हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की वारदात से हर आदमी सदमे में है। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह यही आलम हैं। एक तरफ़ से लोग बहुत दुखी हैं। कहीं लोग आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं तो कहीं धरना प्रदर्शन। बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी की जा रही है। कहीं-कहीं तो रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर है, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो तालिबानी सोच वालों की तरह रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें। यह भी संभब है कि देश में अचानक बने इस जनादेश के दबाव के चलते केंद्र सरकार रेपिस्ट के लिए मौत सुनिश्चित करने वाला बिल यथाशीघ्र संसद में पेश कर दे और वह पारित होकर क़ानून भी बन जाए। अगर ऐसा क़ानून बना तो यह क़दम समीचीन ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक भी होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल आज यह खड़ा हुआ है कि इस क़ानून से रेप जैसे वीभत्स और हैवानियत भरे अपराध पर पूरी तरह अंकुश लग पाएगा? यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।
बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत का दंड देने से रेप की वारदातों पर विराम लगने की गारंटी आख़िर देगा कौन? क्या हत्या जैसे अपराध पर मौत की सज़ा का प्रावधान कर देने से हत्या की वारदात पर रोक लग गई? कोई तो बताए कि हत्यारों के लिए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर होने के बाद भी हत्याएं क्यो हो रही हैं? अभी महीने भर पहले कुख्यात हत्यारे कसाब को मृत्युदंड दिया गया। मगर हत्याएं लगातार हो रही हैं। इसका मतलब यही है कि जिस तरह फ़ांसी की सज़ा जैसे दंड के प्रावधान हत्याएं रोकने नाकाम हो रहे हैं, वैसे ही कैपिटल पनीश्मेंट रेप रोकने में कामयाब होगा, इस पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब पुरुष पर शैतान या हैवानियत की सवारी होती है तो वह क्वांटम ऑफ़ पनीश्मेंट भूल जाता है। लिहाज़ा इस क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद भी स्त्री की इज़्जत से खेलने का दुस्साहस जारी रह सकता है।
दरअसल, हम हिंदुस्तानी बहुत भावुक किस्म के होते हैं। भावुकता में इंसान का विवेक और तर्क-क्षमता गौण हो जाती है। वह संतुलित ढंग से सोच ही नहीं पाता। यह कोरी भावुकता किसी भी इंसान को किसी समस्या की जड़ तक पहुंचने नहीं देती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यह भावुकता सही मायने में समस्या को आइडेंटीफ़ाई करने में सबसे बड़ी बाधा होती है। जब तक इंसान भावुक होकर सोचेगा, किसी समस्या के सही हल का प्रतिपादन नहीं कर सकेगा। इसलिए आज भावुक होने की नहीं, बल्कि पहले इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि रेप जैसे अपराध को रोका कैसे जाए। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसा प्रावधान हो जाए कि रेप जैसा अपराध ही नियंत्रण हो जाए तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अगर इस बिंदु पर ग़ौर करेंगे तो सवाल उठेगा कि आख़िर बलात्कार जैसा जघन्य अपराध होता ही क्यों हैं। क्यों पुरुष औरत को एकांत में देखकर अपने विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, भूल जाता है और हैवान बन जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदणीय होती है, माता-बहन के समान होती है क्यों अविवेकी इंसान के लिए भोग की वस्तु बन जाती है? यानी किसी जगह स्त्री की कम संख्या से पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साफ मनमानी करते हैं। इस विषय पर गंभीरता और संयम से विचार करने के बाद लगता है कि रेप ही नहीं, महिलाओं पर होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए हमारे समाज का ताना-बाना ही मुख्यतौर