हरिगोविंद विश्वकर्मा.
मनोरंजन टेलीविज़न चैनलों पर आने वाले धारावाहिकों की एक्स्ट्रामैरिटल अफ़ेयर और चाइल्ड-लेबर जैसे मसले पर चाहे जितनी आलोचना की जाए या विरोध हो लेकिन इतना तो सच है कि ये सीरियल्स फिलहाल राष्ट्रीय एकता के वाहक बनते जा रहे हैं। सोमवार से शुक्रवार शाम सात बजे से रात ग्यारह बजे तक प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों को नियमित देखने से देश के दूसरे हिस्से लोगों की जीवन-शैली और भाषा की जानकारी मिल रही है। ऐसे में कहें कि इन धारावाहिकों से देश की क्षेत्रीय जीवनशैली, भाषा, सभ्यता और संस्कार का गुपचुप तरीक़े से विस्तार हो रहा है तो कतई अतिशयोक्ति न होगा। वस्तुतः ये धारावाहिक हिंदी में हैं लेकिन इनकी कहानी और जीवनशैली अलग-अलग संस्कृति-भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। संवादों में क्षेत्रीय भाषाओं और वेशभूषा के इस्तेमाल से इसे स्थानीय टच मिल रहा है।
मसलन, ज़ीटीवी पर नौ बजे आने वाले “पवित्र रिश्ता” में मराठीभाषी परिवारों की कहानी है। जिसमें बीच-बीच में पात्र मराठी बोलते हैं जिन्हें ग़ैर-मराठी दर्शक भी आसानी से समझ लेते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि यह धारावाहिक मराठी भाषा और मराठी संस्कृति को देश के अन्य हिस्से में पहुंचा रहा है। दूसरे प्रांतों के लोग जानने लगे हैं कि महाराष्ट्र या मुंबई में मराठी परिवार किस तरह रहता है और किस तरह की समस्याओं से दो-चार होता है। “अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो” में उत्तरप्रदेश के ठाकुर परिवार की कहानी है। जिसमें पूर्वांचल की वेशभूषा और भोजपुरी मिश्रित अवधी भाषा से देश के बाक़ी हिस्से के लोग रूबरू हो रहे हैं। सहारा वन पर आने वाले सीरियल “बिट्टो” में भी उत्तरप्रदेश की ही कहानी है और निचली जाति पर ऊंची जाति के अत्याचार की थीम पर आधारित है। “छोटी बहू” में ब्रजभाषा और मथुरा के आसपास रहने वाले लोगों की जीवन शैली देखने-सुनने को मिल रहा है। खासकर राजपुरोहित परंपरा को दिखाया जा रहा है। ठीक इसी तरह की कहानी स्टार प्लस के “प्रतिज्ञा” की है, जहां पूर्वांचल की वेशभूषा और भाषा दिखती है। “12/24 करोल बाग” और स्टार वन के “गीत हुई परायी” जैसे धारावाहिकों के पंजाबी डॉयलॉग दूसरी भाषा के लोग भी समझने लगे हैं। “मैं घर-घर खेली“ में उज्जैन के दो परिवार की कहानी है जहां मालवा जीवनशैली और भाषा दिखती है। “ससुराल गेंदा फूल” देश की राजधानी दिल्ली खासकर पुरानी दिल्ली की संस्कृति का दीदार होता है और वहां बोली जाने वाली भाषा सुनने को मिलती है। स्टार प्लस के “ये रिश्ता क्या कहता है” में उदयपुर में रहने वाले परंपरागत मारवाड़ी परिवार की कहानी है। इसके विपरीत कलर्स के चर्चित और विवादास्पद धारावाहिक “बालिका वधू” में राजस्थान के देहात में रहने वाले परिवारों दिनचर्या और रहन-सहन की कहानी है। इस सीरियलों में दर्शकों को मारवाड़ी भाषा के डॉयलॉग सुनने को मिलते हैं जिसे लोग अब आसानी से समझने लगे हैं। इसी चैनल पर ही अभी