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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

घर हुआ सपना कांग्रेस-शासन में! (हरिगोविंद विश्वकर्मा)

घर हुआ सपना कांग्रेस-शासन में!
 हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई को सपनों का शहर कहा जाता है। माना जाता है कि यहां सपने पूरे होते हैं। इसीलिए देश के कोने-कोने से लोग अपने सपने संजोए यहां भागे चले आते हैं। लेकिन सपने साकार करने वाली नगरी क्या अब भी मुंबई सपने साकार करती है? बिना किसी भेदभाव के अब तक लोगों को रोटी कपड़ा और मकान देती आई मुंबई अब बदलने लगी है। इस हक़ीक़त से कोई भी असहमत नहीं होगा कि मुंबई ने अब अपना घरबनाने के सपने को साकार करना बंद कर दिया है। यानी मायानगरी में आशियाने का ख़याल ही सपना हो गया है। दरअसल, यह सब हुआ है कांग्रेस के 10 साल के शासन में। मुंबई ही नहीं देश के हर छोटे-बड़े शहर में रियल इस्टेस के भाव में दस गुना तक की बढ़ोतरी हुई है जिससे अब औसत आदमी के लिए घर बनाना किसी सपने जैसा हो गया है।

सन् 2004 तक मुंबई शहर तो नहीं, उपनगरों में ज़रूर घर ख़रीदना मुमकिन था। लोग-बाग बैंक से क़र्ज़ लेकर या मित्रों-रिश्तेदारों से मदद मांगकर किसी तरह सिर पर छांव बना लेते थे। क़रीब 225 वर्गफ़ीट क्षेत्रफल का घर तब चार-पांच लाख रुपए तक मिल जाता था। वन बेडरूम-हॉल-किचन (बीएचके) का सेट आठ से दस लाख में उपलब्ध था। लेकिन कांग्रेस की सरकार क्या बनी, रातोंरात सब कुछ बदल गया। घर के दाम में मानो पंख लग गए। चार-पांच लाख के फ़्लैटों की कीमत 10 साल में 35 से 40 लाख पहुंच गई। आठ से दस लाख के घर 75 से 90 लाख के हो गए। चूंकि लोगों की आमदनी में उस हिसाब से इज़ाफ़ा नहीं हुआ, लिहाज़ा महंगाई की मार झेल रहा आम आदमी घर खरीद ही नहीं सकता। कांग्रेस-रिजिम में बिल्डर और रियल इस्टेट कारोबारी जमकर फल-फूल रहे हैं। अब तो हालत यह हो गई है कि अगर आप किसी तरह कमा-धमाकर अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं तो मुंबई में रहने की तो कल्पना ही मत कीजिए। इतना ही नहीं आसपास के नगरों में रहने का भी ख़्वाब मत देखिए क्योंकि अब विरार-बोइसर या कल्याण-उल्हासनगर-टिटवाला में भी घर ख़रीदना आपकी हैसियत से परे हो गया है।

अभी कुछ महीने पहले बंगलुरु की फ़र्म नाइट फ़्रैंक इंडियाने देश में फ़्लैट की कीमतों पर सर्वे किया था। सर्वे के मुताबिक मुंबई में 30 फ़ीसदी अंडर-कंस्ट्रक्शन फ़्लैट्स की कीमत करोड़ रुपए से अधिक है जबकि 52 फ़ीसदी घरों के दाम 60-70 लाख से ऊपर। जो सस्ते घर उपलब्ध हैं उनमें ज़्यादातर स्लम रिडेवलपमेंट अथॉरिटी के 225 से 270 वर्गफ़ीट के रेंज के कम क्षेत्रफल के छोटे घर हैं, जिनकी कीमत 35-45 लाख के बीच है। अगर रिडेवलपमेंट योजना की बिल्डिंगों को छोड़ दें तो मुंबई में औसत इमारतों, यानी पांच, सात या नौ मंज़िल की बिल्डिंग, का निर्माण ही बंद हो गया है। अब हर जगह केवल और केवल गगनचुंबी टॉवर्स बनाए जा रहे हैं जो औसतन 25 से 40 और कोई-कोई 50 मंज़िल के हैं। देश की सबसे ऊंची इमारत भी मुंबई में ही बनाई जा रही है। इन बहुमंज़िली इमारतों में वन बीएचके सेट का कॉन्सेप्ट ही नहीं हैं। यानी जो फ़्लैट बन रहे हैं, उनमें सबसे छोटा घर दो बीएचके है, जिसकी न्यूनतम जगह 900 वर्गफ़ीट है।

दो साल पहले जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने सर्कुलर जारी किया कि बिल्डरों को सुपरबिल्टअप एरिया के मुताबिक नहीं, बल्कि कारपेट एरिया के हिसाब से फ़्लैट बेचने पड़ेगे। सरकार के फ़रमान से लोग ख़ुश हुए कि घर के दाम गिरेंगे। वे भी घर ख़रीद सकेंगे लेकिन हुआ उलटा। घर के दाम बढ़ते ही गए। मज़ेदार बता यह है कि नए सरकारी नॉर्म के मुताबिक आज की तारीख़ में सुपरबिल्टअप एरिया के हिसाब से घर बेचा नहीं जा सकता लेकिन यह फ़ाइलों की बात है। क़ानून बना दिया गया, पर ध्यान नहीं दिया गया कि उस पर अमल हो रहा है या नहीं। सरकार और नेताओं के आशीर्वाद से दिन दूना रात चौगुना तरक़्क़ी कर रहे बिल्डर कारपेट-एरिया की बजाय ग्राहकों से सुपरबिल्टअप का चार्ज ले रहे हैं। ग़ौर करने वाली बात है कि रजिस्ट्री कारपेट-एरिया पर ही हो रही है यानी बाक़ी टैक्सेज़ वगैरह कारपेट-एरिया पर ही लग रहे हैं।

मिसाल के तौर पर मुंबई के पश्चिमी उपनगर गोरेगांव में फ़िलहाल फ़्लैट के भाव 12 से 16 हज़ार रुपए प्रति वर्गफ़ीट के बीच है। यहां सबसे छोटे घर 900 वर्गफ़ीट कारपेट एरिया के हैं जिनका सुपरबिल्टअप क्षेत्रफल 1420 से 1450 वर्गफ़ीट के बीच है। ये फ़्लैट कारपेट भाव पर नहीं धड़ल्ले से सुपरबिल्टअप रेट पर बेचे जा रहे हैं। कारपेट-एरिया के अनुसार मौज़ूदा भाव से फ़्लैट की कीमत एक करोड़ से थोड़ा ज़्यादा (1 करोड़ 8 लाख) है। पर सुपरबिल्टअप दाम 1 करोड़ 74 लाख रुपए कर देता है। इस पर 9 लाख रुपए वेहिकल पार्किंग चार्ज लिया जाता है जो कि क़ानूनन मुफ़्त है। इसके अलावा दो साल की अवधि के लिए सोसाइटी चार्ज के रूप में 4 लाख रुपए (यानी लगभग 18 हज़ार रुपए प्रति माह) वसूला जाता है। इसमें आजकल 100 रुपए प्रति वर्गफ़ुट फ़्लोरराइज़ चार्ज भी लगने लगा है। यानी अगर 31वीं मंज़िल पर घर है तो 3100 रुपए प्रति वर्गफ़ुट के हिसाब से 38 लाख 75 हज़ार रुपए फ़्लोरराइज़ चार्ज लगेगा। मतलब ले देकर फ़्लैट की कीमत सवा दो करोड़ रुपए (2.225 करोड़) की सीमा को पार कर जाती है।

