हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई पर आतंकवादी हमले में शामिल रहे एकमात्र ज़िंदा हमलावर मोहम्मद आमिर अजमल क़साब को फ़ांसी देने की पुष्टि बॉम्बे हाईकोर्ट ने अभी कुछ देर पहले (22 फरवरी) कर दी, लेकिन देश की जटिल न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के चलते क़साब अगर आने वाले दस साल तक ज़िदा रहे तो किसी को हैरान नहीं होना चाहिए।
फिलहाल, न्यायिक प्रक्रिया दूसरा दौर अभी-अभी खत्म हुआ है। क़साब ने विशेष अदालत के मौत की सज़ा के फ़ैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। जहां 292 दिन बाद निचली अदालत के फ़ैसले पर महाराष्ट्र की सबसे बड़ी अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी। हालांकि अब भी क़साब को फांसी पर लटकाना संभव नहीं।
क़साब को फ़ौरन फ़ांसी देने की मांग करने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक सभ्य समाज में रहते हैं। हमारे देश में लोकतंत्र है जिसके तीन स्तंभों में से एक न्यायपालिका भी है। देश में अपराधियों को दंडित करने के लिए क़ायदे-क़ानून बनाए हैं। आरोपी को सज़ा उसी के अनुसार दी जाती है। क़साब को भी दंडित करने की प्रक्रिया चल रही है। मसलन, 26 नवंबर 2008 को क़साब की गिरफ़्तारी के बाद हमले से जुड़े हर पहलू की जांच हुई। जल्दी सज़ा देने के लिए ही विशेष अदालत का गठन किया गया। जहां छह मई 2010 को क़साब को मृत्युदंड का फ़रमान सुनाया जा चुका है और उस सज़ा को 22 फरवरी 2011 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी अप्रूव्ड कर दिया है। विदेशी नागरिक को सज़ा सुनाने से पहले भारत में उसे बचाव का पूरा मौक़ा दिया जा रहा है क्योंकि देश में गहरी जड़ों वाला लोकतंत्र ही नहीं है बल्कि निष्पक्ष और पारदर्शी न्यायपालिका भी है।
जो लोग क़साब को फ़ांसी पर लटकता (हालांकि इन पंक्तियों का लेखक भी न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद क़साब को सज़ा देने का समर्थन करता है) देखना चाहते हैं, उन्हें अभी बहुत लंबा इंतज़ार करना होगा। अभी क़साब इंसाफ़ के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा सकता है। वहां भी केस पर लंबी बहस चलेगी। और अगर देश की सबसे बड़ी अदालत में भी क़साब को कोई राहत न मिली तो भी पाकिस्तानी आतंकी सर्वोच्च न्यायालय में ही पुनर्विचार याचिका दायर कर सकता है। और अदालत से पूरी तरह निराश होने का बाद आख़िर में क़साब राष्ट्रपति के यहां जीवनदान की अपील कर सकता है।
राष्ट्रपति के पास भी 2001 में संसद पर हमला करने की साज़िश रचने वाले मोहम्मद अफजल उर्फ अफ़ज़ल गुरू समेत करीब 30 मर्सी पिटिशन पहले से ही विचाराधीन हैं। इनमें से २४ राष्ट्रपति सचिवालय और तीन गृह मंत्रालय में विचाराधीन हैं जबकि दो पर राज्य सरकारों की राय की प्रतीक्षा है। राष्ट्रपति के यहां विचाराधीन अपील में अफ़ज़ल की याचिका का 27वां नंबर है। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि अफ़ज़ल की तमाम अपील को खारिज़ कर सुप्रीम कोर्ट 2004 में ही उसे फ़ांसी की सज़ा सुना चुका है। इस लश्कर आतंकी को 20 अक्टूबर 2006 को फ़ांसी दी भी जाने वाली थी। लेकिन राष्ट्रपति के दरबार में दया की गुहार लगाने के बाद उसकी फ़ांसी टल गई।
राष्ट्रपति के यहां विचाराधीन दया याचिकाओं के निबटारे की ताजा गति पर गौर करें तो अगले 10 साल तक अफजल की बारी शायद ही आए। मौके दर मौके राजनीतिक दल अफजल को फांसी पर लटकाने की मांग सरकार से करते रहे हैं।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली तल्ख़ लहज़े में कहते हैं कि जहां विधि का शासन है वहां किसी को पकड़कर ज़बरन फ़ांसी पर नहीं लटकाया जा सकता है। वे यह भी मानते हैं कि दया याचिकाओं के शीघ्र निबटारे के लिए क़ानूनगत प्रक्रिया में सुधार की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन ऐसे सुधार की पहल कब होगी, इसका ठीक-ठीक जवाब उनके पास भी नहीं है। क़ानून की यही विवशता रही तो अफ़ज़ल को लंबे समय तक फ़ांसी पर लटकाना मुमकिन नहीं लग रहा है। क्योंकि दया याचिकाओं के निबटारे की गति बेहद चिंताजनक है। गृह मंत्रालय की ही मानें तो पिछले एक वर्ष में एक भी दया याचिका का निबटारा नहीं किया जा सका है।
कहने का मतलब अफ़ज़ल को सज़ा सुनाने के छह साल बाद भी दंडित नहीं किया जा सका है तो क़साब को क़ानूनी प्रक्रिया मुक़म्मिल किए बिना कैसे फ़ांसी पर चढ़ाया जा सकता है। क़साब के लिए देश की ज्यूडिशियरी सिस्टम बदली तो नहीं जा सकती। लिहाज़ा क़साब को फ़ांसी देने की मांग करने वालों को लंबे इतज़ार के लिए तैयार रहना होगा।
वैसे, 1996 में शंकर दयाल शर्मा ने राजस्थान के राम चंद्र रावजी की दया याचिका पर छह दिन में ही फैसला सुनाया था। अपील राष्ट्रपति के पास 13 मार्च, 1996 को भेजी गई और 19 मार्च को खारिज हो गई। पिछले तीन दशकों में राष्ट्रपतियों ने केवल 77 क़ैदियों की दया याचिकाओं पर निर्णय दिया।
राष्ट्रपति के पास सबसे पुरानी दया अपील यूपी के श्याम, शिवराम, प्रकाश, रवींद्र और हरीश की है। फ़ांसी पर तामील करने का सबसे ताजा मामला छह साल पुराना है। 14 अगस्त 2004 को कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई। महाराष्ट्र में आखिरी बार 26 अगस्त, 1995 को सुधाकर जोशी को फांसी दी गई थी। उससे पहले जनरल अरुण कुमार वैद्य के हत्यारे सुक्खा और जिंदा 9 अक्टूबर, 1992 को फांसी पर लटकाए गए। फिलहाल राज्य में क़साब समेत 58 को मौत की सज़ा मिली है। सबकी अपील हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। एक दया याचिका राष्ट्रपति के पास है। देश में मृत्युदंड पाए क़ैदियों की संख्या 1177 है।
वैसे भी अगर पाकिस्तानी आतंकी अजमल क़साब को फ़ांसी दी जाती है तो सबसे पहले जल्लाद का जुगाड़ करना होगा। महाराष्ट्र में 1997 में आरएस जाधव के रिटायर होने के बाद से देश में कोई जल्लाद नहीं है। जेल मैनुअल के हिसाब से जल्लाद हर फ़ांसी पर अमल के एवज में 75 रुपये लेता हैं। पहले लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यह पेशा अपनाते थे, पर नई पीढ़ी इसमें नहीं आ रही। ब्रिटेन समेत 95 देशों में मृत्युदंड पर रोक है।
एक बात और क़साब के पक्ष में जाती है। दरअसल, आतंकवाद ज़हर भारत अस्सी के दशक से ही पी रहा है। पहले पंजाब में आतंकवाद और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी। यानी ख़ून-ख़राबे का सिलसिला शुरू होने के बाद से ही भारत पूरी दुनिया से कहता आ रहा है कि देश में मानवनिर्मित विनाश के लिए पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान ज़िम्मेदार है। लेकिन इस्लामाबाद नई दिल्ली के आरोप को सिरे से खारिज़ कर प्रत्यक्ष सबूत मांगता रहा है। यहां तक कि आतंकी के रूप में भारतीय सरज़मीन पर मारे गए अपने नागरिकों के शव भी लेने से पाकिस्तान कतराता रहा है। इसलिए क़साब भारत के लिए अहम है क्योंकि मुंबई आतंकी हमले के दौरान तुकाराम ओंबले द्वारा पकड़ा गया यह आतंकी वह ज़िंदा सबूत है जिसे पाकिस्तानी हुक़्मरान झुठला नहीं सके। इसीलिए क़साब देश का सबसे महंगा क़ैदी है और मुंबई के आर्थर रोड जेल में उसकी सुरक्षा पर हर रोज़ क़रीब 85 लाख रुपए ख़र्च हो रहे हैं। वस्तुतः पाकिस्तानी नागरिक के रूप में क़साब की पहचान के बाद ही भारत पड़ोसी मुल्क़ पर दबाव बनाने में क़ामयाब रहा। इतना ही नहीं, भारत में किसी भी आतंकी हमले में अपना हाथ होने की बात पहली बार पाकिस्तान ने क़बूल किया। चाहे वह ख़ानापूर्ति ही कर रहा है लेकिन दुनिया भर को बता तो रहा है कि हमले की साज़िश के सूत्राधार जकीउर रहमान लखवी समेत लश्कर-ए-तैयबा के कई लोगों के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी अदालत में आरोप पत्र दायर किया जा चुका है। अगर भारत ने कूटनीतिक प्रयास ऐसे ही जारी रखा तो इस्लामाबाद देर-सबेर लश्कर चीफ़ हाफ़िज़ मोहम्मद सईद के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए मज़बूर हो जाएगा। इसलिए भारत क़साब के रूप में मिले इस बेशकीमती सबूत की जान लेकर उसे नष्ट नहीं करना चाहेगा, यही बात क़साब की जीवन-अवधि बढा देगी। (समाप्त)
मुंबई पर आतंकवादी हमले में शामिल रहे एकमात्र ज़िंदा हमलावर मोहम्मद आमिर अजमल क़साब को फ़ांसी देने की पुष्टि बॉम्बे हाईकोर्ट ने अभी कुछ देर पहले (22 फरवरी) कर दी, लेकिन देश की जटिल न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के चलते क़साब अगर आने वाले दस साल तक ज़िदा रहे तो किसी को हैरान नहीं होना चाहिए।
फिलहाल, न्यायिक प्रक्रिया दूसरा दौर अभी-अभी खत्म हुआ है। क़साब ने विशेष अदालत के मौत की सज़ा के फ़ैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। जहां 292 दिन बाद निचली अदालत के फ़ैसले पर महाराष्ट्र की सबसे बड़ी अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी। हालांकि अब भी क़साब को फांसी पर लटकाना संभव नहीं।
क़साब को फ़ौरन फ़ांसी देने की मांग करने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक सभ्य समाज में रहते हैं। हमारे देश में लोकतंत्र है जिसके तीन स्तंभों में से एक न्यायपालिका भी है। देश में अपराधियों को दंडित करने के लिए क़ायदे-क़ानून बनाए हैं। आरोपी को सज़ा उसी के अनुसार दी जाती है। क़साब को भी दंडित करने की प्रक्रिया चल रही है। मसलन, 26 नवंबर 2008 को क़साब की गिरफ़्तारी के बाद हमले से जुड़े हर पहलू की जांच हुई। जल्दी सज़ा देने के लिए ही विशेष अदालत का गठन किया गया। जहां छह मई 2010 को क़साब को मृत्युदंड का फ़रमान सुनाया जा चुका है और उस सज़ा को 22 फरवरी 2011 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी अप्रूव्ड कर दिया है। विदेशी नागरिक को सज़ा सुनाने से पहले भारत में उसे बचाव का पूरा मौक़ा दिया जा रहा है क्योंकि देश में गहरी जड़ों वाला लोकतंत्र ही नहीं है बल्कि निष्पक्ष और पारदर्शी न्यायपालिका भी है।
जो लोग क़साब को फ़ांसी पर लटकता (हालांकि इन पंक्तियों का लेखक भी न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद क़साब को सज़ा देने का समर्थन करता है) देखना चाहते हैं, उन्हें अभी बहुत लंबा इंतज़ार करना होगा। अभी क़साब इंसाफ़ के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा सकता है। वहां भी केस पर लंबी बहस चलेगी। और अगर देश की सबसे बड़ी अदालत में भी क़साब को कोई राहत न मिली तो भी पाकिस्तानी आतंकी सर्वोच्च न्यायालय में ही पुनर्विचार याचिका दायर कर सकता है। और अदालत से पूरी तरह निराश होने का बाद आख़िर में क़साब राष्ट्रपति के यहां जीवनदान की अपील कर सकता है।
राष्ट्रपति के पास भी 2001 में संसद पर हमला करने की साज़िश रचने वाले मोहम्मद अफजल उर्फ अफ़ज़ल गुरू समेत करीब 30 मर्सी पिटिशन पहले से ही विचाराधीन हैं। इनमें से २४ राष्ट्रपति सचिवालय और तीन गृह मंत्रालय में विचाराधीन हैं जबकि दो पर राज्य सरकारों की राय की प्रतीक्षा है। राष्ट्रपति के यहां विचाराधीन अपील में अफ़ज़ल की याचिका का 27वां नंबर है। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि अफ़ज़ल की तमाम अपील को खारिज़ कर सुप्रीम कोर्ट 2004 में ही उसे फ़ांसी की सज़ा सुना चुका है। इस लश्कर आतंकी को 20 अक्टूबर 2006 को फ़ांसी दी भी जाने वाली थी। लेकिन राष्ट्रपति के दरबार में दया की गुहार लगाने के बाद उसकी फ़ांसी टल गई।
राष्ट्रपति के यहां विचाराधीन दया याचिकाओं के निबटारे की ताजा गति पर गौर करें तो अगले 10 साल तक अफजल की बारी शायद ही आए। मौके दर मौके राजनीतिक दल अफजल को फांसी पर लटकाने की मांग सरकार से करते रहे हैं।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली तल्ख़ लहज़े में कहते हैं कि जहां विधि का शासन है वहां किसी को पकड़कर ज़बरन फ़ांसी पर नहीं लटकाया जा सकता है। वे यह भी मानते हैं कि दया याचिकाओं के शीघ्र निबटारे के लिए क़ानूनगत प्रक्रिया में सुधार की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन ऐसे सुधार की पहल कब होगी, इसका ठीक-ठीक जवाब उनके पास भी नहीं है। क़ानून की यही विवशता रही तो अफ़ज़ल को लंबे समय तक फ़ांसी पर लटकाना मुमकिन नहीं लग रहा है। क्योंकि दया याचिकाओं के निबटारे की गति बेहद चिंताजनक है। गृह मंत्रालय की ही मानें तो पिछले एक वर्ष में एक भी दया याचिका का निबटारा नहीं किया जा सका है।
कहने का मतलब अफ़ज़ल को सज़ा सुनाने के छह साल बाद भी दंडित नहीं किया जा सका है तो क़साब को क़ानूनी प्रक्रिया मुक़म्मिल किए बिना कैसे फ़ांसी पर चढ़ाया जा सकता है। क़साब के लिए देश की ज्यूडिशियरी सिस्टम बदली तो नहीं जा सकती। लिहाज़ा क़साब को फ़ांसी देने की मांग करने वालों को लंबे इतज़ार के लिए तैयार रहना होगा।
वैसे, 1996 में शंकर दयाल शर्मा ने राजस्थान के राम चंद्र रावजी की दया याचिका पर छह दिन में ही फैसला सुनाया था। अपील राष्ट्रपति के पास 13 मार्च, 1996 को भेजी गई और 19 मार्च को खारिज हो गई। पिछले तीन दशकों में राष्ट्रपतियों ने केवल 77 क़ैदियों की दया याचिकाओं पर निर्णय दिया।
राष्ट्रपति के पास सबसे पुरानी दया अपील यूपी के श्याम, शिवराम, प्रकाश, रवींद्र और हरीश की है। फ़ांसी पर तामील करने का सबसे ताजा मामला छह साल पुराना है। 14 अगस्त 2004 को कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई। महाराष्ट्र में आखिरी बार 26 अगस्त, 1995 को सुधाकर जोशी को फांसी दी गई थी। उससे पहले जनरल अरुण कुमार वैद्य के हत्यारे सुक्खा और जिंदा 9 अक्टूबर, 1992 को फांसी पर लटकाए गए। फिलहाल राज्य में क़साब समेत 58 को मौत की सज़ा मिली है। सबकी अपील हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। एक दया याचिका राष्ट्रपति के पास है। देश में मृत्युदंड पाए क़ैदियों की संख्या 1177 है।
