हरिगोविंद
विश्वकर्मा
अगर चार राज्यों
में हुए विधान सभा चुनाव और उसके पहले के राजनीतिक परिवेश पर ग़ौर करें तो यही
लगता है कि कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले अपने अध्यक्ष राहुल
गांधी को प्रोजेक्ट करने में पूरी तरह सफल रही है। मध्यप्रदेश, राजस्थान,
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधान सभा के चुनाव नतीजे कांग्रेस की वापसी की कहानी कह
रहे हैं। इसमे दो राय नहीं कि चुनावों में राहुल गांधी ने न केवल कांग्रेस पार्टी में रिवाइव किया, बल्कि वह ख़ुद
को राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के मुक़ाबले स्टेब्लिश करने में भी सफल रहे हैं। प्रधानमंत्री
और उनकी सरकार पर जोरदार हमले के चलते कांग्रेस के फ़ायरब्रांड नेता के रूप में
उभरे राहुल गांधी ही अब अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र
मोदी को चुनौती देंगे।
यह कहने में कोई
गुरेज नहीं कि कांग्रेस अब मई 2014 वाली स्थिति से उबर कर बहुत ऊपर आ गई है। उसका
ग्राफ इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि भाजपा और उसकी पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के खेमे में कांग्रेस और राहुल गांधी को ख़तरे के रूप में देखा जाने लगा है। भाजपा
भली-भांति जानती है, कि राष्ट्रीय
स्तर पर उसे अखिलेश-तेजस्वी, पटनायक-नायडू, ममता-मायावती या पवार-केजरीवाल से कोई ख़तरा नहीं है। भगवा पार्टी को ख़तरा
केवल राहुल गांधी से है। अगर भविष्य में नरेंद्र मोदी को चुनौती मिली तो केवल राहुल
से ही मिलेगी। इसीलिए मोदी समर्थकों के निशाने पर सबसे ज़्यादा राहुल गांधी ही
रहते हैं। राहुल को उपहास का पात्र बनाने का कोई मौक़ा मोदी के समर्थक नहीं चूकते
हैं। फेसबुक, ट्विटर और व्हाटसअप
जैसे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर राहुल के बारे में थोक के भाव में चुटकुले रचे
जाते हैं और यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले राहुल
गांधी कहीं नहीं ठहरते, जबकि हक़ीक़त यह है
कि उदार और जेंटलमैन पॉलिटिशियन की छवि वाले राहुल मुक़ाबले में हैं।
यह सच है कि
राहुल को संभावित विकल्प बनता देखकर पिछले चार-पांच साल के दौरान उनके बारे में नकारात्मक
बातें बहुत ज़्यादा कही और लिखी गई हैं। भाजपा से सहानुभूति रखने वाले अब भी राहुल
गांधी को ऐसा अरिपक्व नेता बताते हैं, जो अब भी अपनी मां पर निर्भर है। ख़ुद नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में अपने काम
का ज़िक्र बिल्कुल नहीं करते हैं। वह कांग्रेस के कार्यकाल और कांग्रेस परिवार का
ज़िक्र करते हैं। बहरहाल, नकारत्मक पब्लिसिटी से निकाले गए निष्कर्ष सत्य से परे हैं,
क्योंकि ये निष्कर्ष केवल नकारात्मक पब्लिसिटी पर आधारित होते हैं। इसके विपरीत राहुल
बार-बार राफेल विमान सौदे की बात करके भाजपा को लगातार कठघरे में खड़ा करते रहे
हैं और पूछते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने राफेल विमान को कितने में ख़रीदा। मजेदार
बात यह है कि गोपनीयता का हवाला देते हुए सरकार और भाजपा के लोग राफेल का दाम नहीं
बता रहे हैं। यहां तक कि वित्तमंत्री अरुण जेटली जैसा तथ्यों की बात करने वाले
नेता राफेल के दाम में कम कीमत का परसेंट तो बता रहे हैं, लेकिन सही दाम नहीं बता
रहे हैं। इससे देश के आम आदमी के मन में शंका पैदा होती है कि कहीं न कहीं गड़बड़ी
जरूर है। अन्यथा अगर केंद्र सरकार ने राफेल को कांग्रेस से कम कीमत पर ख़रीदा होता
तो अब तक इसका इतना प्रचार प्रसार कर दिया जाता कि राफेल का दाम हर आदमी की ज़ुबान
पर होता।
चारों विधान सभा
चुनाव में राहुल गांधी बेहद सक्रिय रहे और प्रचार में उसी तरह जुटे रहे, जिस तरह नरेंद्र
मोदी 2014 से कर रहे हैं। यह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत हैं कि राहुल कांग्रेस
संगठन को पर्याप्त समय दे रहे है। इसी के चलते वह कांग्रेस में जान फूंकने में सफल
रहे हैं। राहुल के पक्ष में यह बात जाती है कि उनमें विपक्ष का नेता बनने के सारे नैसर्गिक
गुण हैं। सत्ता पक्ष में राहुल भले सफल न हुए, लेकिन विपक्ष में वह सफल हो सकते हैं, क्योंकि उनका तेवर ही विपक्षी नेता का है यानी
उनका नैसर्गिक टेस्ट सिस्टम विरोधी है। याद कीजिए, 2013 की घटना जब राहुल ने अजय माकन की प्रेस कांफ्रेंस में
पहुंचकर सबके सामने अध्यादेश को फाड़ दिया था। राहुल के कृत्य को सीधे