मज़ेदार बात यह है कि काग़ज़ पर फ़्लैट की कीमत कारपेट-एरिया के अनुसार ही होती है। बल्कि रेट को और भी कम कर दिया जाता है। मतलब घर की रजिस्ट्री बहुत कम दर पर होती है। कारपेट एरिया के अलावा बाक़ी क्षेत्रफल की जो भी धनराशि होती है उसका भुगतान कैश में होता है। दो करोड़ के फ़्लैट का औसतन व्हाइट-ट्रांज़ैक्शन केवल 80 से 85 लाख रुपए या उससे भी कम में होता है। यानी 60 फ़ीसदी से ज़्यादा धनराशि ब्लैकमनी होती है। रेवेन्यू और आयकर विभाग के लोग बिल्डरों के साथ मिलकर अपने ही विभाग को चूना लगाते हैं। कहा जा सकता है कि अंधेरगर्दी और लूट-खसोट के खेल में बिल्डरों के अलावा नेता, नौकरशाह, राजस्व अफ़सर, ब्यूरोक्रेट्स, सरकारी कर्मचारी, पुलिस, आयकर विभाग और बाक़ी एजेंसियों के लोग शामिल रहते हैं। यह तो मुंबई का उदाहरण है। पूरे देश में रियाल इस्टेट का मुंबई  फ़ॉर्मूला ही लागू है। कोई औसत आमदनी वाला आदमी घर खरीद कर दिखाए। पूरा जीवन बैंक का इंटरेस्ट भरते भरते गुज़ार जाएगा।

कांग्रेसी ज़ोर-शोर से कह रहे हैं कि देश तरक़्की कर रहा है। इनसे कौन पूछे कि तरक़्की का मतलब क्या नागरिकों को शहर से बाहर खदेड़ देना है। फिलहाल, काग्रेस यही कर रही हैं। आख़िर उस विकास का क्या मतलब जब आदमी घर ही न खरीद पाए। इतनी महंगाई में औसत आमदनी वाली आदमी कैसे रहेगा मुंबई जैसे शहर में? यानी देश की आर्थिक राजधानी में 10-20 हज़ार रुपए महीने कमाने वालों के लिए कोई ग़ुंज़ाइश ही नहीं रह गई है। वह घर के सपने तो देख सकता है लेकिन अपने देश और अपने शहर में ही घर नहीं खरीद सकता। ऐसे में अगर कहें कि इस विकसित भारत से बेहतर तो अपना पिछड़ा भारत ही था, जहां कम से कम आदमी थोड़ी कोशिश करके रोटी, कपड़ा और मकान तो जुटा लेता था। जिस देश में एक बड़ा तबक़ा दिन भर पसीना बहाने के बाद भी सौ रुपए न कमा पाता हो, वहां करोड़ों रुपए के घर की बात बड़ी अटपटी लगती है। लेकिन सच तो यही है।

समाप्त

मंगलवार, 4 मार्च 2014

राज ठाकरे से नितिन गडकरी की मुलाक़ात का मतलब?

राज ठाकरे से नितिन गडकरी की मुलाक़ात का मतलब?
मासूम उत्तर भारतीय बच्चों को मारने वालों को माफ़ी नहीं!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई, ठाणे और महाराष्ट्र के बाक़ी इलाक़ों में रहने वाले उत्तर भारतीयों सावधान हो जाओ। नौकरी के लिए परीक्षा देने आए तुम्हारे बच्चों को मुबई के रेलवे स्टेशनों, सड़कों और परीक्षा केंद्रों पर दौड़ा-दौड़ा कर पिटवाने वाले राज ठाकरे को भूलना नहीं। पिछले एक हफ़्ते में पूर्व बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी राज ठाकरे से दो बार मिले हैं। ये दोनों नेता बहुत अच्छे दोस्त हैं। यानी बीजेपी के रिजिम में भी राज ठाकरे प्रोटेक्टेड रहेंगे। उत्तर भारतीय लोगों के ख़िलाफ़ अपमानजनक कमेंट करते रहेंगे, ज़हर उगलते रहेंगे क्योंकि बीजेपी के मैनेजर गडकरी उनके दोस्त हैं।

हे उत्तरभारतीयों! अब तुम्हें तय करना है कि तुम्हारे अपने मासूम बच्चों की पिटने वालों, पिटवाने वालों और हमलावरों से दोस्ती रखने वालों को इस लोकसभा चुनाव में वोट देना है या नहीं? यक़ीन मानो जो लोग नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी या सेक्युलरिज़्म का हवाला देकर इन हमलावरों से दोस्ती गांठ रहे हैं। या इन हमलावरों से किसी भी तरह से जुड़े हैं। उनकी बातों में आना है या नहीं, यह तुम्हें ही तय करना है। निश्चित तौर पर अगर तुम्हारे अंदर का स्वाभिमान मरा नहीं है, उन बच्चों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटने का दृश्य नहीं भूले होगे तो तुम लोग इनको कतई वोट नहीं दोगो।

तुम्हारे बीच के वे नेता जो इन हमलावरों से जुड़े हैं, उनके दोस्त हैं, या उनके ख़ेमे में हैं, उनके अपने स्वार्थ हैं। उनके अपने स्वार्थ के आगे तुम्हारा हित कहीं ठहरता ही नहीं। इस बात को ज़ेहन में रखना। इसलिए इस तरह के अवसरवादी नेताओं से भी सावधान रहना क्योंकि ये अवसरवादी अपना हित साधने के लिए यानी विधायक, सांसद या मंत्री बनने के लिए तुम्हारा इस्तेमाल कर रहे हैं। यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं सत्ता के लालची ये स्वार्थी नेता उत्तर भारतीय समाज के लिए हमलावरों से भी ज़्यादा ख़तरनाक हैं। ये विभीषण की कैटेगरी में आते हैं।

उत्तर भारतीय छात्रों की पिटाई करवाने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे को कांग्रेस और बीजेपी दोनों प्रमोट कर रही हैं। कांग्रेस ने कभी राज ठाकरे के ख़िलाफ़ उचित कार्रवाई नहीं की तो अब बीजेपी चुनाव में उनका साथ और समर्थन चाह रही है। यानी ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां उत्तर भारतीय छात्रों पर हुए हमले की सीधी दोषी हैं। कांग्रेस शासन में संरक्षण इंन्जॉय करने वाले राज ठाकरे आज भी मराठी धरती पुत्रों का हवाला देकर उत्तर भारत के लोगों का हड़काते रहते हैं, अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते हैं और कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियां मौन धारण किए रहती हैं।

बीजेपी ने तो अपनी मुंबई इकाई में उत्तर भारतीयों का पत्ता ही साफ़ कर दिया है। कोई है बीजेपी नेता जिसे आज की तारीख़ में उत्तर भारतीयों का हितैषी या प्रतिनिधि कहा जा सके। मुंबई बीजेपी ने उत्तर भारतीय नेताओं को चुन-चुनकर हाशिए पर डाल दिया। ऐसे में उत्तर भारतीय वोटों की उम्मीद यह पार्टी क्या राजनाथ सिंह के नाम किस आधार पर कर रही है। ज़ाहिर हैं कांग्रेस और बीजेपी में यहां भी कोई ख़ास अंतर नहीं है जैसे देश के बाक़ी हिस्सों में। दोनों पार्टियां एक ही सिक्के की दो पहलू हैं।

हमारा देश 26 जनवरी 1950 को लागू किए गए 397 अनुच्छेदों वाले संविधान से चल रहा है। इसमें अब तक सौ से ज़्यादा संशोधन किए गए हैं। देश का वहीं संविधान देश के हर नागिरक को रोज़ी-रोटी के लिए देश के किसी भी कोने में जाने, रहने और काम करने का अधिकार देता है। इसीलिए देश के हर कोने के लोग दूसरी जगह बसे हैं। इसी को हम विविध संस्कृति के नाम से जानते हैं। जिसे हम गंगा-जमुनी संस्कृति भी कहते हैं। लेकिन राज ठाकरे जैसे सत्ता के लालची अरबपति नेता मराठीभाषियों की भावनाओं को अपने स्वार्थ के लिए भड़काते हैं। तो ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ फ़ॉस्टट्रैक कोर्ट में मामला चलवाकर इन्हें यथाशीघ्र सज़ा दी जानी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इस राजनीति को बेनक़ाब करने का वक़्त आ गया है।

