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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

लड़की की पहचान छिपाना क्या पुरुषवादी सोच व पिछड़ेपन की निशानी नहीं?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बीजेपी लीडर सुषमा स्वराज ने जब लोकसभा में बयान दिया कि बलात्कार की शिकार लड़की अगर भविष्य में ठीक हो जाती भी है, तो वह एक ‘जिंदा लाश’ की तरह रहेगी। लोकसभा में विपक्ष की नेता का यह बयान ढेर सारे लोगों को बहुत ही नागवार लगा। कई राष्ट्रीय टीवी चैनल्स पर तो इस मसले पर ज़ोरदार बहस हुई, जहां सुषमा स्वराज को जमकर कोसा गया। दरअसल, उनके बयान का अर्थ निकाला गया कि रेप का शिकार होने का बाद महिला की दशा समाज में ‘अछूत’ की तरह हो जाती है। कोई उससे रिश्ता नहीं जोड़ना चाहता। आलोचकों का तर्क था कि समाज 21वीं सदी में पहुंच गया है, उसकी सोच बदल गई है। ख़ासकर रेप-विक्टिम को लेकर लोगों का नज़रिया उदार हो गया है। आधुनिक समाज में अब रेप-विक्टिम के लिए आइडेंटटिटी क्राइसेस नहीं हैं। इसलिए सुषमा स्वराज के बयान से असहमति जताई गई, उसकी आलोचना की गई। पूरा देश, ख़ासकर उस नारी जमात ने इस आलोचना से बड़ी राहत की सांस ली थी जो रेप जैसे दुःस्वप्न का शिकार रही है या जो दिन रात रेप या छेड़छाड़ के ख़तरे के साए से घिरी रहती है।


मगर दस दिन बाद सुषमा स्वराज तो कोसने वालों की कलई खुल गई। राजनीतिक समाज, सरकार और मीडिया के पुरुषवादियों ने भी तो वहीं किया, जिसकी आशंका सुषमा स्वराज ने जताई थी। ‘प्राइवेसी ऑफ़ द फ़ैमिली’ के नाम पर शहीद ब्रेवहार्ट ‘राष्ट्र की बेटी’ की पहचान ही छिपा ली गई। कहा गया कि पीड़ित लड़की के परिवार की प्राइवेसी पर कोई आंच न आए, इसलिए उसके पार्थिव शरीर को सिंगापुर से स्वदेश लाने तक बेहद गोपनीयता बरती गई। हालांकि सरकार का यह क़दम समाज के एक बड़े तबक़े, ख़ासकर महिलाओं को हजम नहीं हुई।

अगर सही पूछा जाए तो इस तरह की गोपनीयता की कोई ज़रूरत थी ही नहीं। लिहाज़ा इस क़दम को इंडियन मीडिया की बीमार, पिछड़ेपन और ‘पुरुषवादी’ सोच का परिणाम कहा जाना चाहिए। जो आज 21वीं सदी भी आदम के ज़माने में जी रहे हैं, जहां बलात्कार का शिकार होने के बाद लड़की अछूत मान ली जाती है, वह ज़िंदा लाश मान ली जाती है। उसका जीवन नरकमय मान लिया जाता है। सो इनसे बचने के लिए उसकी ही नहीं, उसके परिवार और निवास स्थान को छिपा दिया जाता है। यह खालिस पुरुषवादी मानसिकता का परिणाम है। इसी मानसिकता का जिक्र गाहे-बगाहे सुषमा स्वराज ने किया था जिस पर ऐतराज़ किया गया और फिर ख़ुद उसी परपंरा का पालन किया गया।

इस बात से गहरी निराशा हुई कि पुरुष-प्रधान मीडिया ने चालाकी से एक कुर्बानी, एक शहादत, एक सेक्रिफ़ाइस पर पानी ही नहीं फेरा, बल्कि बहादुर लड़की को गुमनामी में ढकेल दिया। कैसी बिडंबना है कि जो बहादुर लड़की छह-छह बलात्कारियों से लड़ी। और अपने साहस के चलते आज देश भर की लड़कियों ही नहीं, समस्त युवाओं की रोल मॉडल होनी चाहिए थी, उसे कोई कभी जान नहीं सकेगा कि आख़िर वह कौन थी? किस बहादुर माता-पिता की संतान थी और कहां की रहने वाली थी? मगर आनन-फ़ानन में गोपनीय रखने के फ़ैसले ने उसकी शहादत को व्यर्थ जाने दिया। जहां हर जगह महिलाओं के प्रति लोगों, खासकर पुरुषों के माइंडसेट में बदलाव के लिए कोशिशें हो रही हैं वहीं इस तरह की घटनाएं लोगों को हतोत्साहित करने वाली हैं।


कितनी दुखद बात है कि लड़की की दिलेरी का गुणगान करने की बजाए पूरा देश अचानक खुद शर्मिंदा हो गया। उसका गुपचुप अंतिम संस्कार कर दिया गया। आख़िर क्यों? इसमें उस मासूम की क्या गलती थी? अगर वह दरिंदों की हवस का शिकार हुई तो इसमें उस मासूम का क्या दोष? उसकी पहचान छिपाने की आख़िर ज़रूरत क्यों महसूस की गई
? उसकी पहचान छुपाकर क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही है? यही कि लड़कियों ध्यान रखना इस तरह की कोई अनहोनी अगर तुम्हारे साथ हुई तो तुम्हें भी यह देश अछूत समझेगा! तुम्हें मरने के बाद सबकी नजरों से बचाकर चुपचाप दफ़न कर दिया जाएगा या तुम्हारी चिता जला दी जाएगी!