प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार की बेइज़्ज़ती माना गया था हालांकि राहुल की इस
मुद्दे पर तारीफ़ ही हुई थी।
आजकल राष्ट्रीय
स्तर पर केवल दो ही नेताओं की चर्चा हो रही है। या नरेंद्र मोदी या फिर राहुल
गांधी। यही तो कांग्रेस चाहती थी। कह सकते हैं कि यहां राहुल गांधी या कांग्रेस के
मैनेजर्स की अपनी रणनीति पूरी तरह सफल हो दिख रहे हैं, क्योंकि विपक्ष में बाक़ी
दल एक दो राज्य तक ही सीमित हैं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का जनाधार
केवल उत्तर प्रदेश में हैं, तो राष्ट्रीय जनता दल बिहार की पार्टी है। ममता की
तृणमूल का पश्चिम बंगाल के बाहर कोई अस्तित्व नहीं है, तो बीजू जनता दल को भी नवीन
पटनायक ने उड़ीसा से बाहर ले जाने की कोशिश ही नहीं की। यही हाल तेलुगु देशम, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तमिल पार्टियों और
वामपंथी दलों का है। भाजपा और कांग्रेस के मुक़ाबले खड़ा होने का माद्दा आम आदमी
पार्टी में ज़रूर था, लेकिन अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा ने इस पार्टी को
दिल्ली की क्षेत्रीय पार्टी बना दिया। मतलब इन दलों के नेता नरेंद्र मोदी को
राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देंगे, इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है।
इस देश की जनता
का टेस्ट ही ऐसा है कि यहां जुमलेबाज़ नेता के लिए हमेशा ज़बरदस्त स्कोप रहता है।
उसी जुमलेबाज़ी से जनता को रिझा कर नरेंद्र मोदी सत्ता में पहुंचे हैं। अगर कहें
कि राहुल गांधी अब मोदी की तरह जुमलेबाज़ी करने लगे हैं, तो अतिशयोक्ति या हैरानी नहीं होनी चाहिए। अभी हाल ही में
एक चुनाव सभा में राहुल ने कहा, "भाइयो और बहनों,
आपके पिताजी ने कुछ नहीं किया। आपके दादाजी ने भी कुछ नहीं किया। इतना ही नहीं
आपने परदादाजी ने भी कुछ नहीं किया।" यह मोदी की ही स्टाइल में उनको दिया गया जवाब था। छत्तीसगढ़ में राहुल ने
नरेंद्र मोदी का नाम लेकर कहा,
"मोदीजी आप दिन गिनकर रख
लें। कांग्रेस सत्ता में आई तो 10 दिनों के भीतर किसानों
का कर्ज माफ हो जाएगा और यह पैसा नीरव मोदी, विजय माल्या और अनिल
अंबानी के पास से आएगा।" राफेल का ज़िक्र करते हुए राहुल कहते हैं, "चौकीदार चोर है।" ऐसी ही जुमलेबाज़ी राहुल ने गुजरात विधानसभा चुनाव में की थी और जीएसटी को 'गब्बर सिंह टैक्स' का नाम दिया था। इससे पहले मोदी सरकार को 'शूट-बूट की सरकार' और उनकी योजनाओं को 'फेयर ऐंड लवली योजना' करार दे चुके हैं। यह सब जुमलेबाजी है। दरअसल, अब तक
ऐसी जुमलेबाज़ी केवल नरेंद्र मोदी ही करते रहे हैं। यानी जुमलेबाज़ी के मुद्दे पर
भी मोदी के सामने राहुल गंभीर चुनौती पेश करने लगे हैं।
राहुल गांधी के
संसद या संसद से बाहर दिए गए भाषणों पर अगर ग़ौर करें तो पाएंगे कि वह भी लिखा हुआ
भाषण नहीं पढ़ते। यानी लोगों को संबोधित करने की नैसर्गिक परिपक्वता अब उनमें आ गई
है, जो किसी बड़े नेता के लिए
बहुत ज़रूरी है। पब्लिक फोरा पर भी वह परिपक्व नेता की तरह बड़ी बेबाकी से हर
मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि राहुल का होमवर्क ठीकठाक ही
नहीं, देश के कई प्रमुख नेताओं
के मुक़ाबले बहुत ही अच्छा होता है। एकाध फ्लंबिंग को छोड़ दें, तो कम से कम वह बोलते समय ब्लंडर नहीं करते और
जेंटलमैन की तरह अपनी बात रखते हैं। वह जब भी बोलते हैं, अच्छा बोलते हैं। भाषण भी अच्छा और प्रभावशाली देते हैं।
लोकसभा में कई बार उन्होंने यादगार भाषण दिया भी है।
राहुल गांधी के
पक्ष में एक और बात जाती है कि वह गांधी वंशवाद के प्रतिनिधि हैं। 38 साल तक देश को प्रधानमंत्री देने वाले
नेहरू-गांधी खानदान के वह पुरुष वारिस हैं। भारत के लोग वंशवाद पर भी फ़िदा रहते
हैं। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव,
रामविलास पासवान, शरद पवार, बाल ठाकरे,
गोपीनाथ मुंडे, सिंधिया परिवार, अब्दुल्ला और सोरेन फैमिली, पटनायक और करुणानिधि
परिवार भारतीय नागरिकों की इसी गुलाम मानसिकता के कारण फलते-फूलते रहे हैं। ये
नेता जनता की इसी कमज़ोरी को भुनाकर अपने परिवार के लोगों को संसद और विधान सभा
में भेजते रहे हैं। दरअसल, सदियों से
खानदानी हिंदू राजाओं या मुस्लिम शासकों के शासन में सांस लेने के कारण यहां की
जनता ग़ुलाम मानसिकता की हो गई है। मूढ़ किस्म की इस जनता को वंशवाद शासन बहुत
भाता है। लिहाज़ा, इस तरह की भावुक
जनता के लिए राहुल गांधी सबसे फिट नेता हैं।