हरिगोविंद विश्वकर्मा
अयोध्या में जिस विवादित स्थल को लेकर छह दशक से ज़्यादा समय से देश में सांप्रदायिक दंगे-फ़साद हो रहे हैं, जिनमें लाखों लोग मज़हब के नाम पर अपनी आहुति दे चुके हैं और जिसके चलते आज भी करोड़ों धर्मांध हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं, वहां न तो कभी बाबरी मस्जिद नाम की कोई मस्जिद थी न कोई राम मंदिर, जिसे तोड़कर मस्जिद बनवाई गई हो। यह ख़ुलासा आज से दस साल पहले ही हो चुका है और यह किसी ऐरे-ग़ैरे ने नहीं, देश के शीर्षस्थ कालजयी साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले उपन्यासकार कमलेश्वर ने दस साल के गहन शोध, अध्ययन और तफ़तीश के बाद लिखे उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में किया है। सन् 2000 में प्रकाशित इस उपन्यास को नामवर सिंह, विष्णु प्रभाकर, अमृता प्रीतम, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, हिमांशु जोशी और अभिमन्यु अनत जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने विश्व-उपन्यास की संज्ञा देते हुए इसकी दिल खोलकर प्रशंसा की है। कई प्रतिष्ठित हिंदी-अंग्रेज़ी अख़बारों में उपन्यास की समीक्षा भी प्रकाशित हो चुकी है। मज़ेदार बात यह है कि भारत सरकार ने भी इस किताब को मान्यता दी है। अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने उपन्यास में पाकिस्तान बनने के बारे में दिए गए तथ्यों की दिल खोलकर तारीफ़ की थी और इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा था। ग़ौरतलब है कि साहित्य अकादमी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन आता है और तब उसके मुखिया हिंदुत्व और राम मंदिर आंदोलन के बहुत बड़े पैरोकार डॉ. मुरली मनोहर जोशी थे। अगर कमलेश्वर के निष्कर्ष से सरकार को किसी भी तरह की आपत्ति होती तो कम से कम उन्हें सरकारी पुरस्कार नहीं दिया जाता। ये माना जाता है कि कोई सरकार किसी किताब को पुरस्कृत कर रही है तो वह सरकार उसमें लिखी हर बात से सहमत है।
बहरहाल, कमलेश्वर ने समय और किरदार की सीमाओं को तोड़कर बड़ी खूबसूरती से ‘कितने पाकिस्तान’ की रचना की है जिसमें ‘अदीब’ यानी लेखक ‘समय की अदालत’ लगाता है जिसमें महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, अली बंधु, लार्ड माउंटबेटन, बाबर, हुमायूं, कबीर जैसे सैकड़ों विश्व-इतिहास के अहम किरदारों ने ख़ुद अपने अपने बयान दिए हैं। इसके अलावा कई दर्जन विश्व-प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भी इस अनोखी अदालत में हर विवादास्पद घटनाओं पर गवाही दी है। किताब में इन्हीं बयानों और अंग्रेज़ों के कार्यकाल में तैयार गजेटियर, पुरातत्व विभाग के दस्तावेज़ों और इतिहास के नामचीन हस्तियों की आत्मकथाओं में उपलब्ध जानकारी को आधार बनाया गया है। जिनकी प्रमाणिकता पर संदेह करने का सवाल ही नहीं उठता।
‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने कई अध्याय अयोध्या मुद्दे को समर्पित किया है। उपन्यास के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद बाबर के आक्रमण और उसके भारत आने से पहले ही मौजूद थी। बाबर आगरा की सल्तनत पर 20 अप्रैल 1526 को क़ाबिज़ हुआ जब उसकी सेना ने इब्राहिम लोदी को हराकर उसका सिर क़लम कर दिया। एक हफ़्ते बाद 27 अप्रैल 1526 को आगरा में बाबर के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया।
मज़ेदार बात यह है कि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना है कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था। इसी तथ्य को आधार बनाकर हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सितंबर में बहुप्रतीक्षित ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है। जिस पर अभी तक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