नारी को बराबरी का दर्जा देने वाले उम्मीद कर रहे थे कि कम से कम मरणोपरांत तो उस बहादुर लड़की की पहचान सार्वजनिक की जाएगी। उसके माता-पिता को 'बहादुर लड़की का मां-बाप' होने के लिए सम्मानित किया जाएगा। उसका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा। सात तोपों की सलामी दी जाएगी। पार्थिव शरीर के चहरे को खुला रखा जाएगा या उसकी एक फोटो रखी जाएगी। सब कुछ टीवी कैमरे के सामने लाइव होगा। और पूरी दुनिया जानेगी कि भारतीय समाज सचमुच बदल गया है, वहां लोग बलात्कार की शिकार बेटी के साथ किसी तरह का पक्षपात नहीं करते, उसे अछूत नहीं मानते, उसे उतना ही प्यार और सम्मान देते। जितना बेटों को। लेकिन, सारी उम्मीद धरी की धरी रह गई। चोरी से उसकी अंतिम संस्कार कर दिया गया।


दरअसल, माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में लड़की की मौत के बाद राजनीतिक जमात के चंद पुरुषवादी सोच के पैरोकारों के दिमाग़ में ख़ुराफ़ात आई कि लड़की का पार्थिव दिल्ली लाते समय अगर टीवी पर दिखाया गया तो उसके परिवार के प्राइवेसी डैमेज हो जाएगी। इस आशंका से सरकार को अवगत कराया गया, जहां पुरुषों का ही वर्चस्व है लिहाज़ा फ़ैसला किया गया कि पीड़ित के परिवार की ‘प्राइवेसी’ का सम्मान हो और अंतिम संस्कार को टीवी पर न दिखाया जाए। सरकार ने चैनल प्रमुखों को बताया गया कि इसे टीवी पर न दिखाया जाए। वहां भी पुरुष-प्रधान समाज के पैरोकार थे, सरकार ने तो उनके मन की बात कह दी थी। तुरंत स्वीकार कर लिया और सब कुछ गोपनीय रख लिया गया।


मज़ेदार बात यह है कि फोटो समेत लड़की के बारे में पूरा विवरण सोसल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और इंटरनेट के ज़रिए आमतौर पर हर भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेश में भी लोगों के पास पहुंच गया है। यानी गोपनीयता जैसी कोई बात रही ही नहीं। मतलब जिस मकसद से भारत की बहादुर बेटी का नाम छिपाया गया वह मकसद पूरा नहीं हो सका और उसकी पहचान पब्लिक हो गई। आज हर आदमी उसकी तस्वीर देख रहा है। इन पंक्तियों के लेखक के पास भी उसकी तस्वीर और पूरा विवरण है।


जहां तक रेप या अन्य सेक्सुएल असॉल्ट विक्टिम्स की ख़बर की बात है तो मीडिया अकसर रेप विक्टिम्स की बाइट दिखाती है। तब उसकी आवाज़ तो सभी सुनते हैं। गोपनीयता के नाम पर केवल उसकी नाक तक चेहरा ढंका जाता है। जिससे उसकी पहचान अप्रत्यक्षरूप से सार्वजनिक हो ही जाती है। कई बार पीड़ित का फुटेज़ इस तरह व्लर किया जाता है कि देखने वाला जान जाता है कि वह कौन है। इसी तरह प्रिंट मीडिया में भी नाम बदल देने की परिपाटी है। हालांकि इन सब कवायदो से उसकी पहचान छिपती नहीं। 

दरअसल, लैंगिक अपराध की शिकार लड़कियों की पहचान छिपाने की परंपरा भी सोसाइटी में मेल डॉमिनेश की प्रतीक है। तर्क ये दिया जाता कि आगे चलकर इसका असर लड़की के पारिवारिक जीवन पर न पड़े। कोई उससे शादी करने से इनकार न करे। इसलिए उसकी पहचान गोपनीय रखने की कोशिश की जाती है। हालांकि ये तर्क ही एकदम बेहूदा है।

दरअसल, यह बड़ा खूबसूरत अवसर था। बलात्कार पीड़ित स्त्रियों के बारे में समाज के नज़रिए में बदलाव की पहल करने का। लेकिन दुर्भाग्य से पुरुष-प्रधान समाज के रहनुमाओं ने स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखने के लिए वह पहल नहीं होने दी।

(समाप्त)

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