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रविवार, 25 जून 2017

ईमानदार जज जेल में, भ्रष्टाचारी बाहर !

हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट देश की सबसे बड़ी अदालत है, इसलिए उसका फ़ैसला सर्वोच्च और सर्वमान्य है। चूंकि भारत में अदालतों को अदालत की अवमानना यानी कॉन्टेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट की नोटिस जारी करने का विशेष अधिकार यानी प्रीवीलेज हासिल है, इसलिए कोई आदमी या अधिकारी तो दूर न्यायिक संस्था से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा व्यक्ति भी अदालत के फैसले पर टीका-टिप्पणी नहीं कर सकता। इसके बावजूद निचली अदालत से लेकर देश की सबसे बड़ी न्याय पंचायत तक, कई फ़ैसले ऐसे आ जाते हैं, जो आम आदमी को हज़म नहीं होते। वे फ़ैसले आम आदमी को बेचैन करते हैं। मसलन, किसी भ्रष्टाचारी का जोड़-तोड़ करके निर्दोष रिहा हो जाना या किसी ईमानदार का जेल चले जाना या कोई ऐसा फैसला जो अपेक्षित न हो।


चूंकि जज भी इंसान हैं और इंसान काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे पांच विकारों या अवगुणों के चलते कभी-कभार रास्ते से भटक सकता है। ऐसे में इंसान होने के नाते जजों से कभी-कभार गलती होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस दलील पर एकाध स्वाभाविक गलतियां स्वीकार्य हैं, हालांकि उन गलतियों का दुरुस्तीकरण भी होना चाहिए, लेकिन कई फैसले ऐसे होते हैं, जिनमें प्रभाव, पक्षपात या भ्रष्टाचार की बहुत तेज़ गंध आती है। कोई बोले भले न, पर उसकी नज़र में फ़ैसला देने वाले जज का आचरण संदिग्ध ज़रूर हो जाता है। किसी न्यायाधीश का आचरण जनता की नज़र में संदिग्ध हो जाना, भारतीय न्याय-व्यवस्था की घनघोर असफलता है।

न्यायपालिका को अपने गिरेबान में झांक कर इस कमी को पूरा करना होगा, वरना धीरे-धीरे उसकी साख़ ही ख़त्म हो जाएगी, जैसे बलात्कार के आरोपी अखिलेश सरकार में मंत्री रहे गायत्री प्रजापति की ज़मानत मंजूर करके जिला एवं सत्र न्यायधीश जस्टिस ओपी मिश्रा ने न्यायपालिका की साख़ घटाई। दो साल पहले बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से ने अभिनेता सलमान ख़ान को हिट रन केस में कुछ घंटे के भीतर आनन-फानन में सुनवाई करके ज़मानत दे दिया और जेल जाने से बचा लिया था। इसी तरह कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस सीआर कुमारस्वामी ने महाभ्रष्टाचारी जे जयललिता को निर्दोष करार देकर फिर उसे मुख्यमंत्री बना दिया था। ऐसे फ़ैसले न्यायपालिका को ही कठघरे में खड़ा करते हैं।


हाल ही में दो बेहद चर्चित जज न्यायिक सेवा से रिटायर हुए। मई में गायत्री को बेल देने वाले जज ओपी मिश्रा ने अवकाश ग्रहण किया, जून में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज जस्टिस सीएस कर्णन। कर्णन की चर्चा बाद में पहले जज ओपी मिश्रा का ज़िक्र। गायत्री पर एक महिला और उसकी नाबालिग बेटी से बलात्कार करने का आरोप था, इसके बावजूद जज मिश्रा ने ज़मानत दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट की रिपोर्ट में पता चला है कि जज मिश्रा ने गायत्री से 10 करोड़ रुपए लेकर ज़मानत पर रिहा कर दिया था। करोड़ों रुपए डकारने के बावजूद जज मिश्रा और दूसरे रिटायर्ड जज आराम से सेवानिवृत्त जीवन जी रहे हैं।


दूसरी ओर जस्टिस कर्णन पर कभी भी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा, फिर भी वह जेल की हवा खा रहे हैं। यह भी गौर करने वाली बात है कि जस्टिस कर्णन दलित समुदाय के हैं और दुर्भाग्य से भारतीय न्यायपालिका में दलित और महिला समाज का रिप्रजेंटेशन नहीं के बराबर है। दलित या महिला समुदाय के किसी जज को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को जज बनाया गया यह विरला ही सुनने को मिलता है। फिर जस्टिस कर्णन ऐसे समय बिना गुनाह (इसे आगे बताया गया है) के जेल की हवा खा रहे हैं, जब किसी दलित व्यक्ति को देश का प्रथम नागरिक बनाकर सर्वोच्च सम्मान देने की होड़ मची है और दलित समाज के दो शीर्ष नेता रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे हैं।

जस्टिस कर्णन को सजा देने का फैसला भी किसी एक जज ने नहीं किया, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के सात सीनियर मोस्ट जजों की संविधान पीठ ने किया है। संविधान पीठ ने जस्टिस कर्णन को सर्वोच्च न्यायिक संस्था की अवमानना का दोषी पाया और एकमत से सज़ा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट के सात विद्वान जजों की पीठ के दिए इस फैसले की न तो आलोचना की जा सकती है और न ही उसे किसी दूसरे फोरम में चुनौती दी जा सकती है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जस्टिस कर्णन प्रकरण बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। भारतीय न्याय-व्यवस्था में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ जब किसी सेवारत जज को जेल की सजा हुई हो।

जबसे जस्टिस कर्णन गिरफ़्तार करके जेल भेजे गए हैं। आम आदमी के मन में यह सवाल बुरी तरह गूंज रहा है कि आख़िर कर्णन का अपराध क्या है? क्या उन्होंने कोई संगीन अपराध किया? उत्तर - नहीं। क्या उन्होंने कोई ग़लत फ़ैसला दिया? उत्तर - नहीं। क्या उन्होंने किसी से पैसे लिए या कोई भ्रष्टाचार किया? उत्तर - नहीं। क्या उन्होंने कोई ऐसा आचरण किया जो किसी तरह के अपरोक्ष भ्रष्टाचार की ही श्रेणी में आता है? उत्तर - नहीं। मतलब न कोई अपराध किया, न ग़लत फ़ैसला दिया और न ही कोई भ्रष्टाचार किया, फिर भी हाईकोर्ट का जज जेल में है। लिहाजा, आम आदमी के मन में सवाल उठ रहा है कि फिर जस्टिस कर्णन जेल में क्यों हैं? उत्तर - उन्होंने कथित तौर पर कई भ्रष्ट जजों के नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दे दिए थे।

