क्या बाल ठाकरे की याकूब मेमन से तुलना ठीक है?
हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना
संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे की तुलना फ़ांसी पर लटकाए गए मुंबई सीरियल ब्लास्ट के
अपराधी याकूब मेमन से करने पर देश में ख़ासा बवाल मच गया है। देश में आए दिन सेक्युलर
जमात के बुद्धिजीवी इस्लामिक टेररिज़्म की तुलना कथित रूप से हिंदू टेररिज़्म से
करते रहे हैं। उसी फिलॉसफी के तहत बाल ठाकरे की तुलना याकूब मेमन से
की गई है।
प्रथमदृष्ट्या यह तुलना निष्पक्षता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, क्योंकि याकूब को इस देश के सिस्टम और क़ानून
(जो निष्पक्ष कहा जाता है) ने
257 लोगों की हत्या का दोषी माना और
उसे आतंकवादी मानकर मृत्युदंड दिया। दूसरी
ओर ठाकरे के ऊपर कई सीरियस आरोप लगते रहे, लेकिन सिस्टम और क़ानून ने उन्हें कभी
दोषी नहीं माना। लिहाज़ा, याकूब और ठाकरे की तुलना अतिरंजनापूर्ण लगती है।
हालांकि,
टेक्निकली ठाकरे भी एक तरह से हिंसा
के समर्थक और उसके संरक्षक रहे। उनको भगवान मानने वाले अनुयायी
उनके
शब्दों को ही आदेश मानते थे। लिहाज़ा, भाषण या संपादकीय लिखते तो ठाकरे थे, लेकिन उसे
एक्ज़िक्यूट शिवसैनिक करते थे। जिससे सार्वजनिक संपत्ति या मानव जीवन का नुक़सान
होता था। फिर, जिस तरह की
हिंसा के
ठाकरे पैरोकार रहे, वही हिंसा आतंकवाद की भी जननी मानी जाती है।
दरअसल, हिंसा
में जब देश को निशाना बनाया जाने लगता हैं, यानी हिंसा करने वाले जब देश को नुक़सान
पहुंचाने की कोशिश करने लगते हैं, तब
वह देश उस हिंसा को आतंकवाद यानी टेररिज़्म की संज्ञा दे देता है। हिंसा के पैरोकार ठाकरे अपने को हिंदुओं का संरक्षक
और पक्का देशभक्त मानते थे। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी उनके मुसलमानों के बारे में किए गए अशोभनीय कमेंट का यह कहते हुए संज्ञान नहीं लिया कि ठाकरे का
कमेंट देश के प्रति साज़िश करने वालों के लिए है।
एक बार बाल ठाकरे से इंटरव्यू में पूछा गया था कि वह भारतीय मुसलमानों की इतनी ख़िलाफ़त क्यों करते हैं? तब ठाकरे ने कहा था, “मैं सारे मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं हूं, लेकिन यह पता लगाना बड़ा मुश्किल है कि किस मुसलमान के
दिल में हिंदुस्तान है और किसके दिल में पाकिस्तान बसा है? हां, हिंदुस्तान
में रहकर पाकिस्तान को दिल में रखने वालों के बेशक मैं ख़िलाफ़ हूं और यह बात कहने
से डरता नहीं हूं। क्रिकेट या हॉकी मैच में भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की जीत पर ख़ुशियां मनाने
वाले मुसलमान मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं।“
भारत के
इतिहास में ठाकरे को हिंसा और ख़ौफ़ की राजनीति करने वाला नेता माना जाता है। उनकी राजनीति शैली का बारीक़ी से विश्लेषण करें, तो वह कमोबेश उसी तरह की राजनीति करते लगते हैं, जिस तरह की राजनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी करते रहे हैं। वह शैली है, विरोधियों के
मन में ख़ौफ़ पैदा करना। हिंदू नेताओं की यह शैली मुसलमानों को कभी रास नहीं आई। ठाकरे या मोदी भी अपवाद
नहीं रहे। वैसे ठाकरे के मुक़ाबले मोदी ज़्यादा परिपक्व और डिप्लोमेटिक रहे हैं। इसीलिए बहुत
ज़्यादा बोलने की इमैज रखने के
बावजूद अधिक सेंसेटिव इश्यूज़ पर मोदी ने “चुप
रहने की” नीति अपनाई। इस
नीति ने उनके लिए हमेशा ढाल का काम किया। वहीं
ठाकरे कभी अपने भाषणों से, तो कभी
शिवसेना के
मुखपत्र सामना के संपादकीय से
सीधे विवाद में आ जाते थे। उनके 1987 के चुनावी भाषण के चलते ही 1999 में निर्वाचन
आयोग ने उनका वोटिंग राइट छह साल के लिए छीन लिया था।
दरअसल, ठाकरे की क़रीब पांच दशक की राजनीति मूलतः
हिंसा पर ही आधारित रही है। संयोग से नहीं
बल्कि
सुनियोजित तरीक़े से वह हिंसक पृष्ठिभूमि वाले मराठी युवकों को पार्टी से जोड़ते
थे। उन्हें शाखा प्रमुख या
पार्टी के दूसरे पद देते थे। बताया जाता है कि 1966 में पहली रैली में गए कार्यकर्ताओं ने शिवाजी
पार्क दादर के एक दक्षिण भारतीय होटल में तोड़फोड़ की थी। उस समय ठाकरे की आक्रामक शैली के चलते ही वसंतराव
नाइक ने मुंबई की मिलों में सक्रिय कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ उनका इस्तेमाल किया।
जल्दी ही ठाकरे कांग्रेस को ही आंख दिखाने लगे। सत्तर के दशक के आरंभ में उनके
निशाने पर दक्षिण भारतीय रहे। शिवसेना के पहले मेनिफेस्टों में शहर की हर समस्या
के लिए दक्षिण के लोगों को जिम्मेदार ठहराया गया। दक्षिण भारतीयों की अवमामना करते
हुए ठाकरे उन्हें 'येंडुगेंडुवाला’ कहते थे। बाद में वह मुंबई की हर समस्या को लिए उत्तर भारतीयों को
ज़िम्मेदार मानने लगे। इतना ही नहीं उत्तर भारतीयों के मुंबई आने पर रोक लगाने की असंवैधानिक मांग करने लगे। अपनी ख़ौफ़ पैदा करने की
नीति के तहत ही ठाकरे इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन करते थे। हालांकि इसका फायदा उनको
मिला और शिवसेना प्रतिबंध से बच गई। ठाकरे सार्वजनिक मंचों से हिटलर की भी प्रशंसा करते थे। मुंबई के इतिहास में जितना सफल बंद शिवसेना कराती रही है, उतनी
दूसरी पार्टी नहीं करा सकती। इसीलिए कहा जाता है कि जिस बंद का समर्थन ठाकरे या
शिवसेना कर दें, उसे सफल होना
ही है। यह किसी आतंक से कम नहीं था।
राजनीतिक
टीकाकारों को ठाकरे में बौद्धिक स्तर पर उतने स्पष्टवादी और परिपक्व नहीं लगे जितना होने चाहिए थे। लेखक सुकेतु मेहता मुंबई पर
चर्चित क़िताब “मैक्सिमम सिटीः बॉम्बे लॉस्ट ऐंड
फाउंड” लिखने से पहले ठाकरे से मिले थे,
लेकिन उनको ठाकरे अगंभीर नेता लगे । दरअसल, ठाकरे
महज 40 साल की उम्र में ही बिना किसी डिबेट से गुज़रे सीधे शिवसेना सुप्रीमो बन गए। सुप्रीमो बनते ही वह चमचों
से घिर गए। चमचे किसी भी नेता के व्यक्तित्व के विकास में बाधक होते हैं। चमचे, नेता के सही को तो सही कहते ही हैं, उसके ग़लत को भी डर से सही कहने लगते हैं.