अगर उत्तर प्रदेश, बिहार और बाक़ी प्रदेशों के लोग रोज़ी-रोटी के लिए मुंबई की रुख करते हैं तो इसके लिए 67 साल तक शासन करने वाली कांग्रेस, बीजेपी, जनता पार्टी, जनता दल और इन दलों के नेता जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव, मनमोहन सिंह के अलावा मोराजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथप्रताप सिंह, चंद्रशेखर सिंह, एचडी देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और अटलबिहारी वाजपेयी को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। क्योंकि इन नेताओं ने देश का संतुलित विकास नहीं किया। मुंबई को अगर विरार तक मान लें, तो यह शहर देश की 60-65 किलोमीटर में समुद्री सीमा में सिमटा है और देश के पास 7000 हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा की समुद्री सीमा है। इस लिहाज़ से देश में 100 से ज़्यादा मुंबई विकसित की जा सकती थी। लेकिन नहीं की गई। कल्पना कीजिए, इस देश के पास 100 से ज़्यादा मुंबई जैसे शहर होते तो क्या मुंबई में इतनी भयानक भीड़ होती? कौन चाहेगा अपनी मिट्टी से दूर ऐसी जगह रहे जहां उसे बाहरी कहा जाता है और तमाम तरह के अपमान झेलने पड़ते हैं। अपने गांव तक आने-जाने के लिए स्ट्रगल करना पड़ता है।

अगर मुंबई के ओरिजिन की बात करें तो कभी यह सात टापुओं पर बसा वीरान इलाक़ा था। यहां हर कोई बाहर से ही आया है। हां, कोई बहुत पहले आ गया था, कोई बाद में आया, कोई अब आ रहा है और कोई भविष्य में आएगा। यहां अगर ठाकरे परिवार की बात करें तो आधुनिक डीएनए विश्लेषण से यह साबित हो गया है कि ठाकरे के पूर्वज चंद्रसेनिया कायस्थ समुदाय से आते हैं जिनका मूल चिनाब नदी यानी कश्मीर है। यानी वे कश्मीर से ही निकलकर पूरे देश में फैले और बिहार, मध्य प्रदेश होते हुए महाराष्ट्र (तब महाराष्ट्र था ही नहीं) में पहुंचे। यानी जब हर कोई मुंबई में बाहर से आया है तो कोई किसी को बाहरी कैसे कह सकता है। इसलिए सबको भारतीय कहना ज़्यादा प्रासंगिक होगा।

बहुत से लोगों को पता नहीं है कि वाराणसी में बहुत बड़ी तादाद में मराठी और बंगाली रहते हैं। मराठियों और बंगालियों ने बनारस में काशी की संस्कृति को आत्मसात कर लिया है। इसलिए वे वहां अपने को बाहरी नहीं समझते। फिर उत्तर प्रदेश बिहार जैसे राज्यों में इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया जाता कि कौन कहां से आया है। लिहाज़ा किसी के साथ भाषा के आधार पर भेद किया ही नहीं जाता। ऐसे में यह सवाल जायज है कि फिर मुंबई में उत्तर प्रदेश के लोगों को किस बिना पर परप्रांतीय या बाहरी कैसे कहा जा सकता है? ख़ासकर जब महाराष्ट्र राज्य ही 1960 में बना हो तो कैसे कोई यही का आदमी अपने आपको धरती पुत्र और बाक़ी लोगों को बाहरी कह सकता है। इस तरह की नफ़रत फैलाने वालों के ख़िलाफ़ जब यह सिलसिला शुरू हुआ तभी ऐक्शन लिया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। कांग्रेस ऐसे तत्वों को बढ़ावा देती रही। ऐसी कांग्रेस को कभी माफ़ नहीं किया जाना चाहिए जिसने कुछ चुनिंदा राज्यों के अलावा कहीं भी विकास नहीं किया लिहाज़ा हर जगह से लोग रोज़ी रोटी की तलाश में अपना घर बार छोड़कर चले जाते हैं और वहां राज ठाकरे जैसे लोगों की राजनीति के शिकार होते हैं।

आज़ादी के बाद कांग्रेस पूरे समय केवल और केवल वोट बैंक की राजनीति करती रही है। एक साज़िश के तहत मुसलमानों को शिक्षा से वंचित रखा। नतीजा सामने हैं, आज सरकारी नौकरियों में मुसलमान अपनी आबादी के अनुपात में कहीं है भी नहीं। इतनी बड़ी आबादी और सरकारी नौकरी में इतना कम प्रतिनिधित्व हैरान करता है। इसलिए यह क़ौम आज भी सुरक्षा के नाम पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे अवसरवादी राजनीतिक दलों को वोट देने के लिए मज़बूर है। और ये पार्टियां और उनके मुस्लिम नेता इस क़ौम को बेवकूफ़ बनाते हैं।

उत्तर भारतीयों की तरह मुसलमानों का मुद्दा कम अहम नहीं है। छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुंबई में दिसंबर और जनवरी में दो चरण में दंगे (हुए तो कतई नहीं) करवाए गए। जिसमें हज़ार से ज़्यादा निर्दोष लोग मारे गए। उसकी जांच के लिए श्रीकृष्णा आयोग का गठन हुआ। आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी दी लेकिन आज कहां है वह रिपोर्ट। 1999 में कांग्रेस ने उसी रिपोर्ट को लागू करने का वादा करके मुसलमानों का वोट हासिल किया था। आज मुंबई दंगे को लोग पूरी तरह भूल गए हैं जबकि उस मारकाट के दोषी शायद ही किसी को सज़ा मिली होगी।

ज़ाहिर सी बात है कि अगर कांग्रेस-एनसीपी सीरियस होती तो श्रीकृष्ण आयोग में दोषी ठहराए गए लोगों के ख़िलाफ़ फ़ॉस्टट्रैक कोर्ट में मुक़दमा चलता और उन्हें उनके ग़ुनाह के लिए जेल भेजा जाता लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया। मुसलमानों का हितैषी होने का दंभ करने वाले भी विधायक और मंत्री का पद पाते ही अपनी क़ौम को भूल गए। लिहाज़ा आज ये सभी कैरेक्टर जब आप के पास वोट के लिए आएं तो क्या आपको उन्हें वोट देना चाहिए? नहीं बिलकुल नहीं। हां, आपके पास इन नेताओं के अलावा और कोई ऑप्शन न हो तो राइट टू रिजेक्ट का इस्तेमाल कीजिए लेकिन सत्तावर्ग के इन कथित दलालों को वोट कभी मत देना।

कुल मिलाकर ख़ुशहाल और शांतिपूर्ण जीवन हर आदमी का सपना होता है। समाज और शहर ऐसा हो जो अपने परिवार जैसा लगे। ऐसे में नफ़रत फैलाने का क्या तुक? जो लिहाज़ा लोग नफ़रत की आग पर अपनी रोटी सेंकते हैं उन्हें आइडेटिफ़ाई करके बाहर का रास्ता क्यों न दिखा दिया जाए और इसके लिए चुनाव जैसा लोकतंत्र का महापर्व सबसे शुभ और पाक घड़ी है।