दरअसल, जस्टिस कर्णन ने 23 जनवरी 2017 को पीएम मोदी को लिखे खत में सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाई कोर्ट के दर्जनों जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। कर्णन ने अपनी चिट्ठी में 20 जजों के नाम लिखते हुए उनके खिलाफ जांच की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कर्णन के इस आचरण को कोर्ट की अवमानना क़रार दिया और उन्हें अवमानना नोटिस जारी कर सात जजों की बेंच के सामने पेश होने का आदेश दिया। इसके बाद जस्टिस कर्णन और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो कुछ हुआ या हो रहा है, उसका गवाह पूरा देश है। भारतीय न्याय-व्यवस्था में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ जब किसी कार्यरत जस्टिस को जेल की सज़ा हुई हो।

यह मामला सिर्फ़ एक व्यक्ति बनाम न्यायपालिका तक सीमित नहीं रहा। इस प्रकरण का विस्तार हो गया है और यह देश के लोकतंत्र के 80 करोड़ से ज़्यादा स्टैकहोल्डर्स यानी मतदाओं तक पहुंच गया है। देश का मतदाता मोटा-मोटी यही बात समझता है कि जेल में उसे होना चाहिए जिसने अपराध किया हो। जिसने कोई अपराध नहीं किया है, उसे जेल कोई भी नहीं भेज सकता। सुप्रीम कोर्ट भी नहीं। इस देश के लोग भ्रष्टाचार को लेकर बहुत संजीदा हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार की बीमारी से हर आदमी परेशान है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश के लोगों ने भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाली एक नई नवेली पार्टी को सिर-आंखों पर बिठा लिया था।

बहरहाल, भारत का संविधान हर व्यक्ति को अपने ख़िलाफ़ हो रहे अन्याय, पक्षपात या अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ़ बोलने की आज़ादी देता है। अगर कर्णन को लगा कि उनके साथ अन्याय और पक्षपात हो रहा है, तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना उनका मौलिक अधिकार था। इतना ही नहीं, उन्होंने जजों के ख़िलाफ़ आरोप प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में लगाए थे। उस प्रधानमंत्री को जिसे देश के सवा सौ करोड़ जनता का प्रतिनिधि माना जाता है। लिहाज़ा, अवमानना नोटिस जारी करने से पहले जस्टिस कर्णन के आरोपों को सीरियली लिया जाना चाहिए था, उसमें दी गई जानकारी की निष्पक्ष जांच कराई जानी चाहिए थी। उसके बाद अगर जस्टिस कर्णन गलत पाए जाते तो उनके ख़िलाफ़ ऐक्शन होना चाहिए था। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।

सुप्रीम कोर्ट देश की सबसे बड़ी अदालत है। लिहाज़ा, उसका ध्यान उन मुद्दों पर सबसे पहले होना चाहिए, जिसका असर समाज या देश पर सबसे ज़्यादा होता है। मसलन, देश की विभिन्न अदालतों में दशकों से करोड़ों की संख्या में विचाराधीन केसों का निपटान कैसे किया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत सबसे ज़्यादा शिथिल है। इसकी एक नहीं कई कई मिसालें हैं, जिनसे साबित किया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट संवेदनशील केसेज़ को लेकर भी उतनी संवेदनशील नहीं है, जितना उसे होना चाहिए।


उदाहरण के रूप में दिसंबर 2012 के दिल्ली गैंगरेप केस को ले सकते हैं। जिस गैंगरेप से पूरा देश हिल गया था। सरकार ने जस्टिस जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता में आयोग गठित किया। उन्होंने दिन रात एक करके रिपोर्ट पेश की। आनन-फानन में संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया गया और अपराधिक क़ानून में बदलाव किए गए। उस केस की सुनवाई के लिए फॉस्टट्रैक कोर्ट गठित की गई जिसने महज 173 दिन यानी छह महीने से भी कम समय में सज़ा सुना दी थी और दिल्ली हाईकोर्ट ने भी केवल 180 दिन यानी छह महीने के अंदर फांसी की सज़ा पर मुहर लगा दी थी, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने लटका दिया और उसे फैसला सुनाने में तीन साल (1145 दिन) से ज़्यादा का समय लग गया।

देश का आम आदमी हैरान होता है कि करोड़ों की संपत्ति बनाने वाली जयललिता को निचली अदालत के जज माइकल चून्हा ने 27 सितंबर 2014 को चार साल की सज़ा सुनाई, जिससे उन्हें सीएम की कुर्सी  छोड़नी पड़ी और जेल जाना पड़ा। उनका राजनीतिक जीवन ही ख़त्म हो गया। लेकिन आठ महीने बाद 11 मई 2015 को कर्नाटक हाईकोर्ट के कुमारस्वामी ने जया को निर्दोष करार दे दिया। वह फिर मुख्यमंत्री बन गई और जब मरी तो अंतिम संस्कार राजा की तरह हुआ। जबकि क़रीब दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट को ही कुमारस्वामी का फ़ैसला रद्द करना पड़ा और जयललिता की सहयोगी शशिकला को जेल भेजना पड़ा। देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायाधीशों की नज़र में कुमारस्वामी का आचरण क्यों नहीं आया। अगर उन्होंने ग़लत फ़ैसला न सुनाया होता तो एक भ्रष्टाचारी महिला दोबारा सीएम न बन पाती और उसकी समाधि के लिए सरकारी ज़मीन न देनी पड़ती। इससे पता चलता है कि कुमारस्वामी ने कितना बड़ा अपराध किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनको कोई नोटिस जारी नहीं किया। सबसे अहम कि कुमारस्वामी पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं।


इसी तरह हिट ऐंड रन केस में अभिनेता सलमान ख़ान को 7 मई 2015 को निचली अदालत ने सज़ा सुनाई। आम आदमी को ज़मानत लेने में महीनों और साल का समय लग जाता है, लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से ने सलमान ख़ान को कुछ घंटों के भीतर बेल दे दी। इतना ही नहीं जब पूरा देश उम्मीद कर रहा था कि सलमान को शर्तिया सज़ा होगी, तब बॉम्बे हाईकोर्ट के जज जस्टिस एआर जोशी ने 10 दिसंबर 2015 को रिटायर होने से कुछ पहले दिए गए अपने फ़ैसले में सलमान को बरी कर दिया। इस फ़ैसले से सरकार ही नहीं देश का आम आदमी भी हैरान हुआ। साफ़ लगा कि अभिनेता ने न्यायपालिका को मैनेज कर लिया। जब जज ओपी मिश्रा रिश्वत ले सकते हैं तो हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज भी रिश्वत ले सकता है, इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, सलमान को रिहा करने की राज्य सरकार की अपील अब दो साल से सुप्रीम कोर्ट के पास है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने सलमान को सज़ा दे दी तो क्या जस्टिस एआर जोशी के ख़िलाफ कार्रवाई होगी, ज़ाहिर है नहीं, क्योंकि इस तरह की कोई व्यवस्था संविधान में नहीं हैं।

द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक, 17 सितंबर 2010 को पूर्व क़ानून मंत्री और क़ानूनविद शाति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक अप्लीकेशन देकर कहा था, एकाध नहीं, आठ-आठ मुख्य ऩ्यायाधीश भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जा चुके हैं। अगर देश की सबसे बड़ी अदालत के पास हिम्मत है तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करें।” इतना ही नहीं मुख्य ऩ्यायधीश रहे जस्टिस जगदीश शरण वर्मा और जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर तो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। देश के चर्चित खोजी पत्रकार विनीत नारायण ने अपनी वीडियो मैगज़ीन कालचक्र ने जस्टिस आदर्श सेन आनंद पर ज़मीन घोटाले के आरोप लगाए थे। बदले में उन्हें बहुत ज़्यादा प्रताड़ित किया गया था। अपने ही लॉ-इंटर्न के यौन उत्पीड़न के आरोपों से घिरे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस ए के गांगुली के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई हुई? सन् 2013 में कई महीने तक यह मामला सुर्खियों में रहा, लेकिन कुछ नहीं। गांगुली से केवल पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा मांगा गया था।

बहरहाल, अगर भ्रष्टाचार से जुड़े मामले पर जस्टिस कर्णन ने पीएम को पत्र लिखा तो अवमानना नोटिस देने से पहले कर्णन के आरोपों की गंभीरता और तथ्यपरकता की जांच होनी चाहिए थी। जिन पर कर्णन ने आरोप लगाया, उनका बाल भी बांका नहीं हुआ और आरोप लगाने वाले कर्णन को उनके आरोप ग़लत साबित होने से पहले ही जेल भेज दिया गया। न्यायपालिका के भीतर रहते हुए कोई उसकी व्यवस्था पर प्रश्न नहीं उठा सकता और उसके बाहर होने पर भी आलोचना नहीं कर सकता। वह अवमानना का विषय बन जाएगा। यह तो निरंकुशता हुई, जिसका समाधान जल्द से जल्द खोजा जाना चाहिए। इतना ही नहीं न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर बहस करने का वक़्त आ गया है, ताकि इसमें लोगों की आस्था बनी रहे।


समाप्त

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

कुलभूषण जाधव को क्या पहले ही फांसी पर लटका चुका है पाकिस्तान?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या भारतीय नौसेना के पूर्व अधिकारी कुलभूषण सुधीर जाधव का हश्र पाकिस्तान भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह जैसा कर चुका है? यानी दुश्मन ने भारत के इस सपूत की अमानवीय और अलोकतांत्रिक ढंग से हत्या कर दी है। दरअसल, इस आशंका को इसलिए भी बढ़ावा मिल रहा है, क्योंकि कुलभूषण के बारे में भारत की ओर से अब तक 16 बार राजनयिक के ज़रिए जानकारी मांगी गई है, लेकिन पाकिस्तान लगातार इनकार कर रहा है और अब तक उनके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है।

हाल ही में पाकिस्तान के अशांत सिंध प्रांत में कथित तौर पर भारतीय ख़ुफिया एजेंसी रॉ (रिसर्च ऐंड एनालिसिस) के लिए जासूसी के जुर्म में कुलभूषण को पाकिस्तान की सैन्य अदालत ने मौत की सजा सुनाई है। पाक सैन्य अदालत के फ़ैसले के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में खटास सी आ गई है। भारत कुलभूषण के ख़िलाफ़ दायर किए गए आरोपपत्र की कॉपी मांग रहा है, लेकिन पाकिस्तान कोई भी जानकारी देने से साफ़ इनकार कर रहा है।


बहरहाल, अगर कुलभूषण की हत्या की आशंका सच है तो यह भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर बहुत बड़ी कूटनीतिक पराजय की तरह होगी। इसलिए प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को कुलभूषण की सलामती के बारे में कठोर रुख अपनाकर फ़ौरन सही जानकारी देने की इस्लामाबाद सरकार से मांग करनी चाहिए। यह मानने में हर्ज नहीं कि कुलभूषण का मामला अब राजनयिक स्तर से बहुत ऊपर उठ चुका है।

भारतीय जनता पार्टी बिहार के आरा से लोकसभा सदस्य और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में केंद्रीय गृह सचिव रहे राजकुमार सिंह (आरके सिंह) का भी मानना है कि संभवतः पाकिस्तानी सेना पहले ही कुलभूषण जाधव की हत्या कर चुकी है। इसीलिए अब इस्लामाबाद कथित तौर पर देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और गोपनीयता का हवाला देकर पूर्व नेवी ऑफिसर के बारे में कोई भी जानकारी देने से इनकार कर रहा है।

सन् 2011 से 2013 के दौरान केंद्र में गृह सचिव रहे आरके सिंह का कहना है कि विदेशी नागरिकों को लेकर पाकिस्तान का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अमानवीय और भयानक रहा है। इसलिए भारत सरकार को इस मुद्दे को बहुत गंभीरता से लेनी चाहिए। पूर्व नौकरशाह ने कहा कि ऐसा लगता है कि गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तानी सेना द्वारा कुलभूषण जाधव को बहुत ज़्यादा टॉर्चर किया गया, जिससे संभवतः उनकी मौत हो गई। कुलभूषण की मौत के बाद पाकिस्तानी सेना की अदालत ने उन्हें फांसी देने की सज़ा सुना दी, ताकि मामले की लीपापोती की जा सके।

बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून के जानकारों का भी मानना है कि पाकिस्तान जिस तरह से कुलभूषण जाधव के बारे में तथ्य छुपा रहा है और कोई भी सूचना देने से आनाकानी कर रहा है, वह गंभीर संदेह पैदा कर रहा है कि कहीं कुलभूषण के साथ अनहोनी हो तो नहीं चुकी है। कम से कम कोई देश किसी भी विदेशी जासूस के साथ ऐसा सलूक नहीं करता कि संबंधित देश को उसके बारे में कोई जानकारी ही न दी जाए।

भारत में लोग कुलभूषण की पाकिस्तान में पकड़े जाने की ख़बर आने के बाद से ही बहुत परेशान हैं। वॉट्सअप, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्किंग पर कुलभूषण को बचाने के लिए साल भर से मुहिम चल रही है और उन्हें किसी भी क़ीमत पर सकुशल देश में लाने की अपील प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की जा रही है। दरअसल, लोग सरबजीत सिंह के बहाने देख चुके हैं कि जासूसी के आरोप में पड़ोसी दुश्मन देश में पकड़े जाने का क्या हश्र होता है।

दुनिया देख चुकी है कि पाकिस्तान के लाहौर की सेंट्रल जेल में सरबजीत को पीट पीटकर मार डाला गया था। सरबजीत के बारे में पाकिस्तान की बताई कहानी के अनुसार, 26 अप्रैल 2013 को तक़रीबन दोपहर के 4.30 बजे सेंट्रल जेल, लाहौर में कुछ कैदियों ने ईंट, लोहे की सलाखों और रॉड से सरबजीत पर हमला कर दिया था। नाजुक हालत में सरबजीत को लाहौर के जिन्ना अस्पताल में भर्ती करवाया गया। इलाज के दौरान वह कोमा में चले गए और 1 मई 2013 को जिन्ना हॉस्पिटल के डॉक्टरों  ने सरबजीत को ब्रेनडेड घोषित कर दिया।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने कहा कि भारत सरकार को अपने किसी नागरिक के स्वास्थ्य के बारे में जानने का पूरा अधिकार है। अहीर के मुताबिक़, इस्लामाबाद आज भले ही कुलभूषण जाधव के बारे में कोई जानकारी नहीं दे रहा है, लेकिन एक न एक दिन उसे उनकी सलामती के बारे में भारत को बतानी ही पड़ेगी। भारत में लोगों का मानना है कि सरकार को अपनी पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए ताकि कुलभूषण को सही सलामत वापस स्वदेश वापस लाया जा सके।

अमेरिका में रह रहे भारतीय-अमेरिकी समुदाय ने कुलभूषण जाधव को मौत की सजा से बचाने के लिए व्हाइट हाउस पिटीशन लॉन्च किया है। भारतीय-अमेरिकियों ने कुलभूषण की जान बचाने के लिए ट्रंप प्रशासन से दख़ल देने की मांग की है। व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर ‘वी द पीपुल पिटीशन’ में कहा गया है कि जाधव के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप कि वह भारत के लिए जासूसी कर रहा था पूरी तरह से ग़लत और मनगढ़ंत हैं। ट्रंप प्रशासन इस पर कोई प्रतिक्रिया दे इसके लिए 14 मई तक इस पर एक लाख लोगों के हस्ताक्षर होने ज़रूरी हैं।

पाकिस्तान ने आरोप लगाया था कि कुलभूषण जाधव ईरान से इलियास हुसैन मुबारक़ पटेल के नक़ली नाम पर पाकिस्तान आया जाया करते थे। पाकिस्तान का कहना है कि 29 मार्च 2016 को उन्हें बलूचिस्तान से गिरफ़्तार किया गया। भारत सरकार का दावा है कि कुलभूषण का ईरान से अपहरण हुआ है। पाकिस्तान का दावा है कि कुलभूषण भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के लिए काम करते हैं और बलूचिस्तान में विध्वंसक गतिविधियों में शामिल हैं। इसी आरोप के लिए 11 अप्रैल 2017 को पाकिस्तान के मिलिट्री कोर्ट ने कुलभूषण को मौत की सजा सुनाई, जिसका भारत सरकार व भारतीय जनता ने भारी विरोध किया।


सन् 1970 में महाराष्ट्र के सांगली में जन्मे कुलभूषण के पिता सुधीर जाधव मुंबई पुलिस में वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। कुलभूषण जाधव का बचपन दक्षिण मुंबई में गुजरा था। कुलभूषण को दोस्त भूषण कहकर बुलाते थे, जबकि उनसे छोटे उन्हें “भूषण दादा” कहते थे। फुटबॉल का शौकीन कुलभूषण ने 1987 में नेशनल डिफेन्स अकादमी में प्रवेश लिया तथा 1991 में भारतीय नौसेना में शामिल हुए। उसके बाद सेवा-निवृति के बाद ईरान में अपना व्यापार शुरू किया था। उसी सिलसिले में वह ईरान में थे, जहां से अपहृत करके उन्हें पाकिस्तान ले जाया गया था।

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

शहीद की बेटी

(कारगिल वॉर के समय लिखी मेरी कविता)

कब आओगे पापा?

पापा कब तुम आओगे
तुम्हारी बहुत याद आती है मुझे
अच्छा बाबा खिलौने मत लाना
मैं जिद नहीं करूंगी
नहीं तंग करूंगी तुम्हें
बस तुम आ जाओ
मम्मी हरदम रोती हैं
मांग में सिंदूर भी नहीं भरतीं
मंगल सूत्र निकाल दिया है उन्होंने
चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं
सफेद साड़ी में लिपटी
बेडरूम में पड़ी
सिसकती रहती हैं
वह मुझसे बात भी नहीं करतीं
वह किसी से नहीं बोलतीं
घर पर रोज नए नए लोग आते हैं
बॉडी गार्ड वाले लोग आते हैं
चुप रहते हैं फिर चले जाते हैं
मम्मी उनसे भी बात नहीं करतीं
बस रोती रहती हैं
बिलखती रहती हैं
रात को नींद खुलने पर
उन्हें रोते ही देखती हूं
मम्मी के आंसू देखकर
मैं भी रोती हूं पापा
मुझे तुम बहुत याद आते हो
प्लीज पापा आ जाओ
मेरे लिए नहीं तो मम्मी के लिए ही
लेकिन तुम चले आओ
देखो तुम नहीं आओगे तो
मैं रूठ जाऊंगी
तुमसे बात नहीं करूंगी
कट्टी ले लूंगी
तुम कैसे हो गए हो पापा
क्या तुम्हें मेरी और मम्मी की सचमुच याद नहीं आती
तुम तो ऐसे कभी नहीं थे
अचानक तुम्हें क्या हो गया
तुम इतने बदल कैसे गए पापा
आज अखबारों में
तुम्हारी फोटो छपी है
लिखा है
तुम शहीद हो गए
देश के लिए
अपनी आहुति दे दी
यह शहीद और आहुति क्या है पापा
ड्राइंग रूम में
तुम्हारी वर्दी वाली जो फोटो टंगी है
उस पर फूलों की माला चढ़ा दी गई है
अगरबत्ती सुलगा दी गई है
मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आता
आज स्कूल की टीचर भी आईं थी
मेरे सिर पर हाथ फेर रही थीं
स्कूल में उन्होंने कभी इतना प्यार नहीं दिखाया
मम्मी भी फफक फफक कर रो रही थीं
मुझे भी रोना आ रहा था
सब लोग रो रहे थे
पापा तुम आ जाओ प्लीज
मुझे डर लगता है बहुत डर लगता है
मैं छुपना चाहती हूं पापा
बस तुम्हारे सीने में तुम्हारी गोदी में
ये देखो पापा
मेरे आंसू फिर गिरने लगे हैं
मैं रो रही हूं
सच्ची ये अपने आप गिर रहे हैं
मुझे तुम्हारी याद आने लगी है
बस तुम आ जाओ
आ जाओ न!
(इस कविता का पाठ मैंने 1999 में मोदी कला भारती सम्मान मिलने पर इंडियन मर्चेंट मैंबर के सभागृह में किया था, सबकी आंखें भर आईं थींं)

मंगलवार, 7 मार्च 2017

नारी

नारीक्या सचमुच चाहता है समाज
स्त्री-पुरुष को देखना समान
तो इसके लिए
कुछ नहीं करना
बस बेटी को बना होगा
उत्तराधिकारी परिवार का
सामाजिक रूप से ही नहीं
क़ानूनी तौर पर भी
चली आ रही है परंपरा
पता नहीं कितनी सदियों से
पुत्र को बनाने की उत्तराधिकार
भेट चढ़ गई है स्त्री
उस पुरुष-प्रधान परंपरा की
बन गई है नागरिक
दोयम दर्जे की
अबला, पराया धन, बोझ
और पता नहीं क्या-क्या
कहा जाने लगा है स्त्री को
अगर करना है मुक्त
ग़ुलामी के एहसास से उसे
तो देना होगा उसे अधिकार
पिता की संपत्ति पाने का
बहुत ज़्यादा नहीं
केवल दस साल के लिए
हां, इन दस सालों
बेटा नहीं, केवल बेटी ही होगी
वारिस माता-पिता की
तब होगा नारी का
सही मायने में सशक्तिकरण
और वह पहुंच जाएगी
पुरुष के बराबर
बिना किसी आरक्षण के
मानिए यकीन
तब हो जाएंगी हल
अपने आप समाज की
सारी समस्याएं
क्योंकि अपने स्वभाव के चलते
नारी नहीं करेगी
पुरुष के साथ भेदभाव
जैसा कि पुरुष अब तक
करता रहा है नारी के साथ
हरिगोविंद विश्वकर्मा

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

ग़ज़ल - हैरतअंगेज अल्फ़ाज़ पुस्तक में लिखा था

ग़ज़ल
हैरतअंगेज अल्फ़ाज़ पुस्तक में लिखा था
कनक कहीं धतूरा कहीं सोना लिखा था
चर्चा कहीं थी लाखों-करोड़ों के बजट की
कहीं बच्चों को भूख से मरना लिखा था
जिक्र था बुद्ध, सुकरात महान आदमी थे
कहीं आदमी को केवल खिलौना लिखा था
स्वास्थ के लिए हंसना है बहुत ही ज़रूरी
किसी को ज़िंदगी भर बस रोना लिखा था
द्रौपदी को दुशासन ने बेहया करना चाहा कहीं लाज को औरत का गहना लिखा था
हरिगोविंद विश्वकर्मा

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

ग़ज़ल - कैसी ज़िंदगी

कैसी ज़िंदगी

कतरा-कतरा जीवन टुकड़ों में ज़िंदगी
देखना अभी कितनी बंटती है ज़िदगी.

लाख कोशिश से भी समेट नहीं पाया
हर क़दम पर देखो बिखरी है ज़िंदगी.

सोचा था मेहनत से गुज़र जाएगा जीवन
यहां तो उस तरह की है ही नहीं ज़िंदगी.

शर्तिया होगी मौत ऐसे जीवन से बेहतर
उसे भी आने नहीं देती कमबख़्त ज़िंदगी.

हे मां क्यों पढ़ा गई ईमानदारी का पाठ
देख तो हो गई है कैसी बदतर ज़िंदगी.

शनिवार, 31 दिसंबर 2016

नोटबंदी - लोगों की असुविधा के लिए बैंकवालों को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए

हरिगोविंद विश्वकर्मा
2016 आख़िरकार बीत गया। साल के अंतिम 53 दिन बेहद संकट भरे रहे। संकट इतना गहरा रहा कि पैसे होने के बावजूद मध्यम वर्ग पाई-पाई का मोहताज़ रहा। डिमोनिटाइज़ेशन की घोषणा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों (जिन्हें मोदी विरोधी भक्त कहते हैं) के हीरो बन गए, लेकिन अपने विरोधियों, ख़ासकर गैरदक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों के लिए मोदी विलेन बन गए। नोटबंदी की घोषणा के बाद मोदी समर्थकों के साथ आम जनता को भी लगा कि कालधन रखने वालों के बुरे दिन आ गए, लेकिन जब धन्नासेठों के पास नए नोटों की गड्डियां मिलने लगी तो लोगों का मोदी से मोहभंग होने लगा और लोग मानने लगे कि आम आदमी को बेवकूफ बनाने के लिए यह योजना शुरू की गई।

कई लोगों ने और बहुसंख्यक जनता ने भी माना कि मोदी की नोटबंदी की योजना ठीक थी, लेकिन बैंकवालों ने एक साज़िश के तहत इसे फेल कर दिया। इसीलिए देश में आजकल बैंक और बैंक अधिकारी विलेन बने हुए हैं। ट्रेन हो, बस हो या फिर चाय की दुकान, लोग बैंकवालों को ही कोस रहे हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस के टिपिकल विरोधी इसे प्रधानमंत्री की नई चाल मान रहे हैं। उनके अनुसार नोटबंदी फेल होने पर लोग मोदी को नहीं, बल्कि बैकों को गाली दे रहे हैं यानी मोदी के किए की सज़ा भुगत रहे हैं बैंकवाले। दरअसल, बैंकों को लोग इसलिए भी कोस रहे हैं, क्योंकि नोटबंदी के बाद जो भी रुपए वितरित हुए, उसे केवल बैंकों ने ही वितरित किया। लिहाज़ा, लोगों को जो भी असुविधा हुई या हो रही है, उसके लिए सरकार से ज़्यादा बैंकें ज़िम्मेदार हैं।

दरअसल, अतीत पर नज़र डाले तो भारत में बैंकों का कामकाज कभी भी चर्चा का विषय नहीं रहा है। एकाध मामले को छोड़ दें, तो बैंकवाले आमतौर पर ऊपर से देखने में बहुत ईमानदार माने जाते रहे हैं, जबकि यह सच नहीं है। सच तो यह है कि तमाम बैंक अफ़सरान आम जनता के लिए बहुत सख़्त मालूम पड़ते हैं, लेकिन धन-कुबेरपतियों के सामने नरम हो जाते हैं और बिना बारीक़ी से जांच पड़ताल किए करोड़ों रुपए का क़र्ज़ मंजूर करके ख़ूब दरियादिली दिखाते हैं। इसके बावजूद इक्का-दुक्का केसेज़ को छोड़ दें तो बैंकवालों पर सरकार या दूसरी एजेंसियों की नज़र नहीं के बराबर रहती है।

यही वजह है कि बेइमान धन्नासेठों से सांठगांठ करके बैंकवाले करोड़ों रुपए का क़र्ज़ बांटते रहे हैं, जो दो चार साल बाद बैड लोन में तब्दील हो जाता है, लेकिन इसके लिए किसी क़र्ज़दाता बैंक ने कभी क़र्ज़ मंजूर करने वाली शाखा के तत्कालीन मैंनेजर को दोषी नहीं ठहराया। यहां तक कि ऐयाशी के लिए मशहूर विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस के क़रीब 1201 करोड़ रुपए समेत 63 लोन डिफॉल्टर्स के 7000 (सात हज़ार) करोड़ रुपए को बट्टे खाते (क़रीब-क़रीब माफ़ कर देना) में डालने के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के फ़ैसले पर किसी ने सवाल नहीं उठाया। इतनी बड़ी रकम बट्टे खाते में डालने पर एसबीआई के एक भी अधिकारी की नौकरी नहीं गई। यहां तक कि इन 63 लोगों को लोन मंज़ूर करने वाले एसबीआई अफ़सरों से भी जवाब-तलब नहीं किया गया।

लब्बोलुआब यह कि परदे के पीछे काम करने के कारण बैंकवालों को पूरा भरोसा था कि नोटबंदी के बाद भी वे जो कुछ करेंगे उस पर किसी एजेंसी की नज़र नहीं पड़ेगी। लिहाज़ा, मौक़ा मिला है तो हाथ साफ़ कर लेने में कोई बुराई नहीं। लगता है, बैंकवालों का यही अति आत्मविश्वास अब भारी पड़ रहा है। दरअसल, 8 नवंबर 2016 की शाम जब प्रधानमंत्री ने 500/1000 की नोट बंद करने की घोषणा की तो जनता को लगा बहुत अच्छा फ़ैसला है, लेकिन बैंकवाले उसी समय भांप गए कि बिना तैयारी के शुरू की गई यह योजना देर-सबेर टांय-टांय फिस्स होने वाली ही है। सरकार ने इस योजना में इतनी ज़्यादा बार संशोधन किया कि वाक़ई लगने लगा कि उसने इसे बिना तैयारी के शुरू कर दिया था।

जो भी हो बैंकवालों ने नोटबंदी योजना के तमाम लूप होल्स को फ़ौरन पढ़ लिए। लिहाज़ा, उन्होंने सोचा कि क्यों न इन लूप होल्स का फ़ायदा उठाकर अपने ख़ास लोगों का कल्याण करते हुए उनके पुराने नोट (कालेधन) नई करेंसी में बदल दिए जाएं। जोड़-घटाने और आंकड़बाजी में बेहद उस्ताद बैंकवालों ने कैलकुलेट कर लिया था कि अगर बांटने के लिए रिज़र्व बैंक से मिली धनराशि जनता से पैनकार्ड लेकर अपने ख़ास लोगों को दे दी जाए तो सरकार बिल्कुल भांप ही नहीं पाएंगी। न ही पकड़ पाएगी। इससे उनकी सेहत पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि इतने माइक्रो लेवल पर जांच पड़ताल करेगा कौन?

इसके बाद बैंक वालों ने वह खेल खेलना शुरू किया जो अब तक अरबपतियों के क़र्ज़ को बैडलोन में तब्दील होने को जस्टीफाई करने के लिए खेलते आ रहे हैं। इस बार खेल था 500/1000 की पुरानी करेंसी को 2000 की नई करेंसी में बदलने का। पूरे देश सोचता रहा कि बेचारे बैंकवाले बिना छुट्टी के दिन-रात काम कर रहे हैं, जबकि बैंकवाले कैश बांटने की बजाय रसूखदार लोगों को नई करेंसी की गड्डी की गड्डी पहुंचाने में लगे थे। पहले दो हफ़्ते नोटबंदी की आड़ में ब्लैक मनी हो ह्वाइट करने का खेल बदस्तूर जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि एक सीरीज़ के ढेर सारे नोट कुछ चंद लोगों तक पहुंच गए।

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), इनकम टैक्स (आईटी) और लोकल पुलिस द्वारा
देशव्यापी छापे मारकर जिस तरह से रसूखदार लोगों के पास से रोज़ाना करोड़ों रुपए पकड़े जा रहे हैं। यानी जिस तरह दो हज़ार की नई करेंसी की गड्डियां और सोने के भंडार ज़ब्त किए जाने की ख़बरें आ रही हैं। उससे ऐसा लगता है जैसे बैंकवालों ने 2000 रुपए की नई करेंसी का ज़्यादातर हिस्सा रातोंरात रसूखदार लोगों को दे डाला और बेचारा आम आदमी लाइन में खड़ा अपनी बारी का इंतज़ार करता रह गया। नंबर आने पर उसे कैश ख़त्म होने का बोर्ड देखने को मिला।

सरकार के निर्देश पर रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने कहा कि एक आदमी एक दिन में केवल दो हज़ार रुपए एटीएम से निकाल पाएगा। यानी एक एटीएम कार्ड होल्डर एक दिन में केवल 2000 रुपए (500 की नई नोट जारी होने के बाद 2500) की एक नोट पा सकता है। यानी अगर एटीएम 24 घंटे चलता (जो हुआ नहीं) तब एक आदमी के पैसे निकालने में 2 मिनट जोड़ लें तो दिन भी में अधिकत 720 लोग 14 लाख 40 हज़ार रुपए निकाल सकते थे। इसी तरह चेक के ज़रिए शेविंग अकाउंट से 10 हज़ार रुपए यानी 2000 की पांच नोट और करेंट अकाउंट से 24 हज़ार रुपए यानी 2000 की 12 नोट ले सकते हैं, लेकिन यहां तो रसूखदार लोगों के पास से एक-एक, दो-दो, तीन-तीन, चार-चार करोड़ नहीं बल्कि दस-दस और बीस-बीस करोड़ रुपए मिल रहे हैं। एक सज्जन के पास तो 250 करोड़ रुपए की 2000 की गड्डियां मिलीं, वह भी एक सीरियल की नोट यानी ये नोट एक ही बैंक से आए होंगे। इसका यह भी मतलब है कि बैंकें आम आदमी को पैसे नहीं हैं कहकर बेरंग लौटा रही थीं और पैसे रसूखदार लोगों तक पहुंचा रही थीं।