पर ज़िम्मेदार है। हमारा समाज बुरी तरह मैल-डॉमिनेटेड है। ऐसे समाज में स्त्री पुरुष की बराबरी कर ही नहीं सकती क्योंकि यह ढ़ांचा स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक यानी सेकेंड सेक्स का दर्जा देता है। सभ्यता के विकास के बाद जब से मौजूदा समाज प्रचलन में आया है तब से स्त्री दोयम दर्जे की ही नागिरक रही है। शहरों में लड़कियों को जींस-टीशर्ट में देखकर हम कुछ समय के लिए भले ख़ुश हो लें कि समाज में महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं लेकिन सच तो यह है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी कर ही नहीं पाई। यह एक स्त्री से बेहतर और कौन जान सकता है। दरअसल, पुरुष-प्रधान समाज की मानसिकता ही स्त्री को बराबरी का दर्जा देने भी नहीं देती।
आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में वे प्रावधान किए जाएं जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाएं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। जो लोग दिल्ली गैंगरेप पर आंसू बहा रहे हैं, क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा दिए या देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? टीवी न्यूज़ चैनलों पर सभी ने जया बच्चन को राज्यसभा में भावुक होते और आंसू बहाते देखा। क्या जया स्त्री के प्रति बायस नहीं हैं? क्या उनके घर में बेटी श्वेता को ग्रो करने का बेटे अभिषेक जैसा माहौल मिला? अमिताभ-जया की विरासत को क्यों अकेले अभिषेक ही संभाल रहे हैं? क्या बॉलीवुड के सबसे बड़ी फ़ैमिली में श्वेता को अप्रत्यक्ष तौर पर यह नहीं बताया गया कि वह लड़की है लिहाजा पिता या माता की विरासत नहीं संभाल सकती? इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लें, गांधी परिवार में राहुल से ज़्यादा टैलेंटेड होने के बावजूद प्रिंयका क्यों हाउस-वाइफ़ बना दी गई हैं? क्या राजनीति की सबसे प्रतिष्ठित फ़ैमिली में प्रियंका नारी होने की कीमत नहीं चुका रही हैं?राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दे तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभाल रहा है। नवीन पटनायक, उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव जैसे पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यह नहीं दर्शाता कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात हो रहा है। इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इसलिए बन सकीं क्योंकि नेहरू को पुत्र नहीं था। इसी तरह उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बन रही हैं जहां पुत्र हैं ही नहीं। जब विकसित परिवारों यानी रूलिंग फ़ैमिलीज़ में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे हो रहा है तो इस तरह के माहौल में दूर-दराज़ और पिछड़े इलाकों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, कोई भी सहज कल्पना कर सकता है। हमारी संसद और सांसद महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाला बिल तो पास नहीं कर पाए। फिर ये लोग गैंगरेप पर आंसू क्यों बहा रहे हैं? ज़ाहिर है, सोनिया गांधी, जया बच्चन, सुषमा स्वराज जैसे राजनेता का स्त्रीप्रेम हक़ीक़त से परे लगता है। महिला आरक्षण पर इन नेताओं का मौन इन्हें पुरुष-प्रधान समाज की पैरोकार ही नहीं बनाता बल्कि यह भी दर्शाता है कि इन महिला नेताओं की भी पुरुषों की तरह महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने में कोई दिलचस्पी नहीं। सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। अगर सचमुच ये लोग महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के हिमायती हैं तो संसद और राज्य विधान सभाओं समेत देश की हर जनपंचायतों में 33 फ़ीसदी नहीं बल्कि 50 फ़ीसदी जगह महिलाओं के लिए सुनिश्चित कर दें। देश में महिलाओं-आबादी फ़िफ़्टी परसेंट है तो आरक्षण 