समाप्त

सोमवार, 18 नवंबर 2013

पलायनवादी अण्णा हज़ारे की कुंठा

हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश क सबसे प्रतिष्ठित समाजसेवी का ख़िताब गले में लटकाए घूम रहे अण्णा हज़ारे आख़िर चाहते क्या हैं? क्या वह सठिया गए हैं? या कांग्रेस ने उन्हें मैनेज कर लिया है? पूरे देश को पहले लगा कि अण्णा कोई फकीर टाइट आदमी हैं, मंदिर में रहते हैं, भ्रष्टाचार को यक़ीनन समूल नष्ट करना चाहते हैं। मगर उनकी पैंतरेबाज़ी से पूरा मुल्क हैरान है, कि आख़िर अण्णा को हो क्या गया है? वह चाहते क्या हैं? भष्टाचार को संरक्षित कना चाहते हैं या उसका ख़ात्मा करना चाहते हैं?  वह भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ लड़ने वालों के साथ हैं या ख़ुद भ्रष्टाचारियों के साथ? ऐसे समय जब दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल को जनता का भरपूर समर्थन मिल रहा है। पहली बार चुनाव लड़ रही आप ने कांग्रेस ही नहीं बीजेपी के भी दांत खट्टे कर दिए हैं। आप के चलते ही चुनावी मुक़ाबला कम से कम दिल्ली में त्रिकोणीय हो गया है। यानी भारतीय राजनीति में मतदाताओं के सामने पहली बार ईमानदारी भी एक विकल्प के रूप में है। ऐसे समय भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने वाले साफ़-सुथरे लोगों का हौसला आफ़ज़ाई करन की बजाय अण्णा उन्हें हतोत्साहित कर रहे हैंअण्णा उन्हीं लोगों को क्रेडिबिलिटी पर गंभीर सवाल खड़ा कर रहे हैं जो उनका सबसे ज़्यादा रिस्पेक्ट करते हैं।

अण्णा ने केजरीवाल को जो चिट्ठी लिख मारी है उसे पढ़कर तो कम से कम यही लगता है उन्होंने फिलहाल अपना पाला बदल लिया है। वह राग कांग्रेस आलापने लगे हैं। देश का भट्ठा बैठाने वाली कांग्रेस का खुल समर्थन कर रहे हैं। इसीलिए, चुनाव के अति नाज़ुक मौक़े पर, जब महज दो हफ़्ते पहले जब मतदान केवल दो सप्ताह दूर है, उन्होंने अरविंद के चेहरे पर ग़ैरज़रूरी चिट्ठी दे मारी हैइससे भ्रष्ट कांग्रेस के नेताओं को आप के लोगों पर कीचड़ उछालने का और मौक़ा मिल गया है। आप के उम्मीदवार हतोत्साहित हों, और कांग्रेस ज़ोर-शोर से दोहराती रहे कि केजरीवाल ने अण्णा को धोखा दिया। इन पंक्तियों के लिखने तक कांग्रेस के लोग यही करने भी लगे हैं। कांग्रेसी आप के महज पांच करोड़ विदेशी चंदे की जांच करवा रही है। जबकि पार्टी के पास दो हज़ार करोड़ रुपए के चंदे के सोर्स का कोई अता पता नहीं है।

खैर, चिट्ठी में सभी ग़ैरज़रूरी तथ्य उठाए गए हैं। मसलन, अण्णा ने कहा है कि चुनाव में उनके नाम का दुरुपयोग हो रहा है। जबकि सच ये है कि आप का कोई उम्मीदवार अण्णा का नाम तक नहीं ले रहा है। किसी पोस्टर पर उनकी फोटो नहीं है। किसी नारे में उनका नाम नहीं है। फिर कैसे हुआ उनके नाम का दुरुपयोग?  हां, जनलोकपाल की चर्चा होने पर अरविंद या बाक़ी टॉप लीडरान यह ज़रूर कहते हैं कि यदि दिल्ली में आप की सरकार बनी तो विधानसभा की अधिवेशन दिसंबर में ही रामलीला मैदान में होगा जिसमें सबसे पहले अण्णा वाला जनलोकपाल का बिल पारित किया जाएगा। इसे अगर अण्णा अपने नाम का इस्तेमाल मानते हैं, तो उनकी बलिहारी! इसके अलावा उन्होंने आरोप लगाया है कि अण्णा आंदोलन का पैसा चुनाव में खर्च हो रहा है। जबकि अण्णा के आंदोलन का पैसा आंदोलन के दौरान ही खर्च हो गया था। उस समय अतिरिक्त राशि की ज़रूरत पड़ी थी। उसकी पाई-पाई का ब्यौरा ऑडिट हो चुका है जिसे अण्णा अगस्त २०१२ में ही मान चुके थे। तीसरा पॉइंट है, अण्णा को लगता है कि जनलोकपाल क़ानून बनाने के नाम पर आप के नेता झूठ बोल रहे हैं। यहीं बात कांग्रेस चुनाव में कह रही है। बेशक देश के लिए क़ानून संसद में बनेगा लेकिन दिल्ली के लोगों के लिए क़ानून तो दिल्ली एसेंबली में ही बनेगा। यह अण्णा अगर नहीं समझ पा रहे हैं, तो भगवान ही मालिक।

अण्णा से कोई पूछे कि जनलोकपाल कैसे बनेगा? क्या जनलोकपाल आसमान से टपकेगा? या भगवान की तरह अचानक प्रकट होकर व्यवस्था से भ्रष्टाचार को समूल नाश कर देगा? अण्णा से यह भी पूछा जाना चाहिए कि जनलोकपाल बनेगा कैसे? क्या इस जनलोकपाल को सोनिया गांधी, मनमोहन, सुरेश कलमाड़ी, पवार, गडकरी, ए राजा, मुलायम, लालू यादव, धनंजय, रसीद मसूद, रघुराज सिंह, करुणानिधि, जयललिता, जगनमोहन जैसे भ्रष्ट लोग बनाएंगे? नहीं इन लोगों को बनाना होता तो अब तक क़ानून बन गया होता या कह सकते हैं कि आम आदमी पार्टी के गठन की नौबत ही नहीं आती।

अण्णा की फितरत देखिए, पहले तो भ्रष्टाचार उन्मूलन का खूब शोर मचाया। आनन-फानन में आमरण अनशन पर बैठ गए। मासूम देशवासियों को लगा कि नासूर बन चुके भ्रष्टाचार को ख़त्म करने वाला मसीहा आख़िरकार आ ही गया। इसका नतीजा यह हुआ कि उ आंदोलन के साथ पूरे देश में आंदोलन शुरू हो गया। जो जहां था वहीं अनशन-धरने पर बैठ गय जनता का अपार समर्थन पाकर अण्णा हृदय परिवर्तन जैसी बहकी बहकी बाते करने लगे। ऐसा लगा कि अण्णा आदर्श समाज का सपना देख रहे हैं जो कि मौजूदा दौर में मुमकिन नहीं है। उनकी बात सुनकर हर किसी को यही लगने लगता है इस आदमी को कोई सीरियस साइकिक प्रॉब्लम है।

अण्णा जैसे हिडेन एजेंडा रखने वाले लोग भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे घातक हैं। ये राजनीति को गंदी कहकर अपराधियों और बेईमानों को संसद में घुसने का वॉकओवर दे देते हैं। इनके फैलाए भ्रम के कारण साफ़-सुथरी इमैज वाले लोग राजनीति में उतरते नहीं और उसका नतीजा यह होता है कि शहाबुद्दीन, धनंजय, राजा भैया जैसे अपराधी सांसद-मंत्री बन जाते हैं। सीधी-सी बात है, अगर आप जनलोकपाल क़ानून को लेकर सचमुच सीरियस हैं तो आपको संसद और विधानसभाओं में ऐसे लोग चाहिए ही जो जनलोकपाल बिल के पक्ष में सदन में मतदान करें। कम से कम मौजूदा दौर में संसद और विधान सभाओं पर अपराधियों या जरूरत से कई गुना पैसा और संपत्ति जमा करने वाले सामाजिक अपराधियों का क़ब्ज़ा है। ये अपराधी किसी भी कीमत जनलोकपाल बनने नहीं देंगे। इसी मुद्दे पर अण्णा ने शुरुआत में राजनीतिक पार्टी बनाने की पहल का समर्थन किया था।