हाल ही शुरू “तेरे लिए” में बंगाली जीवन शैली और संस्कृति की झलक मिलती है, खासकर आदमियों द्वारा खींचा जाने वाले इक्के को देख सकते हैं। “चांद छुपा बादल” में शिमला में रहने वाले परिवारों की कहानी और जीवन शैली बयां करती है। इसमें भी संवादों में ज़्यादातर स्थानीय पहाड़ी भाषा सुनने को मिलती है। स्टार प्लास की लाडली, सोनी टीवी के चर्चित सीरियल “रंग बदलती ओढ़नी” और सब टीवी के “तारक मेहता का उल्टा चश्मा” में गुजराती परिवारों की कथाएं हैं तो “मिस्टर ऐंड मिसेज़ शर्मा इलाहाबाद वाले” में इलाहाबाद की कहानी है। इमैजिन के सीरियल “काशी” बिहार में निचले तबके की कहानी है जहां बचपन में ही लड़कियां व्याह दी जाती हैं। इस धारावाहिक में भोजपुरीयुक्त संवाद भी सुनने को मिलते हैं। सीरियल को संवाद के जरिए स्थानीय टच देने की सफल कोशिश की गई है। स्टारप्लस पर आने वाला “मर्यादा” हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश का रहन-सहन पर बेस्ड है। कलर्स के “न आना इस देश में लाड़ो” में उस समाज की कहानी है, जहां विवाह में गोत्र अहम माना जाता है। “मान रहे तेरा पिता” छत्तीसगढ़ में कोयले की खान की पृष्ठभूमि पर आधारित पिता-पुत्री के रिश्ते की भावनात्मक कहानी है। इसमें भी संवाद में भी स्थानीय भाषा होती है।
भाषा और रहन-सहन के अलावा कई धारावाहिक हिंदुस्तानी समाज की परंपराओं के अलावा सामाजिक बुराइयों-कुरीतियों पर आधारित हैं। सोनी टीवी पर गोद भराई ऐसा ही धारावाहिक है जिसमें “गोद भराई” का धार्मिक संस्कार है। यह देश के हर हिस्से में मनाया जाता है खासकर घर की गर्भवती महिला के सात महीने पूरे करने पर होता है। बंगाली में इसे शाद कहते हैं। केरल में यह सीमंधा और तमिलनाडु में वेलाकप्पू नाम से मनाया जाता है। जीटीवी पर इन दिनों रानी लक्ष्मीबाई सीरियल आ रहा है जो लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित है। इसी तरह पिछले दो दशक के दौरान “भारत एक खोज”, “रामायण” और “महाभारत”समेत कई ऐतिहासिक और पौराणिक धारावाहिकों का प्रसारण हुआ जिससे ऐतिहासिक और पौराणिक किरदारों के बारे में लोगों के जनरल नॉलेज में काफी इजाफा हुआ।
देश में छोटे परदे पर सीरियलों की उम्र 26 साल है जो बहुत कम है। यह सिलसिला दूरदर्शन ने सात जुलाई 1984 को शुरू किया। जब मनोहर श्याम जोशी की “हमलोग“ के रूप में मध्यम वर्ग की कहानी आई और बेहद लोकप्रिय हुई। आम भारतीय उसमें अपनी कहानी देखने लगा। तीन साल से ज़्यादा समय चक चले हमलोग के हर किरदार लोकप्रिय हुए। बहरहाल, अभी लंबा रास्ता तय करना है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सीरियल राष्ट्रीय एकता के वाहक बने रहेंगे।