दरअसल, अयोध्या की मस्जिद (बाबरी मस्जिद नहीं) में एक शिलालेख भी लगा था जिसका जिक्र अंग्रेज़ अफ़सर ए फ़्यूहरर ने कई जगह किया है। फ़्यूहरर ने 1889 में आख़िरी बार उस शिलालेख को पढ़ा जिसे बाद में, किताब के अनुसार, अंग्रेज़ों ने नष्ट करवा दिया। शिलालेख के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद का निर्माण इब्राहिम लोदी के आदेश पर 1523 में शुरू हुआ और 1524 में मस्जिद बनकर तैयार हुई। इतना ही नहीं, शिलालेख के मुताबिक, मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बल्क़ि ख़ाली जगह पर बनवाई गई थी। इसका यह भी मतलब होता है कि अगर विवादित स्थल पर राम या किसी दूसरे देवता का मंदिर था, जिसके अवशेष खुदाई करने वालों को मिले हैं, तो वह 15वीं सदी से पहले नेस्तनाबूद कर दिया गया था या ख़ुद नष्ट हो गया था। उसे कम से कम बाबर या मीरबाक़ी ने नहीं तोड़वाया जैसा कि इतिहासकारों का एक बड़ा तबक़ा और अनेक हिंदूवादी नेता कई दशक से मानते और दावा करते आ रहे हैं।
‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक मस्जिद में इब्राहिम लोदी के शिलालेख को नष्ट करने में अंग्रेज़ अफ़सर एचआर नेविल ने अहम भूमिका निभाई। वह सारी ख़ुराफ़ात और साज़िश का सूत्राधार था। उसने ही आधिकारिक तौर पर फ़ैज़ाबाद का गजेटियर तैयार किया। नेविल की साज़िश में दूसरा फ़िरंगी अफ़सर कनिंघम भी शामिल था जिसे अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने हिंदुस्तान की तवारिख़ और पुरानी इमारतों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी दी थी। कनिंघम ने बाद में लखनऊ का गजेटियर भी तैयार किया। किताब के मुताबिक दोनों अफ़सरों ने धोखा और साज़िश के तहत गजेटियर में दर्ज किया कि 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद नींव रखी थी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमला करके बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को हलाक़ किया जबकि फ़ैज़ाबाद के गजेटियर में आज भी लिखा है कि 1869 में, उस लड़ाई के क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद, अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की कुल आबादी महज़ दस हज़ार थी जो 1881 में बढ़कर साढ़े ग्यारह हज़ार हो गई। सवाल उठता है कि जिस शहर की आबादी इतनी कम थी वहां बाबर या उसकी सेना ने इतने लोगों को हलाक़ कैसे किया या फिर इतने मरने वाले कहां से आ गए? यहीं, बाबरी मस्जिद के बारे में देश में बनी मौजूदा धारणा पर गंभीर सवाल उठता है।
बहरहाल, हैरान करने वाली बात यह है कि दोनों अफ़सरों नेविल और कनिंघम ने सोची-समझी नीति के तहत बाबर की डायरी बाबरनामा, जिसमें वह रोज़ाना अपनी गतिविधियां दर्ज करता था, के 3 अप्रैल 1528 से 17 सितंबर 1528 के बीच 20 से ज़्यादा पन्ने ग़ायब कर दिए और बाबरनामा में लिखे ‘अवध’ यानी ‘औध’ को ‘अयोध्या’ कर दिया। उल्लेखनीय बात है कि मस्जिद के शिलालेख का फ़्यूहरर द्वारा किए गए अनुवाद को ग़ायब करना अंग्रेज़ अफ़सर भूल गए। वह अनुवाद आज भी आर्कियोल़जिकल इंडिया की फ़ाइल में महफ़ूज़ है और ब्रितानी साज़िश से परदा हटाता है। इसके अलावा बाबर की गतिविधियों की जानकारी बाबरनामा की तरह हुमायूंनामा में भी है। लिहाज़ा, बाबरनामा के ग़ायब पन्ने से नष्ट सूचना हुमायूंनामा से ली जा सकती है। हुमायूंनामा के मुताबिक 1528 में बाबर अफ़गान हमलावरों का पीछा करता हुआ घाघरा (सरयू) नदी तक अवश्य गया था लेकिन उसी समय उसे अपनी बीवी बेग़म मेहम और अन्य रानियों और बेटी बेग़म ग़ुलबदन समेत पूरे परिवार के काबुल से अलीगढ़ आने की इत्तिला मिली। बाबर लंबे समय से युद्ध में उलझने की वजह से परिवार से मिल नहीं पाया था इसलिए वह तुरंत अलीगढ़ रवाना हो गया। पत्नी-बेटी और परिवार के बाक़ी सदस्यों को लेकर वह अपनी राजधानी आगरा आया और 10 जुलाई तक उनके साथ आगरा में ही रहा। उसके बाद बाबर परिवार के साथ धौलपुर चला गया। वहां से सिकरी पहुंचा, जहां सितंबर के दूसरे हफ़्ते तक रहा।
ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि, पुस्तक के मुताबिक, गोस्वामी तुलसीदास से पहले जम्बूद्वीप (तब भारत या हिंदुस्तान था ही नहीं था सो इस भूखंड को जम्बूद्वीप कहा जाता था) के हिंदू धर्म के अनुयायी नटखट कृष्ण और फक्कड़ शंकर की पूजा करते थे। तब राम का उतना क्रेज नहीं था। राम का महिमामंडन तो तुलसीदास ने किया और रामचरित मानस रचकर राम को हिंदुओं के घर-घर प्रतिष्ठित कर दिया। तुलसीदास १४९८ में पैदा हुआ और बाबर के कार्यकाल तक वह किशोर था और पत्नी का दीवाना तुलसादास अपनी मायावी दुनिया में मशगूल था। तुलसी ने रामचरित मानस की रचना बुढापे में की जो हुमायूं और अकबर का दौर था। रामचरित मानस के प्रचलन में आने के बाद ही राम हिंदुओं के देवता नंबर वन बने।
कुल मिलाकर ‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लेकर कहा है कि 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ चौकन्ने हो गए और ब्रिटिश इंडिया की नई पॉलिसी बनाई जिसके मुताबिक अगर इस उपमहाद्वीप पर लंबे समय तक शासन करना है तो इस भूखंड को धर्म के आधार पर विभाजित करना होगा। ताकि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से ही लड़ते रहें और उनका ध्यान आज़ादी जैसे मुद्दों पर न जाए। और, इसी नीति के तहत इब्राहिम लोदी की बनवाई मस्जिद ‘बाबरी मस्जिद’ बना दी गई और उसे ‘राम मंदिर’ से जोड़कर एक ऐसा विवाद खड़ा कर दिया जो सदियों तक हल नहीं हो। अंग्रेज़ निश्चित रूप से सफल रहे क्योंकि उस वक़्त पैदा की गई नफ़रत ही अंततः देश के विभाजन की मुख्य वजह बनी।
(समाप्त)
(Note: This article was written by Hari Govind Vishwakarma in 2003 (then he was bureau chief of UNI at Varanasi) when Kamleshwar got Sahitya Academy award but could't publish due to some reason)
अयोध्या में जिस विवादित स्थल को लेकर छह दशक से ज़्यादा समय से देश में सांप्रदायिक दंगे-फ़साद हो रहे हैं, जिनमें लाखों लोग मज़हब के नाम पर अपनी आहुति दे चुके हैं और जिसके चलते आज भी करोड़ों धर्मांध हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं, वहां न तो कभी बाबरी मस्जिद नाम की कोई मस्जिद थी न कोई राम मंदिर, जिसे तोड़कर मस्जिद बनवाई गई हो। यह ख़ुलासा आज से दस साल पहले ही हो चुका है और यह किसी ऐरे-ग़ैरे ने नहीं, देश के शीर्षस्थ कालजयी साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले उपन्यासकार कमलेश्वर ने दस साल के गहन शोध, अध्ययन और तफ़तीश के बाद लिखे उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में किया है। सन् 2000 में प्रकाशित इस उपन्यास को नामवर सिंह, विष्णु प्रभाकर, अमृता प्रीतम, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, हिमांशु जोशी और अभिमन्यु अनत जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने विश्व-उपन्यास की संज्ञा देते हुए इसकी दिल खोलकर प्रशंसा की है। कई प्रतिष्ठित हिंदी-अंग्रेज़ी अख़बारों में उपन्यास की समीक्षा भी प्रकाशित हो चुकी है। मज़ेदार बात यह है कि भारत सरकार ने भी इस किताब को मान्यता दी है। अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने उपन्यास में पाकिस्तान बनने के बारे में दिए गए तथ्यों की दिल खोलकर तारीफ़ की थी और इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा था। ग़ौरतलब है कि साहित्य अकादमी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन आता है और तब उसके मुखिया हिंदुत्व और राम मंदिर आंदोलन के बहुत बड़े पैरोकार डॉ. मुरली मनोहर जोशी थे। अगर कमलेश्वर के निष्कर्ष से सरकार को किसी भी तरह की आपत्ति होती तो कम से कम उन्हें सरकारी पुरस्कार नहीं दिया जाता। ये माना जाता है कि कोई सरकार किसी किताब को पुरस्कृत कर रही है तो वह सरकार उसमें लिखी हर बात से सहमत है।
बहरहाल, कमलेश्वर ने समय और किरदार की सीमाओं को तोड़कर बड़ी खूबसूरती से ‘कितने पाकिस्तान’ की रचना की है जिसमें ‘अदीब’ यानी लेखक ‘समय की अदालत’ लगाता है जिसमें महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, अली बंधु, लार्ड माउंटबेटन, बाबर, हुमायूं, कबीर जैसे सैकड़ों विश्व-इतिहास के अहम किरदारों ने ख़ुद अपने अपने बयान दिए हैं। इसके अलावा कई दर्जन विश्व-प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भी इस अनोखी अदालत में हर विवादास्पद घटनाओं पर गवाही दी है। किताब में इन्हीं बयानों और अंग्रेज़ों के कार्यकाल में तैयार गजेटियर, पुरातत्व विभाग के दस्तावेज़ों और इतिहास के नामचीन हस्तियों की आत्मकथाओं में उपलब्ध जानकारी को आधार बनाया गया है। जिनकी प्रमाणिकता पर संदेह करने का सवाल ही नहीं उठता।
‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने कई अध्याय अयोध्या मुद्दे को समर्पित किया है। उपन्यास के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद बाबर के आक्रमण और उसके भारत आने से पहले ही मौजूद थी। बाबर आगरा की सल्तनत पर 20 अप्रैल 1526 को क़ाबिज़ हुआ जब उसकी सेना ने इब्राहिम लोदी को हराकर उसका सिर क़लम कर दिया। एक हफ़्ते बाद 27 अप्रैल 1526 को आगरा में बाबर के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया।
मज़ेदार बात यह है कि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना है कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था। इसी तथ्य को आधार बनाकर हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सितंबर में बहुप्रतीक्षित ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है। जिस पर अभी तक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
दरअसल, अयोध्या की मस्जिद (बाबरी मस्जिद नहीं) में एक शिलालेख भी लगा था जिसका जिक्र अंग्रेज़ अफ़सर ए फ़्यूहरर ने कई जगह किया है। फ़्यूहरर ने 1889 में आख़िरी बार उस शिलालेख को पढ़ा जिसे बाद में, किताब के अनुसार, अंग्रेज़ों ने नष्ट करवा दिया। शिलालेख के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद का निर्माण इब्राहिम लोदी के आदेश पर 1523 में शुरू हुआ और 1524 में मस्जिद बनकर तैयार हुई। इतना ही नहीं, शिलालेख के मुताबिक, मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बल्क़ि ख़ाली जगह पर बनवाई गई थी। इसका यह भी मतलब होता है कि अगर विवादित स्थल पर राम या किसी दूसरे देवता का मंदिर था, जिसके अवशेष खुदाई करने वालों को मिले हैं, तो वह 15वीं सदी से पहले नेस्तनाबूद कर दिया गया था या ख़ुद नष्ट हो गया था। उसे कम से कम बाबर या मीरबाक़ी ने नहीं तोड़वाया जैसा कि इतिहासकारों का एक बड़ा तबक़ा और अनेक हिंदूवादी नेता कई दशक से मानते और दावा करते आ रहे हैं।
‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक मस्जिद में इब्राहिम लोदी के शिलालेख को नष्ट करने में अंग्रेज़ अफ़सर एचआर नेविल ने अहम भूमिका निभाई। वह सारी ख़ुराफ़ात और साज़िश का सूत्राधार था। उसने ही आधिकारिक तौर पर फ़ैज़ाबाद का गजेटियर तैयार किया। नेविल की साज़िश में दूसरा फ़िरंगी अफ़सर कनिंघम भी शामिल था जिसे अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने हिंदुस्तान की तवारिख़ और पुरानी इमारतों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी दी थी। कनिंघम ने बाद में लखनऊ का गजेटियर भी तैयार किया। किताब के मुताबिक दोनों अफ़सरों ने धोखा और साज़िश के तहत गजेटियर में दर्ज किया कि 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद नींव रखी थी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमला करके बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को हलाक़ किया जबकि फ़ैज़ाबाद के गजेटियर में आज भी लिखा है कि 1869 में, उस लड़ाई के क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद, अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की कुल आबादी महज़ दस हज़ार थी जो 1881 में बढ़कर साढ़े ग्यारह हज़ार हो गई। सवाल उठता है कि जिस शहर की आबादी इतनी कम थी वहां बाबर या उसकी सेना ने इतने लोगों को हलाक़ कैसे किया या फिर इतने मरने वाले कहां से आ गए? यहीं, बाबरी मस्जिद के बारे में देश में बनी मौजूदा धारणा पर गंभीर सवाल उठता है।
बहरहाल, हैरान करने वाली बात यह है कि दोनों अफ़सरों नेविल और कनिंघम ने सोची-समझी नीति के तहत बाबर की डायरी बाबरनामा, जिसमें वह रोज़ाना अपनी गतिविधियां दर्ज करता था, के 3 अप्रैल 1528 से 17 सितंबर 1528 के बीच 20 से ज़्यादा पन्ने ग़ायब कर दिए और बाबरनामा में लिखे ‘अवध’ यानी ‘औध’ को ‘अयोध्या’ कर दिया। उल्लेखनीय बात है कि मस्जिद के शिलालेख का फ़्यूहरर द्वारा किए गए अनुवाद को ग़ायब करना अंग्रेज़ अफ़सर भूल गए। वह अनुवाद आज भी आर्कियोल़जिकल इंडिया की फ़ाइल में महफ़ूज़ है और ब्रितानी साज़िश से परदा हटाता है। इसके अलावा बाबर की गतिविधियों की जानकारी बाबरनामा की तरह हुमायूंनामा में भी है। लिहाज़ा, बाबरनामा के ग़ायब पन्ने से नष्ट सूचना हुमायूंनामा से ली जा सकती है। हुमायूंनामा के मुताबिक 1528 में बाबर अफ़गान हमलावरों का पीछा करता हुआ घाघरा (सरयू) नदी तक अवश्य गया था लेकिन उसी समय उसे अपनी बीवी बेग़म मेहम और अन्य रानियों और बेटी बेग़म ग़ुलबदन समेत पूरे परिवार के काबुल से अलीगढ़ आने की इत्तिला मिली। बाबर लंबे समय से युद्ध में उलझने की वजह से परिवार से मिल नहीं पाया था इसलिए वह तुरंत अलीगढ़ रवाना हो गया। पत्नी-बेटी और परिवार के बाक़ी सदस्यों को लेकर वह अपनी राजधानी आगरा आया और 10 जुलाई तक उनके साथ आगरा में ही रहा। उसके बाद बाबर परिवार के साथ धौलपुर चला गया। वहां से सिकरी पहुंचा, जहां सितंबर के दूसरे हफ़्ते तक रहा।
ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि, पुस्तक के मुताबिक, गोस्वामी तुलसीदास से पहले जम्बूद्वीप (तब भारत या हिंदुस्तान था ही नहीं था सो इस भूखंड को जम्बूद्वीप कहा जाता था) के हिंदू धर्म के अनुयायी नटखट कृष्ण और फक्कड़ शंकर की पूजा करते थे। तब राम का उतना क्रेज नहीं था। राम का महिमामंडन तो तुलसीदास ने किया और रामचरित मानस रचकर राम को हिंदुओं के घर-घर प्रतिष्ठित कर दिया। तुलसीदास १४९८ में पैदा हुआ और बाबर के कार्यकाल तक वह किशोर था और पत्नी का दीवाना तुलसादास अपनी मायावी दुनिया में मशगूल था। तुलसी ने रामचरित मानस की रचना बुढापे में की जो हुमायूं और अकबर का दौर था। रामचरित मानस के प्रचलन में आने के बाद ही राम हिंदुओं के देवता नंबर वन बने।
कुल मिलाकर ‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लेकर कहा है कि 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ चौकन्ने हो गए और ब्रिटिश इंडिया की नई पॉलिसी बनाई जिसके मुताबिक अगर इस उपमहाद्वीप पर लंबे समय तक शासन करना है तो इस भूखंड को धर्म के आधार पर विभाजित करना होगा। ताकि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से ही लड़ते रहें और उनका ध्यान आज़ादी जैसे मुद्दों पर न जाए। और, इसी नीति के तहत इब्राहिम लोदी की बनवाई मस्जिद ‘बाबरी मस्जिद’ बना दी गई और उसे ‘राम मंदिर’ से जोड़कर एक ऐसा विवाद खड़ा कर दिया जो सदियों तक हल नहीं हो। अंग्रेज़ निश्चित रूप से सफल रहे क्योंकि उस वक़्त पैदा की गई नफ़रत ही अंततः देश के विभाजन की मुख्य वजह बनी।
(समाप्त)
(Note: This article was written by Hari Govind Vishwakarma in 2003 (then he was bureau chief of UNI at Varanasi) when Kamleshwar got Sahitya Academy award but could't publish due to some reason)
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