अगर समय पर ग़ौर करें तो अण्णा के अप्रत्याशित क़दम से साफ हैं कि आप को मिल रहे जनसमर्थन से उन्हें जलन हो रही है। इसी कारण वह भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ चल रह मूवमेंट कमज़ोर करने की कोशिश कर रहे हैंजिससे दिल्ली विधानसभा में आप को सेटबैक मिले। यही तो कांग्रेस का असली ऐजेंडा है जिसे अमली जामा अब अण्णा पहना रहे हैं। उनको कौन समझाए कि अगर जनलोकपाल अस्तित्व में आया तो उसे ईमानदार लोग ही बनाएंगे। अनैतिक तरीके और भ्रष्टाचार से अरबों-खरबों की दौलत जमा कर चुके भ्रष्ट और अपराधी सांसद हमेशा लोकपाल बिल के ख़िलाफ़ ही वोट करेंगे। क्योंकि जनलोकपाल एक ऐसी व्यवस्था बनाएगा जहां गांधी-नेहरू के वंशवाद, शरद पवार संपत्ति बनाने की लालच, मुलायम, पटनायक, ठाकरे, बादल, अब्दुल्ला, करुणानिधि, जगनमोहन के परिवारवाद, लालू और रॉब्रट वाड्रा की लूट-खसोट और राजाभैया के दहशतवाद के लिए कोई जगह नहीं होगी। यानी इन सबका अस्तित्त ही ख़त्म हो जाएगा। कल्पना कीजिए, ऐसी भारतीय राजनीति का जहां ये सारे विदूषक जेल की हवा खा रहे हों। और उनकी संपत्ति जब्त कर ली गई हो। तो इस देश में कोई बेरोज़गार या भूखा नहीं रहेगा।

अब अण्णा चाहते हैं कि वह राजनीति को गंदा कहकर उसमें ना उतरे ताकि उनके कपड़े गंदे न हो सके। ज़ाहिर सी बात है, अगर आपको इस देश और देश के लोगों की ज़रा भी फिक्र हैं तो आप पैसा जमा नहीं कर सकते क्योंकि तक़रीबन देश की ८० फीसदी आबादी की दैनिक आमदनी १०० रुपए से भी कम है। यानी महुमत में यह देश ग़रीबों का देश हैं। और यह ग़रीबी भ्रष्टाचार के कारण है। जब तक भ्रष्टाचारी जेल नहीं भेजे जाते और उनकी भ्रष्टाचार की कमाई जब्त नहीं की जाती, यह मनमानी ऐसे ही चलती रहेगी। इसीलिए तो बेईमानी का निवाला खानो वालों की नींद हराम हो गई है। आप के उम्मीदवार ईमानदार है, तभी तो अरविंद ने कह दिया कि अण्णा संतोष हेगड़े से जांच करवा लें। अगर अरविंद दोषी पाए गए तो दिल्ली ऐसेंबली का चुनाव नहीं लड़ेंगे। किसी दूसरी पार्टी के नेता में इतनी हिम्मत है। ज़ाहिर सी बात है कि अगर आपका अपने ऊपर अंकुश हैं तो कोई व्यवस्था आपको भ्रष्ट नहीं कर सकती। चाहे वह राजनीति ही क्यों न हो। दिल्ली में आप के लोगों को जो समर्थन मिल रहा है, उससे साफ़ हैं कि लोग बेईमानी का पैसा खा-खाकर तुंद फैलाने वाले इन भ्रष्ट नेताओं से जनता छुटकारा पाना चाहती है और विकल्प तलाश रही है। ऐसे में साफ़-सुथरे लोगों को राजनीति में उतरना ही होगा। और उसके लिए आप सर्वोत्तम मंच है।

जो लोग इस देश की खुशहाली के अभिलाषी हैं। उन्हें किसी बहकावे में नहीं आना चाहिए। बहकाने की वह कोशिश चाहे अण्णा हजारे जैसे पलायनवादी कर रहे हों या विदूषक बन चुकी भारतीय मीडिया के लोग। पहली बार ईमानदारी का विकल्प वोटरों के सामने है। अगर आप अपना और अपनी आने वाली पीढ़ी का भला चाहते हैं। यानी आप एक ऐसा सिस्टम चाहते हैं जहां लोगों के सामने अस्त्तित्व संकट ना हो तो इस बार किसी बहकावे में मत आइए। यह तटस्थ रहने का समय नहीं है। या तो बेईमानों का साथ दीजिए या ऊमानदारों का।

समाप्त

मंगलवार, 14 मई 2013

संजय दत्त ने अपराध जान-बूझ किया था या अनजाने में!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
चंद रोज़ बाद अभिनेता संजय दत्त सलाखों के पीछे चले जाएंगे। कुल 42 महीने के लिए। यह ख़बर फिर सुर्खियां बटोरेगी। इस बात पर चर्चा होगी कि क्या संजय ने अपराध जान-बूझ किया या उनसे अनजाने में हो गया। जब संजय ने मुंबई बमकांड के मास्टर माइंड और मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम कासकर के भाई अनीस से अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने के लिए एके-56 मंगवाई थी, तब उनकी उम्र 33 साल थी यानी उन्हें बालिग हुए 15 साल बीत चुका था। मज़ेदार पहलू यह है कि संजय बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां तो दंगा हुआ ही नहीं। मुंबई के दंगे (इन पंक्तियों के लेखक ने तब जनसत्ता के लिए दंगों की रिपोर्टिंग की थी) पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। सो संजय का अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की दुहाई देना सरासर बेमानी है। यानी उस समय कम से कम संजय या उनके परिवार के लिए किसी तरह के ख़तरे का सवाल ही नहीं पैदा होता था। दंगा, दरअसल, मुस्लिम इलाकों से ही शुरू हुआ और उस मारकाट में सबसे जानमाल का नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय को ही उठाना पड़ा। दरअसल, 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगो भड़क उठा था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई जिसमें 257 लोग मारे गए और घायल हुए। हालांकि दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक दंगों में कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) दंगे की मारे गए। कहने का तात्पर्य संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाया था।