इससे नेता अपनी ग़लत बात को भी सही मानने लगता है। यह अप्रोच उसके बौद्धिक विकास में बाधक होता है। ठाकरे के साथ यही हुआ। चमचों ने उन्हें
वैचारिक रूप से ग़रीब बनाए रखा। दरअसल, किसी भी नेता या पब्लिक लाइफ़ में उतरने
वाले व्यक्ति को हर उस मंच का अनुभव होना ही चाहिए, जहां डिबेट होता है. यानी जहां उसका विरोध
करने वाले लोग भी हों. ऐसे में नेता की
बात का बारीक़ी से विश्लेषण होगा और उसे मुंहतोड़
जबाव मिलेगा. तब नेता ख़ुद महसूस करेगा कि उसने कहां ग़लती की. कॉउंटर ल़ॉजिक से वह सावधान होगा और अगली बार और होमवर्क करने के बाद अपनी बात रखेगा. इस प्रक्रिया से
गुज़रते हुए वह नेता धीरे-धीरे परिपक्व यानी सीज़न्ड होता है. इसलिए, हर नेता का विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ना
ज़रूरी होता है. अगर उसे हारने का डर हो तो वह विधानपरिषद या राज्यसभा में जा सकता
है. लेकिन उसे वाद-विवाद वाला मंच
ज़रूर शेयर करना चाहिए. ठाकरे अगर
चुनाव लड़े होते, एसेंबली या पार्लियामेंट में
डिबेट का अनुभव लिए होते। तब
ज़्यादा परिपक्व होते। उस दशा में वह शर्तिया देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते
थे। ठाकरे में हर वह क़ाबिलियत थी, जो राष्ट्रीय नेता में होनी चाहिए। यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि भीमराव
अंबेडकर के बाद महाराष्ट्र की धरती पर पैदा होने वाले ठाकरे अब तक के सबसे
लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता रहे। जैसे
इस देश की जनता नरेंद्र मोदी पर यक़ीन कर लिया, एक बार बाल ठाकरे पर भी यक़ीन कर लेती। तब शायद देश को प्रधानमंत्री देने का
महाराष्ट्र के लोगों का सपना पूरा हो जाता।
दरअसल, इस देश में आज़ादी के बाद कांग्रेस की ग़लत
पॉलिसी के कारण हिंदुओं का एक बहुत ही बड़ा वर्ग यह मानने लगा है कि उसके साथ
पक्षपात हो रहा है। सेक्यूलिरज़्म के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पॉलिसी पर अमल
किया जा रहा है। वामपंथियों के पतन की यही वजह रही। उस स्पेस को भरने का ठाकरे के पास सुनहरा मौक़ा था, लेकिन मराठी अस्मिता का क्षेत्रीय मुद्दा, चुनाव न लड़ने का बचकाना फ़ैसला और महाराष्ट्र से बाहर न जाने की उनकी नीति
ने उन्हें सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता नहीं बनने
दिया। इन तीनों मुद्दों के चलते ठाकरे
महाराष्ट्र के नेता बन कर रह गए। जिस मौक़े को ठाकरे ने गंवाया, उसे मोदी ने लपक लिया और जब वह मैदान में
उतरे तो हिंदुओं के इस नाराज़ तबके ने उन्हे सिर आखों पर बिठा लिया। यही वजह है कि मोदी ने
वह कर दिखाया जो कोई हिंदूवादी नेता नहीं कर सका था।
बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि के विवादास्पद ठांचे को गिराए जाने के बाद मुंबई में
दो खेप में हुए दंगे में ठाकरे की संदिग्ध भूमिका रही। जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ठाकरे की भूमिका पर उंगली उठाई थी।
रिपोर्ट के मुताबिक़, ठाकरे किसी जनरल की तरह
शिवसैनिकों को हमले का आदेश दे रहे थे। सामना में
छपे उनके बयान दंगों की आग में घी का काम कर रहे थे। आयोग के मुताबिक दंगों में
क़रीब 900 लोग मारे गए जिनमें 575 मुस्लिम और 275 हिंदू थे. घायल होने वालों की
संख्या 2036 बताई गई थी। श्रीकृष्णा आयोग ने दंगों के लिए ठाकरे और
सामना के अलावा मनोहर जोशी, मधुकर
सरपोद्दार, गजानन
कीर्तिकर, मराठी
दैनिक नवाकाल और
31 पुलिस अफ़सरों को ज़िम्मेदार
ठहराया था और 371 मामले फिर से खोलने और ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की
सिफ़ारिश की थी। आयोग ने मुबंई पुलिस को भी कठघरें में खड़ा करते हुए कहा था कि
पुलिस चाहती तो दंगों पर क़ाबू पा सकती थी। हालांकि शिवसेना-बीजेपी सरकार ने 1998
के बजट सत्र में रिपोर्ट को एसेंबली में पेश नहीं किया। तब के सीएम मनोहर जोशी ने रिपोर्ट मानसून अधिवेशन
में पेश की और उसे नामंज़ूर कर दिया। हालांकि बाद में श्रीकृष्णा कमीशन रिपोर्ट
इंप्लीमेंटेशन एक्शन कमेटी ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके रिपोर्ट के अनुसार
कार्रवाई की मांग की गई। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। आयोग की
रिपोर्ट पर कार्रवाई के आश्वासन पर कांग्रेस-एनसीपी 1999 में दोबारा सत्ता में
लौटी पर रिपोर्ट पूरी तरह लागू ही नहीं की गई। अलबत्ता, ठाकरे को गिरफ़्तार ज़रूर किया
गया, लेकिन उन्हें फौरन ज़मानत मिल गई। मुंबई
के एक अदालत के ठाकरे के ख़िलाफ़ मुक़दमे को ख़ारिज़ करने के बाद ऊंची अदालतों में
मामला ले जाया गया। लेकिन बाद में यह मसला अप्रासंगिक और सेक्यूलर विचारधारा वालों
का मुद्दा बनकर रह गया।
दरअसल, 23 जनवरी 1926 को जन्मे केशव सीताराम ठाकरे उर्फ प्रबोधनकार ठाकरे
की चार संतानों में दूसरे बाल ठाकरे ने
आरके लक्ष्मण के साथ अंग्रेज़ी दैनिक फ्री प्रेस जर्नल में 1950 के दशक के अंत में
कार्टूनिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू किया था, लेकिन 1960 में उन्होंने कार्टून साप्ताहिक ‘मार्मिक’ की
शुरुआत करके एक नए रास्ते की तरफ क़दम बढ़ाया। मार्मिक में ऐसी सामग्री हुआ करती
थी, जो ‘मराठी मानुस’ में
अपनी पहचान के लिए संघर्ष करने का जज्बा भर देती थी और इसी से शहर में प्रवासियों
की बढ़ती संख्या को लेकर आवाज बुलंद की गई। ठाकरे
ने 19 जून 1966 को शिवसेना की स्थापना करने के बाद मराठियों की तमाम समस्याओं को हल करने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उन्होंने मराठियों के लिए
नौकरी की सुरक्षा मांगी, जिन्हें
गुजरात और दक्षिण भारत के लोगों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था। ‘मराठी मानुस’ की नब्ज़ वह बहुत
अच्छी तरह समझ थे। वह अपने अनुयायियों से
ज़्यादा घुलना-मिलना पसंद नहीं करते थे, इसलिए अपने
बांद्रा के आवास ‘मातोश्री’ की
बालकनी से समर्थकों को दर्शन देते थे। दशहरा की उनकी रैली में
उनके जोशीले भाषण सुनने लाखों की भीड़ उमड़ती थी। दक्षिणपंथी विचारधारा के मराठी उन्हें बालासाहेब भी कहते थे। शिवसेना ने सामना के हिंदी सस्करण दोपहर का
सामना अखबार भी निकाला। चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभु परिवार के ठाकरे ने 17 नवंबर 2012 को मुंबई में दोपहर बाद 3 बजकर 33
मिनट पर अंतिम सांस
ली। उनकी अंताम
यात्रा में 20 लाख लोग शामिल हुए।
वैसे ठाकरे के अपने सैनिकों को हिंसा का सहारा लेने की
सलाह देने
को ग़लत न मानने वाले बहुत से
मध्यवर्गीय मराठी भाषी लोग ठाकरे की तुलना
याकूब से करने पर आपत्ति जताते हैं। ठाकरे की शैली की कॉपी करने की कोशिश करने
वाले राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की ओर से ठाकरे-याकूब तुलना
का वैधानिक तरीक़े से विरोध किया जा रहा है। हालांकि यह पार्टी इस तरह के विरोध के
लिए नहीं हिंसक विरोध के लिए जानी जाती है।
समाप्त
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