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गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

2012 दिल्ली गैंगरेप - इंसाफ़ के लिए कब तक करना होगा इंतज़ार?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
16 दिसंबर का दिन संभवतः हर किसी को याद होगा। चार साल पहले इसी दिन राजधानी दिल्ली में एक चलती हुई बस में एक बर्बरतापूर्ण गैंगरेप हुआ था। उसकी चौथी बरसी पर एक बार फिर लोग गाहे-बगाहे सवाल उठा रहे हैं कि आख़िर ग़ुनाहगारों को अब तक सज़ा क्यों नहीं दी गई? सरकार की ओर से कहा जा रहा हा कि उसने तो अपनी तरफ़ से दोषियों को सज़ा देने की प्रक्रिया में पूरी कर दी। मतलब, दिल्ली पुलिस ने रिकॉर्ड समय में मामले की जांच करके आरोप पत्र दाखिल कर दिया। इसके बावजूद अपराधी अभी तक ज़िंदा है।

दरअसल, चार साल पहले दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को जल्दी सज़ा देने के लिए फास्टट्रैक कोर्ट का गठन किया गया था। रोहिणी की फास्टट्रैक कोर्ट ने 173 दिन यानी छह महीने से भी कम समय में सज़ा सुना दी थी। बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 180 दिन यानी छह महीने के अंदर फांसी की सज़ा पर मुहर लगा दी थी। उस समय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका (पुलिस+सरकार), विधायिका (संसद) और न्यायपालिका (निचली अदालत+दिल्ली हाईकोर्ट) की सक्रियता देखकर एक बार पूरे देश को लगा और भरोसा भी हुआ कि पूरी व्यवस्था बदल जाएगी। ऐसे प्रावधान हो गए हैं कि कोई बलात्कार की हिमाकत नहीं करेगा। महिलाओं पर यौन हमला करने वाला हर अपराधी जेल में होगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तमाम कवायदें टांय-टांय फिस्स हो गईं, क्योंकि देश का सबसे महत्वपूर्ण मुक़दमा 14 मार्च 2014 से यानी क़रीब-क़रीब तीन साल (2 साल 10 महीने) से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अगर कहें कि इस देरी से देश में कम से कम बलत्कृत महिला को जल्दी न्याय दिलाने की सरकार की कोशिश की हवा देश की सबसे बड़ी अदालत में निकल गई, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मतलब, आप सरकार में हैं तो चाहे जितना उछल कूद लें, कमेटी बिठा लें, जांच करवा लें और फॉस्टट्रैक कोर्ट बना लें, लेकिन फ़ैसला अदालत मुक़दमे की प्रक्रिया पूरी होने पर ही देगी। अब व्यवस्था ही ऐसी है तो सुप्रीम कोर्ट क्या करे।

बहरहाल, 16-17 दिसंबर 2012 की रात आठ से नौ के बीच पैरामेडिकल छात्रा के साथ छह दरिंदों ने इतना अमानवीय व्यवहार किया था कि लड़की का शरीर ही नष्ट हो गया। भारत में डॉक्टरों ने उसकी जान बचाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। भारतीय डॉक्टरों के नाकाम होने पर उसे सिंगापुर के विश्वविख्यात माउंट एलिजाबेथ अस्पताल ले जाया गया, फिर भी उसकी जान नहीं बचाई जा सकी। कहने का मतलब दो हफ़्ते मौत से जूझने के बाद 29 दिसंबर को वह यमराज से उसी तरह हार गई, जैसे दो हफ़्ते पहले बलात्कारियों से लड़ने के बाद हार गई थी।

गैंगरेप की दुनियाभर में निंदा हुई थी। देश में कहीं शांतिपूर्ण तो कहीं उग्र प्रदर्शन भी हुए थे। दिल्ली में प्रदर्शन के उग्र होने पर मेट्रो सेवा बंद करनी पड़ी थी। रायसीना हिल्सरोड पर तो दिल्ली पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया था। घटना के दो दिन बाद संसद के दोनों सदनों में जोरदार हंगामा हुआ था। आक्रोशित संसद सदस्यों ने रेपिस्ट्स के लिए फ़ांसी की सज़ा तय करने मांग की थी। इसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री सुशीलकुमार शिंदे ने संसद को आश्वासन दिया कि आरोपियों को जल्द से जल्द सज़ा दिलवाने की सरकार की ओर से हर संभव कोशिश की जा रही है और राजधानी दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के लिए हर संभव क़दम उठाए जा रहे हैं।

वह घटना कितनी महत्वपूर्ण थी इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र ने महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते य़ौन अपराध को रोकने के लिए कठोर क़ानून बनाने की घोषणा की। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने दिन रात काम किया। उसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी समेत देश-विदेश से क़रीब 80 हजार सुझाव मिले। कमेटी ने रिकॉर्ड 29 दिन में 630 पेज की रिपोर्ट 23 जनवरी 2013 को सरकार को सौंप दी।

कमेटी को महिलाओं पर यौन अत्याचार करने वालों को कठोरतम दंड देने की सिफारिश करनी थी। लोगों को उम्मीद भी थी कि बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने का प्रावधान किया जाएगा। मगर कमेटी की रिपोर्ट बेहद निराशाजनक रही। रिपोर्ट में कमेटी ने रेप को रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट केस माना ही नहीं, जबकि देश का पूरा नेतृत्व हर बलात्कारी को फ़ांसी की सज़ा देने के पक्ष में था। इसीलिए, वर्मा कमेटी की रिपोर्ट पढ़कर कई महिला संगठनों ने आरोप लगाए थे कि पुरुष प्रधान समाज में पले-बढ़े और न्याय-व्यवस्था का संचालन करने वाले जस्टिस वर्मा संभवतः बलत्कृत स्त्री की पीड़ा महसूस करने में असफल रहे, अन्यथा हर बलात्कारी के लिए फ़ांसी की सज़ा की सिफ़ारिश ज़रूर करते।