सच पूछो तो, 1993 में मुंबई बम विस्फोट से पहले तक माफिया डॉन दाऊद केवल वांछित ख़तरनाक अपराधी था, इसलिए बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उनके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसके लिए उन्हें अच्छा नज़राना मिल जाता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। नब्बे के दशक में कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के दरबार में ठुमके न लगाया हो। तब दुबई एक महफ़ूज़ ऐशगाह था। लिहाज़ा, संजय दत्त भी दाऊद ऐंड कंपनी के ग्लैमर से ख़ुद को नहीं बचा पाए। मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार वे अनीस के संपर्क में आए तो दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। उनमें अकसर बातचीत होने लगी। संजय अनीस से पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगा। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद या उससे जुड़े अपराधियों से ताल्लुक़ात रखने के ख़तरे का अहसास 12 मार्च 1993 को मुंबई में तबाही के बाद हुआ। अगर संजय दत्त मुंबई धमाकों के बाद अनीस से जान-पहचान ख़त्म कर लेते तो इस बात में थोड़ा दम रहता कि उनसे अनजाने में ग़लती हुई है और वे भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन बमकांड का आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उनकी उम्र 42 साल थी) ने छोटा शकील से फिर बातचीत की और उससे अभिनेता गोविंदा को सबक सीखाने का आग्रह किया। जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय दत्त ने अपनी गलतियों से कुछ भी नहीं सीखा। इसलिए उन्हें अपने किए की सज़ा भुगतनी ही चाहिए। उच्च पदों पर बैठे लोग माफी या सज़ा कम करने की अपील पर विचार करते समय इस तथ्य को ज़ेहन ज़रूर रखना चाहिए।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने अभिनेता संजय दत्त को मोहलत देने से इनकार करते हुए उन्हें सरेंडर की सलाह दी है। हालांकि इस सच को नहीं भूलना चाहिए कि संजू बाबा पर शुरू से हर कोई मेहरबान रहा है। अब चूंकि उनका सज़ा की अवधि शुरू हो रही है सो आगे इस बात की पड़ताल की जा रही है कि संजय को रूलिंग क्लास का आदमी होने का कहां-कहां फ़ायदा मिला और किस-किस ने उन पर मेहरबानी की बरसात की। 12 मार्च 1993 से 15 मई 2013 के दौरान संजय दत्त से जुड़े इस मामले पर ग़ौर करने के बाद ये साफ़ हो जाता है कि अभिनेता पर मेहरबानियों की बरसात शुरू से हो रही है। यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब पहली बार उनका नाम बमकांड में सामने आया और यह अभी पिछले महीने तक जारी रहा जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें चार हफ़्ते की मोहलत दे दी थी।

पहली मेहरबानी मुंबई पुलिस की ओर से तब हुई जब बमकांड में सज़ायाफ़्ता इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा ने 3 अप्रैल 1993 को संजय का नाम लिया। बाबा ने ख़ुलासा किया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है जिसका नाम सुनकर लोगों के होश उड़ जाएंगे। जब बाबा ने हैवीवेट कांग्रेस सांसद सुनील दत्त के बेटे संजय दत्त का नाम लिया तो विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया भी हतप्रद रह गए। किसी ने सोचा भी न था कि पदयात्रा करने वाले शांति के पुजारी का बेटा बम धमाके की साज़िश का हिस्सेदार हो सकता है। बहरहाल, मुन्नाभाई पर मेहरबानी हुई और तत्कालीन पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने मारिया को संजय का घर रेड करने की इजाज़त नहीं दी। हालांकि बाद में खुलासा हुआ कि इसके पीछे राजनीतिक वजह थी क्योंकि संजय के पिता कांग्रेस के लॉमेकर थे। सूबे में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी। और काग्रेस के लोकप्रिय सांसद सुनील दत्त की पार्टी के आला नेताओं से अच्छी ट्यूनिंग थी।

बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय गिरफ़्तार कर लिए गए। लेकिन गिरफ़्तारी के बाद उनसे पुलिस बेहद शराफ़त से पेश आई। यह भी पुलिस की ओर से की गई मेहरबानी थी क्योंकि रात में संजय को अफ़सर के केबिन में रखे सोफ़े पर सोने की इजाज़त दी गई। उनको आरोपी की तरह नहीं, राजनेता के बेटे की तरह पूछताछ की यानी उनसे थर्ड डिग्री इंटरोगेशन नहीं हुआ। हालांकि संजय ने ईमानदारी से एमएन सिंह (तत्कालीन क्राइम ब्रांच प्रमुख) और मारिया को बता दिया कि दाऊद का भाई अनीस उनका दोस्त है और दोनों की अकसर बातचीत होती रहती है। अनीस ने तीन एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स (गोली) और 20 हैंडग्रेनेड्स (हथगोले) का कन्साइनमेंट उनके पास भेजी। संजय के मुताबिक प्रतिबंधित हथियारों की ख़ेप अनीस का आदमी अबू सालेम 16 जनवरी 1993 की सुबह उनके घर लेकर आया। सालेम के साथ समीर हिंगोरा और बाबा चौहान भी थे। बहरहाल, तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ फिर संजय के घर आया और 2 एके-56 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां सालेम को वापस लेकर गया। यानी संजय ने उसी आदमी (अनीस) से ग़ैरक़ानूनी तौर पर एके-56 राइफ़ल मंगवाई जो बमकांड का मुख्य आरोपी था। दरअसल, दाऊद, आरोप पत्र के मुताबिक. ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और संकड़ों की संख्या में ग्रेनेड, मैगज़िन, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक पावडर आरडीएक्स 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिघी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई में भेजी। ये काम एक अन्य मास्टर मांइंड टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा लेकर आए। हथियारों और आरडीएक्स से भरा ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात रवाना हुआ। कस्टम की टीम ने ट्रक को ट्रैप किया भी लेकिन आठ लाख रुपए रिश्वत मिलने पर उसे जाने की इजाज़त दे दी। इस टीम के लोगों को टाडा के तहत सज़ा सुनाई गई है। बहरहाल, ट्रक का सामान गुजरात के भरुच ज़िले में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां अंकलेश्वर में इस टीम में अबू सालेम शामिल हो गया। हथियारों को पूर्व निर्धारित ठिकानों और लोगों तक पहुचाने की ज़िम्मेदारी सालेम को दी गई। 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सड़क के रास्ते मुंबई आया। सालेम ने अनीस के कहने पर उसी कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी। यानी संजय ने 12 मार्च के धमाके के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी।

इसके बावजूद, आतंकवाद एवं विध्वंस निरोधक क़ानून (टाडा) जज ने संजय दत्त का वह क़बूलनामा स्वीकार कर लिया जिसमें मुन्नाभाई ने कहा था कि वह असुरक्षित महसूस कर रहा था इसलिए उसने ये घातक और ग़ैरक़ानूनी हथियार लिए। संजय दत्त और उनसे सहानुभूति रखने वाले शुरू से यह तर्क दे रहे हैं कि मुंबई दंगों के समय उनको धमकियां मिल रही थी इसलिए संजय ने अनीस से एके-56 मांगी। मतलब साफ़ है, जो लोग इन मुद्दे पर बेलौस टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी ही नहीं। मतलब संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उनके परिवार को जानमाल का ख़तरा था, अभिनेता के लिए टाडा जज की ओर से की गई अहम मेहरबानी थी।

दरअसल, गिरफ़्तार होने के बाद संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बावजूद साल भर तक बेल नहीं मिली। ज़मानत रद होने के बाद बेटे का जेल प्रवास साल भर से ज़्यादा खिंचने से सुनील दत्त विचलित हो गए। वह हर पार्टी के नेता का चक्कर लगाने लगे। वह इसी दौरान धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना नेता बाल ठाकरे के बंगले पर भी गए। उसी दौरान सेक्यूलर जमात लोगों की ओर से यह शोर मचाया जाने लगा कि टाडा क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा क़ानून के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में सड़ रहे हैं जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना भी नहीं। ऐसे लोगों के मामलों पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने नौकरशाहों और पुलिस अफ़सरों की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल (अर्धन्यायिक) कमेटी का गठन किया गया। यहां संजय दत्त पर एक और बहुत बड़ी मेहरबानी हुई। क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने सबसे पहले संजय को ही सबसे ज़्यादा टाडा पीड़ित माना और उनके ज़मानत की सिफ़ारिश कर दी। लिहाज़ा संजय 18 महीने में ही जेल से बाहर आ गए। जबकि इसी मामले में बाबा चौहान, मंज़ूर अहमद, यूसुफ़ नलवाला, समीर हिंगोरा और हनीफ़ कड़ावाला जैसे लोगों को ज़मानत के लिए 5 साल या उससे अधिक इंतज़ार करना पड़ा। इतना ही नहीं जिस 64 वर्षीय ज़ैबुन्निसा क़ादरी के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे गए। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा और अदालत ने उसे पांच साल की सज़ा सुनाई है। हालांकि कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर ज़ैबुन्निसा ने तो उसे देखा तक नहीं जबकि संजय ने बॉक्स को खोला था और हथियार देखने के बाद अनीस को फोन पर बताया भी कि सामान मिल गया। हैरानी वाली बात यह है कि 12 मार्च 1993 को सीरियल ब्लास्ट की ख़बर सुनकर मॉरीसश में शूटिंग कर रहे संजय डर गए और अपने मित्र नलवाला को फोन करके कहा कि उनके घर (बेडरूम) में रखी एक 56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट कर दे।