बेशक, यह देश की एकता और अखंडता मज़बूत करने के दृष्टिकोण से सकारात्मक प्रयास है। भविष्य में बाक़ी रिमोट हिस्सों के लोगों की जीवन-शैली को भी सीरियल के माध्यम से पेश किया जाए तो बूद्धू बक्से की प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाएगा। गौरतलब है कि सिनेमा ने हिंदी को देश के कोने कोने में पहुंचाया है। अधिकृततौर पर हिंदी भले ही न राष्ट्रीय भाषा का दरजा पा सकी हो लेकिन अगर व्यवहारिक रूप से देखें तो हिंदी देश की संपर्क भाषा बन गई है। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए हर जगह हिंदी बोलने समझने वाले मिल जाएंगे। दक्षिण में नेताओं के हिंदी विरोध को हिंदी सिनेमा ने इतिहास की चीज़ बना दी। आजकल हिंदी कर्नाटक और आंध्रप्रदेश ही नहीं तमिलनाडु और केरल के दूर-दराज़ के हिस्सों में भी धड़ल्ले से बोली जाने लगी है।
दरअसल, जानकारी की स्रोत किताबें होती हैं या फिर देशाटन। अपने देश में दोनों बेहद महंगी हैं। एक आम आदमी जीवन भर दो जून की रोटी जुटाने में व्यस्त रहता है। वह न तो किताब खरीद पाता है न ही उसे घूमने की फ़ुर्सत मिलती है फिर इन सबके लिए उसके पास उतना पैसा भी नहीं होता। ऐसे में ये सीरियल्स ही आम आदमी की जानकारी के स्रोत बन रहे हैं। समस्या यह है कि सैटेलाइट चैनलों की पहुंच केवल शहरों में है। देहातों में कहीं-कहीं लोगों ने सेटबाक्स लगा रखे हैं लेकिन बिजली की कमी के चलते निजी टीवी मनोरंजन से वंचित है रहते हैं। यानी देश की साठ फ़ीसदी आबादी आज भी टीवी देखने से वंचित रहती है। लेकिन जिस तरह दूरसंचार तकनीकी क्रांति कर रही है। भविष्य में संभव है यह मुश्किल काम आसान हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो इस देश की भाषाई अखंडता के लिए शुभ संकेत होगा।
(Note... I written this article around 3 months before)
....
मनोरंजन टेलीविज़न चैनलों पर आने वाले धारावाहिकों की एक्स्ट्रामैरिटल अफ़ेयर और चाइल्ड-लेबर जैसे मसले पर चाहे जितनी आलोचना की जाए या विरोध हो लेकिन इतना तो सच है कि ये सीरियल्स फिलहाल राष्ट्रीय एकता के वाहक बनते जा रहे हैं। सोमवार से शुक्रवार शाम सात बजे से रात ग्यारह बजे तक प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों को नियमित देखने से देश के दूसरे हिस्से लोगों की जीवन-शैली और भाषा की जानकारी मिल रही है। ऐसे में कहें कि इन धारावाहिकों से देश की क्षेत्रीय जीवनशैली, भाषा, सभ्यता और संस्कार का गुपचुप तरीक़े से विस्तार हो रहा है तो कतई अतिशयोक्ति न होगा। वस्तुतः ये धारावाहिक हिंदी में हैं लेकिन इनकी कहानी और जीवनशैली अलग-अलग संस्कृति-भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। संवादों में क्षेत्रीय भाषाओं और वेशभूषा के इस्तेमाल से इसे स्थानीय टच मिल रहा है।
मसलन, ज़ीटीवी पर नौ बजे आने वाले “पवित्र रिश्ता” में मराठीभाषी परिवारों की कहानी है। जिसमें बीच-बीच में पात्र मराठी बोलते हैं जिन्हें ग़ैर-मराठी दर्शक भी आसानी से समझ लेते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि यह धारावाहिक मराठी भाषा और मराठी संस्कृति को देश के अन्य हिस्से में पहुंचा रहा है। दूसरे प्रांतों के लोग जानने लगे हैं कि महाराष्ट्र या मुंबई में मराठी परिवार किस तरह रहता है और किस तरह की समस्याओं से दो-चार होता है। “अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो” में