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बुधवार, 6 सितंबर 2017

गौरी लंकेश की हत्या और वामपंथी मीडिया

हरिगोविंद विश्वकर्मा मानव हत्या बेशक अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात है। हत्या किसी अच्छे नागरिक की हो या फिर बुरे आदमी की, हत्या की भर्त्सना होनी ही चाहिए। दरअसल, हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशकीमती जान चली जाती है। एक इंसान का शरीर ही नष्ट हो जाता है। मानव हत्या को इंसान के जीने के अधिकार का गंभीर और क्रूरतम हनन भी माना जाता है, इसीलिए दुनिया भर के मानवाधिकार समर्थक इसी फिलॉसफी के तहत मानव हत्याओं को ग़लत मानते हैं और उनका विरोध करते हैं। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोच कर ही दहल उठता है। यही मानसिकता मानव को हत्या की वारदात को लेकर संवेदनशील बनाती है। इसीलिए जो लोग हत्याओं को अंजाम देते हैं यानी अपने जैसे ही किसी इंसान की हत्या करते हैं, वे मानव समाज से ख़ुद ब ख़ुद बाहर हो जाते हैं। हत्यारों को जानवर कहा जाता है, क्योंकि कोई जानवर ही कीसी की हत्या कर सकता है। हर प्राणी की हत्या तो नहीं, हां मानव हत्या को लेकर हर अच्छे नागरिक को संवेदनशील होना ही चाहिए। मीडिया को, ख़ासकर हत्या की वारदात, मारे गए व्यक्ति और हत्यारों की कवरेज करते समय ज़्यादा संवेदनशील होना चाहिए। मानव हत्या पर कोई तर्क-वितर्क नहीं होनी चाहि। एक स्वर से हत्या की भर्त्सना करनी चाहिए। इसी तरह में कन्नड़ पत्रकार और ऐक्टिविस्ट सुश्री गौरी लंकेश की हत्या की भी निंदा की जानी चाहिए। इस दुखद घटना पर विरोध दर्ज कराया जाना चाहिए। गौरी लंकोश कन्नड़ पत्रकार थीं, फिर भी लोग उनकी हत्या पर विरोध दर्ज करवा रहे हैं। वैसे गौरी लंकेश की हत्या की ख़बर जिसने सुनी उसने ही उसकी भर्त्सना की । गौरी लंकेश की हत्या निःसंदेह एक कायराना हरकत है। इस हत्या का हर भारतीय ही नहीं, थोड़ा भी संवेदनशील व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता। कैसे कोई किसी की हत्या का समर्थन कर सकता है। इसलिए जो लोग गौरी की हत्या पर आपत्तिजनक और गैरज़िम्मेदार कमेंट कर रहे हैं, वे लोग भी उतने ही निंदनीय हैं, जितने गौरी के हत्यारे। गौरी को इन पंक्तियों का लेखक भी उनकी हत्या से पहले नहीं जानता था। हो सकता है यह लेखक की अज्ञानता हो। लेकिन एक पत्रकार वह भी महिला पत्रकार की हत्या मन को व्यथित करने वाली बात है और लेखक इस हत्या से ख़ुद भी विचलित है। गौरी लंकेश या किसी व्यक्ति की हत्या पर हो हल्ला मचना स्वाभाविक है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। लिहाज़ा, गौरी लंकेश की हत्या की कवरेज करते समय या रिएक्शन देते ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे आम आदमी को लगे कि एक ख़ास वर्ग के लोगों की हत्या को लोकर मीडिया कुछ ज़्यादा ही मुखर हो जाती है। पिछले कुछ लाल के दौरान दुनिया में अनगिनत पत्रकार मारे गए हैं। भारत भी अपवाद नहीं है, यहां भी कलमकारों की आए दिन हत्या होती रहती है। ख़ुद कर्नाटक में भी कई पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। सवाल उठता है कि क्या सरकार ने हत्या के बाद किसी पत्रकार का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ कराया गया है? अगर बड़े और मेनस्ट्रीम पत्रकारों की बात करें तो मुंबई में ही बहुत बड़े पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जे डे) की हत्या कर दी गई थी, लेकिन उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ नहीं कराया गया। संयोग से उस समय महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी, जैसे आजकल कर्नाटक में कांग्रेस सरकार की है। फिर गौरी लंकेश का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ क्यों? जे डे की हत्या की मीडिया कवरेज हुई थी, परंतु इतनी नहीं जितनी गौरी लंकेश की हत्या की हो रही है। यह भेदभाव क्यों? कर्नाटक की काग्रेस सरकार ने गौरी का अंतिम संस्कार जिस तरह राजकीय सम्मान के साथ करवाया, उसमें हर किसी को राजनीति की बू आ रही है। सुश्री गौरी लंकेश की हत्या के प्रकरण में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि मीडिया, जिसे कई लोग वामपंथी मीडिया करार दे रहे हैं, (यह संकटपूर्ण है कि मीडिया अब मीडिया न रहकर वामपंथी और दक्षिणपंथी मीडिया हो गई