बहरहाल, सीरियल ब्लास्ट की जांच का ज़िम्मा संभालने के बाद सीबीआई ने जाने या अनजाने कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल और केवल संजय दत्त को मिला। मसलन संजय की अनीस से बातचीत के कॉल्स डिटेल्स को आरोप पत्र से ही अलग कर दिया। मुंबई पुलिस ने इस जुटाने में कड़ी मेहनत की थी लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में डाल दिया। इस दस्तावेज़ से आसानी से सिद्ध हो रहा था कि संजय का अनीस से बहुत घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल संजय को दी गई वह दाऊद द्वारा रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे गए कन्साइन्मेंट के साथ देश में लाई गई थी। यानी संजय उस आतंकवादी साज़िश का सीधे सीधे साझीदार हो जाते क्योंकि दाऊद का भाई संजय के टच में थे। सीबीआई ने दूसरी और सबसे बड़ी मेहरबानी संजय पर सालेम के ट्रायल को बमकांड के मुक़दमे से अलग करके की। जी हां, सालेम को भारत लाए जाने के बाद उसके केस को बमकांड से अलग कर दिया गया। सीबीआई की ओर से तर्क दिया गया कि इससे मुक़दमे की सुनवाई में अनावश्यक देरी से बचने के लिए किया गया। दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था जो पुष्ट कर देता कि कम से कम संजय एके-56 लाने की साज़िश में शामिल था। यह सीबीआई या कहे कांग्रेस (सीबीआई की असली बॉस) की ओर से संजय पर बड़ी मेहरबानी थी जिसने उन्हें कम से कम 10 साल की सज़ा से बाल-बाल बचा लिया। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी ने 2002 में संजय की छोटा शकील बातचीत का संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद भी उसे अभिनेता की बेल रद करने के लिए कोर्ट को अप्रोच करना चाहिए था। इसे सीबीआई की संजय के लिए एक और एक और मेहरबानी कहा जा सकता है।

केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मेहरबानी का प्रतिसाद मिलता रहा और सालेम द्वारा लाई गई एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत लंबी सज़ा मिली लेकिन संजय केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत दोषी माने गए और 6 साल की सज़ा सुनाई गई। सीबीआई इसके बाद भी संजय पर मेहरबानी की बारिश करती रही और टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी गई। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट में भी किसी माननीय जस्टिस ने सीबीआई से पूछा भी नहीं कि एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले के ख़िलाफ़ अपील क्यों नहीं की गई। उलटे देश की सबसे बड़ी अदालत ने संजय दत्त की सज़ा एक साल और कम कर दी। अगर सुपुरीम कोर्ट ने संजय के वकीलों के लिए जवाब देना आसान नहीं होता।

जस्टिस मार्कंडेय काटजू की अगुवाई में लोग संजय दत्त को मानवीय आधार पर माफ़ कर देने की पैरवी कर रहे हैं, उनकी अपील महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास विचाराधीन है। यानी बॉलीवुड स्टार पर जेल की सलाखों के पीछे मेहरबानी की बरसात अभी होती रहेगी और इन्हीं मेहरबानियों के चलते संजय दत्त सज़ा पूरी होने से पहले ही अगर जेल से बाहर आ जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। संजय दत्त पारिवारिक और सामाजिक नागरिक बन चुके हैं। बड़ी बेटी रिचा के अलावा मान्यता से दो छोटे बच्चों के पिता हैं लेकिन जो ग़ुनाह उनसे हुआ है उसकी कीमत तो उन्हें चुकानी ही पडेगी।
समाप्त

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

रेप का एक ही समाधानः औरतों को 50 फ़ीसदी प्रतिनिधित्व

हरिगोविंद विश्वकर्मा
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में एक 13 जुलाई 2016 को 15 साल की नाबालिग युवती से तीन लोगों ने रेप किया और उसकी हत्या कर दी। इसी महीने ख़बर आई थी कि देश की राजधानी दिल्ली से महज 60 किलोमीटर दूर हरियाणा के रोहतक में एक दलित युवती से उन्हीं आरोपियों ने दोबारा इसलिए गैंगरेप किया क्योंकि लड़की ने इन्हीं लड़को द्वारा 2013 में किए पहले गैगरेप का केस वापस नहीं लिया. अभी साल भर पहले नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक देश में रोज़ाना 100 से ज़्यादा महिलाए बलात्कर की शिकार होती हैं।

अहम बात यह है कि बलात्कार की घटनाएं कम होने की बजाय हर साल बढ़ ही रही हैं। ख़ासकर जबसे नया रेप क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद तो रेप की घटनाएं कई गुना बढ़ गई हैं। इसका मतलब है कि डर्टी सोचवालों को क़ानून का ख़ौफ़ ही नहीं। क़ानून कितना भी कठोर कर दिया जाए, डर्टी सोचवाले महिलाओं पर ज़ुल्म बदस्तूर जारी रखेंगे। इसका मतलब यह भी हुआ कि महिलाओं पर हो रहे इस ज़ुल्म को रोकना तो दूर कम करना भी मौजूदा सेटअप में मुमकिन नहीं।

राज ठाकरे जैसे लोंगो कितने भी सख़्त क़ानून बनाने की बात करें। रेप की घटनाएं जारी रहने वाली हैं। गौरतलब है कि राज ने अहमदनगर में रेप विक्टिम परिवार से मिलने के बाद कहा कि देश में बलात्कार को रोकने के लिए शरीयत जैसे क़ानून की ज़रूरत है. दरअसल, हमारा समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है। जब तक इसे बदला नहीं जाता रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का ही क़ानून क्यों न बना दिया जाए। पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।

दरअसल, कठोर रेप लॉ के बावजूद रेप की वारदाते साबित कर रही हैं कि देश के क़ानून-निर्माता अब भी असली समस्या को समझ पाने में नाकाम रहे हैं। या तो उनकी सोच उस स्तर तक पहुंच ही नही रही है कि उसे पहचान कर उसे हल करने की दिशा में क़दम उठाएं या फिर वे इतने शातिर हैं कि समस्या को हल ही नहीं करना चाहते। यह भावुक होकर अनाप-शनाप बयान देने या बेवकूफ़ी करने का वक़्त नहीं, बल्कि पहले यह पता करने का वक़्त है कि रेप जैसे क्राइम रोके कैसे जाएं। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसे प्रावधान हो जाएं कि रेप जैसे अपराध हो ही न तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सवाल उठता है कि आख़िर रेप जैसे जघन्य अपराध हो ही क्यों रहे हैं। आख़िर क्यों औरत को अकेले या एकांत में देखकर पुरुष अपना विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, खो देता है और हैवान बन जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदरणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी चाहिए, क्यों अविवेकी इंसान के लिए भोग की वस्तु बन जाती है?