उत्तरप्रदेश के ठाकुर परिवार की कहानी है। जिसमें पूर्वांचल की वेशभूषा और भोजपुरी मिश्रित अवधी भाषा से देश के बाक़ी हिस्से के लोग रूबरू हो रहे हैं। सहारा वन पर आने वाले सीरियल “बिट्टो” में भी उत्तरप्रदेश की ही कहानी है और निचली जाति पर ऊंची जाति के अत्याचार की थीम पर आधारित है। “छोटी बहू” में ब्रजभाषा और मथुरा के आसपास रहने वाले लोगों की जीवन शैली देखने-सुनने को मिल रहा है। खासकर राजपुरोहित परंपरा को दिखाया जा रहा है। ठीक इसी तरह की कहानी स्टार प्लस के “प्रतिज्ञा” की है, जहां पूर्वांचल की वेशभूषा और भाषा दिखती है। “12/24 करोल बाग” और स्टार वन के “गीत हुई परायी” जैसे धारावाहिकों के पंजाबी डॉयलॉग दूसरी भाषा के लोग भी समझने लगे हैं। “मैं घर-घर खेली“ में उज्जैन के दो परिवार की कहानी है जहां मालवा जीवनशैली और भाषा दिखती है। “ससुराल गेंदा फूल” देश की राजधानी दिल्ली खासकर पुरानी दिल्ली की संस्कृति का दीदार होता है और वहां बोली जाने वाली भाषा सुनने को मिलती है। स्टार प्लस के “ये रिश्ता क्या कहता है” में उदयपुर में रहने वाले परंपरागत मारवाड़ी परिवार की कहानी है। इसके विपरीत कलर्स के चर्चित और विवादास्पद धारावाहिक “बालिका वधू” में राजस्थान के देहात में रहने वाले परिवारों दिनचर्या और रहन-सहन की कहानी है। इस सीरियलों में दर्शकों को मारवाड़ी भाषा के डॉयलॉग सुनने को मिलते हैं जिसे लोग अब आसानी से समझने लगे हैं। इसी चैनल पर ही अभी हाल ही शुरू “तेरे लिए” में बंगाली जीवन शैली और संस्कृति की झलक मिलती है, खासकर आदमियों द्वारा खींचा जाने वाले इक्के को देख सकते हैं। “चांद छुपा बादल” में शिमला में रहने वाले परिवारों की कहानी और जीवन शैली बयां करती है। इसमें भी संवादों में ज़्यादातर स्थानीय पहाड़ी भाषा सुनने को मिलती है। स्टार प्लास की लाडली, सोनी टीवी के चर्चित सीरियल “रंग बदलती ओढ़नी” और सब टीवी के “तारक मेहता का उल्टा चश्मा” में गुजराती परिवारों की कथाएं हैं तो “मिस्टर ऐंड मिसेज़ शर्मा इलाहाबाद वाले” में इलाहाबाद की कहानी है। इमैजिन के सीरियल “काशी” बिहार में निचले तबके की कहानी है जहां बचपन में ही लड़कियां व्याह दी जाती हैं। इस धारावाहिक में भोजपुरीयुक्त संवाद भी सुनने को मिलते हैं। सीरियल को संवाद के जरिए स्थानीय टच देने की सफल कोशिश की गई है। स्टारप्लस पर आने वाला “मर्यादा” हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश का रहन-सहन पर बेस्ड है। कलर्स के “न आना इस देश में लाड़ो” में उस समाज की कहानी है, जहां विवाह में गोत्र अहम माना जाता है। “मान रहे तेरा पिता” छत्तीसगढ़ में कोयले की खान की पृष्ठभूमि पर आधारित पिता-पुत्री के रिश्ते की भावनात्मक कहानी है। इसमें भी संवाद में भी स्थानीय भाषा होती है।