वस्तुतः कमेटी ने रेप के बाद लड़की की हत्या या मौत को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर ज़रूर माना और हत्यारे रेपिस्ट के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान किया। इसके अलावा जस्टिस वर्मा ने यौन अपराध करने वालों को कड़ी सज़ा का प्रावधान किया जिसके चलते तरुण तेजपाल जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी पुलिस की गिरफ़्त में आए। बहरहाल, 21 मार्च 2013 को लोकसभा ने बलात्कार विरोधी बिल पास कर दिया और इस क़ानून को क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम 2013 कहा गया।

दिल्ली गैंगरेप पर बीबीसी के लिए फिल्मकार लेस्‍ली एडविन ने 'इंडियाज डॉटर्स' शीर्षक से डॉक्‍यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें उन्होंने देश में महिलाओं या लड़कियों के प्रति पुरुष की मानसिकता को बताने की हर संभव कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने तिहाड़ जेल में एक आरोपी का इंटरव्यू भी लिया था। उस इंटरव्यू के कारण यह वृत्तचित्र विवाद में आ गया। उस पर प्रसारण से पहले ही बैन लग गया। भारत सरकार के सख़्त होने पर वृत्तचित्र के कंटेंट को यू-ट्यूब से भी हटाना पड़ा।

इस बीच दिल्ली गैंगरेप के मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने न्यायपालिका से पहले ख़ुद को सज़ा दे दी और 11 मार्च 2013 की सुबह तिहाड़ जेल में ख़ुकुशी कर ली। पिछले साल बरसी के दो दिन बाद यानी 16 दिसंबर की रात पीड़ित लड़की पर सबसे ज़्यादा हैवानियत करने वाला आरोपी मुहम्मद अफरोज भारतीय न्याय-व्यवस्था पर हंसता हुआ जेल (सुधार घर) से बाहर आया, क्योंकि रेप करते समय उसकी उम्र 18 साल से कुछ दिन कम थी यानी वह नाबालिग था।

दिल्ली गैंगरेप के बाक़ी चार आरोपियों मुकेश सिंह, अक्षय ठाकुर, विनय शर्मा और पवन गुप्ता को विशेष त्वरित अदालत ने दोषी क़रार देते हुए फ़ांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है। बेशक न्यायपालिका के पास वर्कलोड ज़्यादा है. जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के एक जज दो साल पहले हैदराबाद में एक सेमिनार में कह चुके हैं कि देश में 65 हज़ार (64,919) आपराधिक मुक़दमे लंबित हैं। वैसे पूरे देश में तीन करोड़ मुकदमे अंडरट्रायल हैं। इसके बावजूद दिल्ली गैंगरेप की सुनवाई हो जानी चाहिए थी।

जो भी हो, नया अपराध क़ानून के बने क़रीब तीन साल होने वाले हैं, लेकिन इसके तहत अभी तक किसी को सज़ा नहीं हुई है। एक लड़की के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या करने वाले कोलकाला के गार्ड धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को फांसी दी गई थी। मौत की सज़ा पाने वाला धनंजय अब तक एकमात्र रेपिस्ट है। नए क़ानून के बाद दिल्ली के अलावा मुंबई शक्तिमिल कंपाउंड गैंगरेप समेत कई बलात्कार के आरोपियों को निचली अदालतों की ओर से फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है, लेकिन सभी मुक़दमे ऊपरी अदालतों में लटके पड़े हैं।

संभवतः यही वजह है कि तमाम कोशिश के बावजूद रेप की वारदातें रोके नहीं रुक रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़, पिछले साल बलात्कार के 3,27,394 मुक़दमे दर्ज हुए। इसी तरह 2014 में 36735 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। 2013 में रेप के 33707 और 2012 में 24923 मामले केस हुए थे। 2014 में रोज़ाना 101 रेप की वारदात दर्ज हुई। यानी 14 मिनट में एक महिला अपनी इज्ज़त गंवा बैठती है। सन् 2012 के बाद रेप की घटनाओं में सात फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है। दिल्ली और मुंबई महिलाओं के लिए सेफ मानी जाती है, लेकिन यहां बलात्कार की घटनाएं सबसे ज़्यादा होती है। अकेले दिल्ली में रोज़ाना चार महिलाएं रेप की शिकार होती हैं।

उर्दू के मशहूर शायर ख़्वाज़ा हैदर अली 'आतिश' का शेर बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला। इस देश की व्यवस्था की करनी-कथनी में अंतर बयां करता है। मतलब, कभी लोग क्रांति करने के लिए उतावले हो जाते हैं और कभी घटना ही विस्मृत कर देते हैं। सरकार भी पीछे नहीं रहती और घोषणा पर घोषणा करने लगती है, यह सोचे बिना ही कि घोषणा पर अमल संभव है या नहीं। इतनी सक्रियता देखकर लगता है कि अब ऐसी वारदातें भविष्य में नहीं होंगी, लेकिन जल्द ही लोग घटना ही भूल जाते हैं और पुलिस कांख में डंडा दबाए फिर से वही खैनी खानेवाली मुद्रा में आ जाती है। उसका यह अप्रोच हर घटना को लेकर रहता है। चाहे वह आतंकी हमला हो या फिर महिलाओं पर यौन हमला यानी गैंगरेप।

समाप्त

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