वैसे भी अगर पाकिस्तानी आतंकी अजमल क़साब को फ़ांसी दी जाती है तो सबसे पहले जल्लाद का जुगाड़ करना होगा। महाराष्ट्र में 1997 में आरएस जाधव के रिटायर होने के बाद से देश में कोई जल्लाद नहीं है। जेल मैनुअल के हिसाब से जल्लाद हर फ़ांसी पर अमल के एवज में 75 रुपये लेता हैं। पहले लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यह पेशा अपनाते थे, पर नई पीढ़ी इसमें नहीं आ रही। ब्रिटेन समेत 95 देशों में मृत्युदंड पर रोक है।
एक बात और क़साब के पक्ष में जाती है। दरअसल, आतंकवाद ज़हर भारत अस्सी के दशक से ही पी रहा है। पहले पंजाब में आतंकवाद और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी। यानी ख़ून-ख़राबे का सिलसिला शुरू होने के बाद से ही भारत पूरी दुनिया से कहता आ रहा है कि देश में मानवनिर्मित विनाश के लिए पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान ज़िम्मेदार है। लेकिन इस्लामाबाद नई दिल्ली के आरोप को सिरे से खारिज़ कर प्रत्यक्ष सबूत मांगता रहा है। यहां तक कि आतंकी के रूप में भारतीय सरज़मीन पर मारे गए अपने नागरिकों के शव भी लेने से पाकिस्तान कतराता रहा है। इसलिए क़साब भारत के लिए अहम है क्योंकि मुंबई आतंकी हमले के दौरान तुकाराम ओंबले द्वारा पकड़ा गया यह आतंकी वह ज़िंदा सबूत है जिसे पाकिस्तानी हुक़्मरान झुठला नहीं सके। इसीलिए क़साब देश का सबसे महंगा क़ैदी है और मुंबई के आर्थर रोड जेल में उसकी सुरक्षा पर हर रोज़ क़रीब 85 लाख रुपए ख़र्च हो रहे हैं। वस्तुतः पाकिस्तानी नागरिक के रूप में क़साब की पहचान के बाद ही भारत पड़ोसी मुल्क़ पर दबाव बनाने में क़ामयाब रहा। इतना ही नहीं, भारत में किसी भी आतंकी हमले में अपना हाथ होने की बात पहली बार पाकिस्तान ने क़बूल किया। चाहे वह ख़ानापूर्ति ही कर रहा है लेकिन दुनिया भर को बता तो रहा है कि हमले की साज़िश के सूत्राधार जकीउर रहमान लखवी समेत लश्कर-ए-तैयबा के कई लोगों के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी अदालत में आरोप पत्र दायर किया जा चुका है। अगर भारत ने कूटनीतिक प्रयास ऐसे ही जारी रखा तो इस्लामाबाद देर-सबेर लश्कर चीफ़ हाफ़िज़ मोहम्मद सईद के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए मज़बूर हो जाएगा। इसलिए भारत क़साब के रूप में मिले इस बेशकीमती सबूत की जान लेकर उसे नष्ट नहीं करना चाहेगा, यही बात क़साब की जीवन-अवधि बढा देगी। (समाप्त)
1 टिप्पणी:
लोकतंत्र देश के नागरिकों के लिए होना चाहिए, न कि दुश्मनों के लिए। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की दुदुंभी पीटते हुए हमें अपने दुश्मनों को यूं ही नहीं बख्श देना चाहिए। कसाब और संसद हमले के दोषी की मौत की सजा को टालना प्रकारांतर से उन्हें बख्शना ही है। इन्हें फौरन फांसी पर लटका देना चाहिए। इनके लिए इतना लिबरल होने की जरूरत नहीं है। रही कूटनीति के जरिए विश्व में पाकिस्तान का आतंकी चेहरा बेनकाब करने की बात तो उसके लिए कसाब के अलावा हमारे पास और भी तुरूप के इक्के हैं।
एक टिप्पणी भेजें