सवाल यह है कि 2000 की एक नोट (एटीएम) या पांच नोट (शेविंग खाता) की बजाय लोगों के पास गड्डी की गड्डी कैसे पहुंच गई। इसका क्या जवाब है, जो लोग बैंकवालों को ईमानदार बता रहे हैं। जिस तरह से काला धन रोज़ाना पकड़ा जा रहा है, उसे बैंकवाले कैंस करेंगे जस्टीफाई। ज़ाहिर है, भारतीय बैंकों ने देशवासियों ही नहीं पूरे देश को धोखा दिया। चंद ईमानदार बैंक अफ़सरों व कर्मचारियों को स्वाभाविक तौर पर बुरा लग सकता है, लेकिन इस कटु सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि नोटबंदी की घोषणा और 2000 की नोट जारी किए जाने के बाद भारतीय बैंकों ने देश के साथ गद्दारी की।

8 नवंबर के बाद बैंकों ने जो कुछ किया, उसकी गहन जांच-पड़ताल के लिए एक आयोग यानी कमीशन बिठाने की ज़रूरत है और ज़ब्त की जा रही 2000 रुपए की गड्डियां जिस बैंक से दी गई हों, उस बैंक के पूरे ब्रांच के सभी अधिकारियों-कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार ही नहीं, बल्कि देशद्रोह का भी मामला दर्ज करके उन पर मुक़दमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि बैंक अफसरों ने कैश धनराशि अगर रसूखदार लोगों को न देकर आम जनता में बांटा होता तो लोगों को इतनी ज़्यादा असुविधा नहीं होती, जितनी हुई या अभी तक हो रही है। बैंकवालों को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए।


गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

2012 दिल्ली गैंगरेप - इंसाफ़ के लिए कब तक करना होगा इंतज़ार?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
16 दिसंबर का दिन संभवतः हर किसी को याद होगा। चार साल पहले इसी दिन राजधानी दिल्ली में एक चलती हुई बस में एक बर्बरतापूर्ण गैंगरेप हुआ था। उसकी चौथी बरसी पर एक बार फिर लोग गाहे-बगाहे सवाल उठा रहे हैं कि आख़िर ग़ुनाहगारों को अब तक सज़ा क्यों नहीं दी गई? सरकार की ओर से कहा जा रहा हा कि उसने तो अपनी तरफ़ से दोषियों को सज़ा देने की प्रक्रिया में पूरी कर दी। मतलब, दिल्ली पुलिस ने रिकॉर्ड समय में मामले की जांच करके आरोप पत्र दाखिल कर दिया। इसके बावजूद अपराधी अभी तक ज़िंदा है।

दरअसल, चार साल पहले दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को जल्दी सज़ा देने के लिए फास्टट्रैक कोर्ट का गठन किया गया था। रोहिणी की फास्टट्रैक कोर्ट ने 173 दिन यानी छह महीने से भी कम समय में सज़ा सुना दी थी। बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 180 दिन यानी छह महीने के अंदर फांसी की सज़ा पर मुहर लगा दी थी। उस समय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका (पुलिस+सरकार), विधायिका (संसद) और न्यायपालिका (निचली अदालत+दिल्ली हाईकोर्ट) की सक्रियता देखकर एक बार पूरे देश को लगा और भरोसा भी हुआ कि पूरी व्यवस्था बदल जाएगी। ऐसे प्रावधान हो गए हैं कि कोई बलात्कार की हिमाकत नहीं करेगा। महिलाओं पर यौन हमला करने वाला हर अपराधी जेल में होगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तमाम कवायदें टांय-टांय फिस्स हो गईं, क्योंकि देश का सबसे महत्वपूर्ण मुक़दमा 14 मार्च 2014 से यानी क़रीब-क़रीब तीन साल (2 साल 10 महीने) से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अगर कहें कि इस देरी से देश में कम से कम बलत्कृत महिला को जल्दी न्याय दिलाने की सरकार की कोशिश की हवा देश की सबसे बड़ी अदालत में निकल गई, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मतलब, आप सरकार में हैं तो चाहे जितना उछल कूद लें, कमेटी बिठा लें, जांच करवा लें और फॉस्टट्रैक कोर्ट बना लें, लेकिन फ़ैसला अदालत मुक़दमे की प्रक्रिया पूरी होने पर ही देगी। अब व्यवस्था ही ऐसी है तो सुप्रीम कोर्ट क्या करे।

बहरहाल, 16-17 दिसंबर 2012 की रात आठ से नौ के बीच पैरामेडिकल छात्रा के साथ छह दरिंदों ने इतना अमानवीय व्यवहार किया था कि लड़की का शरीर ही नष्ट हो गया। भारत में डॉक्टरों ने उसकी जान बचाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। भारतीय डॉक्टरों के नाकाम होने पर उसे सिंगापुर के विश्वविख्यात माउंट एलिजाबेथ अस्पताल ले जाया गया, फिर भी उसकी जान नहीं बचाई जा सकी। कहने का मतलब दो हफ़्ते मौत से जूझने के बाद 29 दिसंबर को वह यमराज से उसी तरह हार गई, जैसे दो हफ़्ते पहले बलात्कारियों से लड़ने के बाद हार गई थी।

गैंगरेप की दुनियाभर में निंदा हुई थी। देश में कहीं शांतिपूर्ण तो कहीं उग्र प्रदर्शन भी हुए थे। दिल्ली में प्रदर्शन के उग्र होने पर मेट्रो सेवा बंद करनी पड़ी थी। रायसीना हिल्सरोड पर तो दिल्ली पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया था। घटना के दो दिन बाद संसद के दोनों सदनों में जोरदार हंगामा हुआ था। आक्रोशित संसद सदस्यों ने रेपिस्ट्स के लिए फ़ांसी की सज़ा तय करने मांग की थी। इसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री सुशीलकुमार शिंदे ने संसद को आश्वासन दिया कि आरोपियों को जल्द से जल्द सज़ा दिलवाने की सरकार की ओर से हर संभव कोशिश की जा रही है और राजधानी दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के लिए हर संभव क़दम उठाए जा रहे हैं।

वह घटना कितनी महत्वपूर्ण थी इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र ने महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते य़ौन अपराध को रोकने के लिए कठोर क़ानून बनाने की घोषणा की। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने दिन रात काम किया। उसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी समेत देश-विदेश से क़रीब 80 हजार सुझाव मिले। कमेटी ने रिकॉर्ड 29 दिन में 630 पेज की रिपोर्ट 23 जनवरी 2013 को सरकार को सौंप दी।

कमेटी को महिलाओं पर यौन अत्याचार करने वालों को कठोरतम दंड देने की सिफारिश करनी थी। लोगों को उम्मीद भी थी कि बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने का प्रावधान किया जाएगा। मगर कमेटी की रिपोर्ट बेहद निराशाजनक रही। रिपोर्ट में कमेटी ने रेप को रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट केस माना ही नहीं, जबकि देश का पूरा नेतृत्व हर बलात्कारी को फ़ांसी की सज़ा देने के पक्ष में था। इसीलिए, वर्मा कमेटी की रिपोर्ट पढ़कर कई महिला संगठनों ने आरोप लगाए थे कि पुरुष प्रधान समाज में पले-बढ़े और न्याय-व्यवस्था का संचालन करने वाले जस्टिस वर्मा संभवतः बलत्कृत स्त्री की पीड़ा महसूस करने में असफल रहे, अन्यथा हर बलात्कारी के लिए फ़ांसी की सज़ा की सिफ़ारिश ज़रूर करते।

वस्तुतः कमेटी ने रेप के बाद लड़की की हत्या या मौत को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर ज़रूर माना और हत्यारे रेपिस्ट के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान किया। इसके अलावा जस्टिस वर्मा ने यौन अपराध करने वालों को कड़ी सज़ा का प्रावधान किया जिसके चलते तरुण तेजपाल जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी पुलिस की गिरफ़्त में आए। बहरहाल, 21 मार्च 2013 को लोकसभा ने बलात्कार विरोधी बिल पास कर दिया और इस क़ानून को क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम 2013 कहा गया।

दिल्ली गैंगरेप पर बीबीसी के लिए फिल्मकार लेस्‍ली एडविन ने 'इंडियाज डॉटर्स' शीर्षक से डॉक्‍यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें उन्होंने देश में महिलाओं या लड़कियों के प्रति पुरुष की मानसिकता को बताने की हर संभव कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने तिहाड़ जेल में एक आरोपी का इंटरव्यू भी लिया था। उस इंटरव्यू के कारण यह वृत्तचित्र विवाद में आ गया। उस पर प्रसारण से पहले ही बैन लग गया। भारत सरकार के सख़्त होने पर वृत्तचित्र के कंटेंट को यू-ट्यूब से भी हटाना पड़ा।

इस बीच दिल्ली गैंगरेप के मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने न्यायपालिका से पहले ख़ुद को सज़ा दे दी और 11 मार्च 2013 की सुबह तिहाड़ जेल में ख़ुकुशी कर ली। पिछले साल बरसी के दो दिन बाद यानी 16 दिसंबर की रात पीड़ित लड़की पर सबसे ज़्यादा हैवानियत करने वाला आरोपी मुहम्मद अफरोज भारतीय न्याय-व्यवस्था पर हंसता हुआ जेल (सुधार घर) से बाहर आया, क्योंकि रेप करते समय उसकी उम्र 18 साल से कुछ दिन कम थी यानी वह नाबालिग था।

दिल्ली गैंगरेप के बाक़ी चार आरोपियों मुकेश सिंह, अक्षय ठाकुर, विनय शर्मा और पवन गुप्ता को विशेष त्वरित अदालत ने दोषी क़रार देते हुए फ़ांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है। बेशक न्यायपालिका के पास वर्कलोड ज़्यादा है. जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के एक जज दो साल पहले हैदराबाद में एक सेमिनार में कह चुके हैं कि देश में 65 हज़ार (64,919) आपराधिक मुक़दमे लंबित हैं। वैसे पूरे देश में तीन करोड़ मुकदमे अंडरट्रायल हैं। इसके बावजूद दिल्ली गैंगरेप की सुनवाई हो जानी चाहिए थी।

जो भी हो, नया अपराध क़ानून के बने क़रीब तीन साल होने वाले हैं, लेकिन इसके तहत अभी तक किसी को सज़ा नहीं हुई है। एक लड़की के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या करने वाले कोलकाला के गार्ड धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को फांसी दी गई थी। मौत की सज़ा पाने वाला धनंजय अब तक एकमात्र रेपिस्ट है। नए क़ानून के बाद दिल्ली के अलावा मुंबई शक्तिमिल कंपाउंड गैंगरेप समेत कई बलात्कार के आरोपियों को निचली अदालतों की ओर से फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है, लेकिन सभी मुक़दमे ऊपरी अदालतों में लटके पड़े हैं।

संभवतः यही वजह है कि तमाम कोशिश के बावजूद रेप की वारदातें रोके नहीं रुक रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़, पिछले साल बलात्कार के 3,27,394 मुक़दमे दर्ज हुए। इसी तरह 2014 में 36735 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। 2013 में रेप के 33707 और 2012 में 24923 मामले केस हुए थे। 2014 में रोज़ाना 101 रेप की वारदात दर्ज हुई। यानी 14 मिनट में एक महिला अपनी इज्ज़त गंवा बैठती है। सन् 2012 के बाद रेप की घटनाओं में सात फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है। दिल्ली और मुंबई महिलाओं के लिए सेफ मानी जाती है, लेकिन यहां बलात्कार की घटनाएं सबसे ज़्यादा होती है। अकेले दिल्ली में रोज़ाना चार महिलाएं रेप की शिकार होती हैं।

उर्दू के मशहूर शायर ख़्वाज़ा हैदर अली 'आतिश' का शेर बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला। इस देश की व्यवस्था की करनी-कथनी में अंतर बयां करता है। मतलब, कभी लोग क्रांति करने के लिए उतावले हो जाते हैं और कभी घटना ही विस्मृत कर देते हैं। सरकार भी पीछे नहीं रहती और घोषणा पर घोषणा करने लगती है, यह सोचे बिना ही कि घोषणा पर अमल संभव है या नहीं। इतनी सक्रियता देखकर लगता है कि अब ऐसी वारदातें भविष्य में नहीं होंगी, लेकिन जल्द ही लोग घटना ही भूल जाते हैं और पुलिस कांख में डंडा दबाए फिर से वही खैनी खानेवाली मुद्रा में आ जाती है। उसका यह अप्रोच हर घटना को लेकर रहता है। चाहे वह आतंकी हमला हो या फिर महिलाओं पर यौन हमला यानी गैंगरेप।

समाप्त