भाषा और रहन-सहन के अलावा कई धारावाहिक हिंदुस्तानी समाज की परंपराओं के अलावा सामाजिक बुराइयों-कुरीतियों पर आधारित हैं। सोनी टीवी पर गोद भराई ऐसा ही धारावाहिक है जिसमें “गोद भराई” का धार्मिक संस्कार है। यह देश के हर हिस्से में मनाया जाता है खासकर घर की गर्भवती महिला के सात महीने पूरे करने पर होता है। बंगाली में इसे शाद कहते हैं। केरल में यह सीमंधा और तमिलनाडु में वेलाकप्पू नाम से मनाया जाता है। जीटीवी पर इन दिनों रानी लक्ष्मीबाई सीरियल आ रहा है जो लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित है। इसी तरह पिछले दो दशक के दौरान “भारत एक खोज”, “रामायण” और “महाभारत”समेत कई ऐतिहासिक और पौराणिक धारावाहिकों का प्रसारण हुआ जिससे ऐतिहासिक और पौराणिक किरदारों के बारे में लोगों के जनरल नॉलेज में काफी इजाफा हुआ।
देश में छोटे परदे पर सीरियलों की उम्र 26 साल है जो बहुत कम है। यह सिलसिला दूरदर्शन ने सात जुलाई 1984 को शुरू किया। जब मनोहर श्याम जोशी की “हमलोग“ के रूप में मध्यम वर्ग की कहानी आई और बेहद लोकप्रिय हुई। आम भारतीय उसमें अपनी कहानी देखने लगा। तीन साल से ज़्यादा समय चक चले हमलोग के हर किरदार लोकप्रिय हुए। बहरहाल, अभी लंबा रास्ता तय करना है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सीरियल राष्ट्रीय एकता के वाहक बने रहेंगे।
बेशक, यह देश की एकता और अखंडता मज़बूत करने के दृष्टिकोण से सकारात्मक प्रयास है। भविष्य में बाक़ी रिमोट हिस्सों के लोगों की जीवन-शैली को भी सीरियल के माध्यम से पेश किया जाए तो बूद्धू बक्से की प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाएगा। गौरतलब है कि सिनेमा ने हिंदी को देश के कोने कोने में पहुंचाया है। अधिकृततौर पर हिंदी भले ही न राष्ट्रीय भाषा का दरजा पा सकी हो लेकिन अगर व्यवहारिक रूप से देखें तो हिंदी देश की संपर्क भाषा बन गई है। देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए हर जगह हिंदी बोलने समझने वाले मिल जाएंगे। दक्षिण में नेताओं के हिंदी विरोध को हिंदी सिनेमा ने इतिहास की चीज़ बना दी। आजकल हिंदी कर्नाटक और आंध्रप्रदेश ही नहीं तमिलनाडु और केरल के दूर-दराज़ के हिस्सों में भी धड़ल्ले से बोली जाने लगी है।
दरअसल, जानकारी की स्रोत किताबें होती हैं या फिर देशाटन। अपने देश में दोनों बेहद महंगी हैं। एक आम आदमी जीवन भर दो जून की रोटी जुटाने में व्यस्त रहता है। वह न तो किताब खरीद पाता है न ही उसे घूमने की फ़ुर्सत मिलती है फिर इन सबके लिए उसके पास उतना पैसा भी नहीं होता। ऐसे में ये सीरियल्स ही आम आदमी की जानकारी के स्रोत बन रहे हैं। समस्या यह है कि सैटेलाइट चैनलों की पहुंच केवल शहरों में है। देहातों में कहीं-कहीं लोगों ने सेटबाक्स लगा रखे हैं लेकिन बिजली की कमी के चलते निजी टीवी मनोरंजन से वंचित है रहते हैं। यानी देश की साठ फ़ीसदी आबादी आज भी टीवी देखने से वंचित रहती है। लेकिन जिस तरह दूरसंचार तकनीकी क्रांति कर रही है। भविष्य में संभव है यह मुश्किल काम आसान हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो इस देश की भाषाई अखंडता के लिए शुभ संकेत होगा।
(Note... I written this article around 3 months before)
....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें