ने भी माना गया कि सती प्रथा जैसी जंगली व्यवस्था जारी रखने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। उस समय दास प्रथा के रूप में एक और गंदी परंपरा थी। इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी। दासों को इंसान समझा ही नहीं जाता था। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों ने 1834 में लॉ कमीशन बनाया और उसकी सिफ़ारिश पर 1860 में इंडियन पैनल कोड बनाकर सदियों पुरानी दास प्रथा को भी ख़त्म किया। अंग्रजों ने आईपीसी में महिलाओं के साथ ज़बरी सेक्स की प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसा करने वाले पुरुषों को 376 सेक्शन के तहत रेप के आरोप में विधिवत सज़ा का प्रावधान किया। इससे पहले सती प्रथा, बहुतपत्नी प्रथा और दास प्रथा जैसी बुराइयों को संरक्षण देने वाले ही अपनी सुविधा के मुताबिक न्याय करते थे। जो किसी भी नज़रिए से न्याय नहीं होता था। आजकल जिस क़ानून से इंसाफ़ किया जाता है वह पूरा के पूरा आईपीसी को अंग्रेज़ों ने बनाया है।

गौरवशाली, स्वर्णकाल, सोने की चिड़िया और पता नहीं, क्या-क्या कहे जाने वाले प्राचीन और मध्यकाल में बहुपत्नीवाद की पाशविक व्यवस्था थी। पुरुष एक से ज़्यादा महिलाओं को बीवी बना कर रखता था। हिंदू-मुस्लिम शासक, राजा, सामंत, भूस्वामी, शासकों के दलाल और सत्ता का लाभ भोगने वाले लोगों के पास सेक्स के लिए कई दर्जन महिलाएं बीवी के रूप में होती थीं। ख़ुद चंद्रगुप्त मौर्य ने चार शादियां की थी। उसकी एक बीवी ग्रीक की राजकुमारी हेलेना भी थी। मुस्लिम शासकों की तो अनगिनत बीवियाँ होती थीं। उस समय हर राजा के पास एक रनिवास या हरम होता था। जहां रानी और चेरी के रूप में सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं और अनेक किन्नर होते थे। सभी राजाओं का जीवन कमोबेश लिबिया में दौड़ा-दौड़ा कर मारे गए ऐय्याश शासक मुअम्मर गद्दाफी जैसा था। सभी राजा, नरेश और सुल्तान तबीयत से विलासी थे। हरम में ऐसी भी तरुणियां होती थीं, जिनसे राजा एकाध बार ही सेक्स कर पाता था। शेष उम्र वे नारकीय जीवन जीती थीं और मनोरोगी हो जाती थीं। मतलब, जिन्हें इतिहास की क़िताबों में गर्व से नायक या महानायक कहा जाता है, वे नायक अथवा महानायक नहीं, बल्कि ऐय्याश और वहशी थे। उन्हें विकास नहीं, बल्कि सेक्स के लिए जवान लड़की चाहिए थी। अंग्रेज़ों ने क़ानून बनाकर आईपीसी 494 के तहत राजाओं के कई शादियां करने पर रोक लगा दी। जो बाद में हिंदू मैरिज एक्ट 1955 का आधार बना। दरअसल, पूरा प्राचीन और मध्यकाल का दौर औरतों के लिए त्रासदीपूर्ण था। महिलाओं और ग़रीबों को इंसान ही नहीं समझा जाता था। उस दौर में बाल-विवाह, छूआछूत व जातिवाद जैसी बुरी प्रथाएं अपने शबाबा पर थीं! कई कथित इतिहासकार भ्रम पैदा करने के लिए प्राचीनकाल में संस्कृति को गौरवशाली बताते हुए अंग्रज़ों के शासन को ग़ुलामी करार देते हैं, जबकि इस भूखंड पर संस्कृति कभी गौरव करने लायक रही ही नहीं।

कहने का मतलब सामाजिक मुद्दों पर अंग्रेज़ नौकरशाह हिंदू-मुस्लिम शासकों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील और दूरदर्शी थे। सबसे बड़ी बात अंग्रेज़ों ने अपने शासनकाल में विधिवत चुनाव भी करवाते थे। सन् 1920 के बाद कई बार चुनाव हुए, जिसमें अपने को स्वतंत्रता सेनानी कहने वाले कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदूवादी दलों के नेताओं ने शिरकत की थी। गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट के बाद 1937 के प्रॉविंशियल चुनाव में तो बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। अंतिम चुनाव आज़ादी से कुछ साल पहले कराया गया और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार भी बनी थी। अगर ग़ुलाम रहे होते तो क्या चुनाव में हिस्सा ले पाते? सरकार में शामिल हो पाते? यानी अंग्रेज़ के शासनकाल में देश में विधि का शासन था। जो क़ानून तोड़ता था, उसके ख़िलाफ़ बेशक कार्रवाई होती थी। क़ानून तोड़ने वालों के साथ आज भी वैसा ही सलूक होता है। ऐसे में सवाल उठता है, अंग्रेज़ों के इतने सभ्य शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? जबकि हर अंग्रेज़ शासक अपने देश की संसद हाउस ऑफ़ कॉमंस के प्रति जवाबदेह होता था।

सबसे अहम अंग्रेज़ों के यहां आने से पहले भारत या इंडिया जैसे किसी देश का अस्तित्व ही नहीं था। अगर इंडिया नाम का एक राष्ट्र आज अस्तित्व में है, तो इसका श्रेय केवल और केवल अंग्रेज़ों को जाता है। वर्ना इंडियन सब-कॉन्टिनेंट फ़िलहाल देश नहीं, यूरोप की तरह छोटे-छोटे अनगिनत राष्ट्रों का भूखंड होता। यह भी जानना रोचक होगा कि इंडिया शब्द का प्रादुर्भाव कहां से हुआ?

दरअसल, यूरोप के लोग ‘पश्चिम’ की ओर स्थित अमेरिका के आसपास के द्वीपों को ‘वेस्ट’ इंडीज़ कहते थे और उधर ही व्यापार करने के लिए जाते थे। कुछ यूरोपीय व्यापारी पूरब में स्थित द्वीपों पर भी जानते थे। लिहाज़ा, पूरब की ओर स्थित एशियाई द्वीप समूहो को पूर्वी द्वीप यानी ‘ईस्ट’ इंडीज़ कहने लगे। 15 वीं शबाब्दी में ही अंग्रेज़ व्यापारियों ने पूरब की ओर व्यापार के लिए जाने का मन बनाया और महारानी की अनुमति से पूरब में स्थित एशियाई द्वीप समूहों (ईस्ट इंडीज़) में कारोबार के लिए 31 दिसंबर सन् 1600 को आख़िरी दिन ईस्ट इंडीज शब्द से प्रेरित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई। वास्को डिगामा के 1498 में भारत (कालीकट) में क़दम रखने के बाद सौ साल में पुर्तगाल, हॉलैंड और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों के व्यापारी आज के भारत और दूसरे एशियाई देशों मे पांव जमाने लगे थे। लिहाज़ा, ब्रिटेन के राजा भी भी चाहते था कि उनके व्यापारी दुनिया के पूर्वी हिस्सें में कारोबार के लिए जाएं। बहरहाल ईस्ट इंडिया कंपनी 17वीं सदी के आरंभ में भारत पहुंची। 1617 में मुग़ल शासक नुरूद्दीन मोहम्मद सलीम उर्फ जहांगीर ने अंग्रेज़ों को व्यापार की इजाज़त दे दी। इस तरह अग्रेज़ों की व्यापारिक गतिविधियां शुरू हो गईं।

तक़रीबन सौ साल तक व्यापार करने के बाद, ख़ासकर औरंगज़ेब के शासनकाल के बाद देश का शासन किसी एक व्यक्ति के पास नहीं रहा। उस समय अंग्रेज़ व्यापारियों ने गौर किया कि हिंद महासागर का भूभाग साढ़े छह सौ से ज़्यादा रियासतों और सूबों में बंटा हुआ है। राजा एक दूसरे से ही लड़ रहे हैं। लड़ाइयां भी जनता के हित के लिए नहीं, बल्कि किसी सुंदरी को हासिल करने या सीमा-विस्तार के लिए लड़ी जा रही हैं। राजाओं की इस आपसी फूट को देखकर अंग्रेज़ों को लगा कि इस भूभाग को अपने नियंत्रण में लिया जा सकता है। बस ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुरक्षा का हवाला देकर निजी सेना का गठन किया। 1757 में प्लासी युद्ध में बंगाल नवाब सिराजुद्दौला और फ्रांसीसी सेना को हराने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आधिकारिक रूप से शुरू भी हो गया। बाद में राजाओं -सुल्तानों और नवाबों की आपसी फूट का फ़ायदा उठाकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक-एक करके सबको हरा दिया और अपने अधीन कर लिया। 19वीं सदी के शुरुआत में गोरों ने कमोबेश पूरे भूभाग पर क़ब्ज़ा कर लिया था। सन् 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया। लिहाज़ा, ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट और कंपनी शब्द हटाकर ब्रिटिश शब्द जोड़ दिया और इस भूखंड का नाम `ब्रिटिश इंडिया' हो गया जो अंततः एक देश बना। उसका शासन सीधे ब्रिटिश संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स से होने लगा।

अगर सोलह जनपदीय व्यवास्था को छोड़ दें तो प्राचीन भारत का इतिहास मोटा-मोटी मौर्यवंश (ईसा पूर्व 340) से शुरू होता है, लेकिन कभी भारत नाम का कोई देश अस्तित्व में नहीं रहा। चंद्रगुप्त ने मगध पर शासन किया। बाद में कई राजा हुए, जिन्होंने अलग-अलग समय पर अलग-अलग भूखंडों पर राज किया। यानी चंद्रगुप्त से हर्षवर्धन और पृथ्वीराज चौहान तक किसी को भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। आठवीं सदी में मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण का सिलसिला शुरू किया। उस दौर में जनता निरक्षर और ग़रीब होती थी, लेकिन हिंदू राजाओं के पास अपार दौलत होती थी। मंदिरों में भी स्वर्ण मूर्तियां समेत स्वर्ण भंडार होता था। यही दौलत लुटेरों को लुभाती थी। इसीलिए महमूद गजनवी ने धावा बोला और सोमनाथ मंदिर समेत कई धार्मिक स्थलों को लूटा। सोमनाथ पर आक्रमण के समय की एक कथा प्रचलित है, जब गडनवी सेना लेकर सोमनाथ पर आक्रमण किया तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि जैसे ही वह अपवित्र व्यक्ति मंदिर परिसर में घुसेगा, शिव भगवान उसे अपने नेत्रों से भस्म कर देंगे। लेकिन उनका भ्रमस तब टूटा जब गजनवी ने पूरा मंदिर लूट लिया। लुटेरे इसलिए कामयाब होते थे, क्योंकि राजा आपस में लड़ते थे और सेना में केवल राजपूत होते थे। बहरहाल, 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत के साथ यहां मुस्लिम शासन का आग़ाज़ हुआ। उस समय कई हिंदू राजाओं का भी शासन था। सारे राजा या सुल्तान एक दूसरे से लड़ रहे थे। 16वीं सदी के आरंभ में इब्राहिम लोदी के राज में ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने आक्रमण किया। वह लूटने के मकसद से आया था, पर पानीपत युद्ध में लोदी का सिर क़लम करने के बाद उसे लगा कि यहां लंबे समय तक राज किया जा सकता है। उसने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। बाबर के बाद हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगज़ेब उसके उत्तराधिकारी रहे। मुग़लों का राज्य बहुत बड़ा था, परंतु उन्हें बराबर कई हिंदू, मराठा, राजस्थानी या सिख राजाओं से चुनौती मिलती रही। यानी पूरे हिंद सब-कॉन्टिनेंट पर प्राचीन काल की तरह मध्यकाल में भी कभी किसी एक सुल्तान का क़ब्ज़ा नहीं रहा। यानी कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर अंतिम मुग़ल सुल्तान बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय तक किसी को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता।

अगर प्रशासनिक नज़रिए से देखें तो ब्रिटिशकाल की किसी से तुलना ही नहीं हो सकती। राजा-सुल्तान जीवन भर मंदिर, मस्जिद, स्मारक और मक़बरे ही बनवाते रहे। जो पुजारी एवं मौलवी जैसी जाहिल-काहिल क़ौम का अड्डा बन जाता था। अस्पताल, कॉलेज या यूनिवर्सिटीज़ यहां अंग्रेज़ों ने उन्नीसवीं सदी ही बनवाए। कभी-कभी लगता है कि अंग्रेज़ आ गए, तो यहां के लोग पढ़-लिख लिए, नहीं तो अब तक गुरुकुल या मदरसे में क्रमश: संस्कृत और उर्दू पढ़ रहे होते। फ़िरंगीकाल में नेचर ऑफ़ ऐडमिनिस्ट्रेशन बहुत बेहतर था। सच यह भी है कि यहां रेल, सेना, टेलीफोन, डाकघर, पुलिस, सड़क, बंदरगाह, पुल, इमारतें वगैरह अंग्रेज़ों ने ही बनवाए? मुंबई का उदाहरण लें तो यह भूभाग प्राचीनकाल से जस का तस पड़ा था। सात छोटे द्वीपों में उजड़ा पड़ा था। इस दौरान यह द्वीप समूह पहले हिंदू शासकों फिर मुसलमानों के अधीन रहा। 1534 में गुजरात सल्तनत ने मुग़लों के डर से इसे पुर्तगालियों को दे दिया। सन् 1661 में पुर्तगालियों ने इसे इंग्लैंड के चार्लस द्वीतीय की पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन की शादी के बाद अंग्रेज़ों को दहेज में दे दिया। अंग्रेज़ों ने इसे 1668 में ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज़ पर दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे डेवलप करके इसे बंदरगाह बनाया। यहां से व्यापारी जहाज आने जाने लगे। कोई सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे कॉमर्शिल हब बनाने का मिशन शुरू किया।

ज़ाहिर है, कॉमर्शिल हब के लिए लंबे-चौड़े भूखंड की ज़रूरत थी, लिहाज़ा, समुद्र को पाटने का फ़ैसाल किया गया और 1782 से समुद्र को रिक्लेम करने का महाअबियान शुरू किया गया जो पचास साल से भी ज़्यादा सममय तक चला। 19वीं सदी में रिक्लेम का कार्य पूरा हो गया। सातों द्वीपों को मिलाकर एक भूभाग बना दिया गया। इसके बाद यहां अस्पताल (किंग्स सीमेन्स हॉस्पीटल 1756), स्कूल (एल्फिंसटन हाईस्कूल 1822), रेलवे (1853), मिलें (बॉम्बे स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी ताड़देव 1856), कॉलेज (मुंबई यूनिवर्सिटी 1857), बिजली एवं ट्रांसपोर्ट (बेस्ट 1873) और कारोबारी गतिविधियां (बॉम्बे स्टॉक एक्चेंज 1875) शुरू हुईं, जिसके चलते मुंबई अहम व्यवसायिक केंद्र बन गया। यानी देश फिरंगी शासन में हिंदुओं-मुस्लमानों के शासनकाल से अधिक गति विकास कर रहा था।

अंग्रेज़ों के शासन से प्रजा को कोई कष्ट नहीं था। कह सकते हैं कि परिवहन का साधन हो जाने ले लोगों का जीवन और आजीविका आसान होने लगी। हां, क़ानून बनने और देश में विधि का शासन हो जाने से राजाओं-सुल्तानों और उनके दलालों की हालत बेशक ठीक नहीं थी, क्योंकि उनकी ऐय्याशी पर अंकुश लग गया। वे चाहते थे, सत्ता उनके पास रहे, ताकि निरंकुश होकर फिर से ऐय्याशी करें। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों का विरोध राजाओं-सुल्तानों के वारिसों के इशारे पर उनकी रोटी पर पलने वाले उनके दलालों ने शुरू किया और उसे स्वतंत्रता आंदोलन का नाम दे दिया। जबकि वह फ्रीडम स्ट्रगल नहीं, बल्कि पॉवर स्ट्रगल था। उस आंदोलन में विदेशों में पढ़े-लिखे संपन्न लोगों की भागीदारी थी। ज़मींदार व भूस्वामी उसमें इसलिए शामिल हुए क्योंकि उन्हें अपनी संपत्ति-ज़मीन की रक्षा करनी थी। आज आज़ादी का मज़ा भी वही ले रहे हैं। देश में पोलिटिकल फैमिलीज़ बन गई है। इन राजनीतिक परिवारों ने लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है। सबसे मज़ेदार बात कि आज़ादी मिलने का बाद भी गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही चल रहा है। जब सब कुछ वही रहना है तो फिर आज़ादी किस बात की। अगर मान ले कि अंग्रेज़ जनता को लूट रहे थे तो आज के नेता क्या कर रहे हैं।

सन् 1943 में ब्रिटिश सरकार ने हेल्थ सेवा के लिए नौकरशाह सर जोसेफ भोर की अध्यक्षता में एक कमिशन का गठन किया था, जिसने 1946 में रिपोर्ट दी। भोर कमिशन ने कहा, भारत में लोग इतना ग़रीब हैं कि इलाज के अभाव में असमय मर जाते है, लिहाज़ा, हेल्थ सर्विस उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। क्योंकि पैसे के अभाव में किसी नागरिक को अच्छी स्वास्थ सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता। अंग्रेज़ इस सिफ़ारिश को मान कर भारत में इलाज एकदम मुफ़्त करने वाले थे, तभी विश्वयुद्ध अपने चरम पर पहुंच हया था। विश्वयुद्ध के बाद महाशक्ति बने अमेरिका ने अंग्रेज़ों से पैकअप करने को कहा और अंग्रेज़ अपने उपनिवेश को छोड़कर जाने लगे।  1947 में भारत से भी चले गए, लेकिन उनके जाने के बाद आज़ाद भारत में जोसेफ भोर मुफ़्त हेल्थकेयर वाली रिपोर्ट को धरतीपुत्रों ने डस्टबिन में डाल दिया। इससे यह साबित होता है, कि ग़ुलाम जनता के लिए जितने चिंतित गोरे थे, उतनी अपनी सरकार नहीं थी। अंग्रेज़ जब देश को छोड़ रहे थे, तब देश पर एक पाई भी क़र्ज़ नहीं था, आज हर भारतीय पर औसतन 44 हज़ार रुपए से ज़्यादा क़र्ज़ है। इसी तरह अंग्रेज़ों के समय भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था, लेकिन आज एक डॉलर की कीमत 76 रुपए से ज़्यादा है। इन परिस्थितियों में ऐसे बहुत सारे लोग भी मिलेंगे, जो निःसंकोच कह देंगे कि इससे बेहतर को अंग्रेज़ों का शासन था। फिर गोरों के शासन को ग़ुलामी को संबोधन क्यों दिया जाता है, यहr समझ से परे है।