है) जिस तरह से गौरी लंकेश की हत्या के लिए बीजेपी और केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं, उससे यह साफ़ लगता है कि इन लोगों ने गौरी के हत्यारों की शिनाख़्त कर ली है कि वे निश्चित रूप से बीजेपी के ही कार्यकर्ता थे। ऐसे में तो कथित वामपंथी मीडिया को सबूत पेश करना चाहिए, ताकि हत्यारों को कठोर सज़ा दिलाई जा सके। इस बात में दो राय नहीं कि बिना सबूत के किसी हत्या के लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराना भी एक तरह का आतंकवाद और गुंडागर्दी है। जो लोग यह कार्य कर रहे हैं, वे भी मानव हत्या जैसा ही काम कर रहे हैं। इस देश में पिछले कुछ साल से अनगिनत पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की हत्या हुई है, लेकिन गौरी की हत्या करते समय केवल और केवल दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी का ज़िक्र किया जा रहा है, क्योंकि ये लोग वामपंथी विचारधारा के लोग थे। किसी बहस में किसी पैनलिस्ट ने जेडे का नाम नहीं लिया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गौरी की हत्या उस राज्य में हुई है, जहां कांग्रेस का शासन है। लिहाज़ा, सबसे पहले कांग्रेस को कठघर में खड़ा किया जाना चाहिए था, लेकिन यह नहीं किया गया। बीजेपी विरोधी वामपंथी मीडिया गोरी की हत्या के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी पर दोषारोपण कर रही है। कई लोगों ने दमदार तर्क दिया है, कि गौरी लंकेश की हत्या बीजेपी क्यों करवाएगी। कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी सत्ता की प्रबल दावेदार है। ऐसे में वह उस पत्रकार की हत्या क्यों करवाएगी जो उसके ख़िलाफ़ लिख रही थी, क्योंकि कोई भी व्यक्ति उन्हें ही हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठाहरा देगा। जिसका निश्चित तौर पर चुनाव में नुकसान हो सकता है। ऐसे में कम से कम बीजेपी गौरी की हत्या करवाने के बारे में सोच ही नहीं सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि गौरी लंकेश की हत्या कांग्रेस ने करवाई, क्योंकि हत्यारे अज्ञात हैं। हां, अगर कांग्रेस के अतीत पर नज़र डाले तो वह इस तरह की हत्याएं करवाने में पटु रही है। ऐसे में इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि गौरी की हत्या के लिए कहीं न कहीं कांग्रेस ज़िम्मेदार तो है। गौरी लंकेश भाजपा और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ लिख रही थीं, इसलिए उनकी सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत थी, यह काम कांग्रेस ने नहीं किया। बहरहाल, हत्या की उच्चस्तरीय और निष्पक्ष जांच की ज़रूरत है। हालांकि सभी वामपंथी पत्रकार और अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाने वाले खालिद उमर को अपना बेटा मानने वाले अपूर्वानंद जैसे कथित बुद्धिजीवी हत्या के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अरे भाई, अगर गौरी लंकेश की हत्या बीजेपी द्वारा करवाने के कोई सबूत नहीं है तो कम से कम सबूत आने तक बीजेपी को बख़्श देना चाहिए था। कल को हत्यारे अगर बीजेपी से जुड़े नहीं मिले तो क्या करेंगे? दो तीन साल पहले उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार को समाजवादी पार्टी के मंत्री के गुंडों नेता ने ज़िंदा जला दिया था, तब वामपंथी मीडिया इतनी मुखर नहीं हुई थी। गौरी की हत्या पर मीडिया के मुखर होने का स्वागत करना चाहिए, लेकिन मुखर होने में भी अवसरवाद दिखे तो संदेह होता है। पिछले तीन साल से आम आदमी को कम से कम यह साफ़ लग रहा है कि प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ बोलने वाले व्यक्ति के साथ कुछ होता है या केंद्र सरकार की नीति के ख़िलाफ़ कोई कुछ बोलता है या कोई क़दम उठाता है तो तो मीडिया का एक तबका उसे लपक लेता है। अवार्ड वापसी की मुद्दा या आमिर ख़ान के बयान को मीडिया ने खूब उछाला। उपराष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद हामिद अंसारी ने जो बयान दिया उसे भी खूब उछाला गया। तो क्या यह कहा जाए कि मीडिया के एक तबके में ऐसे लोग बैठे हैं, जो प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पसंद नहीं करते और कोई भी मुद्दा इनके ख़िलाफ़ आता है तो उसे ख़ूब हवा देते हैं। क्या यही निष्पक्ष पत्रकारिता है?

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