दिमाग़ पर ज़ोर देने पर लगता है कि स्त्रियों की कम संख्या देखकर पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साथ मनमानी करने का दुस्साहस करते हैं। दरअसल, रेप ही नहीं, महिलाओं पर होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए समाज का मैल-डॉमिनेटेड तानाबाना ही ज़िम्मेदार है। ऐसे समाज में स्त्री कम से कम पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती क्योंकि यह सेटअप स्त्री को सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा समाज प्रचलन में आया, तब से यहां स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक रही है। बॉलीवुड अभिनेत्रियों या शहरों की लड़कियों को देखकर कुछ क्षण के लिए ख़ुश हुआ जा सकता है कि महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई। इस सच को स्त्रियों से बेहतर और कौन समझ सकता है। दरअसल, पुरुष-प्रधान मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी नहीं देती।

आज ज़रूरत उन प्रावधानों पर अमल करने की है जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक लाएं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। रेप या गैंगरेप पर आंसू बहाने वाले क्या अपने घर में स्त्री या लड़कियों को बराबरी का दर्जा देते हैं। क्या घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? विकसित और बड़े परिवारों में स्त्री के साथ ख़ुला पक्षपात होता है, उसे एहसास दिलाया जाता है कि वह दोयम दर्जे की नागरिक है। ऐसे में पिछड़े और दूर-दराज़ के समाज में स्त्री की क्या पोज़िशन होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। पुरुष-प्रधान संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण मिलेगा, अब इसकी संभावना नहीं के बराबर है। ज़ाहिर हैं जो नेता माइनर रेप पर आंसू बहा रहे हैं, वे लोगों को बेवकूफ़ बना रहे हैं। इन नेताओं का, दरअसल, स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देने में कोई दिलचस्पी नहीं।

अगर लोग सचमुच महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती और अभिलाषी हैं तो सबसे पहले राजनीतिक दलों के अलावा केंद्र और राज्य सरकार में 50 फ़ीसदी पद महिलाओं को दिया जाना चाहिए। यानी देश की हर सरकार में महिला-मंत्रियों की तादाद पुरुषों के बराबर हो। इसी तरह विधायिका यानी संसद (लोकसभा-राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं में महज़ 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित होनी चाहिए। महिलाओं की आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो विधायिका में आरक्षण 33 फ़ीसदी ही क्यों? संसद में (लोकसभा-545 और राज्यसभा-245) में 890 सदस्यों में से किसी भी सूरत में 445 सदस्य महिलाएं होनी ही चाहिए।

एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस-फ़ैमिलीज़ यानी राजनीतिक परिवार (गांधी, पवार, बादल, या मुलायम जैसे परिवार की महिलाएं) की लड़कियां या महिलाएं हाईजैक न कर लें, जैसा कि अमूमन होता रहा है। दरअसल, पॉलिटिकल क्लास की महिलाएं अपने पति, पिता, ससुर या बेटे की पुरुष प्रधान मानसिकता को रिप्रज़ेंट करती हैं। लिहाज़ा, रिज़र्वेशन का लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीबदेहाती, आदिवासीदलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम जमात की महिलाओं को मिले, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, न्यायपालिका, पुलिस, आर्मफोर्स, बैंक, मीडिया और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की होनी ही चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों, स्कूल- कॉलेज, यूनिवर्सिटी या अन्य शिक्षण-संस्थानों में 50 प्रतिशत पोस्ट महिलाओं को दी जानी चाहिए। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 परसेंट महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होगी। यानी हर जगह जितने पुरुष होंगे उतनी ही महिलाएं भी। अपने समाज की ज़्यादा संख्या शर्तिया महिलाओं का मोरॉल बुस्टअप करेगा।

कल्पना कीजिए, जब गली, सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन, दफ़्तर, पुलिस स्टेशन, अदालत और स्कूल-कॉलेज में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह किसी महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे। महिलाओं की कम संख्या ही लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती हैं। सो महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है। जिस दिन केंद्रीय और राज्य कैबिनेट, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं में पुरुष-वर्चस्व ख़त्म हो जाएगा और महिलाएं बराबर की संख्या में मौजूद रहेंगी, उस दिन हालात एकदम बदल जाएगा। ऑफ़िस या थाने में आधी आबादी महिलाओं की होने पर महिलाएं रिलैक्स्ड फ़ील करेगी और बेहिचक शिकायत लेकर वहां जाएंगी। जब लड़कियों को बड़ी तादाद में सरकारी और प्राइवेट नौकरी मिलेगी तो उनमें सेल्फ़-रिस्पेक्ट पैदा होगा। वे अपने को पराश्रित और वस्तु समझने की मानसिकता से बाहर निकलेंगी। वे पति या पिता रूपी पुरुष पर निर्भर नहीं रहेंगी बल्कि स्वावलंबी होंगी। तब वे माता-पिता पर बोझ नहीं होंगी। उनकी शादी माता-पिता के लिए बर्डन या रिस्पॉन्सिबिलिटी नहीं होगी। तब प्रेगनेंसी के दौरान सेक्स-डिटरमिनेशन टेस्ट की परंपरा ख़त्म हो जाएगी। घर में लड़की के जन्म पर उसी तरह ख़ुशी मनाई जाएगी जैसे पुत्र के आगमन पर मनाई जाती है। लोग केवल पुत्र की कामना नहीं करेंगे। यक़ीन मानिए तब 1000 लड़कों के मुक़ाबले 1000 लड़कियां होंगी। समाज संतुलित और ख़ुशहाल होगा। जहां हर काम स्त्री-पुरुष दोनों कर सकेंगे।

मगर यक्ष-प्रश्न यह है कि क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? इस राह में पक्षपाती परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की जानी चाहिए। यानी ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारीचौपाई रचने वाले तुलसीदास जैसे पुरुष मानसिकता वाले कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा। तुलसी के महाकाव्य रामचरित मानसको संशोधित करना होगा। जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने और गर्भावस्था में उसे घर से बाहर निकालकर जंगल में भेजने वाले पति राम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना गया है। हमें उस महाकाव्य महाभारतऔर उसके लेखक व्यास की सोच को भी सुधारनी होगी जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति युधिष्ठिर को धर्मराजमानता है। हमें उन सभी परंपराओ और ग्रंथो में नये सिरे से संशोधित या परिभाषित करनी होगा जहां पुरुष (पति) को परमेश्वरऔर स्त्री (पत्नी) को चरणों की दासीमाना गया है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों में बदलाव करना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए केवल स्त्री के व्रत रखने का प्रावधान है, पत्नी की सलामती के लिए पति के व्रत रखने का कोई प्रावधान नहीं है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरका पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परंपराओं भी छोड़ना होगा। इतना ही नहीं लड़कियों को पिता की संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए और उस पर सख़्ती से अमल किया जाना चाहिए। अब सवाल खड़ा होता है, क्या यह पुरुष-प्रधान समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हांतो बदलाव की शुरुआत तुरंत होनी चाहिए।

समाज में महिलाओं की बहुत कम विज़िबिलिटी ही एकमात्र समस्या है। घर के बाहर महिलाएं दिखती ही नहीं, दिखती भी हैं तो बहुत कम तादाद में। सड़कों, रेलवे स्टेशनों और दफ़्तरों में उनकी प्रज़ेंस नाममात्र की होती है। मुंबई और दिल्ली जैसे डेवलप्ड सिटीज़ में भी महिलाओं की विज़िबिलिटी दस फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। देश के बाक़ी हिस्सों में तो हालत भयावह है। चूंकि महिलाओं की आबादी पुरुषों के बराबर है तो उनकी मौजूदगी भी उसी अनुपात में होनी चाहिए। अगर विज़िबिलिटी की इस समस्या को हल कर लिया गया तो महिलाओं की ही नहीं, बल्कि मानव समाज की 99 फ़ीसदी समस्याएं ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी। तब महिलाएं बिना किसी क़ानून के सही-सलामत और महफ़ूज़ रहेंगी। रेप की समस्या को हमेशा के लिए हल कर लिया जाएगा।

(नोटः इस लेख को रिराइट किया गया है इसे दिल्ली गैंग रेप के समय क्रिएट किया गया है।)