33 फ़ीसदी क्यों? एक बात और, महिला आरक्षण का लाभ केवल एडवांस परिवारों यानी राजनीतिक परिवार की लड़कियां या महिलाएं ही हाईजैक न करें, बल्कि इसका लाभ सामाजिक रूप से पिछड़े समाज यानी ग़रीब, आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुस्लिम परिवार की महिलाओं को मिले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। चूंकि देश में आधी जनसंख्या महिलाओं की है, लिहाज़ा उनके लिए हर जगह 50 फ़ीसदी जगह आरक्षित की जानी चाहिए। विधायिका ही नहीं, कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, आर्मफोर्स, न्यायपालिका, मीडिया हाउसेज़ और धार्मिक संस्थानों में आधी आबादी महिलाओं की हो। सरकारी और निजी संस्थानों की नौकरियों में 50 प्रतिशत जगह महिलाओं को दी जानी चाहिए। बैंक हो, यूनिवर्सिटी हो या अन्य संस्थान हर जगह आधी जगह महिलाएं हों। महिला घर में क्यों बैठें? वह काम पर क्यों न जाएं? अगर 50 फ़ीसदी महिलाएं काम पर जाएंगी तो घर के बाहर उनकी विज़िबिलिटी पुरुषों के बराबर होंगी। इससे उनका मोरॉल बुस्टअप होगा। जब सड़क, बस, ट्रेन, प्लेन और दफ़्तरों में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के बराबर होगी तो किसी पुरुष की ज़ुर्रत नहीं कि वह महिला की ओर बुरी निग़ाह से देखे तक। क्योंकि महिलाओं की कम संख्या लंपट पुरुषों को प्रोत्साहित करती है। इस मुद्दे पर जो भी ईमानदारी से सोचेगा वह इसका समर्थन करेगा और कहेगा कि महिलाओं को अबला या कमज़ोर होने से बचाना है तो उन्हें इम्पॉवर करना एकमात्र विकल्प है। जब संसद में 770 सदस्यों में से 385 महिलाएं होंगी, केंद्र और राज्यों के मंत्रिमंडल में महिला-पुरुष बराबर होंगे, ब्यूरोक्रेसी में 50 प्रतिशत स्त्री होगी, अदालतों में 50 फ़ीसदी जज महिलाएं होंगी, पुलिस थानों में पुलिस वालों की आधी संख्या लड़कियों की होगी तो अपने आप महिला पुरुष की बराबरी कर लेंगी। वह बिना किसी क़ानून के सही-सलामत औ महफ़ूज़ रहेगी।
लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष पुरुष-प्रधान समाज अपनी सत्ता महिलाओं को सौंपेगा?सबसे बडा सवाल यह है। इसमें हमारी परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत है। अगर हम सही मायने में महिलाओं के पुरुष के बराबर खड़ा करने की परिकल्पना करते हैं तो हमें तुलसीदास जैसे कवियों को ख़ारिज़ करना पड़ेगा जो ‘ढोल, गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ जैसी चौपाई रचता है। हमें उस काव्य और उसके रचयिता को अस्वीकार करना पड़ेगा, जहां पत्नी की अग्निपरीक्षा लेने वाले और उसे गर्भकाल घर से निकालकर जंगल में भेजने पति को‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ से अलंकृत किया जाता है। हमें उस महाकाव्य और उसके लेखक का बहिष्कार करना होगा जो पत्नी को दांव पर लगाने वाले जुआड़ी पति को ‘धर्मराज’ मानता है। हमें उन सभी ग्रंथों किताबों की होली जलानी होगी जो पति को ‘परमेश्वर’ और पत्नी को ‘चरणों की दासी’ मानता है। इतना ही नहीं हमें उन त्यौहारों की तिलांजलि देनी होगी जिसमें स्त्री को पति की सलामती के लिए व्रत रहने का प्रावधान करता है। इसके अलावा स्त्री को घूंघट या बुरके पहनने को बाध्य करने वाली नारकीय परिपाटी भी छोड़नी होगी। लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है क्या यह समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो उस बदलाव की शुरुआत तुरंत हो जानी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप या अन्य अपराध पर घड़ियाली आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि वस्तुतः यह समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का क़ानून बना दिया जाए। यानी पुरुष प्रधान समाज है, रेप तो होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।
(समाप्त)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें